Thursday 20 February 2014

बंद दरवाजो के बीच 'तेलंगाना' की दस्तक


आखिरकार  तेलंगाना बिल पास तो हो  गया  लेकिन इसके लिए जिन तौर तरीको का  यू पी ए  के फ्लोर मैनेजरों ने इस्तेमाल किया उसने  इमरजेंसी के  दिनों की  यादें  ताजा करा दी क्युकि  बिल पास कराने के लिए  संसद को देश की नजरों से छिपा दिया गया जहां  बंद  दरवाजो के साथ ही टीवी कैमरों को बंद करके सदन के घटनाक्रम का  प्रसारण रोक दिया गया। देश की जनता   को बिल के पास होने की खबर तब  मिली जब टीवी पर लाल  अबीर -गुलाल में डूबे तेलंगाना समर्थकों की जश्न मनाती भीड़ टी वी स्क्रीन में  नजर  आने लगी । तेलंगाना पर संसद में विरोध  के  जो तरीके बीते दिनों   दिखायी दिए उसने तेलंगाना   की  डगर  को  मुश्किल बना  दिया था । राह  भयानक  उस  समय हो गई जब  सरकार के मंत्री, सांसद  विरोध करते हुए स्पीकर के आसन तक पहुंच गए और  विरोध में मिर्च पाउडर  से लेकर  चाक़ू लहराना शुरू कर  दिया    जिससे   दुनिया  के  सबसे  बड़े लोकतान्त्रिक देश की महिमा तार तार हो गयी  इसके  बाद  देश के 29वें राज्य तेलंगाना के गठन की प्रक्रिया  उस समय  आगे  बढ़ी  जब  भाजपा के सहयोग से सीमांध्र क्षेत्र के सांसदों के कड़े  विरोध के बीच तेलंगाना  की  नई  राह  खुल गई । आंध्र प्रदेश पुनर्गठन विधेयक 2014 लंबे समय से अटका हुआ था। भारी हंगामे  और लोकतंत्र के  मंदिर की  कार्यवाही का सीधा प्रसारण न होने के दौरान लोकसभा ने  आंध्र प्रदेश पुनर्गठन विधेयक ध्वनिमत से पारित कर दिया। लोकसभा में विधेयक पर मत विभाजन के दौरान तेलंगाना का विरोध कर रहे आंध्र प्रदेश के सांसदों और कुछ विपक्षी पार्टियों ने अपना विरोध जताया। इसके बावजूद सदन में आंध्र प्रदेश पुनर्गठन विधेयक ध्वनिमत से पारित हो गया। दरअसल  2014 की चुनावी बेला सामने आने से पहले काँग्रेस तेलंगाना के  चक्रव्यूह मे इस कदर उलझती जा रही थी  जिससे पार पाना उसके लिए आसान नहीं दिखाई दे रहा  था लेकिन   दस जनपथ ने  आगामी लोक सभा  चुनावो के मद्देनजर काँग्रेस के एक तबके मे तेलंगाना को लेकर एक खास तरह की पशोपेश की  स्थिति  पैदा  कर  दी  थी  जिसमे  एक तबका तेलंगाना को साख ऊपर उठाने के लिए कारगर मुद्दे के तौर पर देख रहा था  लेकिन मौजूदा दौर मे काँग्रेस की  असल मुश्किल 2014 मे अपनी तीसरी बार केंद्र मे सरकार बनाना और  विभाजित आंध्र की सत्ता मे फिर वापसी करना है वह भी उन परिस्थितियो मे जब उपलब्धियों के  नाम पर बीते साढ़े   चार बरस  ज्यादा समय  में  उसके पास कहने को कुछ नहीं बचा है |ऐसे मे काँग्रेस की  वार रूम पॉलिटिक्स के कर्ता धर्ताओ का मानना रहा , काँग्रेस को दक्षिण दुर्ग को बचाने की रणनीति पर काम करने की अभी  जरूरत है जिसमे आंध्र प्रदेश उसके सामने बड़ी चुनौती   है | 


