12 बरस पहले लिए गए एक इंटरव्यू में मैंने हरीश चन्द्र सिंह रावत से जब
यह सवाल पूछा था क्या सत्ता राजयोग से मिलती है ? क्या आपकी कुंडली
में राजयोग नहीं है तो जवाब में हरीश रावत सकपकाये नहीं बल्कि अपनी
मंद मुस्कराहट के साथ उन्होंने जवाब हाँ में दिया । उन्होंने मेरी तरफ
देखते हुए कहा" मैं कांग्रेस का सच्चा समर्पित सिपाही हूँ । पुजारी का
काम देवता को पूजना है। अब यह देवता का काम है क़ि वह फल देता है या
नहीं "? इसी दौर में नारायण दत्त तिवारी को राज्य की पहली निर्वाचित
सरकार का मुखिया बनाया गया था और इन सबके बीच यह पहला मौका था जब
हरीश रावत के हाथ सी एम की कुर्सी आते आते फिसल गयी जबकि राज्य में
कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा मजबूत बनाने और ग्राम स्तर तक पार्टी को
खुद उन्होंने ही अपने बूते खड़ा किया । इस दौर में एनडी तिवारी और
हरीश रावत के बीच खूब शीत युद्ध देखने को मिला । दूसरी बार जब
हरीश रावत इंटरव्य़ू के दौरान मेरे सामने थे तो मैंने पूछा रावत
जी एनडी तिवारी और आपके बीच छत्तीस का आंकड़ा जगजाहिर है । यह शीत युद्ध है
या मुख्यमंत्री पद ना पाने की कसक ? इस बार भी हरीश रावत ने
मुस्कराहट भरे अंदाज में जवाब दिया और कहा मेरे और नारायण दत्त तिवारी
जी के बीच वही आंकड़ा है जो भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण
आडवाणी के बीच है ।
ऊपर के ये चंद संवाद बानगी भर है जो उत्तराखंड
में हरीश रावत का औरा उनकी साफ़गोई और करिश्मे को बतलाने के साथ ही
मुख्यमंत्री पद ना पाने की कसक उजागर करते हैं तब एन डी तिवारी ने
राज्य के पहले निर्वाचित मुख्य मंत्री की शपथ ली थी लेकिन 2012 में
जब एक बार फिर से कांग्रेस को उत्तराखंड में सरकार बनाने का मौका मिला तो
हरीश रावत ही मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में सबसे आगे थे। 3, मूर्ति लेन
दिल्ली में समाचार चैनलों पर टकटकी लगाये बैठे उनके हजारों समर्थको
को इस बार पूरा विश्वास था कि कांग्रेस आलाकमान रावत के साथ अन्याय नहीं
करेगा लेकिन विजय बहुगुणा को पैराशूट मुख्यमंत्री के रूप में लैण्ड करवाकर
दस जनपथ ने उस दौर में सभी की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। लेकिन संयोग
देखिये देवभूमि के राजपथ में 12 बरस के वनवास के बाद हाई कमान ने डेमेज
कन्ट्रोल के लिए तुरूप के इक्के के रूप में हरीश रावत को आगे क्या किया
झटके में हरीश रावत की इंट्री ने उत्तराखंड में कांग्रेस को लोक सभा
चुनावो का बिगुल बजने से पहले भाजपा के सामने मुकाबले में लाकर
खड़ा कर दिया ।
आज अगर हरीश रावत की ताजपोशी से पूरे उत्तराखंड में जश्न
है तो इसका कारण उनका ऐसा जनप्रिय नेता होना है जिसे लोग पहाड़ के
जनसरोकारों से जुड़ाव रखने वाले नेता के तौर पर देखते रहे हैं । खांटी
कांग्रेसी नेता के तौर पर हरीश की यही पहचान उन्हें अन्य नेताओ से अलग
बनाती है लेकिन रावत के सामने बड़ी चुनौतियों का पहाड़ सामने खड़ा है
