समाजवादी पार्टी के कुनबे में लड़ाई की खबरे लंबे अर्से से चल रही थीं लेकिन कुछ महीनों पहले इन खबरों पर विराम लग गया था । अब एक बार फिर चाचा-भतीजे में पार्टी में चुनाव पास आते ही वर्चस्व को लेकर नया दंगल शुरू हो गया है। शिवपाल यादव और अखिलेश दोनों के बीच की नूराकुश्ती अब इस लड़ाई को जहाँ सतह पर ला रही है वहीँ ऐसे हालातों में नजरें फिर से एक बार नेताजी पर लग गई हैं । चुनावी बरस से ठीक पहले नेताजी के टिकट बंटवारे के बाद सपा में चाचा भतीजे की लड़ाई एक बार फिर सबके सामने आ गयी है । असल में अखिलेश और शिवपाल में टिकटों को लेकर बात बन नहीं रही है । समर्थकों में भी ठन गई है । सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने भारी भरकम उम्मीदवारों की सूची जारी करके यह जाहिर कर दिया कि पार्टी संगठन में अखिलेश की नहीं अध्यक्ष शिवपाल यादव की ही चलेगी । ऐसा करके नेताजी ने अखिलेश की उन उम्मीदों को ध्वस्त कर दिया है जिसके मुताबिक अखिलेश अपने विकास कार्यो के मुल्लमे के आसरे यू पी की सियासत में नयी लकीर खींचना चाहते थे । यही नहीं नेताजी ने उम्मीदवारों की जारी ताजा लिस्ट में अखिलेश के समर्थकों के पर क़तर दिए हैं जिससे अखिलेश के सामने असहज स्थिति फिर से उत्पन्न हो गयी और कल लखनऊ में अखिलेश ने जिस तर्ज पर अपने समर्थकों की नई लिस्ट जारी की उसने पहली बार सपा में वर्चस्व की जंग की मुनादी कर दी है जिसके बाद तलवारें अब म्यान से बाहर आ गई हैं ।
पिछले कुछ महीनों पहले नेताजी ने जहाँ शिवपाल और अखिलेश में सुलह करवाई उसके बाद लगा ऐसा था सपा में आल इज वेल हो गया है लेकिन शिवपाल यादव ने अपनी सांगठनिक धमक से नए दंगल में अखिलेश यादव को हर दांव में चित कर दिया है । अखिलेश ने शिवपाल के विरोधी को राज्यमंत्री का दर्जा दिया तो शिवपाल ने अखिलेश के करीबियों के टिकट छीन लिए।अखिलेश यादव ने जावेद आब्दी को सिचाईं विभाग में सलाहकार का पद दिया तो ये शिवपाल यादव के खिलाफ गया । जावेद आब्दी को शिवपाल यादव ने रजत जयंती कार्यक्रम में अखिलेश यादव के पक्ष में नारेबाजी करते वक्त धक्का दिया था उसी जावेद आब्दी को अखिलेश यादव ने दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री बना दिया। समाजवादी पार्टी द्वारा डॉन आतिक अहमद अमरमणि को विधानसभा चुनाव का टिकट दिए जाने साथ ही मुख्तार अंसारी के भाई को भी चुनाव का टिकट दे दिया । इस फैसले से मुलायम के परिवार में ही कलह शुरू होने की संभावना दिख रही थीजो अब फिट बैठ रही है । अतीक अहमद की छवि एक बाहुबली की है वहीं बाहुबली मुख्तार अंसारी के भाई सिगबतुल्ला अंसारी को शिवपाल ने टिकट थमा दिया है । यही नहीं कौमी एकता दल से सिगबतुल्ला पहले से ही विधायक है लेकिन अखिलेश के तमाम विरोध के बावजूद उन्हें पार्टी का टिकट न केवल थमाया गया बल्कि अखिलेश के ना चाहते हुए भी पार्टी का विलय सपा में कर दिया गया । इधर बहिन जी 200 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट जिस तर्ज पर देनी की सोच रही हैं उसी की काट के तौर पर कौमी एकता दल का विलय सपा में किया गया ताकि मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण ना हो सके । यही बात अखिलेश को नागवार गुजरी है क्युकि वह विकास की राजनीती के आसरे यू पी के महासमर में अपने को ठोकने का ऐलान कर रहे हैं लेकिन अब नेताजी ने भी हाल में टिकट बंटवारे में जिस तर्ज पर यह घोषणा की है उनके दिए गए टिकट को किसी सूरत में वापस नहीं लिया जायेंगे तो इसके बाद लगता ऐसा है सपा की अंदरूनी जंग अब फिर से सतह पर आ चुकी है । वैसे नेताजी ने टिकटों की घोषणा करने से पहले अखिलेश यादव से भी कोई मशविरा भी नहीं लिया जिससे अखिलेश के समर्थको में नाराजगी साफ़ देखी जा सकती है । अखिलेश बेदाग़ छवि के लोगों को मैदान में उतारने के पक्षधर थे जिसमे उनकी एक नहीं सुनी गयी जिसके बाद सन्देश यही गया भतीजे पर चाचा भारी पड़ रहे हैं ।