एक ही परम तत्व परमपुरुष पराशक्ति के रूप में सर्वत्र व्यापक है। श्रुतियों, शास्त्रकारों ने एक ही चिरंतन शक्ति को कभी पुरुष के रूप में तो कभी देवी के रूप में स्वीकारा है। सब के घट में एक समान विराजमान वह दिव्य शक्ति प्रकाश के रूप में हमेशा मौजूद रहती है जिसे 'जीवन शक्ति' कहा जाता है और उसका दर्शन होना ही 'शक्ति ' की आराधना है। दुष्टों का संहार करके भक्तों की रक्षा करने हेतु कभी काली तो कभी दुर्गा या फिर राम और कृष्ण के रूप में उस शक्ति का अवतरण इस धरा पर हुआ है।
मां अम्बे की पूजा - अर्चना का विधान वेद, पुराण , उपनिषदों हिन्दुओं के अन्य धर्मशास्त्रों में भी मिलता है। वेद में 'एकोएहं बहुस्याम ' और 'अजाय मानों बहुधा ब्यजायत ' के रूप में और देवी पुराण में 'सा वाणी साच सावित्री विप्राधिष्ठात ' वहां सर्व दुर्गा के रूप में संस्थापित है। मार्कण्डेय पुराण में स्वयं मान जएकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा। पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः अर्थात मैं ही दुर्गा हूँ , सर्व शक्ति स्वरूपा हूँ और मुझमें ही पूरी सृष्टि विलीन है। आशय यह है कि यह विशाल सृष्टि उत्पन्न होती है, बढ़ती है, विभिन्न रूपों में परिवर्तित होती है और अंत में विनिष्ट हो जाती है।
देवी पुराण में एक बड़े रोचक कथा प्रसंग की चर्चा की गयी है। अक्सर भ्रम में पड़ जाने वाले देवर्षि नारद को एक बार भ्रम हो गया। ब्रह्मा , विष्णु और महेश तीनों सर्वश्रेष्ठ हैं तो भला ये तीनों किस महाशक्ति का स्मरण करते हैं ? नारद जी अपने सन्देश निवारण हेतु शिव के पास गए और बोले 'मुझे ब्रह्मा , विष्णु और महेश से बढ़कर कोई अन्य देवता नहीं दिखाई देता है फिर आप तीनों से ऊंचा कौन है जिसकी उपासना और स्मरण आप करते हैं ' ? शिव मुस्कुराये और बोले 'हे ऋषिवर ' सूक्ष्म और शूल शरीर से परे जो महाप्राण आदिशक्ति (जगदम्बा ) है वही तो परब्रह्म स्वरुप है - वह केवल अपनी इच्छा मात्र से ही सृष्टि की रचना, पालन और संहार करने में समर्थ है। वस्तुतः वह आदिशक्ति (दुर्गा ) निर्गुण स्वरूप है परन्तु उसे किसी भी रूप मे मन समय -समय पर धर्म की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए साकार होना पड़ता है। इसी समय-समय पर ,पार्वती दुर्गा , काली , चंडी , सरस्वती आदि अवतार धारण किये हैं। इसी जगत जननी का सभी देव स्मरण करते हैं।
वैसे भी आदिशक्ति स्वरुप दुर्गा में सभी देवताओं का कुछ न कुछ अंश शामिल है। दुर्गाशप्तशती के दूसरे अध्याय में देवी स्वरुप का वर्णन करते हुए बतलाया गया है भगवान शंकर के तेज से उस देवी का मुख प्रकट हुआ , यमराज के तेज से मस्तक के केश , विष्णु के तेज से भुजाएं , चन्द्रमा के तेज से स्तन , इंद्रा के तेज से कमर , वरुण के तेज से जंघा , पृथ्वी के तेज से नितम्ब , ब्रह्म के तेज से चरण , सूर्य के तेज से दोनों पैरों की अंगुलियां, वसुओं के तेज से दोनों हाथों की अंगुलियां , प्रजापति के तेज से सम्पूर्ण दांत , अग्नि के तेज से दोनों नेत्र , संध्या के तेज से भौहें , वायु के तेज से कान , अन्य देवताओं के तेज से देवी के भीं- भीं अंग बने। इसी प्रकार सभी अमोघ शक्तियों से दुर्गा के रूप में एक आदिशक्ति का सृजन किया गया इसलिए यह स्वरुप सभी देवताओं के लिए स्मरणीय हो गया।
