Sunday 27 November 2016

कास्त्रो और क्यूबा

                   


टापू सरीखे  छोटे से देश क्यूबा को शक्तिशाली पूंजीवादी अमेरिका से लोहा लेने वाला बनाने वाले  क्रांतिकारी फिदेल कास्त्रो इस  दुनिया से रुखसत जरूर हो गए लेकिन अपनी ठसक का अहसास पूरी दुनिया को उन्होंने करा दिया  । जैतून के रंग की वर्दी, बेतरतीब दाढ़ी और सिगार पीने के अपने अंदाज के लिए मशहूर फिदेल ने अंतिम दिनों में  स्वास्थ्य कारणों के चलते राजनीति बेशक छोड़ी लेकिन अपने देश में पैदा होने वाले असहमति के सुरों पर शिकंजा बनाए रखा और वाशिंगटन की मर्जी के विपरीत चलकर वैश्विक फलक पर अपनी अलहदा पहचान कायम की ।  तेजतर्रार व्यक्तित्व के धनी और शानदार वक्ता फिदेल कास्त्रो ने अपने शासन में अपनी हत्या की साजिशों, अमेरिका के समर्थन से की गई आक्रमण की कोशिश और कड़े अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों समेत अपने सभी शत्रुओं की तमाम कोशिशों को नाकाम कर दिया। 

13 अगस्त 1926 को जन्मे फिदेल के पिता एक समृद्ध स्पेनी प्रवासी जमींदार थे और उनकी मां क्यूबा निवासी थी। बचपन से ही कास्त्रो चीजों को बहुत जल्दी सीख जाते थे और एक बेसबॉल प्रशंसक थे। उनका अमेरिका की बड़ी लीग में खेलने का सुनहरा सपना था लेकिन खेल में भविष्य बनाने का सपना देखने वाले फिदेल ने बाद में राजनीति को अपना सपना बनाया।  फुलगेंसियो बतिस्ता की अमेरिका समर्थित सरकार के विरोध में गुरिल्ला का गठन किया। बतिस्ता ने 1952 के तख्तापलट के बाद सत्ता पर कब्जा किया था। इस विरोध में संलिप्पता के कारण युवा फिदेल को दो साल जेल में रहना पड़ा और इसके बाद वह अंतत: निर्वासन में चले गए और उन्होंने विद्रोह के बीज बोए। उन्होंने अपने समर्थकों के साथ ग्रानमा पोत से दक्षिण पूर्वी क्यूबा में कदम रखते ही 2  दिसंबर 1956 को क्रांति की शुरूआत की। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत हवाना विश्वविद्यालय में अध्ययन करते हुए प्राप्त किया और तमाम  चुनौतियों से पार पाते हुए 25 महीनों बाद बतिस्ता को सत्ता से बेदखल किया और  एक क्रांतिकारी के रुप में उन्होंने अमेरिका के द्वारा समर्थन किए जा रहे फुल्गेंकियो बतिस्ता के तानाशाह शासन को अपने बल पर उखाड़ फेंका और  प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे ।

फिदेल ने एक समय निर्विवाद रूप से सत्ता में रहे  और  झुकाव सोवियत संघ की ओर था। अमेरिका के 11 राष्ट्रपति सत्ता में आकर चले गए लेकिन फिदेल सत्ता में बने रहे। इस दौरान अमेरिका के हर राष्ट्रपति ने 1959 की क्रांति के बाद से उनके शासन पर दशकों तक दबाव बनाने की कोशिश की। इस क्रांति ने 1989 के स्पेनी-अमेरिकी युद्ध के बाद से क्यूबा पर वाशिंगटन के प्रभुत्व के लंबे दौर का अंत कर दिया। कास्त्रो के सोवियत संघ के साथ जुड़ाव के कारण 1962 क्यूबा मिसाइल संकट के समय विश्व परमाणु युद्ध के कगार पर पहुंच गया था। मास्को ने अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य से मात्र 144 किलोमीटर दूर द्वीप पर परमाणु हथियार ले जाने वाली मिसाइल स्थापित करने की योजना बनाई थी। प्रतिद्वंद्वी महाशक्तियों के बीच तनावपूर्ण गतिरोध के बाद क्यूबाई जमीन से मिसाइल दूर रखने पर मॉस्को के सहमति जताने पर दुनिया परमाणु युद्ध के संकट से बच गई। शासनकर्ता के तौर पर उन्होंने लोगों को साथ लेकर चलने वाली भूमिका निभाई, वर्ष 1965 में वे क्यूबा के कम्युनिष्ट पार्टी के प्रथम सचिव बने और एक दलीय समाजवादी गणतंत्र बनाने में उन्होंने नेतृत्व किया । 

