‘दक्षिण का द्वार’ कहे जाने वाले कर्नाटक में चुनाव प्रचार अपने अंतिम चरण पर पहुंच गया है। कर्नाटक में भाजपा और कांग्रेस सीधे आमने- सामने हैं और यहाँ की जीत 2024 के लोकसभा चुनावों में माइलेज लेने में कारगर साबित हो सकती है। 2024 के आम चुनावों से ठीक पहले कर्नाटक के ये चुनाव परिणाम विपक्षी गठबंधन की धुरी बनाने में भी मददगार साबित हो सकते हैं। कर्नाटक में 10 मई को होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर सभी पार्टियों के नेता जोर आजमाइश करते दिखाई दे रही है। कर्नाटक में कमल में खिलाकर जहां वर्तमान में भाजपा दक्षिण भारत के तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों के लिए तैयार होना चाहती है, तो वहीं कांग्रेस यहां सत्ता में वापसी कर भाजपा को दक्षिण की राजनीति में पीछे धकेलने की पुरजोर कोशिश कर रही है। जनता दल (सेक्युलर) भी ‘किंगमेकर’ बन इन चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के सामने चुनौती पेश करने की पूरी कोशिशें कर रही है।
Monday 8 May 2023
दक्षिण के दुर्ग कर्नाटक में जीत की छटपटाहट
असल चुनौती भाजपा के सामने है जहाँ उसके सामने अपनी सरकार को फिर से सत्ता में लाने की है। यही कारण है कि चुनाव प्रचार के अंतिम हफ़्तों में भाजपा ने अपनी पूरी ताकत कर्नाटक में कमल फिर से खिलाने को झोंक दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना पूरा प्रचार डबल इंजन पर फोकस कर रहे हैं। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के आक्रामक प्रचार के जरिए कांग्रेस को बैकफुट में डालने का काम कर रहा है तो दूसरी तरफ बोम्मई सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को प्रो इंकम्बैंसी में बदलने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री मोदी कर्नाटक में अपने रोड शो और बड़ी सभाओं के जरिए दिन -रात पसीना बहा रहे हैं। मोदी की खूबी ये है उनके रहते लोकसभा चुनाव में पिछली बार भाजपा ने 61 फीसदी वोट पाए जो बड़ा करिश्मा था। कांग्रेस कर्नाटक के चुनाव प्रचार के ऐलान से पहले तक कर्नाटक में जहाँ भाजपा पर स्थानीय मुद्दों भ्रष्टाचार , महंगाई , किसानों की समस्याएं , नंदिनी डेरी, बेरोजगारी , पानी सरीखे मुद्दों के आधार पर बसवराज बोम्मई की सरकार जबरदस्त बढ़त बनाये हुई थी वहीँ पिछले दो हफ़्तों से कर्नाटक में भाजपा चुनाव प्रचार में काफी आगे निकल आई है जिसने इस चुनावों के फोकस को बदलकर रख दिया है। इसमें प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित भाई शाह की रणनीति ने बड़ा असर किया है। 2018 में पार्टी का वोट शेयर 36 .35 प्रतिशत था जो इस बार प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों में की जा रही बड़ी अपील के जरिये बढ़ने का अनुमान लगाया जा रहा है। येदियुरप्पा को नेतृत्व देकर भाजपा को कर्नाटक में, खासकर उत्तरी हिस्सों में लिंगायतों का बड़ा समर्थन विरासत में मिला। भाजपा ने अन्य समुदायों का समर्थन जुटाने के लिए भी इस बार ताबड़तोड़ प्रयास कर रही है ।
