Sunday 13 September 2020

राजनीति के शिखर पुरुष थे प्रणब मुखर्जी

 


 पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जीवन की जंग हार गए। 10 अगस्त को तबियत नासाज होने पर सेना के रिसर्च ऐंड रेफरल (आरआर) अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उसी दिन जांच में वे कोरोना पॉजिटिव भी पाए गए। पूर्व राष्ट्रपति ने अपने संपर्क में आए सभी लोगों को टेस्ट करने को कहा और खुद एक ट्वीट कर सबको अपने पाॅजिटिव होने की जानकारी दी। उनके मस्तिष्क में क्लॉट हटाने की सर्जरी के बाद वेंटिलेटर सपोर्ट पर रखा गया। सर्जरी के बाद भी उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ और  विशेषज्ञ डॉक्टरों की टीम उनके स्वास्थ्य की लगातार निगरानी करती रही, लेकिन अंत में प्रणव दा जीवन की जंग हार गए।

प्रणब मुखर्जी का जन्म 11 दिसम्बर 1935 को पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में मिराती गाँव में हुआ था।उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से इतिहास और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर के साथ ही कानून की डिग्री भी हासिल की थी। प्रणब मुखर्जी राजनीति में आने से पूर्व पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ विभाग, कलकत्ता में लोवर डिविजन क्लर्क यानी कनिष्ठ लिपिक हुआ करते थे। 1963 में उन्होंने इस नौकरी को छोड़ 24 दक्षिण परगना जिले के एक कॉलेज में राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक की नौकरी की। उन्होने एक स्थानीय बंगला समाचार पत्र देशहर डाकमे  संवाददाता के पद पर काम भी किया। इसी  दौरान 1969 में बंगाल की मिदनापुर लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हुआ तो पहली  बार कांग्रेस के टिकट पर प्रणब की  सीधे  राज्यसभा मे दस्तक हो गई।  जवाहरलाल नेहरू के अत्यंत करीबी रहे वीके कृष्ण मेनन ने इस चुनाव को बतौर निर्दलीय प्रत्याशी लड़ा और भारी मतों से कांग्रेस के प्रत्याशी को पराजित कर दिया । प्रणब मुखर्जी ने इस चुनाव में कृष्ण मेनन के लिए काम किया था। यहीं से उनके राजनीतिक सितारे सातवें आसमान पर जा पहुंचे । कांग्रेस में अपनी पकड़ मजबूत कर चुकी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुखर्जी के भीतर छिपी प्रतिभा को पहचान उन्हें ना केवल कांग्रेस में शामिल कराया, बल्कि उसी वर्ष राज्यसभा का सदस्य भी बना दिया। प्रणब मुखर्जी ने इसके बाद कभी भी राजनीति में पलट कर नहीं देखा। वे इंदिरा गांधी के अत्यंत विश्वस्त सलाहकारों मे शामिल हो गए। 

राजनीति में प्रणब का  कैरियर शानदार रहा और अपनी सूझ बूझ से उन्होने खास छाप छोड़ी। 1973 में उन्हें इंदिरा मंत्रिमंडल में बतौर उप रक्षामंत्री शामिल भी किया गया । प्रणब दा इंदिरा गांधी की सत्ता वापसी के बाद 1982 में वित्त मंत्री  भी बनाए गए। उन पर ये आरोप भी एक दौर में लगे  कि इंदिरा गांधी  के बाद वो ख़ुद सत्ता संभालना चाहते थे लेकिन इन आरोपों को उन्होंने अपनी किताब दी टर्ब्युलंट इयर्समें  खारिज किया। 1980-1985 के दौरान प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में उन्होंने केन्द्रीय मंत्रीमंडल की बैठकों की अध्यक्षता भी की । उनके इस पद पर रहते हुए ही मनमोहन सिंह को रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया गया था। इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या के तुरंत बाद जब नए उत्तराधिकारी की चर्चा कांग्रेस भीतर शुरू हुई तो प्रणब मुखर्जी ने अपना दावा पेश किया शायद  यही उनकी राजनीतिक भूल साबित हुई  जिसके चलते उन्हें राजीव गांधी के कार्यकाल में कांग्रेस के भीतर पूरी तरह उपेक्षित  कर दिया गया जिसकी कीमत 1986 में उन्होने  काँग्रेस छोड़ने पर मजबूर हो चुकानी पड़ी। वे  काँग्रेस की ठसक को चुनौती देते नजर आए। तब छह सालों के लिए उन्हें  कांग्रेस से निलंबित भी कर दिया तब उन्होने  एक नई पार्टी  राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी  बना ली। हालाँकि  तीन साल के अंदर ही इसका कांग्रेस में विलय हो गया। फिर  वह वापस कांग्रेस में  ही लौटे और नरसिम्हा राव सरकार में विदेश मंत्री के तौर पर अपनी सेवा दी ।

