Tuesday 1 October 2013

" मर्केल लैण्ड" में बचत की जीत ...........

जर्मन चांसलर  एंजिला मर्केल के  नेतृत्व   वाली क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन  ने हाल के चुनावो में जीत दर्ज कर न केवल संसदीय राजनीती को अपने अंदाज में आईना दिखाया बल्कि यह भी साबित किया कि आने वाले समय में मर्केल की बादशाहत और  ठसक  को चुनौती  देने का  माद्दा  किसी में नहीं है । भले ही मर्केल की सी डी  यू  और सहयोगी  बवेरियाई क्रिश्चियन  सोशल यूनियन  पार्टी  संसद के निचले सदन में पूर्ण बहुमत से महज चार सीटें चूक गई लेकिन जो भी हो कम से कम जर्मनी  के अब तक के इतिहास में  यह बेहतरीन प्रदर्शन है  इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता ।  वह भी ऐसे  दौर में जब पूरी दुनिया मे आर्थिक सुनामी का साया मडराने का खतरा पैदा हो रहा है और यूरोपियन यूनियन समेत जर्मनी में अर्थव्यवस्था बीते कई बरस से हिचकोले खा रही है और डालर के मुकाबले यूरो लगातार नीचे  जा रहा था  । हालिया नतीजो को आधार बनाएं तो यहाँ पर दोनों दलों को  41.7 फीसदी वोट मिले हैं जिसके आधार पर निचले सदन की ३ १ सीटो पर विजय की पताका फहरी। 


                     जर्मनी का हाल का  चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा क्युकि दुसरे विश्व युद्ध के बाद 1957 में चांसलर कोंराद अडेनुवर की अगुवाई में सी डी  यू  ने देश में एक बार पूर्ण बहुमत पाया था । वहीँ एंजिला  मर्केल ने अपने करिश्मे से जर्मनी को नए नेतृत्व  में आशा और विश्वास  से अपने करिश्मे और नीतियों की छाँव  तले बाँधा बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए अपनी बचत योजनाओ  के आसरे ऐसा ताना बाना बुना जिसने जनता के दिलो में भरोसे की एक नई  लकीर  खींची । इन चुनावो में फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी की करारी हार हुई । इस बार यह दल पांच न फीसदी वोट  भी नहीं पा सका जिसके चलते बीते 64 बरस के इतिहास में पहली बार यह दल "बुंडेसटैग  " से बाहर हो गया ।   गौर करने लायक  बात यह है पिछली  बार इसी फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी की बदौलत क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता  की दहलीज में  पहुंची थी लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ ।  मर्केल को नए गठबंधन के तौर पर विकल्प के तौर पर नए साथी की तलाश है । ऐसे में रास्ता मौजूदा दौर में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के  ही जाता है जिसके साथ वह प्यार की पींगे बढ़ा  सकती है ।  वैसे भी इस बार उसका वोट का प्रतिशत ढाई फीसदी से आगे बढा  है । 


                      इन चुनाव के बाद मर्केल के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा होना स्वाभाविक है लेकिन विरोधियो को हर मोर्चे पर टक्कर देने और जनता के बीच अपनी अच्छी छवि को भुनाना  वह भली भांति जानती है ।  फिर भी इस नए कार्यकाल को लेकर लोगो की उनसे उम्मीदें बड़ी  हुई हैं । इस जीत के साथ ही मर्केल लैंड में एंजिला ने अपने विरोधियो और आलोचकों को करारा  जवाब दिया है क्युकि मर्केल की ताजपोशी के समय से ही कई लोग उन पर सवाल उठाते आये हैं । पुराने पन्नो को टटोलें तो केवल कानरोड़ आडेनावर और हेल्मुट कोल ने ही ऐसा इतिहास दोहराया था  जिन्होंने 1949 से  1963 और    1982 से  1998 तक जर्मनी के चांसलर की कुर्सी संभाली । यह जीत मर्केल के मार्का की जीत रही क्युकि  मर्केल ने जनता को जो आश्वासन दिए थे वह न केवल पूरे हाल के वर्षो में हुए बल्कि जर्मनी को आर्थिक संकट से बाहर निकलने में उनकी उपयोगिता को हम नहीं नकार सकते हैं । जर्मनी पर वित्तीय संकट के बादल जिस दौर में मडरा रहे थे उस दौर में कमान अपने हाथो में लेकर उन्होंने ना केवल निवेशको के  भरोसे को डिगाया बल्कि जी  - आठ  सरीखे सम्मेलनों में भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर बरकरार रखने के फौजी  उपायों पर भी एक नयी बहस यूरोपियन  यूनियन में शुरू की जहाँ आर्थिक  संकट के मर्सिया को पढने के बजाए ऊँची विकास दर बरकरार रखने पर जोर दिया जाता रहा । 

                 एंजिला मर्केल पश्चिमी जर्मनी में जरुर पैदा हुई लेकिन अपने पिता के पगचिन्हो  पर चलते हुए वह भी मार्टिन लूथर के ओजस्वी विचारो से खूब प्रभावित हैं । उनका बचपन उस दौर में बीता जब पूरी दुनिया पर शीत युद्ध का असर था । शीत युद्ध वह परिस्थिति  थी जब दो देशो के बीच युद्ध न होते हुए भी परस्पर  युद्ध की स्थिति बरकरार रहती है । उस दौर में एक गुट का नेतृत्व अमरीका   कर रहा था तो दूसरी तरफ पूरी दुनिया की निगाहें सोवियत संघ कीं उठापटक पर लगी रहती थी । ऐसे माहौल  में मर्केल पली बढी  और पूरी दुनिया की आहात को उन्होंने करीब से महसूस किया । नब्बे के दशक में जब बर्लिन की दीवार टूटी तो जर्मनी में उथल पुथल का एक नया दौर देखा गया । इसी दौर में मर्केल का अवतार होता है और वह राजनीती की रपटीली राहो पर अपनी किस्मत आमने उतर जाती हैं । महज पैतीस  बरस की उम्र में वह  क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक  पार्टी से जुड़ जाती हैं जिसकी पहचान उस समय एक पुरुष प्रधान दल के रूप में हुआ करती थी  और  पश्चिमी जर्मनी में उसकी तूती  ही बोला  करती थी ।  