पिछली बार के  लोक सभा चुनावो मे काँग्रेस ने राजशेखर रेड्डी की अगुवाई मे आशातीत सफलता पायी थी लेकिन इस बार  जगन मोहन रेड्डी की बगावत ने काँग्रेस को बैकफुट पर जाने को मजबूर कर दिया है |परिस्थितियाँ पूरी तरह बदल चुकी हैं और तेलंगाना अब काँग्रेस की  एक दुखती रग बन चुका था  क्युकि बीते दौर मे इस मसले मे काँग्रेस के  साथ सभी दलो ने न केवल राजनीतिक रोटियाँ सेकी  बल्कि अवसरवाद का लाभ तेलंगाना राष्ट्रीय समिति  सरीखी पार्टियो ने लेने की पूरी कोशिश भी की  और अब वही काँग्रेस काफी माथापच्चीसी के बाद  तेलंगाना को  लोकतंत्र के  सबसे  मंदिर की बंद चहार दीवारियों में कैद कर  हरी  झंडी दे डाली ।  कांग्रेस   यह  सब  कर  आन्ध्र  के एक   हिस्से मे अपना जनाधार बचाने मे लग गई है | वही पहली बार दस जनपथ की अगुवाई मे राहुल गांधी की अगुवाई मे दक्षिण दुर्ग को बचाने की  उस रणनीति पर  काम  कर   रही है ताकि आने वाले दिनो मे लोक सभा चुनावो मे  तेलंगाना से अच्छी सीटें लाकर दक्षिण  में  बिसात बिछाई जा सके | इसकी झलक चिरंजीवी की प्रजा राज्यम के काँग्रेस मे विलय से समझी जा सकती है | वहीं काँग्रेस के बागी जगनमोहन रेड्डी काँग्रेस की मुश्किलों को राज्य मे लगातार बढ़ाते  ही जा रहे हैं जिसके चलते चुनावी साल मे काँग्रेस की चिंताएँ बढ़नी लाज़मी है | बीते दिनों जब दस जनपथ तेलंगाना पर मंथन के लिए काँग्रेस के कोर ग्रुप के साथ मंथन कर रहा था तो एकबारगी लगा कि जल्द ही काँग्रेस तेलंगाना पर बड़ी घोषणा का पिटारा खोल सकती है लेकिन यह मुद्दा एक बार फिर ठंडा चला  गया  | काँग्रेस के रणनीतिकारों को लगने लगा  कि अगर तेलंगाना बन  गया तो इससे काँग्रेस फायदे  मे ही रहेगी क्यूकि इसके बनने का सीधा लाभ वह  खुद   उठा सकती  है शायद इसी नब्ज  को  सोनिया ने अपने अंदाज में पकड़ा और आंध्र के एक हिस्से में कांग्रेस के सत्ता समीकरणों को बरकरार रखा ।  वहीं तेलंगाना को छोड़कर पूरे सीमांध्र  में  इस समय जगन मोहन रेड्डी की तूती जिस तरह बोल रही है उसने पहली बार काँग्रेस की सियासतदानों की हवा एक तरह से निकाली हुई है जहां आने वाले दिनों मे वाई एस आर काँग्रेस , काँग्रेस को तगड़ी चुनौती देती नजर अगर आती है तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्युकि बीते  दौर  के उप  चुनावो  मे उसने काँग्रेस की हवा सही मायनों मे निकालकर 2014 के चुनावो से पहले अपने बुलंद इरादे जता दिये हैं | ऐसे मे काँग्रेस उस दक्षिण के दुर्ग मे पहली बार हाँफ रही है जहां कभी राजशेखर रेड्डी के करिश्मे से उसने ना केवल सत्ता पायी बल्कि आन्ध्र  की राजनीति मे अपनी ठसक से चंद्रबाबू नायडू की टी डी पी सरीखी पार्टियो के जनाधार को सीधा नुकसान पहुंचाया | 
    