बतौर मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने राज्य के बजट में ‘विकास’ कार्यों के लिए विभिन्न हिंदू मठों और मंदिरों को वित्तीय अनुदान देने का प्रावधान शुरू किया था, जो वर्तमान मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई के दौर में भी जारी रहा, जहाँ इनके लिए 1,000 करोड़ रुपये की राशि दी गई । कर्नाटक में चुनावी लाभ के लिए भाजपा ने कई पिछड़ी जातियों के लिए कल्याणकारी योजनाएं भी शुरू की हैं । 2019 के बाद से इसने एक दर्जन से अधिक अगड़ी और पिछड़ी जातियों के लिए विकास बोर्डों का गठन किया गया है। इसी तरह अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण कोटा को तीन प्रतिशत से बढ़ाकर सात प्रतिशत करने की घोषणा हुई है। बोम्मई सरकार ने आंतरिक आरक्षण के लिए ताकतवर दलितों की लंबे समय से चली आ रही मांग को लागू करने का भी फैसला किया है । भाजपा ने धार्मिक आधार पर आरक्षण का बड़ा विरोध किया और 4 फीसदी मुस्लिम आरक्षण खत्म करने की बड़ी बात की, जिसे वोक्कलिक्का और लिंगायत समुदायों में 2 -2 फीसदी बांटने का ऐलान किया है लेकिन इन सबके बीच पार्टी के बड़े लिंगायत नेता और पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार और पूर्व उप मुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी ने पार्टी छोड़ी जिसका उनके समुदाय पर अच्छा असर नहीं हुआ है। कम से कम अपने जिले में दोनों नेता वोट प्रभावित कर सकते हैं लेकिन भाजपा को इन नेताओं से अब भी उम्मीद है। तभी पार्टी के नेता शेट्टार या सावदी पर चुनावी सभाओं पर हमला नहीं कर रहे हैं । शेट्टार ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह या पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को अपने निशाने पर नहीं लिया है । उनके निशाने पर सिर्फ भाजपा के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष हैं। राजनीती में रूठने और मनाने का सिलसिला चलता रहता है , इसी वजह से भाजपा नेता उम्मीद कर रहे हैं कि विधानसभा चुनाव के निपटने के बाद इन नेताओं को मना कर पार्टी में वापस लाया जा सकता है।
राज्य में 10 मई को 224 विधानसभा सीटों के लिए मतदान होगा। इस चुनाव में कुल पांच करोड़ 21 लाख 73 हजार 579 मतदाता अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे। इनमें 2 .59 करोड़ महिला, जबकि 2.62 करोड़ पुरुष मतदाता हैं। राज्य में कुल 9 .17 लाख मतदाता ऐसे होंगे, जो पहली बार वोट डालेंगे। मध्य कर्नाटक क्षेत्र में 35 सीटें हैं, इनमें इस बार भाजपा अच्छा करती नजर आ रही है। भाजपा का वोट शेयर भी पहले के मुकाबले बढ़ने के प्रबल आसार हैं। बेंगलुरू में बेंगलूरू, जहां कुल 28 सीटें हैं, वहां खराब सड़कों और जलभराव चुनावी संभावनाओं पर पलीता लगा सकता है। यहाँ पर प्रधानमंत्री मोदी का बार -बार डबल इंजन लाने का फैक्टर कितना असर करेगा, ये कह पाना मुश्किल है। उत्तर कर्नाटक में भी भाजपा और कांग्रेस बराबरी की लड़ाई लड़ रहे हैं। सेंट्रल कर्नाटक में भी भाजपा और कांग्रेस में मुकाबला कड़ा है। हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र की 31 सीटों पर कांग्रेस, भाजपा पर भारी दिखाई देती है। इसी तरह से मुंबई-कर्नाटक क्षेत्र की 50 सीटों में कांग्रेस को अच्छा प्रदर्शन करने की पूरी उम्मीद है। कर्नाटक - हैदराबाद में भाजपा को कांग्रेस के साथ कड़ा संघर्ष करना पड़ा रहा है। तटीय कर्नाटक और मध्य कर्नाटक की 44 सीटें राज्य में महत्वपूर्ण हैं। भाजपा को अगर राज्य में फिर से अपनी सरकार बनानी है तो इस पूरे इलाके में उसे अच्छा प्रदर्शन करना ही होगा। मध्य कर्नाटक की इन सभी सीटों से राज्य में 5 पूर्व मुख्यमंत्रियों का प्रभाव रहा है। यहाँ पर लिंगायतों का जबरदस्त असर देखा जा सकता है। पूर्व सीएम येदियुरप्पा का करिश्मा यहाँ हर बार भाजपा को फायदा पहुंचाता रहा है लेकिन इस बार येदियुरप्पा चुनावी राजनीती की बिसात में फिट नहीं बैठे हैं और उतनी ऊर्जा के साथ चुनाव प्रचार में नजर नहीं आये हैं।
