Thursday 2 November 2017

किस करवट बैठेगा हिमाचल चुनाव का ऊंट

                      



हिमाचल  प्रदेश में  छाई  सर्द हवाओ ने भले ही मौसम ठंडा कर दिया हो लेकिन राजनेताओ के चुनावी प्रचार पर इसका कोई असर नहीं है | राजधानी शिमला से लेकर कुल्लू - मनाली और चंबा सरीखे इलाकों से लेकर लाहुल स्पीति तक विपरीत परिस्थितियों और प्रतिकूल मौसम के बावजूद  ठण्ड में भी प्रत्याशियों का चुनावी पारा सातवे आसमान पर है | टिकटों का घमासान थमने के बाद अब सभी विधान सभाओ में चुनाव प्रचार तेज हो गया है और सभी पार्टियों ने अपनी पूरी ताकत चुनाव प्रचार  पर केन्द्रित कर दी है | जैसे जैसे मतदान की तिथि 9  नवम्बर  पास आती जा रही है वैसे वैसे हिमाचल की शांत वादियों में चुनावी सरगर्मियां  तेज होती जा रही हैं | राज्य में दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों भाजपा और कांग्रेस के बीच इस बार भी मुख्य जंग  है लेकिन बड़े पैमाने पर इन दोनों दलों के बागी प्रत्याशियों के मैदान में होने से खेल बिगड़ने के पूरे आसार दिखाई दे  रहे हैं | 

हिमाचल प्रदेश में कुल 68 विधानसभा सीटे हैं |  पिछले विधानसभा चुनाव में राज्य की 68 सीटों में से कांग्रेस को 36, भाजपा को 26 तो अन्य को 6 सीटें मिली थी | कांग्रेस को 2007 की तुलना में 2012 के विधानसभा चुनाव में 13 सीटों का फायदा हुआ था, वहीं बीजेपी को 2007 की तुलना में 2012 में 16 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा था | 2012 विधानसभा चुनाव में मिले वोटों पर नजर डालें तो कांग्रेस को 43 फीसदी और भाजपा  को 39 फीसदी वोट मिले थे |  2007 की तुलना में कांग्रेस का वोट 5 फीसदी बढ़ा जबकि भाजपा को 5 फीसदी वोट का नुकसान उठाना पड़ा | भाजपा  महज 4 फीसदी वोटों से कांग्रेस से पीछे रही लेकिन कांग्रेस की तुलना में उसे 10 सीटें कम मिली | छोटा राज्य होने के चलते इस बार भी यहाँ हार जीत का अंतर बहुत कम रहने के आसार हैं |  हिमाचल इस  समय उन  राज्यों में शामिल है जहाँ कांग्रेस अपनी सत्ता बचाने की जद्दोजेहद अपने सबसे भरोसेमंद चेहरे वीरभद्र सिंह के आसरे कर रही है | यहां 2012 में केन्द्र  से इस्तीफे के बाद वीरभद्र सिंह ने शानदार वापसी की और बीते चुनाव में कहो दिल से धूमल फिर से के बीजेपी के नारे को आईना दिखा दिया था |   इस बार भी वीरभद्र  सिंह कांग्रेस  का किला बचाने की पूरी  कोशिश कर रहे हैं | उनके सामने भाजपा के  सी एम के चेहरे के रूप में एक बार फिर प्रेम कुमार धूमल  ही खड़े  हैं |

बीते कई दशक से  हिमाचल प्रदेश की राजनीति उत्तराखंड सरीखी भाजपा और  कांग्रेस के इर्द गिर्द ही  रही है | इस बार भी  बीजेपी के प्रेम कुमार धूमल और कांग्रेस के वीरभद्र सिंह के चेहरों के  बीच ही  हिमाचल की जंग है |  वीरभद्र सिंह की  आय से ज्यादा संपत्ति के मामले को लेकर चल रही सीबीआई जांच की वजह से इस  चुनाव में कांग्रेस को  मुश्किलों का सामना करना पड़  रहा है | भाजपा का पूरा चुनाव प्रचार इस दौरान हिमाचल में कांग्रेस के भ्रष्टाचार और माफियाराज पर केंद्रित है | वहीँ  कांग्रेस बीजेपी द्वारा राज्य की उपेक्षा करने और जय शाह  की संपत्ति पर ताबड़तोड़ हमले करने से पीछे नहीं है |   नोटबंदी और जीएसटी का मामला भी इस राज्य में थाली में चटनी सरीखा है | पी एम मोदी की बेदाग़ छवि और भीड़  को वोट में बदलने की उनकी कला का लोहा यहाँ  हर कोई मान रहा है और उम्मीद है हिमाचल भाजपा मोदी मैजिक के  सहारे आसानी से फतह कर जाएगी | 