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर भरोसा कर पिछले विधानसभा चुनाव में प्रदेश की जनता ने उन्हें प्रदेश की वागडोर सौंपी थी। पांच साल के अपने शासनकाल में कुछ मुद्दों पर बेबस होते दिखाई देने वाले युवा मुख्यमंत्री ने हाल के दिनों में अपने विकास कार्यों से जैसी छवि जनता में बनायी उससे एक बार लग ऐसा रहा था अखिलेश सपा के लिए तुरुप का पत्ता बन सकते हैं । कुछ महीनों पहले चाचा-भतीजा प्रकरण के बाद अखिलेश के प्रति जनता की सहानुभूति जिस तर्ज पर दिखी उसके बाद लग ऐसा रहा था अगर यही सहानुभूति वोट में तब्दील हुई तो सपा यू पी में फिर से सत्ता तक पहुँच सकती है । इस लड़ाई से जनता में यह मैसेज गया है कि अखिलेश यादव साफगोई से काम कर रहे हैं लेकिन नेताजी के परिवार वाले उन्हें सही से काम नहीं करने दे रहे । शिवपाल यादव के लाख दबाव के बावजूद अखिलेश ने अपनी सच्चाई सादगी और ईमानदारी से सरकार चलायी लेकिन चुनावो से ठीक पहले जिस तरह अखिलेश के समर्थको को ठिकाने लगाने की नई मुहिम सपा मे शुरू हुई है उससे एक बार फिर पार्टी बंटवारे की राह पर खड़ी हुई नजर आ रही है । फिलहाल प्रदेश में समाजवादी पार्टी को लेकर ही दो गुट दिखाई दे रहे हैं। इनमें एक जुट चाचा शिवपाल यादव का है तो दूसरा गुट मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का जिसमें महीने पहले नेताजी की सुलह के बाद पहले पलड़ा दोनों का बराबरी का दिख रहा था और लग ऐसा रहा था सपा सभी को साथ लेकर चुनाव में अपनी चौसर बिछाएगी लेकिन आज के हालातों में पलड़ा चाचा का ही भारी दिख रहा है जिस पर नेताजी की भी पूरी रजामंदी है । हाल के बरस में अखिलेश की छवि प्रदेश में न केवल साफ- सुथरी बनकर न केवल उभरी है बल्कि एक विकासपरक सोच रखने वाले युवा तुर्क की भी बनी है। वही दूसरी तरफ शिवपाल यादव की छवि एक ऐसे नेता के रूप में सामने आई है जो प्रदेश में बाहुबल को बढ़ावा देने में यकीन रखते हैं जिसकी तासीर हाल में जारी टिकटों में साफ़ झलकी है । अखिलेश के ना चाहते हुए भी उन्होंने अपनी पसंद को टिकटों के आवंटन में तरजीह दी है । विकास के मामले में प्रदेश की राजधानी लखनऊ की ही बात करें तो आज यहां अखिलेश विकास की गंगा बहा चुके है। प्रदेश को पहली बार एक ऐसा युवा सोच वाला मुख्यमंत्री मिला है जिसने यू पी को विकास के मामले में नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है। मेट्रो ट्रायल से लेकर रिवर फ्रंट , क्राइम फ्री जोन से लेकर फ्लाईओवर , जाम में फंसे रहने की किल्लत से लेकर ताजा एक्सप्रेस वे आगरा से लखनऊ तक पहुंचाने में पत्थर की लकीर बनाने में उनकी अहम भूमिका रही जिसमे सुखोई विमान उतारकर अखिलेश ने दुनिया का ध्यान उत्तर प्रदेश की ओर खींच दिया । लैपटॉप से लेकर बड़े-बड़े पार्क , फिल्म सिटी से लेकर आई टी सिटी, हॉस्पिटल्स से लेकर पेंशन स्कीम के जरिये अखिलेश आम युवा तक काफी लोकप्रिय हो गए जिससे शिवपाल के समर्थक असहज हो गए । इस चुनाव में दोनों गुट अपने अपने समर्थकों को टिकट ज्यादा बांटकर अपना शक्ति प्रदर्शन चुनाव के बाद करना चाहते थे जिससे मुख्यमंत्री पद का दावा मजबूत हो सके लेकिन नेताजी के टिकट बंटवारे के बाद अब दोनों के बीच खाई और चौड़ी हो गयी है ।