औरंगजेब की बीजापुर और गोलकुंडा की विजय ने उसके लिए दक्षिण का मार्ग खोला था उसी तरह से येदियुरप्पा के रहते ही भाजपा को दक्षिण भारत में जीत मिली और कर्नाटक में भाजपा की राज्य में पहली बार सरकार बनी थी। वे 2007 से लेकर 2021 के बीच चार बार मुख्यमंत्री बने। जुलाई 2021 में उन्हें पार्टी ने मुख्यमंत्री का पद छोड़ने के लिए राजी किया लेकिन कुछ ही महीनों बाद पार्टी नेतृत्व को अहसास हो गया कि उन्हें किनारे करके पार्टी कर्नाटक में चुनाव नहीं जीत सकती। उसके बाद से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने येदियुरप्पा को अपनी चुनावी बिसात में साथ रखा है और अपनी सभाओं में उनकी तारीफ भी की है जो आज भी लिंगायत समुदाय में येदियुरप्पा की गहरी पैठ को बताता है। लेकिन येदियुरप्पा की अपील लिंगायत मतदाताओं पर कितना असर करेगी ये देखने की बात होगी? पार्टी ने मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई को इस चुनाव के लिए मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया है। पार्टी घोषित तौर पर नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ रही है। ऐसे में चुनावी राजनीती से दूर होकर येदियुरप्पा भाजपा की कितनी सीटों पर अपना मैजिक दिखाएंगे ये देखना होगा ?
राज्य के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई भी लिंगायत मुख्यमंत्री हैं लेकिन येदियुरप्पा की तरह वो लिंगायतों के बड़े वर्ग में अपनी पकड़ बनाकर भाजपा का पुराना वोट शेयर बढ़ा ले जायेंगे इस पर संशय बना हुआ है। राज्य के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई की सरकार पर 40 प्रतिशत भ्रष्टाचार के आरोपों को भुनाने में कांग्रेस यहाँ पीछे नहीं है जो उसकी दिखती हुई रग है, साथ ही राज्य में बुनियादी समस्याओ को लेकर नाराजगी है। पार्टी के तमाम सिटिंग एमएलए से जनता की उतनी नाराजगी नहीं है जितनी मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई से है। ऐसे में भाजपा के सामने मुश्किलें पेश आ रही हैं। इसे देखते हुए अब भाजपा ने नया राग छेड़ा है मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई को काम करने का काम समय मिला। ये अपील मतदाताओं के दिलो -दिमाग पर कितना असर करेगी कुछ कहा नहीं जा सकता। आज भी प्रधानमंत्री मोदी के साथ प्लस पॉइंट उनकी लोकप्रियता है। आज भी चुनाव में मोदी फैक्टर बड़ा गेम बदलने का माद्दा रखता है।