1948 में भारत के इस हिस्से में निजाम के शासन का अंत हुआ और हैदराबाद राज्य का गठन किया गया। 1956 में हैदराबाद का हिस्सा रहे तेलंगाना को नवगठित आंध्रप्रदेश में मिला दिया गया। निजाम के शासनाधीन रहे कुछ हिस्से कर्नाटक और महाराष्ट्र में मिला दिए गए। भाषा के आधार पर गठित होने वाला आंध्रप्रदेश पहला राज्य था। चालीस के दशक में कामरेड वासुपुन्यया की  अगुआई में कम्युनिस्टों ने पृथक तेलंगाना की मुहिम की शुरुआत की थी। उस दौर को याद करें तो  आंदोलन का उद्देश्य भूमिहीनों कों भूपति बनाना था। छह वर्षों तक यह आंदोलन चला लेकिन बाद में इसकी  कमान नक्सलवादियों के हाथ में आ गई।शुरुआत में तेलंगाना को लेकर छात्रों ने आंदोलन शुरू किया था,लेकिन बाद में  इसमें लोगों की भागीदारी ने इसे ऐतिहासिक बना दिया। इस आंदोलन के दौरान पुलिस फायरिंग और लाठीचार्ज में साढ़े तीन सौ से अधिक छात्र मारे गए थे। उस्मानिया विश्वविद्यालय इस आंदोलन का केंद्र था। उस  दौर में एम. चेन्ना रेड्डी ने 'जय तेलंगाना' का नारा उछाला था ।  बाद में उन्होंने अपनी पार्टी तेलंगाना प्रजा राज्यम पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया। इससे आंदोलन को भारी झटका लगा। इसके बाद इंदिरा गांधी ने उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया था। 1971 में नरसिंह राव को भी आंध्रप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था, क्योंकि वे तेलंगाना क्षेत्र के थे।जिस क्षेत्र को तेलंगाना कहा जाता है  उसमें आंध्रप्रदेश के 23 जिलों में से 10 जिले आते हैं। मूल रूप से ये निजाम की हैदराबाद रियासत का हिस्सा था। इस क्षेत्र से आंध्रप्रदेश की 294 में से 119 विधानसभा सीटें आती हैं। आंध्र की 42 में  से 17 लोकसभा सीटे तेलंगाना की है। नब्बे के दशक में के. चंद्रशेखर राव तेलुगूदेशम पार्टी का हिस्सा हुआ करते थे। 1999 के चुनावों के बाद चंद्रशेखर राव को उम्मीद थी कि उन्हें मंत्री बनाया जाएगा  लेकिन उन्हें डिप्टी स्पीकर बनाया गया।वर्ष 2001 में उन्होंने पृथक तेलंगाना का मुद्दा उठाते हुए तेलुगूदेशम पार्टी छोड़ दी और तेलंगाना राष्ट्र समिति का गठन कर दिया। 2004 में वाईएस राजशेखर रेड्डी ने चंद्रशेखर राव से हाथ मिला लिया और पृथक तेलंगाना राज्य का वादा किया। लेकिन बाद में उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया। इसके बाद तेलंगाना राष्ट्र समिति के विधायकों ने इस्तीफा दे दिया और चंद्रशेखर राव ने भी केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था इसके बाद  से  तेलंगाना  को लेकर नयी  किस्सागोई आयोगो के आसरे चलती रही । 



दरअसल आन्ध्र प्रदेश  मे तेलंगाना का मसला कोई नया नहीं है | यह मांग राज्य पुनर्गठन आयोग के दौर 1956 से चली आ रही है | 1969 मे एम चेन्ना रेड्डी के नेतृत्व मे मुल्कीरूल आन्दोलन मे अलग तेलंगाना को नई चिंगारी दी गई  लेकिन गौर करने लायक बात यह है ब्रिटिश शासन के दौर मे तेलंगाना कभी अंग्रेज़ो के सीधे नियंत्रण मे नहीं रहा | कुतुबशाही और मुगलिया सल्तनत के दौर के बाद शाही रजवाड़े के निजाम ने अपना राज यहाँ कायम किया |निजाम ने अंग्रेज़ो की  सत्ता तो स्वीकार कर वहाँ तेलंगाना मे अपना सिक्का गाड़े रखा | ब्रिटिश शासन के दौर मे रॉयल सीमा व आन्ध्र  इलाके मद्रास प्रेसीडेंसी मे आते थे मगर आजादी के बाद पो श्रीराम मुलु  की अगुवाई मे संयुक्त आन्ध्र का  बड़ा आंदोलन चला | मद्रास प्रेसीडेंसी और तेलंगाना के निजाम ने हैदराबाद  के इलाको को एक ही राज्य मे भाषाई एकता के सुर मे तेलगु आधार बनाने का रास्ता आन्ध्र प्रदेश के रूप मे साफ किया | उस दौर मे तेलंगाना हैदराबाद के निजाम की रियासत का एक हिस्सा रहा था और मुल्की नाम से जाना जाता था | शेष दो हिस्से मद्रास प्रेसीडेंसी के अंदर आते थे  | वर्तमान मे आन्ध्र को  तीन हिस्सो मे बांटा जा सकता है | पहला इलाका तटवर्ती आन्ध्र , दूसरा रॉयल सीमा और तीसरा तेलंगाना है | तेलंगाना के जिस इलाके के लिए पिछले कुछ समय से आंदोलन चल रहा है उसमे आन्ध्र  के दस जिले शामिल हैं | सदियो से राजशाही के सीधे नियंत्रण मे रहने के चलते यह इलाका काफी पिछड़ा है | राज्य की तकरीबन 40 फीसदी आबादी तेलंगाना से आती है लेकिन यहाँ पर विकास  की बयार हाइटेक हैदराबाद सरीखी नहीं बही है जिसके चलते लोग उपेक्षित हैं और अलग राज्य  का सपना कई बरस से न केवल देख रहे हैं बल्कि के सी आर को  भी इस दौर मे अपना नया  मसीहा मान चुके थे  जो सड़क से लेकर संसद तक ना केवल अलग राज्य का राग अलाप रहे थे  बल्कि आन्ध्र प्रदेश  मे काँग्रेस और भाजपा की मुश्किलों को भी बड़ा रहे हैं | 