जिससे पार चुनौती इस चुनावी बरस में है क्युकि इस दौर में कांग्रेस के
सितारे गर्दिश में हैं और वह लगातार फिसलन की राह पर है । लेकिन
लम्बी रस्साकस्सी के बाद हरीश रावत उत्तराखण्ड के आठवें मुख्यमंत्री तो
बन ही गए हैं । जमीनी राजनीति से निकले हरीश रावत ऐसे खांटी राजनेता हैं
जिनका उत्तराखण्ड के हर इलाके में व्यापक जनाधार है। अतीत में भले ही
रावत दो बार सी एम की कुर्सी पाने से चूक गये हों लेकिन इस बार अपनी
बिछायी बिसात में उन्होंने विरोधियों चारो खाने चित कर दिया । विजय
बहुगुणा ने हरीश रावत की राह रोकने के लिए रेड कार्पेट का हर दाव चला
लेकिन उनको अभयदान नहीं मिल सका। हालाँकि दस जनपथ में रीता
बहुगुणा जोशी को साथ लेकर बहुगुणा ने अपनी कुर्सी सलामत रखने की हर
तिकड़म की लेकिन कोशिशें रंग नहीं ला सकी । बताया जाता है दस जनपथ
में अहमद पटेल और राज्य की प्रभारी अम्बिका सोनी केदारनाथ में जल प्रलय
के बाद से ही बहुगुणा की कार्यशैली से बहुत नाराज चल रही थी लेकिन उनको
नहीं हटाया जा सका । बीते बरस आम आदमी पार्टी की सफलता के बाद पहली
बार कांग्रेस और भाजपा पार्टी की पारम्परिक राजनीति पर ग्रहण लग
गया जिसकी शिकन राहुल गांधी के चेहरे पर विधान सभा चुनाव आने के चंद
घंटे बाद देखने को मिली जब राहुल गांधी ने कैमरो के सामने आकर
कहा हम आम आदमी पार्टी से सीखेंगे । इसके बाद तो उन्होंने कांग्रेस को
नए सिरे से मथने का मन बना लिया जिसके बाद से ही कांग्रेस में
"कामराज " प्लान की आहट सुनायी देने लगी थी जिसकी हिट लिस्ट में विजय
बहुगुणा थे ।
अपनी कुर्सी बचाने के लिए विजय बहुगुणा
ने सतपाल महाराज का ब्रह्मास्त्र दस जनपथ में इस बार आखरी समय तक चला
जिसमे बाइस विधायको के हस्ताक्षर को आधार बनाकर हरीश रावत का रथ
रोकने की हर सम्भव कोशिश की गई लेकिन सफलता नहीं मिल पायी । इस्तीफे के
दिन राजभवन में जाने से पहले बहुगुणा 22 विधायको में से किसी को वजीर
बनाने की तिकड़म महाराज के आसरे करते रहे लेकिन सोनिया गांधी के आगे
उनकी भी नहीं चल पायी । कांग्रेस में जनार्दन द्विवेदी , आनंद शर्मा
और जय राम रमेश कांग्रेस शासित राज्यो में ब्राह्मण मुख्यमंत्री का
चमकता चेहरा बताकर बहुगुणा को ना हटाये जाने की दुहाई दे रहे थे
लेकिन राहुल गांधी द्वारा उत्तराखंड में कराये गए एक गुप्त सर्वे में
जब यह खुलासा हुआ कि उत्तराखंड में विजय बहुगुणा के रहने पर कांग्रेस का
पांच लोक सभा सीटों पर सूपड़ा साफ़ हो सकता है तो ऐसे में बहुगुणा के
विदाई की पटकथा दस जनपथ में लिखी जाने लगी ।