हिमाचल की  राजनीती के अखाड़े  में यूँ  तो भाजपा और कांग्रेस मुकाबले में बराबरी पर बने हैं लेकिन जिस  तरीके से इस दौर में दोनों दलों  में टिकट के लिए नूराकुश्ती देखने को मिली उसने राज्य के आम वोटर को भी पहली बार परेशान किया हुआ है और पहली बार इस ख़ामोशी के मायने किसी को समझ नहीं आ रहे है जिससे दोनों पार्टियों के सामने  मुश्किलें आ रही है | सभी दलों के नेता अब चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में स्टार प्रचारकों के आसरे हिमाचल को फतह करने के मंसूबे पालने लगे हैं | कानून व्यवस्था, कर्ज में राज्य के डूबे कदम ,बेरोजगारी , पलायन, खेती  जैसे कई और मुद्दे  पार्टियों के चुनावी गणित को पलट सकते है | हाल के बरसों में सरकारों ने युवाओं को रोजगार देने के दावे तो खूब किये हैं लेकिन हिमाचल के रोजगार के मसले पर हालत बहुत अच्छे नहीं हैं | आज भी इस पहाड़ी प्रदेश में नौजवान बेरोजगार नौकरी के लिए दर दर ठोकरें खा रहा है | पलायन भी बदस्तूर जारी है |  इस बार के चुनाव में प्रदेश में मतदान करने वालों में 30  प्रतिशत युवा मतदाता हैं जो पहली बार अपने वोट का इस्तेमाल करेंगे।इनका रुख  किस तरफ रहता है  इस पर सबकी नजरें  रहेंगी |  राज्य में महिलाओं  की बड़ी तादात भी हार जीत के समीकरणों को पलट सकती है | 

हिमाचल में  भाजपा किसी भी कीमत पर अपने हाथ से सत्ता को फिसलते हुए नहीं  देखना चाहती है | इसके लिए वह पिछले कुछ समय से एड़ी चोटी का जोर लगाये हुए है | भाजपा मोदी लहर पर सवार होकर हिमाचल को उत्तराखंड की तरह फतह करना चाहती है | मुख्यमंत्री के चेहरे के ऐलान के बाद  धूमल देर रात तक प्रदेश में अपनी सभाए कर कांग्रेस को निशाने पर ले रहे हैं | मसलन राज्य का वोटर केन्द्र सरकार की महंगाई , जी एस  टी जैसे मुद्दों से ज्यादा परेशान दिख रहा है जिसने एक तरीके से आम आदमी की कमर तोड़ने का काम किया है  | वहीँ  कांग्रेस सरकार में जारी भारी  गुटबाजी और भ्रष्टाचार पर भाजपा जरुर बमबम है  लेकिन हिमाचल में बगावत के फच्चर ने ऐसा पेंच भाजपा के सामने फसाया है जिससे पार पाने की बड़ी चुनौती  अब  पार्टी   के सामने खड़ी हो गई है | लम्बे अरसे तक धूमल और शांता गुटों में विभाजित रहने वाली हिमाचल भाजपा अब  धूमल, शांता और  नड्डा की त्रिमूर्ति की नई  राह पर चल दी है। नड्डा के खेमे में वही नेता इस दौर में  आने को आतुर रहा  जिन्हे धूमल सरकार के  समय  ज्यादा तवज्जो नहीं मिली थी। टिकट की इच्छा रखने वाले लोग भी नड्डा के साथ इस दौर में इसलिए रहे  क्योंकि  नड्डा की नजदीकियां मोदी और शाह से होने के चलते सभी उनको भावी  सी एम  मानने लगे लेकिन हिमाचल विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा ने प्रेम कुमार धूमल को सीएम उम्मीदवार  घोषित कर दिया जिससे जे पी नड्डा के समर्थकों को झटका लगा है | 

राज्य में सबसे ज्यादा करीब 37 फीसदी राजपूत,18 फीसदी ब्राह्मण , 25  फीसदी अनुसूचित जाति , 6  फीसदी  एस टी , 14 फीसदी ओबीसी   मतदाता हैं | हिमाचल की राजनीती में राजपूतों का बड़ा दखल डॉ  वाई एस परमार के दौर से ही रहा है और मंडी, शिमला, कुल्लू , हमीरपुर , काँगड़ा सरीखे इलाकों में  राजपूत हावी रहे हैं |  ऐसे में ब्राह्मण पर दांव खेलकर बीजेपी राजपूतों को नाराज नहीं करना चाहती थी  इसलिए आगे होते हुए भी जे पी  नड्डा धूमल से पिछड़ गए | पिछले कुछ बरस से नड्डा पर जिस तरह पीएम मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने आँख मूँद कर भरोसा जताया  उसे देखते उन्हें  हिमाचल चुनाव में सीएम पद का स्वाभाविक दावेदार माना जा रहा था लेकिन अब धूमल के नाम के ऐलान के बाद नड्डा   समर्थक  किस तरफ जाते हैं यह  देखना होगा ? 