वैसे भी कर्नाटक पहले से ही राजनीति में अपने नाटक के लिए देश में मशहूर रहा है। भाजपा ने एंटी इंकम्बैंसी को देखते हुए और 2024 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए इस बार कर्नाटक में 52 नए प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है जहाँ पर प्रधानमंत्री अपनी ताबड़तोड़ सभाओं से माहौल को अपने पक्ष में करने में जुटे हुए हैं। पुराने मैसूर क्षेत्र में जेडीएस , भाजपा और कांग्रेस दोनों को हमेशा की तरह से परेशान कर रही है। भाजपा की सबसे बड़ी समस्या राज्य में येदियुरप्पा की तरह ऐसे स्थानीय नेता का अभाव है जिसकी पूरे राज्य में मजबूत पकड़ हो। वर्तमान मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई बेशक लिंगायत हैं लेकिन इनका राज्य में डीके शिवकुमार , सिद्धारमैया, देवेगौड़ा, कुमारस्वामी जैसा मजबूत आधार नहीं है जो भाजपा को आज भी परेशान कर रहा है। इसी को जानते हुए भाजपा ने प्रधानमंत्री मोदी को यहाँ गेमचेंजर के तौर पर देखा है जिसे वो पूरी तरह से अपने विक्टिम नरैटिव में इस्तेमाल करने में पीछे नहीं है। राज्य के मतदाताओं में लिंगायत की 14 फीसदी, वोक्कालिंगा 11 फीसदी, दलित 19.5, ओबीसी 20, मुस्लिम 16, अगड़े 5, इसाई, बौद्ध और जैन की सात फीसदी भागीदारी है। इनमें लिंगायत, अगड़ों, बौद्ध-जैन में भाजपा का प्रभाव ज्यादा है। ओबीसी, दलित और मुस्लिम में कांग्रेस का प्रभाव माना जाता है, जबकि वोक्कालिंगा समुदाय में देवेगौड़ा और कुमार स्वामी की पकड़ मानी जाती है। हालांकि बीते चुनाव में भाजपा और कांग्रेस वोक्कालिंगा समुदाय में सेंध लगाने में कामयाब हुई थी।
कर्नाटक में सत्ता बदलने का मिथक क्या इस बार टूटेगा ये अब एक बड़ा सवाल बन चुका है ? 1985 के बाद से ही यहाँ का मतदाता किसी भी सरकार को दोबारा लाने के खिलाफ रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने जब वीरेंद्र पाटिल को राज्य की कुर्सी से हटाया था उसके बाद से ही कांग्रेस का लिंगायतों में प्रभाव ख़त्म सा हो गया। कर्नाटक में पिछले चुनावों के पन्नों को पलटें तो यहां हमेशा से सत्ता में बदलाव होता आया है। कोई भी दल लगातार दो साल सत्ता में नहीं रहा है। बीते 38 बरस के रिकॉर्ड को देखा जाए तो यहां जनता हर पांच साल में सरकार को बदल देती है। अब भाजपा के लिए 2023 में इस मिथक को तोड़ने की बड़ी चुनौती है जो पार्टी प्रधानमंत्री मोदी के रहते तोडना चाहती है। कर्नाटक में भाजपा का स्थनीय नेतृत्व बेहद कमज़ोर है। सत्ता विरोधी लहर से यह पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह अपने निजी स्तर पर निपटा रहे हैं।
भाजपा के बाद कांग्रेस एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसकी पहुंच पूरे कर्नाटक में है, हालांकि राज्य के विभिन्न क्षेत्रों के हिसाब से उसकी चुनावी उपस्थिति भिन्न है। हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र की कुछ सीटों को छोड़ दें, तो जद(एस) का प्रभाव ज्यादातर पुराने मैसूर तक ही सीमित है, जहां 61 सीटें हैं। दूसरी ओर उत्तरी कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के समर्थन, मजबूत हिंदुत्व आधार वाले तटीय क्षेत्र और भाजपाई रुझान के मतदाताओं वाले शहर बेंगलूरू के बावजूद भाजपा ने कर्नाटक में कभी भी अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं किया है। इस संदर्भ में खासकर पुराने मैसूर क्षेत्र में वोक्कलिंगा समुदाय के मतदाताओं का समर्थन जुटा पाने में भाजपा की असमर्थता एक बड़ा कारक है, जहां उनकी आबादी 40 प्रतिशत से ज्यादा है। यह समुदाय जद(एस) और कांग्रेस के बीच चुनाव करने में सहज महसूस करता रहा है। जद(एस) के देवेगौड़ा वोक्कलिंगा बिरादरी के सबसे बड़े नेता हैं। यहां का