प्रणब दा का जाना भारतीय राजनीतिक के एक युग का अवसान है। सौम्य स्वभाव, सजग दृष्टि, अध्ययनशील चिंतक, प्रखर किन्तु विनम्र बौद्धिकता के साथ साथ वो भारतीय की उस परम्परा के वाहक थे जिसमें राजनीति से ऊपर उठकर लोग एक दूसरे का सम्मान भी किया करते थे। अटल जी के बाद शायद इस कड़ी के आखिरी स्तम्भ थे। आज की राजनैतिक दशा में अब वो सारी बातें अकल्पनीय हैं। विनम्र श्रद्धांजलि प्रणब दा के करियर ने फिर से  लंबी उड़ान भरी  नब्बे के दशक में जब राजीव गांधी की हत्या के बाद पी. वी नरसिम्हा राव ने उन्हें योजना आयोग का डिप्टी चेयरमैन बनाया गया । राव के  कार्यकाल में ही उन्होंने पहली बार विदेश मंत्री का पदभार भी ग्रहण किया और नई लकीर खींची ।

 2004 में  जब लोकसभा चुनाव  सम्पन्न हो चुके थे तो  सोनिया गाँधी के नेतृत्व में यूपीए द्वारा बहुमत हासिल कर लिया गया था। सोनिया गाँधी को भारत की अगली प्रधानमंत्री के तौर पर काँग्रेस के कार्यकर्ताओं ने भी स्वीकार कर लिया गया था लेकिन राजनीति ने  उस  दौर में बेहद दिलचस्प  यू टर्न लिया और सोनिया गाँधी का विदेशी मूल का होना ही उन्हें भारी पड़ गया जिसके बाद इस मुद्दे पर राजनीति खूब हुई  और इन सब के बीच सोनिया  गांधी ने अपना नाम पीएम बनने की दौड़ से बाहर कर लिया और यहीं से कांग्रेस के भीतर शुरू हुई  नए प्रधानमंत्री की तलाश जिनमें अर्जुन सिंह मनमोहन सिंह के  साथ प्रणब मुखर्जी का भी नाम शामिल था । अर्जुन सिंह का दावा बढ़ती सेहत के मद्देनजर  कमज़ोर था तो वहीं मनमोहन सिंह सोनिया के यस मैन बने और  प्रणब मुख़र्जी पर भारी पड़े  क्योंकि प्रणब दा ठीक से हिंदी नहीं बोल पाते थे। बाद में  प्रणब दा ने खुद इस बात को स्वीकारा था वह पी एम नहीं बन पाये क्युकि वह हिन्दी ठीक से नहीं बोल पाते थे हालाँकि कहा यह भी जाता है कि उनकी कठपुतली न बनने की आदत ने ही उनके और पीएम पद के बीच रोड़ा अटकाया था। इस कारण वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। इन्दिरा से निकटता के चलते वह  सोनिया गांधी  के करीब आए और यूपीए सरकार के दस बरसों में वे ना केवल वित्त, रक्षा और विदेश मंत्रालय के मंत्री रहे, बल्कि यू पी ए के सबसे भरोसेमंद सलाहकार और ट्रबल शूटर बनकर भी उभरे । काँग्रेस के साथ यू पी ए पर जब भी संकट आया तब तब प्रणव मुखर्जी ही आगे आए जिनकी सर्वस्वीकार्यता सभी दलों मे थी। अनुभवों का अनंत भंडार रखनेवाले प्रणब दा पर कभी भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा। किसी घोटाले में भी उनका नाम कभी नहीं आया। हरित क्रांति लानेवाले सी. सुब्रमण्यम के सान्निध्य और साहचर्य में सरकारी कामकाज सीखने वाले प्रणब दा बहुत मेहनती थे। सुबह से लेकर देर रात तक खटते करते थे। कोई काम कल पर नहीं छोड़ते थे। कदाचित इन्हीं गुणों के कारण वे राजनीति में चार दशकों से भी लंबी सफल पारी खेल सके थे।