जो विद्वानों के के लिए स्मरणीय हो वह लोगों के लिए विस्मरणीय भला कैसे हो सकता है। परिणामतः कलियुग में भी आज दो नवरात्रि के रूप में माँ जगदम्बा की पूजा जारी है। शारदीय और वासंतीक नवरात्र। शारदीय नवरात्र आश्विन मास में और वासंतिक नवरात्र अभी चैत्र माह में होते हैं। इसी चैत्र वर्ष प्रतिपदा से हिन्दुओं का नया संवत्सर शुरू होता है। दोनों नवरात्र का समान महत्व है। नौ दिन और नौ रातों तक मान जगदम्बे भगवती के नौ अलग -अलग रूपों की पूजा की जाती है।
यह आज तक रहस्य बना हुआ है। दुर्गा की पूजा सबसे पहले राम ने की या किसी और ने, लेकिन इतना तय है लंका पर चढ़ाई और रावण वध से पहले राम ने आदिशक्ति स्वरूप मानकर दुर्गा जी की पूजा की। यह स्थान भी रामेश्वरम के नाम से जाना जाता है। नवरात्र महोत्सव आसुरी शक्ति पर दैवीय शक्ति की विजय का प्रतीक है। नवरात्र में प्रथमा से लेकर नवमी तक शक्ति के 9 स्वरूपों की पूजा -अर्चना होती है। ये नौ शक्तियां बहनों का स्वरुप हैं और इन नौ शक्तियों के विभिन्न नाम रूप के कारण 'शारदीय नवरात्र ' उत्सव का उल्लास देखते ही बनता है। नवरात्र की पूरे देश में विशेष धूम रहती है। इन 9 दिनों में लोगों की भक्ति भावना, आस्था और शक्ति देखते ही बनती है। दर्जा माता की नौ शक्तियों के नाम हैं - शैलपुत्री , ब्रह्मचारिणी , चंद्रघटा , कुष्मांडा , स्कंदमाता , कात्यायिनी , कालरात्रि , महागौरी और सिद्धदात्री। नवरात्र में अंतिम दिन पर कन्या पूजा का विशेष महत्व है। नौ कुमारी कन्याओं को देवी स्वरुप मानकर लोग उनका विशेष पूजन भोजन , वस्त्रादि, उपहार देकर करते हैं।
कन्या पूजन में दो वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक की कन्याओं को पूजा जाता है। दस वर्ष से अधिक वर्ष की कन्याओं का पूजन वर्जित। दो वर्ष की कन्या ' कन्याकुमारी' , तीन वर्ष की 'त्रिमूर्तिनी' , चार वर्ष की 'कल्याणी' , पांच वर्ष की 'रोहिणी' , छह वर्ष की ;'काली', सात वर्ष की 'चंडिका' , आठ वर्ष की ' शम्भवी', नौ वर्ष की 'दुर्गा' और दस वर्ष की 'सुभद्रा' स्वरूपा मानी गयी है।
कोई भी पर्व हो उसके पीछे मकसद होता है सुख, शांति और समृद्धि के साथ परमानन्द की प्राप्ति। नवरात्र में की गई पूजा मानव मन की मलिनता को दूर करके भगवती दुर्गा के चरणों में लीन होकर जीवन में सुख, शांति और ऐश्वर्य की समृद्धि लाती है। यज्ञ - हवन के कारण अनेक व्याधियों से मुक्ति होने की वैज्ञानिक पुष्टि भी होती है। उस शक्ति स्वरूपा का दर्शन करना मानव जीवन का लक्ष्य है और इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु इन नवरात्रों में विशेष प्रयास करना चाहिए। नवरात्र अर्थात शक्ति की आराधना का महापर्व है और इसे सौद्देश्य मनाना चाहिए जिससे सुख शांति , अर्थ ,धर्म , काम , मोक्ष का पुरुषार्थ भी सफल हो।
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