Tuesday, 30 December 2025

हजारों सवाल, एक खामोशी…गहरे सवाल छोड़ गए मनमोहन

डा. मनमोहन सिंह का नाम भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था में अमिट स्थान रखता है।  डॉ. मनमोहन  ने एक ऐसे नेता को खो दिया, जिसने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया, बल्कि वैश्विक मंच पर भारत की सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई। उनकी सादगी, विद्वत्ता और दूरदर्शिता ने उन्हें एक असाधारण नेता बनाया। 1991 में जब भारत गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा था, डा. मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू की। विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म हो चुका था और देश कर्ज के बोझ तले दबा हुआ था। इस कठिन समय में, उन्होंने साहसिक निर्णय लेते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक बाजारों के लिए खोला। उनके नेतृत्व में किए गए सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर और प्रतिस्पर्धी बनाया। लाइसेंस राज का खात्मा, विदेशी निवेश को प्रोत्साहन और निजीकरण को बढ़ावा देना उनके सुधारों के मुख्य स्तंभ थे। इन नीतियों ने न केवल आर्थिक संकट को टाला, बल्कि भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल कर दिया। 2008 में जब अमरीका और पश्चिमी देशों में आर्थिक मंदी आई, तब भारत भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहा। उस समय डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और उनकी आर्थिक नीतियों ने भारत को इस संकट से बचाने में अहम भूमिका निभाई। उनकी सरकार ने वित्तीय स्थिरता बनाए रखने के लिए तत्काल कदम उठाए। सार्वजनिक निवेश बढ़ाने, रोजगार सृजन और ग्रामीण क्षेत्रों में मांग को बढ़ावा देने के लिए मनरेगा जैसी योजनाओं को लागू किया गया। इन नीतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को मंदी के प्रभाव से उबरने में मदद की और ये साबित किया कि डा. सिंह न केवल एक कुशल अर्थशास्त्री हैं, बल्कि एक सक्षम संकट प्रबंधक भी। डा. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भारत ने अपने पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को मजबूत करने पर जोर दिया।

सार्क (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) को सक्रिय बनाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, और श्रीलंका के साथ व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया। डा. सिंह का मानना था कि पड़ोसी देशों के साथ मजबूत संबंध क्षेत्रीय स्थिरता और विकास के लिए आवश्यक हैं। उनके कार्यकाल में भारत-पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता और सीमा पर तनाव को कम करने के प्रयास किए गए। डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारत ने वैश्विक मंच पर अपनी स्थिति को मजबूत किया। उन्होंने भारत-अमरीका परमाणु समझौते को सफलतापूर्वक अंजाम दिया, जिसने भारत को परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। ये समझौता उनकी कूटनीतिक कुशलता और दृढ़ निश्चय का परिचायक था। इसके अलावा, उन्होंने जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद और वैश्विक आर्थिक सहयोग जैसे मुद्दों पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की आवाज को मजबूती से रखा। उनके नेतृत्व में भारत ने ब्रिक्स और जी-20 जैसे मंचों पर सक्रिय भूमिका निभाई। डा. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों की स्थिति सुधारने के लिए कई प्रयास किए गए थे। उनका एक बड़ा कदम सच्चर आयोग का गठन था। यह आयोग भारतीय मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए बनाया गया था।

मनमोहक जीवन

डा. मनमोहन सिंह का जन्म 26 सितंबर, 1932 को पंजाब के चकवाल जिला के गाह (अब पाकिस्तान में) गांव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पाकिस्तान और फिर भारत में हुई। मनमोहन सिंह ने पंजाब विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र की पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज से पढ़ाई की और यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड से डीफिल की पढ़ाई की। डा. सिंह ने अपने करियर की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संगठनों में की। राजनीति में आने से पहले वह सरकार में कई अहम प्रशासनिक पदों पर रहे, जिनमें मुख्य आर्थिक सलाहकार, रिजर्व बैंक के गवर्नर और योजना आयोग के उपाध्यक्ष जैसे अहम पद शामिल हैं।

राजनीतिक सफर

1980 के दशक में डा. सिंह का राजनीतिक सफर शुरू हुआ। वह 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री बने और इसके बाद 2004 से 2014 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने ऐतिहासिक आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की। मनमोहन सिंह को आर्थिक उदारीकरण के साथ ही सूचना का हक कानून, मनरेगा, आधार कार्ड और आरटीई के साथ ही अमरीका के साथ ही असैन्य परमाणु समझौते के लिए हमेशा याद किया जाएगा। मनमोहन सिंह के परिवार की बात करें तो उनके परिवार में पत्नी गुरशरण कौर और तीन बेटियां और उनके परिवार शामिल हैं।