 उधर शांता कुमार के साथ शुरू से धूमल के  छत्तीस  के आंकड़े ने भाजपा को हमेशा की तरह इस बार भी  असहज कर दिया है |  राज्य में कांगड़ा का इलाका  महत्वपूर्ण हो चला है क्युकि यहाँ की तकरीबन 20  सीटें प्रत्याशियों के जीत हार के गणित को सीधे प्रभावित करने का माद्दा रखती हैं | पिछले  कई दशकों  की हिमाचल की  राजनीति पर अगर नजर दौड़ाई जाएँ तो शांता कुमार ही ऐसे   नेता रहे हैं जिन्हे  कांगड़ा का सर्वमान्य नेता कहा जा सकता है और  इसी कांगड़ा के दम पर शांता कुमार दो बार प्रदेश के मुख्यमन्त्रीं भी बने।  यह पूरा इलाका भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का गृह जनपद रहा है लेकिन इस बार टिकट आवंटन में धूमल कैम्प और शांता कैम्प में टशन देखने को मिली उससे भाजपा की परेशानी बढ़ी है | शांता  कुमार सरीखे वरिष्ठ नेताओं को भाजपा हाशिये पर धकेल कर जिस तरह हाल के कुछ बरसों में राज्य में  बढ़ी है, उसका पार्टी को नुकसान भी  उठाना पड़ सकता है। पिछले  चुनाव में भी शांता की नाराजगी भाजपा को भारी पड़ी थी |  कांगड़ा के बाद मंडी हिमाचल में अहम है | यह 10 सीट के साथ प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक  प्रभाव वाला जिला है जहाँ हार जीत के समीकरण तय होंगे | 

इस बार के चुनावो में सत्ता के गलियारों में यह चर्चा आम है कि कांगड़ा में टिकट आवंटन में भाजपा आलाकमान के ज्यादा दखल से  शांता कुमार को पूरी तरह से फ्री हैण्ड नहीं मिल पाया जिसके चलते  धूमल कैम्प टिकट आवंटन में हावी नजर आया | शांता कुमार और धूमल की टशन देखकर उत्तराखंड जेहन में आता  है | उत्तराखंड में शांता की भूमिका में जहाँ सांसद भगत  सिंह कोशियारी  एक दौर में खड़े रहे  वहीँ धूमल की भूमिका में खड़े रहे सांसद  बी सी खंडूरी  | दोनों के बीच टशन से उत्तराखंड  में भाजपा सरकार  अस्थिर हो गई थी | बाद में दोनों की खींचतान  का फायदा निशंक को मिला था जिसके बाद भ्रष्टाचार के मामलो ने निशंक  की  बलि ले ली थी  और इसका नतीजा यह हुआ  उत्तराखंड में  2012 में  हुए चुनावो में भाजपा खंडूरी के नेतृत्व में अच्छा परफार्म  कर गई लेकिन सत्ता में नहीं आ पायी | राजनीती में कुछ भी सम्भव है और उत्तराखंड और हिमाचल की परिस्थितियां  भी कमोवेश एक जैसी ही है लिहाजा इस सम्भावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता अगर यही कलह जारी रहती है तो भाजपा को इस बार भी नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना होगा | 

वहीँ कांग्रेस के सामने भी भाजपा जैसी मुश्किलें इस दौर में राज्य के भीतर हैं | वीरभद्र सिंह  पर  भ्रष्टाचार के नए  मामले कार्यकर्ताओ का जोश ठंडा कर रहे है | वीरभद्र सिंह के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोपों की फुलझड़ी  विपक्ष की ओर से जलाए जाने से कार्यकर्ता हताश और निराश हो गए है | इसका असर यह है कि तकरीबन  आधी  विधान सभा की सीटो पर कांग्रेस को  कड़ी चुनौती  मिलने का अंदेशा बना है  |