कम उम्र में ब्लाक प्रमुख और लगातार लोकसभा में हैट्रिक लगाने के बाद अस्सी के दशक में पहले चुनाव में हरीश रावत ने डॉ मुरली जोशी सरीखे कद्दावर को हराकर धमाकेदार इंट्री अविभाजित उत्तर में की । संजय ब्रिगेड के सिपहसालार और समर्पित सिपाही बन हरीश ने इसके बाद इतिहास उस समय रचा जब डॉ मुरली मनोहर को 1984 में उनके हाथो फिर पराजित होना पड़ा। इसके बाद रावत ने भगत सिंह कोश्यारी और काशी सिंह ऐरी जैसे दिग्गजों की नींद उड़ा डाली जब उनको भी रावत के हाथो पटखनी मिली । नब्बे के दशक की रामलहर में हरीश रावत का सियासी कैरियर पूरी तरह से थम गया । रामलहर में उन्हें राजनीती के नए नवेले खिलाडी जीवन शर्मा के हाथ हार खाने को मजबूर होना पड़ा तो 1996 , 19 98 ,1999 में पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री बची सिंह रावत के सामने हार गए । इसके बाद उनकी पत्नी रेणुका रावत भी बची सिंह रावत के सामने हार गयी । 2009 में हरीश ने हरिद्वार से भाग्य आजमाया और हरिद्वार ने उनका राजनीतिक पुनर्वास किया जब 15 लोक सभा में वह श्रम राज्य मंत्री बने । 2011 में कृषि राज्य मंत्री , संसदीय कार्यमंत्री और फिर जल संसाधन मंत्री ने दिल्ली में उनकी राजनीतिक उड़ान को नई दिशा दी ।राज्य बनने के बाद 2002 में कांग्रेस को राज्य में सत्ता दिलाने में भी उनकी बड़ी भूमिका रही, लेकिन नारायण दत्त तिवारी को उनकी जगह मुख्यमंत्री बना दिया गया था ।तिवारी को जहाँ ब्राह्मण समर्थको के चेहरे के रूप में पहचाना गया वहीँ हरीश रावत को ठाकुरों के पोस्टर बॉय के रूप में और शायद यही वजह रहीं हरीश रावत को भी अतीत में पहाड़ की ब्राह्मण ठाकुर सियासत का सबसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ा । यही कहानी 2012 में भी दोहराई गई। बड़ी संख्या में विधायकों के उनके पक्ष में दिल्ली में लामबंद होने के बावजूद ब्राह्मण चेहरे विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना दिया गया। ऐसे माहौल में हरीश को उत्तराखंड से दूर रहने नसीहतें मिलती रही लेकिन इसके बाद भी वह उत्तराखंड के हको की लड़ाई न केवल लड़ते रहे बल्कि बहुगुणा के खिलाफ 'लेटर वार' शुरू कर उन्होंने उत्तराखंड में नयी बहस शुरू कर डाली ।
विजय बहुगुणा के सत्ता संभालने के साथ ही लूट-खसोट का राज उत्तराखंड में शुरू हो गया । सितारगंज में पानी की तरह पैसा बहाने के बाद टिहरी उपचुनाव में साकेत बहुगुणा की चुनावी हार के बाद विजय बहुगुणा की आलोचना शुरू हो गयी । अपने शपथ ग्रहण समारोह में जो ख्वाब प्रदेशवासियों को उन्होंने दिखाए थे वह राज्य में हवा हवाई ही साबित हुए | प्रदेश में अफसरशाही जहाँ पूरी तरह से बेलगाम रही वहीँ कभी न्यायाधीश रहे बहुगुणा इससे जूझ पाने में विफल साबित हुए | बहुगुणा का ज्यादातर समय दिल्ली की मैराथन दौड़ में ही जहाँ बीता , वहीँ कांग्रेस के विधायक भी अंदरखाने बहुगुणा को राज्य में मुख्यमन्त्री के रूप में नहीं पचा पा रहे थे | राज्य में विकास कार्य इस कलह से सीधे तौर पर प्रभावित हुए और शायद यही कारण रहा राजनीती के ककहरे से अनजान बहुगुणा को पहली बार सियासी अखाड़े में अपनी पार्टी के लोगो से ही तगड़ी चुनौती मिली जहाँ अपनी कुर्सी बचाने के लिए वह दस जनपथ में अपनी बराबर हाजिरी लगाते हुए देखे गए । आज से तकरीबन डेढ़ साल पहले जब विजय बहुगुणा ने उत्तराखंड के मुख्यमन्त्री का कांटो रुपी ताज पहना था तो लोगो को उम्मीद