पांच ऐतिहासिक उपलब्धियां

1. आर्थिक उदारीकरण का सूत्रपात (1991)

2. आईटी और टेलीकॉम क्रांति

3. ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा)

4. भारत-अमरीका परमाणु समझौता (2008)

5. शिक्षा में सुधार

डा.मनमोहन सिंह के शांत स्वभाव और साधारण विचारों के कारण लोग इन्हें काफी पसंद करते थे। यही वजह थी कि प्रधानमंत्री रहते हुए भी इनके 2013 के एफिडेविट में सिर्फ एक कार  मारुति 800 पाई गई। मनमोहन सिंह के पास एक 1996 मॉडल की मारुति 800 कार रही। इस कार इन्हें इतना लगाव था कि बीएमडब्ल्यू को भी छोड़ दिया था। मनमोहन सिंह के पास को मारुति सुजुकी 800 कार थी, उसमें 796 सीसी का 3 सिलेंडर वाला इंजन मिलता थी जो 37 बीएचपी की पावर और 59 एनएम का टार्क जनरेट करने में सक्षम था।हालांकि 2004 से 2014 तक देश के प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह बीएमडब्ल्यू 7 सीरीज कार भी थी, जोकि देश की सबसे ज्यादा सुरक्षित कार थी। योगी सरकार में मंत्री असीम अरुण ने डा. मनमोहन सिंह के साथ अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बताया कि डा. साहब की अपनी एक गाड़ी थी। प्रधानमंत्री आवास में मारुति 800 , चमचमाती काली बीएमडब्ल्यू के पीछे खड़ी रहती थी। वह बार-बार मुझसे कहते, ‘असीम, मुझे इस लग्जरी कार में चलना पसंद नहीं, मेरी गाड़ी तो यह मारुति 800 है। बता दें कि असीम एक जमाने में मनमोहन सिंह की एसपीजी टीम में बॉडीगॉर्ड थे।

उर्दू में लिखे होते थे भाषण

डा. मनमोहन सिंह के निधन पर उनके मीडिया सलाहकार रहे संजय बारु ने पूर्व प्रधानमंत्री याद करते हुए उनसे जुड़े तमाम किस्से साझा किए। संजय बारू के मुताबिक मनमोहन सिंह को हिंदी पढऩा नहीं आता था। उनके भाषण या तो गुरुमुखी में या फिर उर्दू में लिखे होते थे। 2014 में अपनी किताब में भी संजय बारु ने इस बात का जिक्र किया था कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हिंदी नहीं पढ़ पाते हैं। उनके सभी भाषण भी उर्दू में लिखे होते थे। उन्होंने किताब में लिखा था कि मनमोहन सिंह हिंदी में बात तो कर सकते थे, लेकिन कभी देवनागरी लिपि या हिंदी भाषा में पढऩा नहीं सीखा। हालांकि, उर्दू पढऩा उन्हें बखूबी आता था। यही कारण था कि, मनमोहन सिंह अपने भाषण अंग्रेजी में दिया करते थे। उन्हें अपना पहला हिंदी भाषण देने के लिए तीन दिन तक प्रैक्टिस करनी पड़ी थी।

दादा-दादी ने पाला

डा. मनमोहन सिंह पाकिस्तान से विस्थापित होकर हल्द्वानी आए थे। बचपन में ही उनकी मां का निधन हो गया था। दादा-दादी ने ही उनके पालन पोषण किया। उन्होंने गांव में लालटेन की रोशनी में पढ़ाई की। पिता चाहते थे कि वह डाक्टर बनें, इसलिए प्री-मेडिकल कोर्स में दाखिला लिया। हालांकि, कुछ महीनों बाद ही उन्होंने कोर्स छोड़ दिया।

संसद के बाहर बोले थे, हजारों जवाबों से अच्छी मेरी खामोशी

किस्सा 27 अगस्त, 2012 का है, जब संसद का सत्र चल रहा था। मनमोहन सरकार पर कोयला ब्लॉक आबंटन में भ्रष्टाचार का आरोप लगा। तब मनमोहन सिंह ने कहा कि कोयला ब्लाक आबंटन को लेकर कैग की रिपोर्ट में अनियमितताओं के जो आरोप लगाए गए हैं, वे तथ्यों पर आधारित नहीं हैं और सरासर बेबुनियाद हैं। उन्होंने लोकसभा में बयान देने के बाद संसद भवन के बाहर मीडिया में भी बयान दिया। उन्होंने उनकी ‘खामोशी’ पर ताना कहने वालों को जवाब देते हुए शेर पढ़ा, ‘हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी’।