यह पहला मौका नहीं है जब सपा में विवाद हुआ। इस वर्ष कई बार सपा में कई बार विवाद हो चुका है। जून में मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल के समाजवादी पार्टी में विलय को लेकर अखिलेश राजी नहीं थे। इसके बावजूद शिवपाल ने विलय कराया। सितम्बर में मुख्यमंत्री ने राज्य के प्रमुख शासन सचिव और शिवपाल के करीबी दीपक सिंद्घल को हटाकर राहुल भटनागर को नियुक्त किया। कुछ महीनो पहले ही अखिलेश यादव ने शिवपाल से पार्टी के अहम विभाग छीन लिए थे। इस पर मुलायम ने अखिलेश को सपा के यूपी प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया। बाद में शिवपाल के विभाग लौटाने पड़े। इसके अलावा मुख्यमंत्री ने गायत्री के प्रजापति को मंत्री पद से हटा दिया जो शिवपाल के ख़ास थे । मगर मुलायम सिंह के कहने पर अखिलेश यादव को गायत्री प्रजापति को फिर से बहाल करना पड़ा। अखिलेश गायत्री को नहीं चाहते थे क्योंकि एक बी पी एल कार्ड धारक से लेकर करोड़ों का साम्राज्य बनाने की उनकी कहानी भी काम दिलचस्प नहीं थी और अखिलेश दागियों को किसी कीमत पर नहीं छोड़ना चाहते थे । उन्होंने अपने आखरी मंत्री मण्डल विस्तार में करप्शन करने वालों पर डंडा चलाया लेकिन नेताजी से गलबहियों से अखिलेश का हर दांव उल्टा पड़ गया । यही नहीं सीएम अखिलेश यादव ने अमर सिंह पर निशाना साधते हुए उनके करीबी और शिवपाल यादव सहित चार मंत्रियों को अपने मंत्रीमंडल से बर्खास्त कर दिया जिसके बाद शिवपाल यादव ने अखिलेश यादव के पक्ष में उतरने वाले उदयवीर सिंह को पार्टी से बाहर निकाला दिया। जब रामगोपाल यादव ने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए चिट्ठी लिखी और मुलायम सिंह के करीबी लोगों पर खुला निशाना साधा तो उन्हें भी छह साल के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया जिसके बाद मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश और शिवपाल यादव को गले मिलवाने की कोशिश की लेकिन गले मिलने के फौरन बाद चाचा भतीजे के बीच मंच पर ही झड़प हो गई। फिर जैसे तैसे नेताजी सामने आये और दोनों कोसाधकार उन्होंने शीत युद्ध पर विराम लगाया ।
नेताजी के टिकटों के बंटवारे के बाद अब लग रहा है कि प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के बीच समझौते की कोशिशें महज दिखावा हैं। तलवारें अंदरखाने तनी हुई हैं। चाचा शिवपाल नेताजी को साधकर अखिलेश को मात देने की हर चाल चल रहे हैं । सियासी बिसात पर शह और मात का खेल खेला जा रहा है और अखिलेश भी संघर्ष का रास्ता अपनाने को तैयार खड़े बैठे हैं । सपा की इस नयी लड़ाई में अब कार्यकर्ता फँस रहे हैं । अबकी बार लग ऐसा रहा है कि उत्तर प्रदेश में सपा दो पार्टियों में विभाजित हो जाएगी। सूत्रों की मानें तो अखिलेश यादव ने एक लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के गठन का पूरा मन बना लिया है और कार्यकर्ताओं को कल से इसके लिए तैयार रहने के संकेत भी दे दिए हैं । पहली बार अखिलेश अकेला चलो रे का राग अपनाते दिख रहे हैं और प्रदेश के अधिकतर लोगों की दृष्टि में अखिलेश ही मौजूद हालातों में सहानुभूति की लहर में सवार होकर यू पी की बिसात में ढाई चाल चलकर सबका खेल खराब कर सकते हैं और मजबूत युवा राजनेता के रूप में पहले से ज्यादा निखरकर सामने आ सकते हैं । मौजूदा स्थिति में सबसे असहज स्थिति नेताजी की है। वह परिवारवाद के जाल में खुद उलझते जा रहे हैं। वह पुत्रमोह में जाएँ या भ्राता मोह में उलझन इस बार गहरी हो चुकी है । उन्हें एक रास्ता तो पकड़ना ही होगा । जो भी हो इस प्रकरण से जनता में सपा के प्रति सन्देश ठीक नहीं जा रहा है । वह भी तब जब यू पी में सियासी बिसात बिछनी शुरू हो गयी है और आने वाले नए बरस में चुनाव आयोग चुनावी तिथियों की घोषणा करने वाला है । अब सबकी नजरें फिर से नेताजी की तरफ है ।
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