राष्ट्रपति बनने से पहले वित्त मंत्रालय और आर्थिक  मंत्रालयों में उनके नेतृत्व और कामकाज  का लोहा  राजनीति के हर व्यक्ति ने माना। कांग्रेस नेतृत्व की तीन पीढ़ियों के साथ काम करने वाले गिने चुने नेताओं में रहे पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी लंबे समय के लिए देश की आर्थिक नीतियों को बनाने में महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में हमेशा याद किए जाएँगे ।  उनके नेत़त्व में ही भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के ऋण की 1.1 अरब अमेरिकी डॉलर की अन्तिम किस्त नहीं लेने का गौरव अर्जित किया था वह भी उस दौर मे जब 2008 मे अमरीका के सब प्राइम संकट ने पूरी दुनिया को आर्थिक मंदी के दौर मे धकेला। यह सब प्रणब मुखर्जी की सूझ बूझ का कमाल था उनके वित्त मंत्रालय मे रहते भारत की अर्थव्यवस्था पटरी से नहीं उतरी और कई तरह के राहत पैकेज देकर अर्थव्यवस्था मे जान फूंकने की कोशिश उनके द्वारा की गई।

प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने का किस्सा भी राजनीति में बड़ा  दिलचस्प है।  प्रणब दा पहली बार सांसद बने थे तो  उनसे मिलने उनकी बहन आई हुई थी। अचानक चाय पीते हुए प्रणब दा ने अपनी बहन से कहा कि वो अगले जनम में राष्ट्रपति भवन में बंधे रहने वाले घोड़े के रूप में पैदा होना चाहते हैं। इस पर उनकी बहन अन्नपूर्णा देवी ने  कहा कि, ‘घोड़ा क्यों बनोगे? तुम इसी जनम में राष्ट्रपति बनोगे और वो भविष्यवाणी सही भी साबित हुई और प्रणब दा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के महामहिम बने भी। 2012 में कांग्रेस ने उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर  देश के तेरहवां राष्ट्रपति की  कुर्सी पर काबिज कर दिया । प्रणब मुखर्जी ऐसे दौर में राष्ट्रपति बने जब  भाजपा मोदी की  प्रचंड सुनामी के साथ  केंद्र की सत्ता में काबिज हुई। इन सबके बाद भी प्रणब मुखर्जी ने अपने पूरे कार्यकाल को किसी भी तरह के विवादों से दूर रखा। उस दौर में प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी  के कसीदे पढ़ने मे भी  प्रणब मुखर्जी पीछे नहीं रहे । मोदी की असीमित ऊर्जा और काम करने की शैली की  खुले आम तारीफ करने से भी वह  हमेशा आगे रहे । राष्ट्रपति पद  रहते हुए  प्रणव  का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुख्यालय जाने का निर्णय ऐतिहासिक रहा। तब प्रणब मुखर्जी के नागपुर संघ कार्यालय जाने को खूब कवरेज मिली । प्रणब मुखर्जी का निर्णय कुछ को नागवार गुजरा तो कुछ लोगों  ने उनकी इस पहल को सराहा भी। मोदी की इस यात्रा के पीछे  संघ  प्रमुख मोहन भागवत की  कुशल रणनीति ने काम किया। संघ मुख्यालय में लाने में मोहन भागवत  की बड़ी भूमिका रही । कांग्रेस के उनकी यात्रा को रोकने के  तमाम प्रयासों के बावजूद भागवत प्रणब दा को न केवल नागपुर खींच लाए, बल्कि मंच से  संघ संस्थापक केशव राव बलिराम  हेडगेवार की भूरी भूरी प्रशंसा भी पूर्व राष्ट्रपति से करवा डाली। हालांकि प्रणब मुखर्जी ने संघ मुख्यालय में दिए अपने संबोधन में भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति पर अपना फोकस रखा लेकिन  कांग्रेस को जो  नुकसान होना था, वह होकर ही रहा।

प्रणब दा चाहे जितने बड़े पद पर रहे, यहां तक कि राष्ट्रपति बन जाने पर भी वे दुर्गापूजा में अपने गांव मिराती आना कभी नहीं भूलते थे। तीन दिनों तक पारंपरिक भद्र बंगाली पोशाक में दुर्गापूजा करते थे। राष्ट्रपति पद से अवकाश लेने के बाद प्रणब दा का अधिकतर समय लिखने-पढ़ने पर खर्च होता था। प्रणब दा संसद में दिए भाषणों के संकलन से लेकर राष्ट्रपति के रूप में अपने भाषणों के संकलन की तैयारी में स्वयं रुचि ले रहे थे। प्रणब दा की किताब कांग्रेस एंड मेकिंग आफ इंडियन नेशन’ (दो खंड) में कांग्रेस के 125 वर्षों के इतिहास व उसकी बाहरी व भीतरी चुनौतियों का आख्यान है। उनकी इधर के वर्षों में आई किताबों- 'द ड्रैमेटिक डिकेड : द इंदिरा गांधी ईयर्स', ‘द टर्बुलेंट ईयर्स’, ‘द कोएलिशन इयर्स’, ‘थाट्स एंड रेफ्लेक्शनका जिस तरह स्वागत हुआ, उससे वे उत्साहित थे। 'द ड्रैमेटिक डिकेड : द इंदिरा गांधी ईयर्स' में इमरजेंसी, बांग्लादेश मुक्ति, जेपी आंदोलन, 1977 के चुनाव में हार, कांग्रेस में विभाजन, 1980 में सत्ता में वापसी और उसके बाद के विभिन्न घटनाक्रमों पर अलग-अलग अध्याय हैं। द टर्बुलेंट ईयर्समें 1980 से 1996 के राजनीतिक इतिहास को उन्होंने कलमबद्ध किया था और द कोएलिशन इयर्समें 1996 से 16 वर्षों तक के राजनीतिक घटनाक्रम को उन्होंने शब्द दिए थे। थाट्स एंड रेफ्लेक्शनकिताब में विभिन्न विषयों पर प्रणव दा के विचार संकलित थे।