थी कि वह पर्वत पुत्र माने जाने वाले अपने पिता स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा सरीखे राजनीती के दिग्गज नेता की तर्ज पर अपनी अलग छाप छोड़ेंगे लेकिन बहुगुणा के शासन से उत्तराखंड के आम जनमानस का धीरे धीरे मोहभंग होता गया । टिहरी की हार का बड़ा कारण विजय बहुगुणा का अहंकार भी था जो हरीश रावत सरीखे खांटी कांगेसी नेता और उनके समर्थको की उपेक्षा करने में लगे थे और अपने को सुपर सी ऍम समझने की भारी भूल कर बैठे जबकि बहुगुणा का उत्तराखंड के जनसरोकारो से सीधा कोई वास्ता भी नहीं रहा | वह तो अपने पिता हेमवती नंदन बहुगुणा के नाम ,परिवारवाद और कॉरपोरेट के आसरे उत्तराखंड के सी ऍम की कुर्सी पा गए और सितारगंज में धन बल के जरिये अपना चुनाव जीत भी गए |जबकि बहुगुणा के जनसरोकारो का असली चेहरा यह रहा कि वह पहाड़ के जनसरोकारो से ज्यादा कॉरपोरेट कंपनियों के ज्यादा करीब रहे हैं वहीँ उनके सी एम बनने के बाद राज्य में पेयजल, बिजली जैसी समस्याओ का संकट खड़ा रहा वहीँ बेरोजगारों में गहरी निराशा देखी गयी । हर दिन कार्मचारी सरकार के खिलाफ हड़ताल का मोर्चा खोलकर विजय बहुगुणा के खिलाफ नारेबाजी करते रहे । सारा तिलिस्म तब टूट गया जब केदारनाथ के साथ प्रदेश में बीते बरस आई भीषण प्राकूतिक आपदा से निपटने में न केवल बहुगुणा सरकार अक्षम दिखी बल्कि संवेदनहीन भी नजर आई। बहुगुणा ने पूरी आपदा के दौरान दिल्ली में ही ज्यादा समय बिताया। विजय बहुगुणा और उनके पुत्र साकेत बहुगुणा सीधे तौर पर भ्रष्टाचार के कटघरे में घिरे रहे।
अब नए निजाम हरीश रावत के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है ।
बेलगाम नौकरशाही को पटरी पर लाने के ठोस उपाय उन्हें करने होंगे
। ऐसे कठोर कदम उठाने होंगे जिससे नौकरशाही की घिग्घी बँध जाए । बहुगुणा
वाले दौर से यह देखा गया है नौकरशाह इस प्रदेश को लूटने में लगे हुए
हैं जिन पर बिल्डरो ,माफियाओ से सांठगांठ के संगीन आरोप लगे हैं।
मिसाल के तौर पर अपर मुख्य सचिव राकेश शर्मा पर जमीनों को सस्ते दामो
में बिल्डरों को बेचने का आरोप है। बहुगुणा सरकार में शर्मा के आगे पूरी
मशीनरी नतमस्तक रही है । यह तो बानगी भर है हर विभाग में लूट खसोट
का खुला खेल बहुगुणा अपने राकेश शर्मा सरीखे प्यादो के जरिये
उत्तराखंड में चलाते रहे। भ्रष्टाचार की इस गंगोत्री की सफाई तभी तो
पायेगी बड़ी मछलियों के साथ तालाब की छोटी मछलियां भी जाल में आएँगी ।
उत्तराखंड में निशंक सरकार के राज में कुम्भ घोटाला और स्टॉर्डिया
सरीखे कई घोटाले उस दौर में हुए हैं क्या हरीश उस पर कोई एक्शन ले
पाएंगे यह सवाल इसलिए बड़ा हो चला है क्युकि अपनी सुधरी छवि के जरिये
वह भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेन्स की बात दोहराते रहे हैं । अब नाव के माझी
वह खुद हैं । नाव सही दिशा में तैरे इसकी जिम्मेदारी खुद अब उनके कंधे
में है । क्या हरीश रावत इस पर कोई नयी लकीर खीँच पाएंगे यह अब समय
ही बतायेगा ?