निजाम वाले दौर मे भी तेलंगाना के प्राकृतिक संसाधनो का खूब दोहन हुआ और आज भी कमोवेश वैसे ही हालत हैं | राज्य के पचास फीसदी जंगल तेलंगाना मे पाये जाते हैं साथ ही यहाँ प्रचुर मात्रा मे प्राकृतिक संसाधन भी शायद यही वजह है लाइमस्टोन की प्रचुरता इस इलाके को सीमेंट उद्योग का बादशाह बनाती हैं  तो वहीँ बाक्साइट उद्योग  भी सरताज । तेलंगाना से इतर तटवर्ती आन्ध्र  मे न केवल कारपोरेट घरानो ने बीते दशको मे बड़ा निवेश किया बल्कि  हैदराबाद सरीखे इलाके को देश के हाई टेक शहरो मे शामिल कर लिया | हैदराबाद की चमचमाहट देखकर आप सहज अनुमान लगा सकते हैं बीते दौर मे तेलंगाना विकास की दौड़ मे किस कदर पिछड़ गया होगा | शायद यही वजह थी आंध्र मे के सी आर अनशन कर और आंदोलन के रास्ते काँग्रेस के होश फाख्ता करते रहे और काँग्रेस भी बार बार आश्वासनों का  ही झुनझुना थमाकर उन्हे मनाती रही | लेकिन के सी आर नहीं माने और दो साल के भीतर उन्होने काँग्रेस गठबंधन से अलग होने का फैसला कर लिया | आन्ध्र प्रदेश मे मौजूदा संकट  ऐसा हो गया  था  कि तेलंगाना पर हर कोई आर पार की लड़ाई सीधे लड़ रहा था  जिसमे खुद  काँग्रेस के  सी एम किरण  रेड्डी और  कई विधायक भी शामिल थे  |  यही नहीं इस  मसले पर कई विधायक भी अब भी  सीधे इस्तीफ़ों के जरिये केन्द्र सरकार को सीधे ललकार रहे हैं तो वहीं   तेलंगाना विभाजन से नाराज आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी ने पद से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता भी त्याग दी है।  माना जा रहा है कि किरण कुमार रेड्डी अब नई पार्टी का गठन कर सकते हैं।  भाजपा भी  नई कदमताल तेलंगाना को लेकर पहली बार  कांग्रेस  के   साथ  मिलकर कर रही है क्युकि जल्द ही चुनावी डुगडुगी बजनी है और जनता के सामने जाकर इस मसले पर वोट पाये जा सकते हैं | जबकि अटल बिहारी वाले दौर मे यही दोनों पार्टी  तेलंगाना नहीं बना सकी जबकि उस दौर से  भाजपा अपने को छोटे राज्यो का बड़ा हितेषी साबित करती रही है  | 