नब्बे के दशक में वह सनासाद के निचले सदन बुंडेसटैग  की  सदस्य बनती हैं जिसके बाद उनकी राजनीतिक करियर को एक नई  दिशा   मिलनी शुरू होती है ।  एकीकरण के बाद  वाले दौर में  जर्मन चांसलर हेलमुट  कोल अपने मंत्रिमंडल में किसी महिला को लेना चाहते हैं तो जेहन में एंजिला मर्केल का नाम आता है और पर्यावरण मंत्री पद  पर ताजपोशी के साथ मर्केल की राजनीतिक यात्रा को नया आयाम मिलता है । फिर  2000 आते आते वह क्रिश्चियन  डेमोक्रेटिक यूनियन की कुर्सी संभालती हैं और ठीक पांच साल बाद  जर्मनी में महिला चांसलर का कांटो भरा ताज पहनती हैं । उसके बाद हाल के चुनावो में मर्केल की जीत से जर्मनी  एक  नयी लहर पर सवार हुआ है । उनकी जीत के साथ ही बाजार गुलजार हो गया है । यूरो डॉलर के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन कर रहा है । फिर भी  आने  वाले  दिन उनके लिए चुनौती भरे रहेंगे इससे इनकार नहीं किया जा सकता है ।   जर्मन वित्त मंत्री वोल्फगांग शोएब्ले ने भी इस बात से इनकार नहीं किया है ।  अर्थव्यवस्था पर शोध कर रही संस्थाओं का मानना है कि इस साल के अंत तक एक बार फिर राहत पैकेज पर चर्चा शुरू हो जाएगी । नई सरकार के लिए यह अहम होगा । यूरोपीय संघ के बाकी के देशों से तुलना करें तो जर्मनी के मौजूदा हालत  बेहतर हैं. अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और कर वसूली भी अब तक कभी इतनी ज्यादा नहीं देखी गयी लेकिन इसके बावजूद सरकार पर 2.1 अरब यूरो का कर्ज है।  साल दर साल सरकार जितना कमा रही है उस से ज्यादा खर्च कर रही है ।  कई राज्य  ऐसे हैं जो कर्ज तले दबे हैं. ऐसे कई शहर और नगरपालिकाएं हैं जो दिवालिया हो चुके हैं। ऐसे में मर्केल के सामने फिर नयी चुनौतिया आ  खड़ी  हुई हैं । 

भले ही आठ बरस  के बाद मर्केल प्रभावशाली महिला के रूप में पूरी दुनिया में उभरी हों  लेकिन तीसरी जीत के बाद उनके सामने जनता के विश्वास में खरा उतरने की बड़ी चुनौती   है ।  देश में हर बच्चे के पास शिक्षा के समान मौके होना चाहिए लेकिन फिलहाल जर्मनी में ऐसा नहीं है. रईस और पढ़े लिखे खानदान के बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा पूरी करना बाकी बच्चों की तुलना में आसान है। ऐसे बहुत लोग हैं जो दिन भर काम करते हैं, लेकिन उन्हें इतना कम वेतन मिलता है कि वे उस से अपनी जीविका नहीं चला पाते. इन सबके मद्देनजर  इस बार  जर्मनी में हर कर्मचारी के लिए न्यूनतम वेतन का कानून एक बड़ा सवाल बन सकता है । वहीँ   देश को कुल 23 फीसदी ऊर्जा सोलर प्लांट, पवन चक्कियों और जैविक ईंधन से मिल रही है । 2015 तक इसे 35 प्रतिशत करने की योजना है लेकिन इसमें कई तरह की अडचने  हैं इनसे पार पान मर्केल के लिए आसान नहीं होगा ।   इसके अलावा ऊर्जा का यह विकल्प नागरिकों की जेब पर भी भारी पड़ रहा है। ऐसे में मर्केल क्या करेंगी यह देखने लायक होगा । सीरिया में चल रहे तनाव के मद्देनजर देश में प्रवासियों और शरणार्थियों को लेकर एक बार फिर चुनाव  के बाद  बहस शुरू हो सकती  है।  सीरिया में लाखों लोग बेघर हो गए हैं और जर्मनी से उन्हें शरण देने की उम्मीद की जा रही है।  जर्मनी ने  लोगों को पनाह देने की बात कही है लेकिन जर्मनी की  मौजूदा आबादी को देखते हुए यह संख्या काफी कम है। ऐसे में लाख टके का सवाल यह है मर्केल कौन सी लीक पर  जर्मनी को  लेकर चलती हैं यह भी देखने लायक होगा ?  जो भी हो हैट्रिक  बनाने के बाद मर्केल के लिए आने वाला समय मुश्किलों भरे पहाड़ सरीखा हो चला है । देखना होगा वह अपनी " मर्केल लैण्ड " में इन सब चुनौतियों से कैसे पार पाती हैं ?

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

विश्व राजनीति के रोचक अध्याय।