अकसर पहनते थे नीली पगड़ी

मनमोहन सिंह अकसर नीली पगड़ी पहनते थे। इसके पीछे क्या राज था, यह उन्होंने 11 अक्तूूबर, 2006 को कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में खोला था। उन्हें ड्यूक ऑफ एडिनबर्ग, प्रिंस फिलिप ने डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया था। तब प्रिंस फिलिप ने अपने भाषण में कहा था कि आप उनकी पगड़ी के रंग पर ध्यान दे सकते हैं। इस पर मनमोहन सिंह ने कहा कि नीला रंग उनके अल्मा मेटर कैंब्रिज का प्रतीक है। कैंब्रिज में बिताए मेरे दिनों की यादें बहुत गहरी हैं। हल्का नीला रंग मेरा पसंदीदा है, इसलिए यह अकसर मेरी पगड़ी पर दिखाई देता है।

एक अनूठा गौरव

डा.मनमोहन सिंह को भारत में एक रुपए से 100 रुपए तक के करंसी नोटों पर हस्ताक्षर करने वाली एकमात्र हस्ती होने का अनूठा गौरव प्राप्त है। देश में एक रुपए के नोट पर वित्त सचिव और दो रुपए और उससे ऊपर के नोट पर आरबीआई गवर्नर के हस्ताक्षर होते हैं। डाक्टर ङ्क्षसह ने दोनों पदों पर कार्य किया था।17अक्तूबर, 2022 को कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में वोट डालने पहुंचे। 17 अक्तूबर, 2022 को ही कांग्रेस प्रेजिडेंशिल इलेक्शन हुआ था। इस दौरान 90 साल के मनमोहन सिंह चुनाव में वोट डालने कांग्रेस हैडक्वॉर्टर पहुंचे। इस दौरान गेट के अंदर दाखिल होते हुए वह लडख़ड़ा गए थे।

बतौर पीएम आखिरी प्रेस  कान्फ्रेंस तीन जनवरी, 2014

डा. मनमोहन सिंह ने तीन जनवरी, 2014 को बतौर पीएम आखिरी प्रेस कांफ्रेंस की थी। उन्होंने प्रेस कान्फ्रेंस कर अमरीका के साथ परमाणु करार की घोषणा की थी। आखिरी प्रेस कान्फ्रेंस के दौरान उनके सामने 100 से ज्यादा पत्रकार-संपादक बैठे थे। यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई थी और सारे सवाल उसी से जुड़े थे। उस प्रेस कान्फ्रेंस के दौरान डा. सिंह ने 62 अनस्क्रिप्टेड सवालों के जवाब दिए थे। तब मनमोहन सिंह ने खुद की आलोचना को लेकर कहा था कि उन्हें ‘कमजोर प्रधानमंत्री’ कहा जाता है, लेकिन ‘मीडिया की तुलना में इतिहास उनके प्रति अधिक उदार रहेगा।’

बेटियों ने बनाई अपनी अलग पहचान

मनमोहन सिंह की तीन बेटियां उपिंदर सिंह, अमृत सिंह और दमन सिंह हैं। पूर्व पीएम की तीनों बेटियों का भी अपने-अपने क्षेत्र का बड़ा नाम हैं।  मनमोहन सिंह की एक  बेटी उपिंदर सिंह एक जानी-मानी इतिहासकार और अशोका विश्वविद्यालय की डीन हैं। पूर्व में वे दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग की प्रमुख भी रह चुकी हैं। हाल ही में इनकी  प्राचीन भारत की अवधारणा- धर्म, राजनीति और पुरातत्व पर  बेहतरीन किताब  आई है। ये किताब दक्षिण एशिया के शुरुआती इतिहास के पुनर्निर्माण में हाल के दृष्टिकोणों और चुनौतियों पर प्रकाश डालती है। वह देश से लेकर विदेश तक की यूनिवर्सिटी में पढ़ चुकी हैं, पढ़ा चुकी हैं। कई रिसर्च कर चुकी हैं। मनमोहन सिंह की दूसरी बेटी अमृत सिंह एक मशहूर मानवाधिकार वकील हैं और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के लॉ स्कूल में प्रैक्टिस ऑफ लॉ की प्रोफेसर हैं। अमृत सिंह रूल ऑफ लॉ इम्पैक्ट लैब की कार्यकारी निदेशक भी हैं। दमन सिंह लेखन जगत में सक्रिय हैं और उन्होंने ही मनमोहन सिंह के जीवन पर किताब स्ट्रिक्टली पर्सनल मनमोहन एंड गुरशरण, ए मेमोयर लिखी है। इस किताब में मनमोहन सिंह के निजी जीवन के बारे में काफी जानकारी दी गई है। इसके अलावा दमन सिंह ने द सेक्रेड ग्रोव और नाइन बाइ नाइन भी लिखी हैं।