 कांग्रेस की मुश्किल इसलिए भी असहज हो चली है क्युकि हमेशा की तरह इस चुनाव में कांग्रेस में गुटबाजी ज्यादा बढ़ गई है | वीरभद्र सिंह का यहाँ पर एक अलग गुट सक्रिय है तो वहीँ  विद्या  स्टोक्स  , पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कौल सिंह ठाकुर और केन्द्रीय मंत्री आनंद शर्मा की राहें भी जुदा जुदा लगती हैं | कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू के साथ वीरभद्र खुद सहज नहीं  पाते हैं | ऐसे कई मौके आये हैं  जब दोनों के बीच जुबानी जंग तेज रही है | अर्की में  अपना नामांकन भरने के बाद वीरभद्र  ने कहा कि सुखविंदर सिंह सुक्खू को विधायक का चुनाव नहीं लड़ना चाहिए था। अगर उन्हें चुनाव लड़ना था तो फिर अध्यक्ष पद से हट जाना चाहिए था।  मुख्यमंत्री के इस बयान से सरकार व संगठन के बीच फिर रार छिड़ने के आसार हैं। हालाँकि इस बार टिकट आवंटन में वीरभद्र ने अपना सिक्का चलाया है और चुनावों से ठीक पहले 27 विधायकों  के समर्थन में एक पत्र कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया  गाँधी को भेजकर खुद को सी एम के चेहरे के तौर पर पेश करने का दांव चला लेकिन भ्रष्टाचार  के आरोप अभी भी  उनकी खुद की  सियासत पर ग्रहण सा लगा  रहे हैं और खुदा ना खास्ता इस चुनाव में अगर वीरभद्र सिंह कांग्रेस की सत्ता में वापसी नहीं करा पाते हैं तो हार का ठीकरा खुद उन्हीं  पर ही ना फूटे | 

हिमाचल में यह ट्रेंड पिछले कुछ  समय से देखने तो मिला है कि यहाँ बारी बारी से भाजपा और कांग्रेस सत्ता में आते रहे हैं | 1977  के बाद सिर्फ एक बार 1985  में यहाँ पर कांग्रेस की वापसी हुई | कांग्रेस में यहाँ  डॉ यशवंत सिंह परमार 1952  से 1977  तक सी ऍम रहे तो ठाकुर रामलाल ने 1977 से 1982  तक सी ऍम की कमान संभाली |  डॉ परमार के शासन का सबसे सुनहरा दौर हिमाचल में कांग्रेस के नाम रहा है शायद इसी के चलते आज जब सबसे अच्छे मुख्यमंत्रियों की बात की जाती है तो सबकी जुबान पर डॉ  परमार का ही नाम आता है और लोग यह कहने लगते है उन्हें यशवंत परमार जैसा मुख्यमंत्री चाहिए | वीरभद्र सिंह 1983 में सी ऍम बने  | 1990  में शांता कुमार की सरकार आई तो 1993  में फिर से वीरभद्र सिंह सी एम  की कुर्सी पर काबिज हुए  और 1998 में हार के बाद  फिर पार्टी में हाशिये पर धकेले गए लेकिन 2003 में  फिर उनकी  शानदार वापसी हो गई |  

2007 में  वीरभद्र सिंह   केंद्र में मंत्री बन गए और 2012 में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते उनकी कुर्सी की बलि चढ़ गई | केंद्र से इस्तीफे के बाद फिर से वह राज्य की सत्ता में कांग्रेस की वापसी कराने में सफल हुए | इस बार  का चुनाव  भी वीरभद्र सिंह  के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर आगे बढ़ रहा है | स्थानीय मुद्दे नदारद हैं तो राष्ट्रीय मुद्दे हावी हैं | चुनावी वादों का पिटारा दोनों राष्ट्रीय दलों ने खोला हुआ है | हर कोई अपने को पाक साफ़  बताने में लगा हुआ है  लेकिन  भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए अबकी बार हालात   मुश्किलों भरे हैं क्युकि दोनों दल बागियों को मनाने के लिए अंतिम समय तक  मान मनोवल करते देखे गए हैं | फिर छोटी विधान सभा और राज्य छोटा होने से यहाँ विधान सभा में हार जीत का अंतर 2000 से 5000 तक रहता है | लहर किसके पक्ष में है इसका पता मतदान के प्रतिशत पर भी  निर्भर करेगा | इस चुनाव में मौसम कैसा साथ देता है इस पर भी सबकी नजरें रहेंगी | आमतौर पर नवम्बर में ठण्ड ज्यादा बढ़ जाती है ऐसे में पार्टियों  के सामने  मतदाताओं को पोलिंग बूथ तक लाने की बड़ी चुनौती होगी | आमतौर पर बढे मतदान के प्रतिशत को सत्ता विरोधी माना जाता है लेकिन पिछले कुछ समय से देश में वोटर का  मिजाज बदला है | अब वह विकास के नाम पर वोट कर रहा है | इन सबके बीच  देखना दिलचस्प होगा हिमाचल में 2017 के चुनावों में ऊंट किस करवट बैठता है ? 

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