दरअसल नए राज्य के बारे मे काँग्रेस की नीति मे बड़ा खोट शुरुवात से देखा जा सकता है | भाषायी आधार पर राज्य की मांग को काँग्रेस ने उठाया जरूर लेकिन 1937 मे ठसक के साथ काँग्रेस जब सत्ता मे आई तो पार्टी ने भाषाई मांग को दोहरा दिया | 1953 मे पहली बार जब भारत सरकार ने फजल के नेतृत्व मे पहला राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया तो नेहरू ने ही   उसकी रिपोर्ट को ठंडे बस्ते मे डाला | राममुलु के त्यागपत्र के बाद आन्ध्र प्रदेश का गठन हुआ तो उसमे  तेलंगाना के लोग शामिल होने को तैयार नहीं हुए परन्तु सरकार ने वहाँ के लोगो को भरोसा दिया तेलंगाना पर विशेष ध्यान उसके द्वारा दिया जाएगा पर ऐसा हुआ नहीं | पूरा ध्यान तो तटीय आन्ध्र  और रॉयल सीमा मे दिया गया जहां विकास की नयी बयार चल निकली |  तेलंगाना के  नेताओ ने  भी  अपने स्वार्थो  के कारण किसी भी दल के साथ जाने से परहेज नहीं किया  | मसलन के सी आर को ली लें तो वो कभी टी डी पी का दामन थामे थे | 2001 मे उन्होने चन्द्रबाबू नायडू  को अलविदा कहा क्युकि नायडू ने उनको मंत्री बनाने से साफ इंकार कर दिया था  जिसके बाद उन्होने तेलंगाना के सरोकारों की अलख जगाने के लिए टी आर एस बनाई | चुनावी साल मे केंद्र और राज्य मे सत्ता की मलाई खाई | 2004 मे काँग्रेस की कृपा से केंद्र मे मंत्री भी बने लेकिन 2006 मे ही तेलंगाना के मसले पर काँग्रेस से नाता तोड़ दिया |  2006 मे काँग्रेस से दूरी बनाकर अपनी खुद की बनाई लीक पर चल निकले लेकिन तेलंगाना के मसले पर उनकी सीटो  मे कुछ खास इजाफा नहीं देखा गया | बाद मे काँग्रेस ने श्रीकृष्णन आयोग की रिपोर्ट बनाकर मामले को ना केवल लटकाया बल्कि तेलंगाना के  मसले से ही पल्ला झाड़ने मे कोई हिचक नहीं दिखाई | गृह मंत्रालय ने कभी भी इस मसले पर कोई सीधे बयान नहीं दिया | यहाँ पर सबसे बड़ी मुश्किल हैदराबाद को लेकर उभरी क्युकि तटीय आन्ध्र के कई नेताओ ने यहाँ  भारी निवेश किया बल्कि कारपोरेट घरानो ने भी अपने अनुकूल बिसात बिछाने मे सफलता हासिल की | ऐसे लोग इसे केंद्र शासित प्रदेश घोषित करने की मांग दोहराते रहे | 

आन्ध्र की राजनीति मे 294 विधान सभा सीटो मे से 119 सीटें तेलंगाना , 175 रायल सीमा और तटीय आन्ध्र की हैं | यही नहीं लोक सभा की 17 सीटें तेलंगाना से हैं और 25 सीटें शेष आन्ध्र से आती हैं | तेलंगाना के फैसले से एक बात साफ है कि कांग्रेस यह  मान  रही है सीमांध्र  में  उसको  जो भारी  नुकसान  होने  जा  रहा   है उसकी बड़ी  भरपाई तेलंगाना कर देगा ।   कांग्रेस ने 2009 में तेलंगाना में 12 सीटें जीती थीं और पूरे आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को 33 सीटें मिली थीं लेकिन यह वाइएसआर का करिश्मा था  क्युकि  इसी  वाइ एसआर फैक्टर  ने कांग्रेस का ग्राफ दक्षिण में चढ़ाया था लेकिन अबकी  बार   आंध्र प्रदेश की राजनीती  काफी बदल चुकी है।   मुख्य रूप से पूरे आंध्र मे काँग्रेस को सबसे ज्यादा चुनौती अगर आने वाले समय मे कोई देने जा रहा है तो वह जगन मोहन रेड्डी ही हैं और बड़े पैमाने पर काँग्रेस के  विधायक इस समय  तेलंगाना  पर आलाकमान  से नाराज चल रहे हैं | आने वाले दिनो मे इस बात की पूरी संभावना है चुनाव पास आने पर इनमे से कुछ लोग अलग पार्टी में  पाला बदल सकते हैं | वहीं दूसरी तरफ तेलंगाना  का  सीधा लाभ के सी आर और कांग्रेस   पार्टी  को मिलना है साथ ही भाजपा  भी मुकाबले में  खुद  को  ला  रही है।  




 आन्ध्र  के  अखाड़े मे अब तेलगु देशम पार्टी की स्थिति भी इस चुनाव मे करो या मारो वाली हो गयी है क्युकि एन डी ए मे जाने के बाद चंद्रबाबू का मुस्लिम वोट उनके हाथ से छिटका है जिसकी भरपाई करना इतना आसान नहीं है | हालांकि भाजपा आन्ध्र मे काँग्रेस को पटखनी देने के  लिए जगन मोहन रेड्डी और चंद्रबाबू नायडू से समझौता  करने का मन बना रही है लेकिन कम से कम जैसे हालात  हैं उसको देखते हुए हमें नहीं लगता फिलहाल आन्ध्र प्रदेश  मे टीडी पी किसी बड़े दल के  साथ कोई समझौता  करने जा रही है | आंध्र की तकरीबन 32 फीसदी मुस्लिम  आबादी मे से 22 फीसदी वोट अकेले तेलंगाना से आते हैं जहां पर चन्द्रबाबू की कोशिश के सी आर की पार्टी के वोट बैंक मे सैंध लगाने की बन चुकी है | ऐसे मे फिलहाल काँग्रेस को सीधी लड़ाई जगन मोहन रेड्डी से लड़नी है |  काँग्रेस मान रही है के सी आर और चंद्रबाबू मुस्लिम वोट मे सैंध लगाएंगे जिससे वह अपने पुराने वोट के  आसरे सीटें  बढ़ा ले जाएगी | मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी भी अब दस जनपथ के फैसले को चुनौती   देने  मे लगे हैं |  

काँग्रेस के आंकलन  और सर्वे रिपोर्टों का आधार क्या है यह तो उनके नेता ही जाने लेकिन फिलहाल आन्ध्र मे काँग्रेस को नेस्तनाबूद करने की रणनीति विपक्षी दल  बना रहे हैं | उनकी कोशिश है आगामी चुनावो मे काँग्रेस को रोकने के  लिए  राज्य मे एक मोर्चा बनाया जाये जहां आकार सभी काँग्रेस  के सामने मुश्किल खड़ी करें लेकिन विपक्षी  दल भी अपने नफे नुकसान के अनुरूप  बिसात बिछा रहे हैं | पुराने अनुभव के  आधार पर फिलहाल टी डी पी भाजपा मे कोई खिचड़ी पक रही  है वहीं वाई एस आर काँग्रेस के  कांग्रेस से समझौते के  आसार कतई  नहीं हैं | मौजूदा आन्ध्र  की राजनीति का सच यह है यहाँ जगन अपने को काँग्रेस से बड़ा खिलाड़ी साबित करने के  मूड मे दिख रहे हैं तो वहीं भाजपा कर्नाटक मे कमल खिलाने के बाद आन्ध्र प्रदेश  मे अपनी संभावनाएँ टटोल रही है और तेलंगाना  से  खाता खोलने की जुगत मे है | लेकिन जिन हालात में तेलंगाना  बिल लोकसभा में पास हुआ है उसमें यकीनन बीजेपी की भी  अंदरखाने  बड़ी सहमति रही है  क्योंकि उसके समर्थन के बिना  तेलंगाना  की राह  आसान  नहीं  बनती । 


अब  बड़ा सवाल तेलंगाना  के  लिए हरी झंडी  दिए  जाने  के उस  तरीके का है जो इस पूरे घटनाक्रम में देश को दिखा है। आंध्र प्रदेश को दो हिस्सों में बांटने के पीछे तर्क था कि छोटे राज्यों का प्रशासन , विकास  बेहतर तरीके से हो सकता है लेकिन तेलंगाना  की मांग आधी सदी से चली आ रही थी।  इतने संवेदनशील मसले को चुनावी  छटपटाहट  में कांग्रेस ने   जिस तरह संसद की मर्यादा  का कर उसे  राजनीतिक रंग  दिया और जिस तरह अपनी पार्टी के विधायको , सांसदो की मांगो को अनसुना किया उसने केंद्र की जिद  को सबके  सामने उजागर कर दिया । बड़ा सवाल  तो उस वायदे को लेकर भी हैं  जो 2004  में  किये  गए  थे और दस बरस  बाद चुनावी साल में उसे पूरा करने की  याद उसे आयी  । एक दशक में मनमोहन  सरकार  की  छवि  जिस तरीके  से तार  तार  गई हो उसमे तेलंगाना का हालिया उदाहरण भी सामने खड़ा है जहाँ जनभावनाओ  को दरकिनार  कर  चुनावी लाभ लेने की ऐसी नई  मिसाल   आज तक देखने को  नहीं मिलती ।  अब यक्ष  प्रश्न  है कि क्या इससे कांग्रेस को  किसी  तरह  का राजनीतिक लाभ मिलने जा  है ।  देखना होगा आने वाले समय  मे तेलंगाना मसले पर सीमांध्र और तेलंगाना  की राजनीती  चुनाव में किस  करवट  बैठती है ? 

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

किसके कितना लाभ मिलेगा, यह तो चुनाव में ही पता चलेगा।