किसान अपनी मजबूत सांस्कृतिक जड़ों के चलते भाजपा की वैचारिक उग्रता के प्रति उदासीन रहता है। इसके अलावा, वाडियारों के शासन के दौरान और उससे पहले टीपू सुलतान के राज में पुराने मैसूर में विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच विकसित अंतर-सामुदायिक समझदारी का लोकाचार भी हिंदुत्व की राजनीति की अपील को सीमित कर देता है। मैसूर क्षेत्र के इन सांस्कृतिक तथ्यों के मद्देनजर भाजपा ने राज्य में दूसरी जगहों पर लामबंदी के प्रयास किए हैं। इस बार हालांकि लिंगायत समुदाय पर अपनी भारी निर्भरता को कम करने के उद्देश्य से पार्टी वोक्कलिंगा बहुल क्षेत्र में पैर जमाने के प्रयास कर रही है। हिजाब , टीपू सुल्तान, सारवरकर जैसे मसले बेअसर हैं।
केम्पेगौड़ा की विशाल प्रतिमा को स्थापित कर उसने वोक्कलिंगा समुदाय पर भी डोरे डाले हैं। वोक्कलिंगा समुदाय को मुस्लिम विरोध पर लामबंद करने के लिए मुख्यमंत्री बोम्मई ने मुसलमानों के लिए तय चार प्रतिशत आरक्षण को खत्म कर के उसे लिंगायतों और वोक्कलिंगाओं के बीच बराबर बांट दिया। ताजा दूध और दही बेचने के अमूल के हालिया फैसले के खिलाफ भी लोगों में व्यापक आक्रोश देखने में आया था क्योंकि लोगों की नजर में यह कदम अमूल के साथ घरेलू ब्रांड नंदिनी के विलय का संकेत दे रहा था। इस मुद्दे पर भी भाजपा राज्य में घिर रही है। दलितों का समर्थन हासिल करना भी भाजपा के लिए इस चुनाव में इतना आसान नहीं दिख रहा है। भाजपा की राज्य इकाई के भीतर गुटबाजी के कारण येदियुरप्पा को 2021 में मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। दो प्रमुख लिंगायत नेताओं, पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार और पूर्व उपमुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी को टिकट देने से पार्टी ने इनकार कर दिया था। ये दोनों नेता कांग्रेस से इस बार चुनाव लड़ रहे हैं । इससे कांग्रेस को लिंगायतों का समर्थन मिलने की थोड़ी संभावनाएं बढ़ रही हैं। दूसरा पहलू यह है कि भाजपा कैसे भ्रष्टाचार, लिंगायत विरोधी और लिंगायत नेताओं को दरकिनार करने की छवि से निपट पाती है ये देखने वाली बात होगी।
कर्नाटक के उत्तरी जिलों में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दों को सबसे निराशाजनक मुद्दों के तौर पर उठाया जा रहा है। जेडीएस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इतने सालों में वह कर्नाटक के उत्तरी जिलों तक अपनी पहुंच नहीं बना पाई है।पुराने मैसूर इलाक़े के वोक्कालिगा बहुल केवल आठ जिलों तक इसकी विकास सीमित रहा है। हालांकि बीजेपी और कांग्रेस से टिकट न पाने वाले असंतुष्ट उम्मीदवार जेडीएस से टिकट पाकर मैदान में उतरे हैं। देखना है कि क्या जेडीएस अपनी जीती हुई सीटें बढ़ा सकती है? जद(एस) ने उत्तरी कर्नाटक में कांग्रेस और भाजपा के कुछ बागी उम्मीदवारों को अपने टिकट पर मैदान में उतार दिया है। इससे उस क्षेत्र में वह कुछ सीटों पर अपना प्रभाव दिखा सकती है है। राज्य में दूसरी बार चुनाव लड़ रही आम आदमी पार्टी ने 150 से अधिक उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। इसका प्रभाव बेंगलूरू के कुछ इलाकों तक ही सीमित है और इसके एक भी सीट जीतने की संभावना नहीं है, फिर भी अब राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते इसके प्रदर्शन पर नजर रखनी होगी ।