प्रणब मुखर्जी ने इंदिरा गांधी, पीवी नरसिंह राव, सीताराम केसरी और सोनिया गांधी के नेतृत्व में कई कठिन परिस्थितियों में अपनी बुद्धिमत्ता तथा राजनीतिक कौशल से कांग्रेस पार्टी को संकट से उबारा था। उन्होंने दशकों तक कांग्रेस के लिए थिंक टैंक के रूप में काम किया। आर्थिक तथा वित्तीय मामलों के विशेषज्ञ माने जाने वाले प्रणब दा को न्यूयार्क की पत्रिका यूरो मनी ने 1984 में विश्व के सर्वश्रेष्ठ पांच वित्त मंत्रियों में एक माना था। उनके राजनीतिक चातुर्य का लोहा विरोधी भी मानते रहे हैं। इसलिए क्योंकि प्रणब दा ने अपनी राजनीति को मूल्यवान बनाए रखा था। उनके लिए राजनीति का अर्थ चुनावों में जीत, सत्ता और तंत्र की राजनीति नहीं थी। उनकी राजनीति का संबंध मूल्यों से था। वे उन चुनिंदा नेताओं में थे जो राजनीति के मूल्यों के प्रति सदा-सर्वदा सचेत रहते हैं और नाना धर्मों में आस्था रखनेवाले और दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णुता रखनेवाले धर्मनिरपेक्ष लोगों के साथ सदैव तनकर खड़े रहते हैं। उन्होंने राजनीतिक लाभ के लिए कभी सिद्धांतविहीन समझौते नहीं किए।

प्रणब को साल 1997 में सर्वश्रेष्ठ सांसद का अवार्ड भी मिला । वहीं 2008 के दौरान सार्वजनिक मामलों में उनके योगदान के लिए  उन्हें भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से नवाजा गया। इतना ही नहीं  26 जनवरी 2019  को उन्हें भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया। अपने अब तक के राजनीतिक जीवन में प्रणब दा ने कई सारी जिम्मेदारियां बखूबी निभाईं और अपनी कार्यशैली से हर किसी को प्रभावित किया। भारत सरकार के लिए विदेश, रक्षा, वाणिज्य और वित्त मंत्रालय में किया गया उनका काम हमेशा याद किया जाता रहेगा । प्रणब  मुखर्जी बेशक  राज्यसभा के लिए  5 बार चुने गए और 2 बार लोकसभा सांसद भी रहे लेकिन इतिहास में बेहतर वित्त मंत्री  के तौर पर उनका कार्यकाल हमेशा याद किया जाता रहेगा । हरित क्रांति लाने वाले सी. सुब्रमण्यम के सान्निध्य और साहचर्य में सरकारी कामकाज सीखने वाले प्रणव  बहुत मेहनती भी थे। सुबह से लेकर देर रात तक काम ही काम  करते रहते  थे। दिन भर किए कामों की डायरी लिखना भी नहीं भूलते थे,  कोई काम कल पर भी नहीं छोड़ते थे। आमतौर पर आज के हमारे नेताओं की याददाश्त दुरुस्त नहीं रहती लेकिन प्रणब इसके अपवाद थे।एक बार किसी से मिल लेते थे तो उसका नाम नहीं भूलते थे और गर्मजोशी के साथ हर किसी से मिला करते थे । रायसीना हिल्स के उनके दरवाजे आम जनता के लिए हमेशा खुले रहते थे।  देश में होने वाले गंभीर विमर्शों का हिस्सा प्रणव दा हुआ करते थे कदाचित इन्हीं गुणों के कारण वे राजनीति में चार दशकों से भी लंबी  सफल  राजनीतिक पारी खेल सके । मेरी अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि 

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