कास्त्रो विश्व के मंच पर ऐसे समय में कम्युनिस्ट नेता बन कर उभरे जब दुनिया शीत युद्ध के चरम पर थी। उन्होंने 1975 में अंगोला में सोवियत के बलों की मदद के लिए 15000 जवान भेजे ।  1976 में राज्य और मंत्रीपरिषद के अध्यक्ष के तौर पर भी चुने गए, इस दौरान उन्होंने क्यूबा के सशस्त्र बलों के कमांडर चीफ का पद अपने ही पास रखा, इन सबके बीच गौर करने वाली बात यह रही वे हमेशा से एक तानाशह के रुप में ही जाने जाते रहे। कास्त्रो को क्यूबा की राष्ट्रीय एसेम्बली ने 1976 में राष्ट्रपति भी  चुना। कास्त्रो ने अमेरिका की इच्छा के विपरीत काम किया और अमेरिका को कई बार नाराज, शर्मिंदा और सचेत किया। अमेरिका ने क्यूबा में विद्रोह की आस में आर्थिक प्रतिबंध लगाए लेकिन इसके बावजूद फिदेल के सत्ता में बने रहने से उसे हताशा ही हाथ लगी। क्यूबाई राष्ट्रपति ने स्वयं कई बार इस क्यूबा में आर्थिक परेशानियों के लिए प्रतिबंध को जिम्मेदार ठहराया था। उन्होंने अपने देश के लोगों को बार बार यह याद दिलाया कि अमेरिका ने द्वीप राष्ट्र पर पहले भी हमला किया है और वह किसी भी समय ऐसा दोबारा कर सकता है। 1989 में सोवियत संघ से मदद नहीं मिल पाने के कारण अर्थव्यवस्था चरमरा जाने के बाद फिदेल ने अधिक अंतरराष्ट्रीय पर्यटन को बढ़ावा दिया और कुछ आर्थिक सुधार किए।  क्रांतिकारी आइकन के तौर पर मशहूर दुनिया के सर्वाधिक चर्चित व विवादास्पद नेताओं में से एक कास्त्रो अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा उनकी हत्या के कई प्रयासों में बचने में कामयाब रहे। उनके निधन की कई खबरें बीच-बीच में आती रहीं, जो अक्सर उनके वीडियो और कभी सार्वजनिक तौर पर उनके सामने आने के बाद निराधार साबित होती रहीं। 

कास्त्रो के समर्थक उन्हें एक ऐसा शख्स बताते हैं, जिन्होंने क्यूबा को वापस यहां के लोगों के हाथों में सौंप दिया। लेकिन विरोधी उन पर लगातार विपक्ष को बर्बरतापूर्वक कुचलने का आरोप लगाते रहे।कास्त्रो ने अप्रैल में देश की कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस को अंतिम दिन संबोधित किया था। उन्होंने माना था कि उनकी उम्र बढ़ रही है, लेकिन उन्होंने कहा था कि कम्युनिस्ट अवधारणा आज भी वैध है और क्यूबा के लोग ‘विजयी होंगे। वर्ष 1992 में क्यूबाई शरणार्थियों को लेकर अमेरिका के साथ उनका एक समझौता हुआ।2008 में उन्होंने स्वास्थ्य कारणों से स्वेच्छा से क्यूबा के राष्ट्रपति पद का त्याग कर दिया।  फिदेल कास्त्रो का कहना था कि वह राजनीति से कभी संन्यास नहीं लेंगे लेकिन उन्हें जुलाई 2006 में आपात स्थिति में आंतों का ऑपरेशन कराना पड़ा जिसके कारण उन्होंने सत्ता अपने भाई राउल कास्त्रो के हाथ में सौंप दी। राउल ने अपने भाई के अमेरिका विरोधी रुख के विपरीत काम करते हुए दिसंबर 2014 में संबंधों में सुधार के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ हाथ मिलाने की घोषणा करके दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया।