केदारनाथ में आई आपदा के बाद बहुगुणा सरकार ने राहत
के नाम पर केवल खानापूर्ति की है। पूरे प्रदेश में सड़कें टूटी पड़ी हैं। कई
गाँवों में आज भी बुनियादी सुविधाएं मयस्सर नहीं हो पाई हैं । पहाड़ो
में डॉक्टरों की कमी देखी जा सकती है। गांवों से पलायन लगातार बढ़ रहा
है । बेरोजगार उत्तराखंड में परेशान हैं । विधायको के वेतन भले ही इस दौर
में कुलांचे मार रहा है लेकिन बेरोजगारी दर ने राज्य में कई रिकॉर्ड तोड़
डाले हैं । बीते तेरह बरस में उत्तराखंड के पास उपलब्धियों के
ढिंढोले के रूप में कुछ खास नहीं है ।एक विशेष उपलब्धि यह है आपदा
प्रबंधन को दुधारू गाय बना दिया गया है जिसमे राजनेताओ और नौकरशाहो ने
अरबो के वारे न्यारे कर डाले । ऐसे में हरीश रावत की राह आसान नहीं
है। अभी भी प्रदेश में गठबंधन सरकार है और उन्हें हर किसी विधायक के साथ
तालमेल बैठाना होगा।अपने विरोधियो को साधना होगा । सतपाल महाराज ,
यशपाल आर्य , हरक सिंह रावत, इंदिरा हृदयेश और खुद विजय बहुगुणा सरीखे
उनके धुर विरोधी अब चुप बैठ जायेंगे नहीं है । उनकी ताजपोशी से ठीक पहले
तक जिस तरीखें के तल्ख़ तेवर महाराज ने दिखाए हैं वह बताते हैं उत्तराखंड
में अभी भी कांग्रेस की गुटबाजी पर लगाम लगाने की जरुरत है अन्यथा
पंचायत चुनाव और लोक सभा चुनावो में कांग्रेस का खेल बिगड़ सकता है ।
हरीश
को कम समय में विकास का लाभ पहाड़ के सीमांत गांवों तक पहुचाना होगा
। जनभावनाओ का सम्मान करते हुए गैरसैण में स्थायी राजधानी बनाने की
दिशा में काम करना होगा । हरीश रावत को हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री
से प्रेरणा लेनी चाहिए । यशवंत सिंह परमार का हिमाचल प्रदेश को
अस्तित्व में लाने और विकास की आधारशिला रखने में महत्वपूर्ण योगदान रहा
है। लगभग 3 दशकों तक कुशल प्रशासक के रुप में जन-जन की भावनाओं को समझते
हुए उन्होने प्रगति पथ पर अग्रसर होते हुए हिमाचल प्रदेश के विकास के लिए
नई लकीर खींची आज ऐसी ही लकीर खींचने वाले जननेता की उत्तराखंड को
जरुरत है । हरीश चन्द्र सिंह रावत सरीखे नेता में सब कुछ कर गुजरने की
तमन्ना है। अपने हक़ की लड़ाई अपनी ही सरकार में लड़ने वाले हरीश रावत के
पास इससे "गोल्डन" समय शायद ही कभी आये जब वह नए निजाम के तौर पर पहाड़ के
उस अग्निपथ पर हैं जहाँ लोगो की बड़ी अपेक्षाएं उनसे जुडी हैं । अब यह
हरीश रावत पर टिका है वह उत्तराखंड को किस दिशा में ले जाते हैं ? आज
वह एक पार्टी के सामान्य कार्यकर्ता से मुख्यमंत्री की जिस कुर्सी तक वह
पहुंचे हैं यह कांटो भरा ताज जरुर है और इतिहास में ऐसे मौके बार बार
नहीं आते । रावत अगर पूर्व मुख्यमंत्रियो से अलग लीक पर चलते हैं तो
उत्तराखंड के इतिहास में वह जननायक के तौर पर याद किये जायेंगे अन्यथा वह
भी सियासी तिकडमो के बीच अगर अपनी कुर्सी बचाने की मैराथन में ही लगे
रहे तो इससे प्रदेश की जनता का कुछ भला नहीं होगा और उत्तराखंड नौकरशाहो
के हाथ की कठपुतली ही बना रह जायेगा जहाँ भ्रष्टाचार की गंगा में हर
कोई अपना हाथ साफ़ करने में लगा रहेगा ।हरिवंश राय बच्चन पंक्तिया रावत को निश्चित ही प्रेरणा देंगी -
तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
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