2018 के विधान सभा चुनाव में बीजेपी 104 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, तो कांग्रेस को केवल 80 सीटों पर ही सिमट कर रह गई थीं। जबकि जनता दल (एस) को 37 सीटें मिली थी। शुरुआत में जेडीएस कांग्रेस ने साथ मिलकर सरकार बनायी थी, लेकिन दोनों दलों के विधायकों की बगावत के बाद सरकार गिर गई थी उसके बाद भाजपा को सरकार बनाने का मौका मिला। कांग्रेस से कई लोगों ने येदियुरप्पा को मदद की जिससे भाजपा को सरकार बनाने में आसानी हुई।
भाजपा-कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में एक से बढ़कर एक कई बड़े वायदे किए हैं जिन पर इन चुनावों में बहुत सवाल उठ रहे हैं। भाजपा ने अपने घोषणा पत्र को ‘प्रजा ध्वनि’ घोषणा पत्र में गरीबों के लिए साल में तीन बार मुफ्त गैस सिलेंडर से लेकर किसानों, महिलाओं और बच्चों तक के लिए कई योजनाओं का जिक्र किया है वहीं, कांग्रेस के ' संकल्पपत्र ' घोषणापत्र में 200 यूनिट बिजली मुफ्त से लेकर परिवार की प्रत्येक महिला मुखिया को हर महीने 2 हजार रुपए देने तक का वायदा किया गया है। इसके अलावा कांग्रेस ने नफरत फैलाने वाले संगठनों पर बैन लगाने का भी वायदा किया है। इसमें सबसे बड़ा नाम बजरंग दल का है। ऐसे में सवाल उठने लगा है कि आखिर कांग्रेस ने बजरंग दल पर बैन लगाने का एलान क्यों किया? इसका चुनाव में पार्टी को कितना फायदा मिलेगा ये देखना होगा ?
इस बार पार्टी ने महिलाओं से लेकर युवाओं तक को लुभाने के लिए भत्ता का एलान किया है। 200 यूनिट बिजली मुफ्त देने का एलान भी काफी बढ़ा है। सबसे बड़ा दांव आरक्षण की सीमा को बढ़ाने का है। आरक्षण अगर 50 से 75 प्रतिशत तक हो जाता है तो यह बड़ा बदलाव होगा। वहीं, भाजपा ने गरीब वर्ग के लिए तो कई एलान किए हैं।
चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में बजरंगबली की इंट्री ने कर्नाटक की राजनीति को गरमा दिया है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री मोदी पर जब 'जहरीला सांप 'वाला बयान दिया और उसके बाद उनके बेटे प्रियांक उन पर 'नालायक' कहकर हमलावर हो गए तो इसने कर्नाटक के चुनाव के रुख को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई है। कांग्रेस इस बात को नहीं समझ पाई वो जितनी गलती करेगी भाजपा के लिए पिच उतनी ही बेहतरीन बनेगी और ऐसा ही हुआ है। कर्नाटक की पिच पर प्रधानमंत्री मोदी जबरदस्त बैटिंग कर रहे हैं। भाजपा मोदी पर हमले को लेकर कांग्रेस के खिलाफ बहुत एग्रेसिव नजर आई है।
आम जनमानस में भी बसवराज बोम्बई के खिलाफ नाराजगी है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के साथ जनता खड़ी नजर आती है। कांग्रेस इस चुनाव में उसी जैसे माहौल का सामना कर रही है जैसा पीएम मोदी के बारे में मणिशंकर अय्यर के 'चायवाला' टिप्पणी के बाद बना था। अय्यर की टिप्पणी ने बीजेपी को एक ऐसा हथियार दे दिया था, जिसका इस्तेमाल करके उसने एक बड़े प्रचार अभियान में तब्दील कर दिया। भाजपा ने गुजरात चुनाव में सोनिया गांधी द्वारा मोदी को "मौत का सौदागर" कहे जाने को अपने पक्ष में भुनाया। ये बयान, चुनावी अभियान के उस दौर में आए हैं, जब बेरोज़गारी, महंगाई और ग़रीबी ने राज्य में जनता का जीना मुहाल किया हुआ है। वोट डालते समय