अमरीका से परमाणु डील पर अड़ गए थे मनमोहन 

डा. मनमोहन सिंह 2004 में प्रधानमंत्री बने। वह गठबंधन यूपीए सरकार चला रहे थे। भारत-संयुक्त राज्य अमरीका असैन्य परमाणु समझौते का लेफ्ट पार्टियों ने कड़ा विरोध किया। इसके बावजूद वह इस पर अड़े रहे। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने मदद की। डा. सिंह कुछ दलों को मनाने में सफल रहे, जिन्होंने परमाणु समझौते के प्रति अपना विरोध वापस ले लिया। हालांकि, वामपंथी दलों ने इस सौदे का पुरजोर विरोध जारी रखा और सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। समाजवादी पार्टी ने पहले इसका विरोध करने में वाम मोर्चे का समर्थन किया था, लेकिन बाद में अपना रुख बदल दिया। मनमोहन सिंह की सरकार को विश्वास की परीक्षा से गुजरना पड़ा और वह 275-256 मतों से बच गई। डा मनमोहन सिंह और तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 18 जुलाई, 2005 को सौदे की रूपरेखा पर एक संयुक्त घोषणा की और यह औपचारिक रूप से अक्तूूबर 2008 में लागू हुआ। यह भारत के लिए एक बड़ी जीत थी, जिसे अमरीका द्वारा परमाणु अछूत माना जाता था। इस सौदे ने न केवल भारत को एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति के रूप में स्थापित किया, बल्कि इसने अमरीका को नागरिक कार्यक्रमों के लिए प्रौद्योगिकी के साथ भारत की सहायता करने की भी अनुमति दी।

ओबामा ने कहा था, जब मनमोहन बोलते हैं तो दुनिया सुनती है

आर्थिक उदारीकरण में मनमोहन सिंह के विशेष योगदान के लिए उन्हें पूरी दुनिया में याद किया जाता है। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी एक बार मनमोहन सिंह की तारीफ करते हुए कहा था कि ‘जब मनमोहन सिंह बोलते हैं, तो पूरी दुनिया सुनती है।’ ओबामा ने अपनी किताब ‘ए प्रॉमिस लैंड’ में भी मनमोहन सिंह की जमकर तारीफ की थी। बराक ओबामा की यह किताब 2020 में आई थी।

किताब में ओबामा ने लिखा था कि मनमोहन सिंह भारत की अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण के इंजीनियर रहे हैं। उन्होंने लाखों भारतीयों को गरीबी के दुश्चक्र से बाहर निकाला है। ओबामा ने बताया था कि उनके और मनमोहन सिंह के बीच गर्मजोशी भरे रिश्ते थे। ओबामा ने लिखा कि मेरी नजर में मनमोहन सिंह बुद्धिमान, विचार और राजनीतिक रूप से ईमानदार व्यक्ति हैं। भारत के आर्थिक कायाकल्प के चीफ आर्किटेक्ट के रूप में पू्र्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मुझे विकास के प्रतीक के रूप में दिखे।  छोटे सिख समुदाय का सदस्य जिसे कई बार सताया भी गया जो कि इस देश के सबसे बड़े पद तक पहुंचा और वे एक ऐसे विनम्र टेक्नोक्रेट थे  जिन्होंने लोगों का विश्वास उनकी भावनाओं को अपील कर नहीं जीता बल्कि लोगों को उच्च जीवन स्तर देकर वे कामयाब हुए। 2010 में मनमोहन सिंह से मुलाकात के बाद ओबामा ने कहा था कि जब भारत के प्रधानमंत्री बोलते हैं तो पूरी दुनिया सुनती है। यह मुलाकात तब हुई थी जब डा. मनमोहन सिंह जी-20 शिखर सम्मेलन में भाग लेने टोरंटो पहुंचे थे।


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