क्यूबा के साथ अमेरिका के रंजिश भरे रिश्तों का इतिहास रहा है जिससे दुनिया वाकिफ है। इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की क्यूबा यात्रा का महत्व  बढ़ गया । वैश्विक फलक पर इस यात्रा का सन्देश यह गया अमेरिका और क्यूबा दोनों देशों ने दशकों की दुश्मनी भुला कर एक दूसरे की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा  रहे हैं।  ओबामा ने भी अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में उन्होंने एक और ऐतिहासिक पहल अपने नाम कर ली। ओबामा की यह यात्रा इसलिए भी  ऐतिहासिक मानी गई  क्योंकि 88  बरस  बाद कोई अमेरिकी राष्ट्रपति क्यूबा पहुंचा । इससे पहले जाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति कल्विन बूलीज थे, जो 1928  में क्यूबा  पहुंचे थे। अब तक अमेरिका क्यूबा को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता था लेकिन ओबामा की यात्रा के बाद झटके में  क्यूबा को आतंक फैलाने वाले देशों की सूची से बाहर कर दिया गया । यही नहीं अमेरिकी पर्यटकों के क्यूबा जाने पर लगा प्रतिबंध अमिरिका ने हटा लिया । व्यवसायिक उड़ानें शुरू करने पर रजामंदी हो गई और शोध और नवोन्मेष में सहयोग करने को लेकर रजामंदी हुई । फ्लोरिडा से 90  किलोमीटर दूर क्यूबा में गूगल वाईफाई और ब्रॉडबैंड सेवाओं के विस्तार में मदद करने  सहमति बनी । इस समूचे दौर में अमेरिका के क्यूबा से बेहतर हुए रिश्ते का श्रेय पोप फ्रांसिस को भी जाता है, जिन्होंने क्यूबा के प्रधान पादरी जैम लुकास ओर्टेगा के साथ मिल कर इस मेल-मिलाप की पृष्ठभूमि तैयार करने में अहम भूमिका निभाई। ओबामा हवाना गए तो ओर्टेगा से मिलना और उनका आभार जताना नहीं भूले।   इस यात्रा का प्रभाव यह रहा क्यूबा ने 54  बरस बाद सितंबर  201 5  में अमेरिका में अपना राजदूत नियुक्त किया ।  अगस्त 201 5   में अमेरिका ने क्यूबा की राजधानी हवाना में अपना दूतावास 54  बरस  बाद एक बार फिर खोला था। 

गौरतलब है अमेरिका और क्यूबा के रिश्ते 1959  में तब खराब हुए थे जब फिदेल कास्त्रो ने क्रांति के जरिए अमेरिका के पक्ष वाली सरकार का तख्ता पलट कर क्यूबा में कम्युनिस्ट शासन कायम किया था। फिदेल कास्त्रो और उनके भाई राउल कास्त्रो ने इस वर्ष फुल्गेंसियो बतिस्ता की तानाशाही के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया था। अमेरिका ने शुरू में नई सरकार को मान्यता दी लेकिन 1961  में अमेरिकी कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किए जाने के बाद रिश्ते तोड़ दिए। उसके बाद क्यूबा समर्थन के लिए रूस की ओर चला गया तो अमेरिका ने  1962  में उसके खिलाफ व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए। 1991  में सोवियत संघ  के टूटने  के बाद से क्यूबा को खाने पीने की चीजों, तेल और उपभोक्ता मामलों के क्षेत्र में बार-बार कमियों का सामना करना पड़ा। 195 9  की क्यूबा क्रांति के बाद से अमेरिका और क्यूबा के संबंध न केवल तनाव भरे रहे  बल्कि शत्रुतापूर्ण भी हो गए ।