मतदाता के के जीवन पर रोज़गार, मंहगाई और ग़रीबी - इन तीन मुद्दों का कितना असर होगा ये कहना कठिन है। कर्नाटक का वोटर राज्यों के चुनाव को और लोक सभा चुनाव को अलग -अलग दृष्टि से देखता है। मुख्यमंत्री बसवराज बोम्बई को लेकर अभी भी हर इलाके में बहुत नाराजगी है। ओल्ड मैसूर में भाजपा प्रधानमंत्री मोदी का विक्टिम कार्ड खेल रही है। राज्य में पीने के पानी की बड़ी समस्या है , एलपीजी सिलेंडर को लेकर महिलाओं को लेकर रोष है। ये मुद्दे कितना चुनाव को प्रभित करेंगे कुछ कह नहीं सकते।
पिछले चुनाव में भाजपने 55 लिंगायत को टिकट दिए इस बार ये संख्या बढ़कर 68 पहुँच गई है। साफ़ है लिंगायत वोटों पर जिसका जादू चलेगा वो कर्नाटक का रण जीत जाएगा। प्रधानमंत्री दिल और दिमाग से राजनीति करते हैं और किसी भी चुनावों के अंतिम पलों में चुनाव की दिशा बदल देते हैं। प्रधानमंत्री मोदी पर अटैक कर कांग्रेस इस चुनाव में खुद से हिट विकेट हो रही है। किसानों की समस्याएं , बेरोजगारी , महंगाई , पेट्रोल डीजल के बढे दाम , 40 प्रतिशत कमीशनबाजी पर पहले चुनाव शुरू होने से पहले कांग्रेस फोकस कर रही थी लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपने बयानों से भाजाप के सामने व्यंजनों से भरी थाली खुद सजा दी है।
कांग्रेस के बजरंग दल पर प्रतिबन्ध वाले मैनिफेस्टो की पूरे राज्य में चर्चा हो रही है। हम्पी में बजरंगबली की बड़ी मान्यता है और बजरंगबली का जन्मस्थान भी है लिहाजा भाजपा ने चुनाव को धार्मिक रंग देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कांग्रेस ने पीएफआई का सीधा समर्थन अपने मैनिफेस्टो में कर 'आ बैल मुझे मार' वाली उक्ति को चरितार्थ काने का काम किया है जिसका मतदाताओं पर गहरा असर हो रहा है। इसके कर्नाटक चुनाव के पूरे विमर्श को बदल दिया है। इस बार स्थानीय मुद्दे बेअसर साबित हो सकते हैं और हवा में राष्ट्रीय मुद्दों का ही असर दिखाई दे रहा है।
कर्नाटक का विधानसभा चुनाव सभी दलों के लिए मायने रखता है। कांग्रेस अगर यहाँ वापस आती है तो वो विपक्षी एकता की धुरी बन सकती है। जद(एस) की सीटों की संख्या में सुधार का मतलब होगा चुनाव के बाद कोई गठबंधन बना तो उस मौके को वह भुनाने में देर नहीं करेगी। भाजपा यदि बहुमत के साथ सत्ता में आती है तो ये नया इतिहास बन जायेगा। अपने दम पर भाजपा कभी भी कर्नाटक में सत्ता में नहीं आई। कर्नाटक जीत के बाद दक्षिण के अन्य चार राज्यों में भाजपा की संभावनाओं को नए पंख लगेंगे।
कर्नाटक के बाद मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा के सामने सीधे कांग्रेस होगी । मिशन 2024 में भाजपा उत्तर में होने वाले नुकसान की भरपाई दक्षिण कर सकता है। इससे पार्टी का मनोबल में निश्चित रूप से इजाफा होगा। भाजपा के लिए कर्नाटक जीतने का सीधा अर्थ यह होगा कि उसके मतदाताओं के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील चुनावी मुद्दों पर आज भी भारी है। अगर कर्नाटक में मोदी का मैजिक बरकरार रहता है तो वह बाकी तीन राज्यों में भी प्रधानमंत्री मोदी को ट्रैम्प कार्ड बनाकर इस्तेमाल करेगी। अगर भाजपा कर्नाटक हारती है तो इन तीन राज्यों में उसे स्थानीय क्षत्रपों को आगे करना होगा तभी वो बाजी जीत सकती है।
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