क्यूबा के साथ नए रिश्ते बनाने का फैसला ओबामा ने इसलिए भी किया, क्योंकि क्यूबा नीति के कारण अमेरिका की दुनिया में  किरकिरी हो रही थी। क्यूबा को अलग-थलग रखने की नीति लैतिन अमेरिका के देशों के साथ अमेरिका के रिश्तों में दरार भी पैदा कर रही थी। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र महासभा हर साल भारी बहुमत से अमेरिका की क्यूबा नीति की निंदा करती थी। अमेरिका इस छोटे से देश पर जो महज 90  किलोमीटर दूर था पर दबाव बनाए हुए था तो चीन, रूस और ब्राजील के नेता नियमित रूप से हवाना जा रहे थे और लाखों का निवेश कर रहे थे। अमेरिका क्यूबा की हाल के दिनों में नई  दोस्ती दोनों देशों की विदेश नीति में एक नए पाठ की शुरुआत रही । बराक ओबामा के कार्यकाल के अंतिम दिनों को  क्यूबा से अमेरिका के राजनयिक संबंधों की बहाली और मेल-मिलाप को उनके एक बड़े काम के तौर पर रेखांकित किया जाएगा। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के क्यूबा दौरे पर फिदेल कास्त्रो ने भी  अपनी चुप्पी तोड़ी । उन्होंने ओबामा की यात्रा के विरोध में 1500  शब्दों का एक लेख लिखा जो  सरकारी अखबार ग्रानमा में छपा । फिदेल ने इस लेख में लिखा  कि 'क्यूबा को साम्राज्य' से किसी तोहफे की जरूरत नहीं है। क्यूबाई पूर्व राष्ट्रपति फिदेल ने पत्र में ओबामा की मेल-मिलाप वाली बातों को 'खुशामदी' बताया है। उन्होंने क्यूबा पर अमेरिकी कारोबारी रोक को हटाने की भी मांग की साथ ही दोहराया यह पाबंदी सिर्फ अमेरिकी संसद के जरिए ही हटाई जा सकती है ।  कास्त्रो का भारत के साथ एक अटूट रिश्ता था ।  भारत भी इसे मानता रहा और खुद फिदेल कास्त्रो भी जिंदगी भर इस रिश्ते का सम्मान करते रहे ।  इंदिरा गांधी को वह अपनी बहन मानते थे और अपनी मुलाकात में जो आत्मीयता दिखाते थे उसकी गवाह दोनों की अतीत की  कई तस्वीरें हैं ।  फिदेल भारत के शुभचिंतकों में भी  शुमार रहे। गुट निरपेक्षता  विकसित करने वाले अपने देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से उनकी निकटता जगजाहिर रही ।

दरअसल फिदेल इसलिए महान नहीं थे कि उन्होंने आधी सदी तक एक देश पर राज किया। वह इसलिए महान थे कि उन्होंने दुनिया को स्वाभिमान से जीना सिखाया। उन्होंने दुनिया को क्यूबा सरीखे टापू युक्त देश के जरिए यह बताया कि कैसे एक समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की जाती है। उन्होंने दुनिया को यह भी बताया कि कैसे एक छोटा सा देश दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश से अपने स्वाभिमान की सफलता और गर्व के साथ रक्षा कर सकता है और  अमरीका सरीखी साम्राज्य वादी ताकतों की नाक में दम कर सकता है ।  फिदेल ने  अमेरिका जैसे सर्वशक्तिशाली देश से आधी सदी तक लोहा लिया। फिर अमेरिका को अपनी शर्तों पर झुकने के लिए मजबूर किया और अमरीका और क्यूबा  दूसरे के करीब लाकर खड़ा कर दिया । फिदेल कास्त्रो आज  हमारे बीच न रहे हों  लेकिन साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ शान और शौकत के साथ मुकाबला करने वाले कप्तान के तौर पर इतिहास उन्हें हमेशा याद करेगा । इस कड़ी में  चे-गेवारा के साथ फिदेल का नाम भी जुड़ जायेगा जिन्होंने अपनी शर्तों पर जिंदगी को जिया और साम्राज्यवादी ताकतों के जुल्मों के खिलाफ मशाल जलाये रखी ।   

No comments: