Thursday, 4 December 2014

कब थमेगा नक्सली हिंसा का तांडव ?


छत्तीसगढ़ के सुकमा के चिंतागुफा क्षेत्र में नक्सलियों के हमले ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि नक्सलियों का आंतरिकतंत्र सुरक्षा बलों पर पूरी तरह से भारी है। इसी सुकमा के इलाके में पहले भी कई सुरक्षा बलों को निशाना बनाया जा चुका है लेकिन उसके बाद भी सरकारों का जवानो से कोई लेना देना नहीं है | मौजूदा दौर में सरकारें कितनी असंवेदनशील है इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि अब तक हुए नक्सली हमलो में मारे गए जवानो को शहीद का दर्जा मिलना तो दूर उनके परिवार की सुध लेने में हमारी सरकारें विफल रही है | यह सवाल बताता है आजाद भारत में जवानो की जानें कितनी सस्ती हो चली हैं |  

छत्तीसगढ़ में हालात कितने खराब हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है दिल्ली से गृह मंत्री सुकमा जाने के लिए उड़ान भरते हैं लेकिन उनकी बैठकें इस दौर में रायपुर तक ही सिमटकर रह जाती हैं और यू टर्न लेने वाली उनकी सरकार मारे गए जवानो को शहीद का दर्जा देने में भी महज 24  घंटे में  ही पलट जाती है | सुकमा में मारे गए जवानो के मसले पर सरकार की असंवेदनहीनता का एक और नमूना कल नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ में तब देखने को मिला जब मारे गए जवानो की वर्दी और जूते तक पोस्टमार्टम हॉउस के बाहर पड़े मिले | कुछ लोगों को जब इसकी जानकारी मिली तब काफी हो हल्ले के बीच मीडिया कर्मियों ने इस खबर को अंजाम तक पहुचाया |  


छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित सुकमा जिले में नक्सलियों ने  केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के गश्ती दल पर हमला कर एक बार फिर यह जता दिया नक्सलियों के प्रभाव को कम आंकना छत्तीसगढ़ सरकार की एक बड़ी भूल है |  इस हमले में सीआरपीएफ के दो अधिकारियों समेत 14 पुलिसकर्मी शहीद हो गए साथ ही कई  पुलिसकर्मी घायल भी हुए हैं लेकिन सरकारों को उनकी सुध लेने की फुर्सत कहाँ ?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस हमले की निंदा करते हुए कहा कि 'राष्ट्र विरोधी तत्वों' द्वारा किए गए 'नृशंस' और 'अमानवीय' हमले की निंदा करने के लिए शब्द ही नहीं हैं लेकिन इतना सब कहना पर्याप्त नहीं है | मोदी जब सत्ता में नहीं थे  तो अपनी चुनावी सभाओ में 56 इंच की छाती दिखाकर नक्सली हिंसा पर लगाम लगाने की बड़ी बातें मंचो से किया करते थे लेकिन आज हालत यह है कि उनकी खुद की  सरकार के गृह मंत्री के पास नक्सली हमले की निंदा कायरतापूर्ण कृत्य कहने के सिवाय कोई पुख्ता रणनीति नहीं है |  राजनाथ सिंह तो यह कहते फिरते हैं कि इस हमले के बाद उन्हें  शाम को  ही निकल जाना था लेकिन हवाई यात्रा की तकनीकी दिक्कतों के कारण वह मंगलवार सुबह घटनास्थल के लिए रवाना हुए | रायपुर से वापसी एक दिन के भीतर कर आप अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड सकते | क्या राजनाथ इस बात को समझते हैं किन परिस्थितियों के बीच सीआरपीऍफ़ के जवान छत्तीसगढ़ में अपनी जानें जोखिम में डालकर काम कर रहे हैं |

सुकमा जिले के चिंतागुफा थाना क्षेत्र में दोरनापाल और चिंतलनार गांव के बीच नक्सलियों ने सीआरपीएफ के गस्ती दल पर घात लगाकर हमला किया । यह बहुत कायराना करतूत है | इस हमले में सीआरपीएफ के एक असिस्टेंट कमांडेंट और एक डिप्टी कमांडेंट समेत 14 पुलिसकर्मी शहीद हो गए। चिंतागुफा थाना क्षेत्र से 29 नवंबर को सीआरपीएफ की 223वीं बटालियन के अधिकारियों और जवानों को नक्सल विरोधी अभियान में रवाना किया था लेकिन उनकी  वापसी के दौरान नक्सलियों ने पुलिस दल पर घात लगाकर हमला कर दिया। नक्सली एक कारगर रणनीति के तहत कुछ अंतराल के बाद हमारे जवानो को निशाना बना रहे हैं
इसके बावजूद हमारे नीति नियंताओ  की रणनीति में कुछ  बदलाव नहीं दिखाई देता |  ऐसे हर हमले के बाद सीआरपीएफ और स्थानीय पुलिस के बीच समन्वय के अभाव की बात भी सामने आती है। ज्यादा दिन नहीं बीते जब सीआरपीएफ के महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए दिलीप त्रिवेदी  आरोप लगाते हुए नहीं चूके कि कुछ राज्य सरकारों में ऐसे तत्व हैं  जो अपने निहित स्वार्थों के चलते माओवाद को खत्म नहीं होने देना चाहते, क्योंकि इसके नाम पर उन्हें केंद्र से फंड मिलता है! हालांकि यह दिलीप थियोरी अब तक किसी के गले नहीं उतर रही क्युकि नक्सली ओपरेशन के लिए प्रतिवर्ष राज्य सरकारों  को करोड़ों की मोटी रकम प्रतिमाह दी जा रही है लेकिन इसके बावजूद भी नक्सलियों से  माओवादियों से निपटा नहीं जा सका है| अभी कुछ समय पहले राजनाथ सिंह ने छत्तीसगढ़ की सरकार को नक्सली अभियानों के लिए मोटी रकम दिए जाने की बात स्वीकारी थी और  मुख्यमंत्री रमन सिंह की नक्सली ओपरेशन के लिए और रकम देने की मांग को खारिज कर दिया था |  फिर अगर नक्सलवाद सरीखी पेट की लड़ाई को सरकार अलग चश्मे से देखती है तो समझना यह भी जरुरी होगा उदारीकरण के आने के बाद किस तरह नक्सल प्रभावित इलाको में सरकार ने अपनी उदासीनता दिखाई है जिसके चलते लोग उस बन्दूक के जरिये "सत्ता " को  चुनौती  दे रहे है जिसके सरोकार इस दौर में आम आदमी के बजाय " कारपोरेट " का हित साधने  में लगे हुए  हैं ।  पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी एक बार नक्सलवादी लड़ाई को अगर देश की आतंरिक सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा बताया था | हमारे नए प्रधानमंत्री मोदी भी नक्सलियों को खतरा बताकर अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं भाग सकते | हमें तो इस दौर में यह  समझना जरुरी  है आखिर कौन से ऐसे कारण है जिसके चलते बन्दूक सत्ता की नली के जरिये "चेक एंड बेलेंस" का  खेल खेलना चाहती है

कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के रूप में नक्सलवाद की व्यवस्था पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से 1967  में कानू सान्याल, चारू मजूमदार, जंगल संथाल की अगुवाई में शुरू हुई ।  सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक समानता स्थापित करने के उद्देश्य से इस तिकड़ी ने उस दौर में बेरोजगार युवको , किसानो को साथ लेकर गाव के भू स्वामियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था । उस दौर में " आमारबाडी, तुम्हारबाडी, नक्सलबाडी" के नारों ने भू स्वामियों की चूले हिला दी ।  इसके बाद चीन में कम्युनिस्ट राजनीती के प्रभाव से इस आन्दोलन को व्यापक बल भी मिला । केन्द्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इस समय आन्ध्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार , महाराष्ट्र समेत १४ राज्य नक्सली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित हैं । 

नक्सलवाद के उदय का कारण सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक असमानता और शोषण है । बेरोजगारी, असंतुलित विकास ये कारण ऐसे है जो नक्सली हिंसा को लगातार बढ़ा रहे है । नक्सलवादी राज्य का अंग होने के बाद भी राज्य से संघर्ष कर रहे है ।  चूँकि इस समूचे दौर में उसके सरोकार एक तरह से हाशिये पर चले गए है और सत्ता ओर कॉर्पोरेट का कॉकटेल जल , जमीन, जंगल के लिये खतरा बन गया है अतः इनका दूरगामी लक्ष्य सत्ता में आमूल चूल परिवर्तन लाना बन गया है । इसी कारण सत्ता की कुर्सी सँभालने वाले नेताओ और नौकरशाहों को ये सत्ता के दलाल के रूप में चिन्हित कर रहे हैं और समय आने अब  उन  पर  हमले  कर उनकी सत्ता को ना केवल चुनौती दे रहे हैं बल्कि यह भी बतला रहे हैं समय आने पर वह सत्ता तंत्र को आइना दिखाने का माददा  रखते हैं । 

नक्सलवाद के बड़े पैमाने के रूप में फैलने का एक कारण भूमि सुधार कानूनों का सही ढंग से लागू ना हो पाना भी है जिस कारण अपने प्रभाव के इस्तेमाल के माध्यम से कई ऊँची रसूख वाले जमीदारो ने गरीबो की जमीन पर कब्ज़ा कर दिया जिसके एवज में उनमे काम करने वाले मजदूरों का न्यूनतम मजदूरी देकर शोषण शुरू हुआ ।  इसी का फायदा नक्सलियों ने उठाया और मासूमो को रोजगार और न्याय दिलाने का झांसा देकर अपने संगठन में शामिल कर दिया ।  यही से नक्सलवाद की असल में शुरुवात हो गई ओर आज कमोवेश हर अशांत इलाके में नक्सलियों के बड़े संगठन बन गए हैं ।

आज आलम ये है हमारा पुलिसिया तंत्र इनके आगे बेबस हो गया है इसी के चलते कई राज्यों में नक्सली समानांतर सरकारे चला रहे है । देश की सबसे बड़ी नक्सली कार्यवाही १३ नवम्बर २००५ को घटी जहाँ जहानाबाद जिले में माओवादियो ने किले की तर्ज पर घेराबंदी कर स्थानीय प्रशासन को अपने कब्जे में ले लिया जिसमे तकरीबन ३०० से ज्यादा कैदी शामिल थे। "ओपरेशन जेल ब्रेक" नाम की इस घटना ने केंद्र और राज्य सरकारों के सामने मुश्किलें बढ़ा दी । तब से लगातार नक्सली एक के बाद एक घटनाये कर राज्य सरकारों की नाक में दम किये है ।  चाहे मामला बस्तर का हो या दंतेवाडा का हर जगह एक जैसे हालात हैं ।  बीते बरस छत्तीसगढ़ में एक हजार से ज्यादा नक्सलियों ने कांग्रेस के उनतीस से ज्यादा कांग्रेसी  नेताओ को जिस तरह गोदम  घाटी में  मौत के घाट  उतारा उसे राजनेताओ पर की गई पहली सबसे भीषण कार्यवाही माना जा सकता है । महेंद्र  कर्मा तो नक्सलियों के निशाने पर पहले से ही थे लेकिन कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में नक्सलियों ने गोलाबारी में नन्द कुमार पटेल , उदय मुदलियार जैसे वरिष्ठ  नेताओ को मारकर  अपने नापाक इरादे जता  दिए ।  2009 में लालगढ़ में नक्सलियों  ने अपना खौफ पूरे बंगाल में दिखाया था इसके बाद 2007 में पचास  से ज्यादा पुलिस कर्मी नक्सली हिंसा में मारे   गए तो वहीँ 2010  में छत्तीसगढ़ में सी आर पी एफ के 76 जवानो की हत्या से नक्सलियों ने तांडव ही मचा  दिया । उसके बाद नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेताओ को निशाने पर लिया  जिसमे छत्तीसगढ़ कांग्रेस की पूरी लीडरशिप ही साफ़ हो गई |

  केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जुलाई  2011  में पेश रिपोर्ट में तकरीबन तिरासी जिले ऐसे पाए गए जहाँ माओवादी समानांतर सरकार चला रहे हैं । हालाँकि 2009  तक  आठ  राज्यों के  तकरीबन देश के एक चौथाई जिले नक्सलियों के कब्जे में थे  । वर्तमान में नक्सलवादी विचारधारा हिंसक रूप धारण कर चुकी है ।  सर्वहारा शासन प्रणाली की स्थापना हेतु ये हिंसक साधनों के जरिये सत्ता परिवर्तन के जरिये अपने लक्ष्य प्राप्ति की चाह लिये है  तो वहीँ सरकारों की "सेज" सरीखी नीतियों ने भी आग में घी डालने का काम किया है । सेज की आड़ में सभी कोर्पोरेट घराने अपने उद्योगों की स्थापना के लिये जहाँ जमीनों की मांग कर रहे है वही सरकारों का नजरिया निवेश को बढ़ाना है जिसके चलते औद्योगिक नीति को बढावा दिया जा रहा है ।

कृषि " योग्य भूमि जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीड है उसे ओद्योगिक कम्पनियों को विकास के नाम पर उपहारस्वरूप दिया जा रहा है जिससे किसानो की माली हालत इस दौर में सबसे ख़राब हो चली है ।  यहाँ बड़ा सवाल ये भी है "सेज" को देश के बंजर इलाको में भी स्थापित किया जा सकता है लेकिन कंपनियों पर  हर सरकारें ज्यादा दरियादिली दिखाता नजर आती है । जहाँ तक किसानो के विस्थापन का सवाल है तो उसे बेदखल की हुई जमीन का विकल्प नहीं मिल पा रहा है ।  मुआवजे का आलम यह है सत्ता में बैठे हमारे नेताओ का कोई करीबी रिश्तेदार अथवा उसी बिरादरी का कोई कृषक यदि मुआवजे की मांग करता है तो उसको अधिक धन प्रदान किया जा रहा है ।  मंत्री महोदय का यही फरमान ओर फ़ॉर्मूला किसानो के बीच की खाई  को और चौड़ा कर रहा है । 

सरकार से हारे हुए मासूमो की जमीनों की बेदखली के बाद एक फूटी कौड़ी भी नहीं बचती जिस के चलते समाज में बढती असमानता उन्हें नक्सलवाद के गर्त में धकेल रही है । आदिवासी इलाको में तस्वीर भयावह है । प्राकृतिक संसाधनों से देश के यह सभी जिले भरपूर हैं लेकिन राज्य और केंद्र सरकार की   गलत नीतियों ने  यहाँ के आदिवासियों का पिछले कुछ दशक से शोषण किया है  और इसी शोषण के प्रतिकार का रूप नक्सलवाद के रूप में हमारे सामने आज  खड़ा है ।   "सलवा जुडूम" में आदिवासियों को हथियार देकर अपनी बिरादरी के "नक्सलियों" के खिलाफ लड़ाया जा रहा है जिस पर सुप्रीम कोर्ट तक सवाल उठा चुका है । हाल के वर्षो में नक्सलियों ने जगह जगह अपनी पैठ बना ली है और आज हालात ये है बारूदी सुरंग बिछाने से लेकर ट्रेन की पटरियों को निशाना बनाने में ये नक्सली पीछे नहीं है ।  अब तो ऐसी भी खबरे है हिंसा और अराजकता का माहौल बनाने में जहाँ चीन इनको हथियारों की सप्लाई कर रहा है वही हमारे देश के कुछ सफेदपोश नेता और कई   विदेशी संगठन धन देकर इनको हिंसक गतिविधियों के लिये उकसा रहे है । अगर ये बात सच है तो यकीन जान लीजिये यह सब हमारी आतंरिक सुरक्षा के लिये खतरे की घंटी है ।  केंद्र सरकार के पास इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति का अभाव है वही राज्य सरकारे केंद्र सरकार के जिम्मे इसे डालकर अपना उल्लू सीधा करती है और बड़ा सवाल इस दौर में यह भी है नक्सल प्रभावित राज्यों में बड़े बड़े पैकेज  देने के बाद भी यह पैसा कहाँ खर्च हो रहा है इसकी जवाबदेही तय करने वाला कोई नहीं है । इलाको में बिजली नहीं है तो पानी का संकट भी अहम हो चला है । वहीँ अस्पताल के लिए आज भी आजादी  के बाद लोगो को मीलो दूर का सफ़र तय करना पड़ रहा  है । परन्तु दुःख है हमारी सरकारों ने नक्सली हिंसा को सामाजिक , आर्थिक  समस्या से ना जोड़कर उसे कानून व्यवस्था से जोड़ लिया है । इन्ही दमनकारी नीतियों के चलते  इस समस्या को गंभीर बताने पर सरकारे ना केवल तुली हैं बल्कि उसे लोकतंत्र के लिए बाद खतरा बता भी रही है और वोट बैंक के स्वार्थ के चलते एक की कमीज दूसरे से मैली बताने पर भी तुली हुई हैं । जबकि असलियत ये है कानून व्यवस्था शुरू से राज्यों का विषय रही है लेकिन हमारा पुलिसिया तंत्र भी नक्सलियों के आगे बेबस नजर आता है । राज्य सरकारों में तालमेल में कमी का सीधा फायदा ये नक्सली उठा रहे है ।  पुलिस थानों में हमला बोलकर हथियार लूट कर वह जंगलो के माध्यम से एक राज्य की सीमा लांघ कर दूसरे राज्य में चले जा रहे है बल्कि आये दिन अपनी बिछाई  बिसात से सत्ता को अपने अंदाज में चुनौती दे रहे हैं । ऐसे में राज्य सरकारे एक दूसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेती है ।  इसी आरोप प्रत्यारोप की उधेड़बुन में हम आज तक नक्सली हिंसा समाधान नहीं कर पाए हैं |

गृह मंत्रालय की " स्पेशल टास्क फ़ोर्स " रामभरोसे  है ।  केंद्र के द्वारा दी जाने वाली मदद का सही इस्तेमाल कर पाने में भी अभी तक पुलिसिया तंत्र असफल साबित हुआ है । भ्रष्टाचार रुपी भस्मासुर का घुन ऊपर से लेकर नीचे तक लगे रहने के चलते आज तक कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ पाए हैं  साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों में आबादी के अनुरूप पुलिस कर्मियों की तैनाती नहीं हो पा रही है । कॉन्स्टेबल से लेकर अफसरों के कई पद जहाँ खली पड़े है वही ऐसे नक्सल प्रभावित संवेदनशील इलाको में कोई चाहकर भी काम नहीं करना चाहता ।  इसके बाद भी सरकारों का गाँव गाँव थाना खोलने का फैसला समझ से परे लगता है। 

नक्सल प्रभावित राज्यों पर केंद्र को सही ढंग से समाधान करने की दिशा में गंभीरता से विचार करने की जरुरत है।  चूँकि इन इलाको में रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी समस्याओ का अभाव है जिसके चलते बेरोजगारी के अभाव में इन इलाको में भुखमरी की एक बड़ी समस्या बनी हुई है।  सरकारों की असंतुलित विकास की नीतियों ने इन इलाके के लोगो को हिंसक साधन पकड़ने के लिये मजबूर कर दिया है । हमें यह समझना पड़ेगा कि  लुटियंस की दिल्ली के  एसी कमरों में बैठकर नक्सली हिंसा का समाधान नहीं हो सकता । इस दिशा में सरकारों को अभी से गंभीरता के साथ विचार करना होगा तभी बात बनेगी अन्यथा आने वाले वर्षो में ये नक्सलवाद "सुरसा के मुख" की तरह अन्य राज्यों को निगल सकता है । 

कुल मिलकर आज की बदलती परिस्थितियों में नक्सलवाद भयावह रूप लेता नजर आ रहा है ।  बुद्ध, गाँधी की धरती के लोग आज अहिंसा का मार्ग छोड़कर हिंसा पर उतारू हो गए है।  विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार करने वाले आज पूर्णतः विदेशी विचारधारा को अपना आदर्श बनाने लगे है ।  नक्सल प्रभावित राज्यों में पुलिस कर्मियों की हत्या , हथियार लूटने की घटना और अब सीधे  छत्तीसगढ़ में राजनेताओ की हत्या बताती है नक्सली अब "लक्ष्मण रेखा" लांघ चुके  हैं । नक्सल प्रभावित राज्यों में जनसँख्या के अनुपात में पुलिस कर्मियों की संख्या कम है।   इस दौर में पुलिस जहाँ संसाधनों का रोना रोती है वही हमारे नेताओ में इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति नहीं है । ख़ुफ़िया विभाग की नाकामी भी इसके पाँव पसारने का एक बड़ा कारण  है ।

एक हालिया प्रकाशित रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इन नक्सलियों को जंगलो में "माईन्स" से करोडो की आमदनी होती है जिसका प्रयोग वह अपनी ताकत में इजाफा करने में करते हैं
। कई परियोजनाए इनके दखल के चलते अभी विभिन्न राज्यों में लंबित पड़ी हुई है ।  नक्सलियों के वर्चस्व को जानने समझने करता सबसे बेहतर उदाहरण झारखण्ड का "छतरा " और छत्तीसगढ़ का  "बस्तर" , कांकेर और "दंतेवाडा " और सुकमा जिला है जहाँ बिना केंद्रीय पुलिस कर्मियों की मदद के बिना किसी का पत्ता तक नहीं हिलता और इन इलाको के जंगल में जाने से हर कोई कतराता है  । यह हालत  काफी चिंताजनक  तस्वीर को सामने पेश  करते हैं । 

नक्सल प्रभावित राज्यों में आम आदमी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाना चाहता ।  वहां पुलिसिया तंत्र में भ्रष्टाचार पसर गया है  साथ ही पुलिस का एक आम आदमी के साथ कैसा व्यवहार है यह बताने की जरुरत नहीं है। अतः सरकारों को चाहिए वह नक्सली इलाको में जाकर वहां बुनियादी समस्याए दुरुस्त करे आर्थिक विषमता के चले ही वह लोग आज बन्दूक उठाने को मजबूर हुए हैं । सरकारों को गहनता से साथ यह सोचने की जरुरत है इन इलाको में विकास का पंछी  यहाँ के दरख्तों से गायब है और  समझना होगा अब राजनीतिक रंग से इतर तालमेल, बातचीत  के साथ इन इलाको  में विकास की बयार बहाने का समय आ गया है ।  

मनमोहन के दौर में भी नक्सली केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार को चुनौती देने से पीछे नहीं थे लेकिन यह पहला ऐसा मौका है जब मोदी की अगुआई में एन डी ए  के सत्तासीन हुए महज 6 महीनो में चिंतागुफा थाना क्षेत्र में दोरनापाल और चिंतलनार गांव के बीच नक्सलियों ने यह पहला बड़ा हमला किया है | यह हमला बताता है कि मोदी सरकार के लिए भी माओवादी नक्सली हिंसा से काबू पाना पहली सबसे बड़ी चुनौती है। वह भी अमानवीय कृत्य बताकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड सकती | नक्सलियों ने इस हमले को ऐसे समय अंजाम दिया है, जब छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ महीनों से पुलिस ने नक्सलियों के समर्पण के लिए अभियान चला हुआ था इसलिए सुकमा से जुड़े कई सवाल अभी भी अनसुलझे हैं और शायद यह अनसुलझे ही रहे क्युकि जवानो की जानें इस देश में सस्ती हैं 

Monday, 24 November 2014

नए शीत युद्ध की आहट



शीत युद्ध वह परिस्थिति है जब दो देशो के बीच प्रत्यक्ष युद्ध ना होते हुए भी युद्ध की परिस्थिति बनी रहती है | विश्व इतिहास के पन्नो में झाँकने पर यही परिभाषा हर इतिहास के छात्र को ना केवल पढाई जाती रही है बल्कि विश्व इतिहास की असल धुरी की लकीर इन्ही दो राष्ट्रों अमरीका और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच खिंची जाती रही है लेकिन अभी की परिस्थियों ने पूरे विश्व को उन्ही परिस्थियों के बीच लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ कभी वह पहले शीत युद्ध के दौर में खड़ा था | यह सवाल इस समय इसलिए भी बढ़ा हो चला है क्युकि नए सिरे से विश्व उन्ही परिस्थियों के बीच खड़ा हो रहा है जहाँ वह एक दौर में था तो इसे विश्व राजनीती की एक नई करवट के तौर पर समझा जा सकता है | दरअसल पिछले हफ्ते जिस तरीके का अप्रत्याशित घटनाक्रम घटा है उसके संकेतो को डिकोड किया जाए तो पुराने शीत युद्ध के दौर की यादें ताजा हो रही हैं |

              ऑस्ट्रेलिया में जी 20 देशो की बैठक में भाग लेने गए रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन बीच बैठक को छोड़कर अपने देश लौट गए यह खबर भले ही जोर शोर से ब्रेकिंग न्यूज़ की शक्ल ना ले पाई हो लेकिन अमरीका  से लेकर यूरोप तक इस खबर ने हलचल मचाने का काम किया है | बीते दिनों रूस ने क्रीमिया में कब्ज़ा कर लिया और इसके बाद पुतिन के निशाने पर यूक्रेन आ गया है जहाँ पर कब्ज़ा जमाने और पाँव पसारने की बड़ी रणनीति पर वह काम कर रहा है | हाल में सम्पन्न जी 20 सम्मलेन के दौरान भी इसका साया मडराता दिखा जब पश्चिमी देशो की एक बड़ी जमात ने रूस को सीधे अपने निशाने पर लेते हुए युक्रेन में अनावश्यक दखल ना देने की मांग के साथ ही उस पर कठोर प्रतिबन्ध लगाने की घुड़की देने से भी परहेज नहीं किया जिसका असर यह हुआ पुतिन को बीच में ही यह सम्मेलन छोड़ने को मजबूर होना पड़ा |


इस साल की शुरुवात से ही रूस के सितारे गर्दिश में चलते दिखे हैं | क्रीमिया को लेकर उसकी मोर्चेबंदी शुरुवात  से ही जारी रही वहीँ जुलाई महीने में मलेशिया के एम एच  17 विमान गिराने को लेकर भी पूरी दुनिया की निगाहें रूस पर लगी रही जिसमे उसके शामिल होने और संलिप्तता से इनकार नहीं किया जा सकता और अब क्रीमिया पर टकटकी लगाये जाने से रूस पूरी दुनिया की निगाहों में खटक रहा है शायद यही वजह है बीते दिनों ऑस्ट्रेलिया में सम्पन्न हुए जी -20  सम्मलेन में पुतिन  अपनी आलोचनाओ से असहज नजर आये और बीच बचाव करते हुए बीच सम्मलेन को छोड रूस के लिए उड़ान भरी |

कई मुद्दों पर सहमति  बनाने के लिए जी 20 के देश आपस में साथ बैठे जिनमे पर्यावरण से जुडी चिंताओं से लेकर आर्थिक मंथन पहली प्राथमिकताओ में था लेकिन रूस में घटा घटनाक्रम सभी की जुबान पर आ गया और पश्चिम के कई देशों ने पुतिन पर एक के बाद एक तीखा हमला करना शुरू कर दिया शुरुवात  सुपर पावर अमेरिका से ही हुई जिसके राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि यूक्रेन में रूस का हस्तक्षेप पूरी दुनिया के लिए खतरा है वहीँ  ब्रिटेन की यह धमकी दी कि अगर रूस ने अपने पड़ोस को अस्थिर करना नहीं छोड़ा तो उस पर नए प्रतिबंध लगाए जाएंगे।  रही-सही कसर कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर ने पूरी कर दी। हार्पर ने कहा कि वह उनसे हाथ नहीं  मिलाएंगे | इसके ठीक बाद अमरीका ने अपनी सधी चाल से ऑस्ट्रेलिया के प्रधान मंत्री को साधकर एक प्रस्ताव पास किया जिसमे रूस से मलेशियाई विमान के हादसे में मारे गए लोगो को न्याय देने से लेकर क्रीमिया को मुक्त करने से लेकर यूक्रेन के पचड़े में ना फंसने का अनुरोध किया | इसी प्रस्ताव के आने के बाद पुतिन ने रूस का रुख किया |

देखते ही देखते रूस के बैंकों रक्षा और ऊर्जा कंपनियों पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया गया।  यह कार्रवाई रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध कठोर करने के यूरोपीय संघ के फैसले के बाद की गई। यूक्रेन के बहाने अमेरिका ने जो निशाना साधा है उससे रूस को कई तरह के आर्थिक नुकसान होने के आसार हैं क्युकि अमरीकी दवाब में अब पश्चिमी देश  और यूरोपियन यूनियन रूस पर आक्रामक रुख अपनाएंगे और वही भाषा बोलेंगे जो अमरीका अभी बोल रहा है 

वैसे यूक्रेन मसले को जन्म देने में अमेरिका का बड़ा हाथ है | 2009 में  नाटो विस्तार के बाद से ही एशियाई देशों में भी कई तरह की गतिविधियां बढ़ी हैं। फिर भी कई एशियाई देशों का अमेरिका की तरफ झुकाव जारी है जिसके कारण रूस अब  पहले से अलग-थलग पड़ गया है जिससे उसकी  अर्थव्यवस्था को  नुकसान पहुंचा है। रूस के कई हजार सैनिक अभी हथियारों से लैस पूर्वी यूक्रेन में मौजूद हैं जबकि सीमा के पास भी कई हजार से ज्यादा सैनिकों की मौजूदगी बताई जा रही है। यह एक चिंताजनक तस्वीर हमारे सामने पेश करता है |   हालांकि रूस किसी तरह के सैन्य  दखल से साफ़ इनकार करता रहा है लेकिन परदे के पीछे की कहानी किसी से छिपी नहीं है | विद्रोहियों को सीधे सैन्य सहायता  और साजोसामान देने में रूस की भूमिका से पूरी दुनिया भली भांति वाकिफ है | 

जी 20  सम्मलेन का मकसद तो  वैश्विक आर्थिक सवालों के जवाब ढूंढना था लेकिन ब्रिस्बेन में यूक्रेन का संकट ही सभी के सामने हावी रहा |  जर्मनी की चांसलर एंजिला मर्केल ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ यूरोप में चल रहे संकट पर जो मुलाकात  की  उसे नए शीत युद्ध की शुरुआत  के रूप में देखा  जा रहा है | रूस और पश्चिम के बीच तनाव की वजह यूक्रेन का राजनीतिक भविष्य और रूस द्वारा क्रीमिया पर कब्जा जमाया जाना  है | पूर्वी यूक्रेन में क्रीमिया की डगमगाती हुई राजनीति से काफी बुरा असर पड़ा है लेकिन  पश्चिम को खुद को शीत युद्ध में धकेल दिए जाने से भी बचना चाहिए |

मौजूदा दौर में बावजूद पश्चिम के लिए पुतिन के साथ नए माहौल में एक अदद वार्ता जरुरी बन गयी है | विश्वास बहाली से ही यह समस्या का निदान संभव हो सकता है साथ ही नए समझौते संभव हो पायेगे |  पश्चिमी देशों और यूक्रेन की सरकार को इस कड़वे सच को स्वीकारना ही होगा कि रूस की मदद के बिना यूक्रेन के आर्थिक और सामाजिक हालात बदलना नामुमकिन है|  
अब जरुरत इस बात की है कि कीव और पश्चिम के नेता एक सहमति पर राजी हो जाएं और क्रेमलिन के आगे एक ऐसा प्रस्ताव रखें जिससे रूस के राजनीतिक लक्ष्य भी पूरे होते रहें |  मौजूदा दौर में  की चमचमाहट लाने यूरोप जैसी संवैधानिक सरकार बनाने और बाजार में आर्थिक विकास लाने में यूक्रेन पर बाहर से किसी तरह का दबाव नहीं होना चाहिए|

वहीँ यूक्रेन को भी बदलती परिस्थितियो के मद्देनजर अपने को मथना पड़ेगा | जरुरी यह है  रक्षा से जुड़ी राजनीति पर वह निष्पक्ष रहने की कोशिशें करने के साथ ही  नाटो की सदस्यता के लिए जोर आजमाइश ही ना करे |  यूरोपीय संघ के साथ मिल कर रूस के लिए किसी भी तरह आर्थिक रुकावटें ना खड़ी करे और विवादित इलाकों को स्वयत्ता देने पर राजी हो जाए | इसी के आसरे यूक्रेन के संकट पर एक बड़ी लकीर खिंची जा सकती है | रूस और पश्चिम के रिश्तों को बहुत जल्दी वैसा नहीं बनाया जा सकता जैसे कि वे संकट के दिनों से पहले थे. | अमेरिका और यूरोपीय संघ को अपनी सूझ बूझ को दिखाकर रूस के साथ समझौता कर इस मसले पर बात करने की कोशिशो पर आखरी समय तक काम करने की जरुरत है | बातचीत किसी भी मसले के समाधान का कारगर रास्ता है | अगर फिर भी सुलह नहीं होती है तो पूरी दुनिया फिर से शीत युद्ध का नया दौर देख सकती है इससे इकार भी नहीं किया जा सकता | अमरीका और रूस एक दूसरे के चिर प्रतिद्वंदी रहे हैं | दोनों के बीच सम्बन्ध कभी सामने नहीं रहे | सोवियत संघ के बिखराव के बाद तो सम्बन्धो में बहुत ज्यादा तल्खी देखने को मिली गयी थी  और यूक्रेन विवाद के बाद तो रूस अमरीकी सम्बन्ध और तल्ख़ होने के आसार हैं | वैसे भी पश्चिमी देशो को साधकर अमरीका जिस तरह की नई मोर्चेबंदी करता दिखाई दे रहा है उससे रूस की भविष्य को लेकर चिंताएं बढ़ती ही जा रही हैं | जी 20 में सभी देशो ने जिस तरह रूस को निशाने पर लिया और उस पर कई प्रतिबन्ध लादने की घोषणा की इसके बाद रूस की चिंताएं बढ़नी जायज हैं | ऐसे दौर में  वैश्विक मंच पर भारत के रुख का भी सभी को इन्तजार है | क्रीमिया संकट से निपटने की जिम्मेदारी रूस के मत्थे डालकर भारत अपना बचाव नहीं कर सकता | हमारी विदेश नीति की परीक्षा का भी यह निर्णायक दौर है क्युकि वैश्विक मंच पर जिस तरह नरेन्द्र दामोदरदास मोदी अपनी उपस्थिति दिखा रहे हैं उससे भारत की ताकत को कम नहीं आँका जा सकता | भारत के रूस से जहाँ पुराने मैत्री सम्बन्ध रहे हैं वहीँ मनमोहन के दौर तक आते आते भारत का अमेरिकी झुकाव किसी से छिपा नहीं है | अब मोदी के सामने सबसे बड़ी मुश्किल इस दौर में यह है कैसे वह इन दो पाटो के बीच फंसकर भारत के स्टैंड  रख पाते हैं ?

Friday, 31 October 2014

फिर से समाजवादी टोपी पहनने को बेताब अमर सिंह




बीते बुधवार को सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के दिल्ली स्थित  आवास 16 अशोका रोड का नजारा देखने लायक था | नेता जी के प्रति अमर सिंह का प्रेम एक बार फिर जागने के कयास लगने शुरू हो गए हैं और पहली बार इन मुलाकातों के बाद एक नई तरह की किस्सागोई समाजवादी राजनीति को लेकर शुरू हो गयी है | यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण  है क्युकि सूबे के युवा सी एम अखिलेश भी दिल्ली प्रवास के दौरान  इस बार नेताजी से मिले हैं और अमर सिंह के साथ बैठकर उन्होंने  अपनी  भावी राजनीति को लेकर कई चर्चाएँ भी की हैं | इस तिकड़ी ने कई घंटे बैठकर  यू पी की सियासत को साधने और मिशन 2017 को लेकर भी  मैराथन मंथन किया  | यूपी की 10 राज्यसभा की सीटों के चुनाव के लिए प्रक्रिया जल्द शुरू हो रही है। ऐसे में अमर सिंह के दर्द को बखूबी समझा जा सकता है | यू पी में 20   नवम्बर को  खाली होने जा रही 10 सीटों के लिए सियासी बिसात अभी से बिछनी शुरू हो गयी है  और  उत्तर प्रदेश की  राजनीतिक  बिसात के केंद्र  में अमर सिंह एक बार फिर आ गये हैं ।  दरअसल सपा ने अपने सभी 6 राज्यसभा उम्मीदवारों के नाम की घोषणा कर दी जिसमें अमर सिंह का नाम शामिल नहीं है । जिन लोगों का नाम जारी किया गया है उसमें प्रदेश के वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री आजम खां की पत्नी का नाम भी शामिल है लेकिन आजम खां की पत्नी द्वारा राज्यसभा के टिकट ठुकरा देने से अमर सिंह के नाम की चर्चा एक बार फिर सबसे उपर है। इनमें जिन छह लोगों के नाम जारी किए गए हैं उनमें राम गोपाल यादव, नीरज शेखर, चंद्रपाल यादव, रवि प्रकाश वर्मा, जावेद अली खान और तंजीम फातिमा शामिल हैं लेकिन नामों की घोषणा के  बाद आजम खान की पत्नी तंजीम फातिमा ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इसके बाद से ही अमर सिंह का सेंसेक्स  एक बार फिर सातवें  आसमान पर चढ़ गया है ।  ऐसे में संभावना है कि उन्हें एक बार फिर सपा के टिकट पर राज्यसभा में इंट्री  मिल सकती है।

यह दूसरा ऐसा  मौका है  जब अमर सिंह नेता जी के साथ मिलकर हाल के दिनों में दिल्ली में सक्रियता बढाकर उत्तर प्रदेश के हालात और केंद्र सरकार के काम काज को लेकर खूब चर्चा की है   |  इससे पहले छोटे लोहिया के रूप में पहचान रखने वाले खांटी समाजवादी जनेश्वर मिश्र के नाम पर बने पार्क के उद्घाटन के मौके पर दोनों ने साथ मिलकर सार्वजनिक मंच पहली बार साझा किया था हालांकि इस  समारोह में  भी सपा से निकाले गए अमर सिंह के आने की खबरें हवा में तैरने लगी थी लेकिन समाजवादी पार्टी से जुडे़ कार्यकर्ताओं से लेकर विधायकों तक को उम्मीद नहीं थी कि अमर सिंह सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ मंच साझा कर सकते हैं  लेकिन राजनीती में कुछ भी संभव है लिहाजा इस बार भी दिल्ली में तीनो के साथ बैठने से कई कयासों को न केवल हवा मिलनी शुरू हुई है बल्कि नेता जी के साथ दिल्ली में बैठने के बाद अमर सिंह के सपा प्रेम के जागने के प्रमाण मिलने शुरू हो रहे हैं और अब  तंजीम फातिमा के राज्य सभा टिकट के  प्रस्ताव को ठुकरा देने के बाद अमर सिंह को लेकर हलचल तेज हो गयी है । 

लोकसभा चुनाव में भाजपा के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ब्रह्मास्त्र को छोड़ने के बाद अब सपा को समाजवादी राजनीति साधने के लिए एक ऐसे कुशल प्रबंधक की आवश्यकता है जो नमो के शाह की बराबरी कर सके लिहाजा नेता जी भी अमर सिंह के साथ  इन दिनों गलबहियां करने में लगे हुए हैं | वह एक दौर में नेता जी के हनुमान रह चुके हैं |  नेता जी भी इस बात को बखूबी समझ रहे हैं अगर यू पी में उन्हें मोदी के अश्वमेघ घोड़े की लगाम रोकनी है तो अमर सिंह सरीखे लोगो को पार्टी में वापस लाकर ही 2017  में होने वाले विधान सभा चुनाव तक  अपना जनाधार ना केवल मजबूत किया जा सकता है बल्कि कॉरपरेट की छाँव तले समाजवादी कुनबे में विस्तार किया जा सकता है और  अब तंजीम फातिमा के टिकट प्रस्ताव को  ठुकरा देने के बाद  एक बार फिर सभी की नजरें  नेता जी  की तरफ लग गयी हैं  ।संकेतो को डिकोड करें तो अमर की पार्टी में दोबारा  वापसी की अटकलें  फिलहाल तेज हो चली हैं।  

मौजूदा परिदृश्य में सपा के कोटे में 6 सीटें जानी तय मानी जा रही हैं लिहाजा सपा ने भी जिन छह लोगों के नाम जारी किए गए हैं उनमें राम गोपाल यादव, नीरज शेखर, चंद्रपाल यादव, रवि प्रकाश वर्मा, जावेद अली खान और तंजीम फातिमा शामिल हैं लेकिन आजम खां की पत्नी तंजीम के टिकट के प्रस्ताव को ठुकरा देने के बाद अब एक सीटों को लेकर भी खासी रस्साकस्सी देखने को मिल सकती हैं |  हालाँकि सब कुछ तय करने की चाबी खुद नेता जी के हाथो में है लेकिन  चयन में खुद अब उनकी बड़ी भूमिका देखने को मिल सकती है | इन सबके बीच क्या अमर सिंह की वापसी हो पायेगी यह कह पाना मुश्किल है लेकिन दिल्ली में नेता जी के साथ हाल के दिनों में  अमर सिंह की मुलाकातों ने एक बार फिर उनके सपा में शामिल होने के कयासों को बल तो दे ही  दिया है |  हालाँकि एक दौर में  अमर सिंह  ने खुद कहा था कि वह किसी राजनीतिक दल में शामिल होने नहीं जा रहे हैं ।  सक्रिय राजनीति में उनकी जिंदगी के 18 साल खर्च हुए हैं और अब वह नवंबर में राज्यसभा का अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद दोबारा प्रयास नहीं करेंगे। दिल्ली रवाना होने से पहले  इसके मजमून को  मीडिया समझ गया  और  नेता जी के साथ मुलाकातों के बाद और गहन मंत्रणा के बाद उन्होंने  भी अपनी राज्य सभा की दावेदारी के प्रति दुबारा इच्छा नेता जी के सामने जाहिर की । 
 
अमर सिंह की सपा में एक दौर में ठसक का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1995 में पार्टी ज्वॉइन करने के बाद मुलायम और सपा दोनों  को दिल्ली में स्थापित करने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है।  तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने और उसमें मुलायम की भूमिका बढ़ाने में भी अमर सिंह ही बड़े  सूत्रधार थे वहीँ इंडो यू एस न्यूक्लियर डील में भी कड़ी का काम अमर सिंह ने ही किया जब उनके सांसदों ने मनमोहन सरकार की लाज यू पीए सरकार को  बाहर से समर्थन देकर बचाने का काम किया |  यू पी की जमीन से इतर पहली बार विभिन्न राज्यों में पंख पसारने में अमर सिंह के मैनेजमेंट के किस्से आज भी समाजवादी कार्यकर्ता नहीं भूले हैं | सपा में शामिल होने के बाद किसी एक नेता का इतना औरा सपा में इतना नहीं होगा जितना उनका था। उन्होंने पार्टी को फिल्मी सितारों के आसरे एक पंचसितारा रंग देने की  भरपूर कोशिश की थी। एक वक्त था जब अमर सिंह फैसले लेते थे और मुलायम उन फैसलों को स्वीकार कर लेते थे। बाद में एक वक्त ऐसा भी आया जब वह मुलायम के बेहद करीबी आजम खान के लिए गले की हड्डी बन गए | सपा में अमर सिंह की गिनती एक दौर में नौकरशाहों  से लेकर  बालीवुड उद्योगपतियों के बीच खूब जोर शोर से होती थी लेकिन पंद्रहवी लोक सभा चुनाव में मिली पराजय और आतंरिक गुटबाजी ने अमर सिंह की राजनीती का बंटाधार कर दिया |2010  में उन्हें पार्टी से  बाहर निकाल दिया गया जिसके बाद 2012  में विधान सभा चुनाव और 201 4 के लोक सभा चुनाव में सपा के विरोध में उन्होने अपने उम्मीदवार खड़े किये लेकिन करारी हार का सामना करने को मजबूर उन्हें होना पड़ा |  आजम खान को जहाँ उनके दौर में पार्टी से निकाल  दिया गया वहीँ अमर सिंह  के रहते एक दौर में  आजम खान सपा में नहीं टिक  सके |  यह अलग बात है आजम खान अमर की विदाई और कुछ समय की जुदाई के बाद वह खुद सपा में चले आये | 
 
 अमर सिंह के पार्टी में बढ़ते प्रभाव का नतीजा यह हुआ कि पार्टी के संस्थापक रहे नेता धीरे-धीरे दूर होने लगे। उनका आरोप था कि अमर के चलते पार्टी अपना परंपरागत  वोट बैंक खोती जा रही है। आखिरकार वह वक्त भी आ गया जब उन्हें मुलायम सिंह नजर अंदाज करने लगे। देखते ही देखते हालात बिगड़ते चले गए। उन्होंने बयान दे दिया कि मुलायम सिंह और उनके परिवार ने उनकी  बीमारी के दौरान कोई सहानुभूति नहीं रखी जिसके  बाद 2012 में पार्टी ने अमर सिंह, जया प्रदा और 4 अन्य विधायकों को निष्कासित कर दिया। अमर सिंह की अगर सपा में दुबारा इंट्री होती  है तो  नगर विकास मंत्री आजम खां पार्टी से बाहर जाने का रास्ता तैयार कर सकते हैं | बीते कुछ महीनो पहले आजम खां ने इस संभावना से इनकार नहीं किया था कि यदि अमर सिंह सपा में वापस आए तो उन्हें बाहर जाना पड़ सकता है | उन्होने तो खुले मंच से यहां तक कह दिया था अमर सिंह के आने के बाद खुद उनका अस्तित्व खतरे में पड  सकता है |

 अमर सिंह को सपा में वापस लाए जाने की तैयारी लोकसभा चुनाव से पहले ही हो गई थी लेकिन आजम खां के वीटो के बाद सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने अपना इरादा बदल दिया था। अब इस बार क्या होगा यह देखना बाकी है क्युकि आजम के अलावे सपा में अमर विरोधियो की लम्बी चौड़ी फेहिरस्त मौजूद है और अब सबसे बड़ा सवाल तंजीम फातिमा के विकल्प का है । 5 सीटो के तय करने के बाद क्या सपा अमर सिंह को टिकट देने का फैसला ले पायेगी यह  बन गया  है ।  इतिहास समय समय पर खुद को दोहराता है और संयोग देखिये सपा के पूर्व महासचिव और वर्तमान कांग्रेसी नेता बेनी प्रसाद वर्मा ने भी अमर सिंह के कारण ही समाजवादी पार्टी को एक समय अलविदा कहा था। अब लगभग चार साल बाद न सिर्फ अमर सिंह का  नेता जी के साथ मिलन होना तय सा लग रहा  है | अखिलेश के साथ बैठकर जिस तरीके से उन्होंने यू पी की सियासत को लेकर अपनी मैनेजरी  के किस्से अखिलेश को सुनाये  हैं उससे आने वाले दिनों में समाजवादी सियासत का एक नया मिजाज हमें देखने को मिल सकता है |  अमर सिंह  और आजम खां का छत्तीस का आंकड़ा  भले ही जगजाहिर है लेकिन नेता जी और अमर सिंह का दोस्ताना  आज भी सलामत है शायद यही वजह है  अमर सिंह ने हर उस मौके को भुनाने का  प्रयास किया है जहाँ उन्हें फायदा  नजर आता है |  जनेश्वर पार्क के उद्घाटन के मौके पर भी इस  बरस वह  नेता जी की तारीफों के पुल बांधकर साफ संकेत दे चुके हैं साईकिल  की सवारी करने में उन्हें कोई ऐतराज नहीं है | राजनीती में  किसी के दरवाजे कभी बंद नहीं किये जा सकते। कभी अमर सिंह के कारण ही  एक समय आजम खां ने सपा को टाटा  कहा था |  जिस दौर में  आजम खां ने सपा का साथ छोड़ा था उस वक्त भी समाजवादी खेमे में अमर सिंह को निकाले जाने के समय जश्न का माहौल देखा गया ।  जिस तरह से अमर सिंह को सपा के कुछ बडे़ नेता पसन्द नहीं करते थे ठीक वही स्थिति सपा में आजम खां की भी  हो चली है|  

लोकसभा चुनाव के दौरान आजम खां ने  मुस्लिम वोट बैंक पूरा सपा के साथ लाने के बड़े दावे किये थे लेकिन नमो की लोकसभा चुनावो में चली सुनामी और राज्यों में मोदी के हुदहुद ने सपा के जनाधार का ऐसा बंटाधार कर दिया कि लोक सभा चुनावो में सपा की खासी दुर्गति हो गयी |  नेता जी को  आजम खां  पर पूरा भरोसा था  लेकिन नेताजी परिवार के अलावा सपा का पूरा कुनबा लोकसभा चुनाव में साफ हो गया  |  अब  नए  सिरे से वोटरों को साधने के लिए नेता जी यू पी की राजनीति  को  अपने अंदाज में साध रहे हैं  ।  इन्हीं परिस्थितियों से निपटने के लिए नेता जी  ने अमर सिंह की वापसी  का एक नया चैनल इस समय खोल दिया है | । हालांकि पार्टी में उनकी वापसी को लेकर ज्यादातर नेताओं ने हामी नहीं भरी है लेकिन आजम खान और शिव पाल यादव उनकी वापसी पर सबसे बड़ी रेड कार्पेट बिछा  रहे हैं | यही अमर सिंह की सबसे बड़ी मुश्किल इस समय  है |  दूसरा अब  रालोद भी एक सीट से  यू  पी में सपा के कोटे से अपने उम्मीद वार को राज्य सभा भेजने की तैयारी में है | अजित सिंह की राजनीति  को जहाँ मोदी मैजिक ने ठन्डे बस्ते में डाल दिया है वहीँ अमर प्रेम के जागने पर जया  प्रेम जागने के आसार  भी  नजर आ रहे हैं | अमर सिंह अगर सपा में आते हैं तो जया  भी सपा में अपनी इंट्री के साथ  कहीं से राज्य सभा का टिकट चाहेंगी | ऐसे में यह सवाल बड़ा मौजू  होगा टिकट  किसे मिलेगा ? 

दिल्ली में अमर सिंह अखिलेश और नेता जी की खिचड़ी साथ पकने के बाद से ही  1 6  अशोका रोड से लेकर 5  कालिदास मार्ग तक हलचल मची हुई है | अमर सिंह नेता जी  से अपने घनिष्ठ सम्बन्धो का फायदा उठाने  का कोई मौका  कम से कम  अभी तो नहीं छोड़ना चाहते हैं |  शायद ही आगे चलकर उन्हें  इससे  बेहतर मौका कभी मिले | वैसे भी इस समय सपा अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार  उत्तर प्रदेश में चला रही है |  नेता जी भी बड़े दूरदर्शी हैं | वक्त के मिजाज को वह बेहतर ढंग से पढना जानते हैं | 1996 में अपने पैंतरे से उन्होंने केंद्र में कांग्रेस को आने से जहाँ रोका वहीँ बाद में वह खुद रक्षा मंत्री बन गए |  2004 आते ही  वह कांग्रेस को परमाणु करार पर बाहर  से समर्थन का एलान करते हैं  तो यह उनकी समझ बूझ को सभी के सामने लाने का काम करता है |

 फिर राजनीती का यह चतुरसुजान इस बात को बखूबी समझ रहा है अगर कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ एकजुट नहीं हुए तो आने वाले दौर में उनके जैसे छत्रपों की राजनीति पर सबसे बड़ा ग्रहण लग सकता है शायद इसीलिए वह इस सियासत का तोड़ खोजने निकले हैं जहाँ उनकी बिसात में अमर सिंह  ही अब सबसे फिट बैठते हैं | नेता जी  इस राजनीती के डी एन ए को भी बखूबी समझ रहे हैं | ऐसे में अमर सिंह को लेकर उनके रुख का सभी को इंतजार है | देखना दिलचस्प होगा  तंजीम फातिमा की राज्य सभा टिकट पेशकश ठुकराने के बाद  अमर कहानी राज्य सभा चुनाव के नामांकन में कहाँ तक पहुँच पाती है ?

Sunday, 19 October 2014

कौन बनेगा हरियाणा में भाजपा का नया ‘ मोदी ’



हरियाणा के विधानसभा चुनावों में कमल खिलाने के बाद अब प्रदेश में भाजपा सरकार का आना तय है और इस चुनाव परिणाम के बाद हरियाणा में नए मुख्यमंत्री को लेकर रस्साकस्सी तेज हो गई है | हरियाणा का नया मुखिया कौन होगा इसे लेकर असल मारामारी अब शुरू होने वाली है क्युकि भाजपा ने इस चुनाव में किसी एक चेहरे को प्रोजेक्ट करके चुनाव नहीं लड़ा है लिहाजा मुख्यमंत्री पद की लड़ाई में भी आने वाले दिनों में उतार चढ़ाव देखने को मिल सकते हैं |यहाँ की स्थिति भी इस समय एक अनार सौ बीमार वाली हो चली है जहाँ हर किसी की नजर मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर हो चली है |  क्युकि इस चुनाव में भाजपा मोदी के चेहरे को आगे कर लोगों के बीच गयी है इसलिए हरियाणा का मोदी कौन होगा यह तय करने में प्रधानमंत्री मोदी की भूमिका ही अब देखने लायक होगी |

भाजपा के राष्ट्रीय मुख्यालय अशोका रोड से भी अब इस बात के संकेत मिलने शुरू हो गए हैं अगर सी एम को लेकर विधायको में किसी तरह की सहमति  नहीं बनती है तो नए नेता के चयन में मोदी  ही अपनी प्रभावी भूमिका निभाएंगे इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता  शायद यही वजह है  शुरुवाती रुझान आने के समय से अमित शाह की मोदी से मुलाकात ने हरियाणा की बहुमत वाली भाजपा की बिसात को उलझा कर रख दिया है |

 वैसे भाजपा ने इस चुनाव में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर किसी के नाम को घोषित नहीं किया जिसके चलते असल खींचतान अब हरियाणा में मच सकती है | आमतौर पर भाजपा राज्यों में किसी चेहर्रे को प्रोजेक्ट कर चुनाव लडती रही है लेकिन हरियाणा की जाट और गैर जाट पालिटिक्स ने लम्बे कुछ समय से भाजपा का बंटाधार इस कदर कर दिया कि पार्टी कभी यहाँ दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू पायी लेकिन इस बार हरियाणा में ‘चलो चलें मोदी के साथ ’ का नारा जोर शोर से ऐसा  चला कि  गैर जाटलैंड के इलाको के साथ ग्रामीण और शहरी दोनों इलाको में भाजपा का वोट प्रतिशत काफी बढ़ा है  उसने पहली बार हरियाणा की जाटलैंड पालिटिक्स और परिवारवाद  को इस कदर आईना दिखा दिया है कि हरियाणा की राजनीती के बड़े बड़े सूरमा इस जनादेश के सन्देश को अपने चश्मे से पढ पाने की स्थिति में नहीं हैं |

अब भाजपा के पास भी  नए मुख्यमंत्री  पद का संकट खड़ा हो गया है आखिर यह कमान किसे दी जाए ? | भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता रहे कैप्टन अभिमन्यु इस समय मुख्यमंत्री पद के सशक्त दावेदारों में शामिल हैं | युवा होने के साथ ही उनकी अमित शाह से गहरी निकटता अब नया गुल खिला सकती है | वैसे बीते दिनों शाह की ताबड़तोड़ प्रदेश में हुई रैलियों में कैप्टन ने जिस तरह अपनी बिसात बिछाई है उससे कई बार ऐसा लगा कि वही पार्टी की पहली पसंद इस समय हैं लेकिन हरियाणा की राजनीती में पार्टी के अन्दर भी उनके विरोधियो की कई नहीं है जो इस पद पर उन्हें देखना पसंद नहीं करना चाहते | ऐसे में मुश्किल विकट हो चली है | अभिमन्यु के साथ सबसे बड़ा प्लस पॉइंट यह है केन्द्रीय नेतृत्व ने उनको जो जिम्मेदारी सौंपी उसे उन्होंने बखूबी निभाया है | इससे पहले उनको हाई प्रोफ़ाइल लोगो के सामने चुनाव लडाया गया लेकिन वह चुनाव हारते रहे हैं |  रोहतक में हुड्डा का बेटे दीपेंदर के साथ वह मुकाबले के लिए पार्टी में सबसे पहले आगे आये | यह अलग बात है वह बीते दो चुनाव हरियाणा में हारते रहे हैं लेकिन इस बार नारनौद से उनकी जीत ने उनके मुख्यमत्री पद के रास्ते का अच्छा प्लेटफार्म तैयार कर दिया है | इस समय भाजपा में मोदी और शाह की जुगलबंदी गठबंधन से लेकर सरकार और सरकार से लेकर संगठन में हावी है और दोनों के साथ अभिमन्यु की काफी गहरी निकटता है | अगर सब कुछ ठीक रहा तो उनके सितारे हरियाणा में बुलंदी में जा सकते हैं  लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत मनोहर लाल खट्टर   के परदे के पीछे  खड़ी हो सकती है । मोदी  के साथ उनकी गहरी निकटता सभी दावेदारों का  खेल खराब  कर सकती है । इस दौर में संघ दरबार में उनकी मजबूत पकड़ सभी दावेदारों की सम्भावनाओ पर पलीता लगा सकती है । खट्टर डार्क हार्स बन सभी को  अंतिम समय में चौंका सकते हैं । 

अहीरवाल इलाके में केन्द्रीय मंत्री राव इन्द्रजीत मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार हैं | लोक सभा चुनावो से ठीक पहले वह हुड्डा के जहाज को छोड़ने वाले पहले शख्स थे | उन्होंने गुडगाँव लोक सभा सीट पर ऐतिहासिक जीत हासिल कर अपने विरोधियो को धूल चटा दी | अहीरवाल इलाके में  इनके प्रभाव की कई विधान सभा सीटों पर भाजपा ने इस बार अपना कमल खिलाया है | राव इन्द्रजीत का पार्टी में  प्रभाव का अंदाजा इसी बात से हम लगा सकते हैं  पार्टी की टिकट आवंटन की पहली सूची में ही वह अपने चहेते लोगो को टिकट देने में कामयाब रहे थे और वहीँ चुनाव से पहले हरियाणा को लेकर होने वाली हर बैठक में वह उपस्थित रहे जिससे भाजपा हरियाणा में मजबूती के साथ अपना जनाधार बढ़ा पायी | अब चुनाव निपटने के बाद उनका दावा भी  कम मजबूत  नहीं है | वहीँ  भारतीय जनता पार्टी की किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओम प्रकाश धनकड़ भी अब  मुख्यमंत्री पद की कतार में खड़े हैं | वह लोक सभा चुनाव में दीपेन्द्र हुड्डा से पराजित भी हो चुके हैं लेकिन वाजपेयी के दौर में धनकड़ पर पैट्रोल पम्प आवंटन का दाग शायद इस समय उनकी संभावनाओ पर पलीता लगा सकता है

| भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रामविलास शर्मा भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में बने रहने के लिए अपने समर्थको के साथ इस चुनाव में बिसात बिछाते देखे गए हैं और चुनाव परिणाम आने के बाद भी वह दिल्ली दरबार में अपने समर्थको के साथ लाबिंग करने में लग गए हैं  |  तीन  बार पराजय झेलने के बाद अब मोदी लहर  ने उनका बेडा इस बार पार करा दिया है | अहीर मतदाताओ पर उनका प्रभाव रहा है इसी के चलते 2000 के विधान सभा चुनाव में उन्होंने एकतरफा जीत हासिल की लेकिन इस बार उनके कई चेहरे चुनाव जीत गए हैं यह देखना दिलचस्प रहेगा क्या इस बार वह मुख्यमंत्री बन पाते हैं ? कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए चौधरी बीरेंद्र सिंह का भी मुख्यमंत्री पद का दावा भाजपा में कमजोर नहीं है | वह सर छोटू राम के नाती रह चुके हैं जिनका हरियाणा में उनका जबरदस्त प्रभाव रहा | बीरेंद्र चार बार प्रदेश में मंत्री और तीन बार संसद रह चुके हैं | यू पी ए 2 के अंतिम कार्यकाल में हुए मंत्रिमंडल फेरबदल में उनका नाम  पवन बंसल के स्थान पर रेल मंत्री के रूप में खूब चला लेकिन हुड्डा से छत्तीस के आंकड़े के चलते वह केंद्र में मंत्री बनने से चूक गए | कांग्रेस में रहते उनकी मुख्यमंत्री पद को पाने की कसक पूरी नहीं हो सकी | अब भाजपा में आने के बाद वह अपना दावा मुख्यमंत्री पद के लिए छोड़ देंगे इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है |

अगर बात नहीं बनी तो भाजपा उनको राज्यसभा का लालीपाप  थमाने के साथ कोई बड़ी जिम्मेदारी देने के साथ उनकी पत्नी को कोई बड़ा पद दे सकती है |   हरियाणा में मुख्यमंत्री के तौर पर भाजपा हाईकमान की नजर में एक चौकाने वाला नाम इस समय  कृष्णपाल गुर्जर का है। यदि गैर जाट मुख्यमंत्री पर भाजपा की सहमति बनी तो कृष्णपाल गुर्जर के नाम पर मोहर लगनी तय मानी जा रही है। इसके अलावा हरियाणा भाजपा में कोई ऐसा चेहरा नजर नहीं आ रहा है जिसे भाजपा हरियाणा में पहली बार कमान देने की सूरत में खड़ी है | लोकसभा चुनावों में पहली बार किस्मत आजमाने वाले कृष्णपाल गुर्जर ने हरियाणा में पहले नंबर पर रिकॉर्ड मतों से जीत दर्ज की । व्यवहारकुशल कृष्णपाल गुर्जर हर वर्ग में अपनी पैठ रखते हैं। इसके अलावा भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष रहते हुए उन्होंने पूरे प्रदेश में अपने समर्थक तैयार कर लिए थे।  भाजपा में  न केवल जिला व प्रदेश स्तर पर बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर कृष्णपाल गुर्जर का अच्छा रसूख है।  गैर जाट कार्ड खेलना भाजपा की मजबूरी है इसलिए कैप्टन अभिमन्यु का नाम गंभीरता से नहीं लिया जा रहा।

दक्षिण हरियाणा मुख्यमंत्री  हुड्डा के शासन में सबसे ज्यादा उपेक्षित रहा है। सर्वाधिक राजस्व देने के बावजूद फरीदाबाद व गुडग़ांव सबसे अधिक उपेक्षित रहे हैं  | चौटाला के मुख्यमंत्री रहते हुए जहाँ  सिरसा क्षेत्र में विकास कार्य चरम पर रहे वहीँ हरियाणा में  भजनलाल के  हाथ मुख्यमंत्री की कमान रहते हुए हिसार का जबरदस्त विकास हुआ | बीते 10 बरस में कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने रोहतक के आसपास के क्षेत्र का विकास किया |  रोहतक में हुड्डा ने न केवल अपने चहेते लोगो को रेवड़ियाँ बांटीं  दिलाई बल्कि अपने चहेते नौकरशाहों को उनके मनमाकिफ विभागों की जिम्मेदारियां दी |  दक्षिण हरियाणा गैर जाट बैल्ट है और  भाजपा यदि इस क्षेत्र से ही गैर जाट मुख्यमंत्री लाती है तो यह कांग्रेस की मुश्किलें आने वाले 5 बरस में बढ सकती हैं | डार्क हॉर्स के रूप में विदेश मंत्री  सुषमा स्वराज  का नाम भी यहाँ के सियासी गलियारों में चल रहा है | अगर भाजपा के संसदीय बोर्ड में ऊपर के किसी नाम पर सहमती नहीं बनती है तो अमित शाह और मोदी की जोड़ी सुषमा स्वराज के नाम को आगे कर सकती है | सुषमा मूल रूप से अम्बाला की हैं और अतीत में वह दिल्ली की मुख्यमंत्री की कुर्सी भी संभाल चुकी हैं | सुषमा स्वराज अगर पहली बार हरियाणा की कमान सँभालने को तैयार हो जाती हैं तो हरियाणा को पहली महिला मुख्यमंत्री मिलने का जहाँ गौरव मिल सकता है वहीँ उत्तरी हरियाणा को चौधर मिलेगी |

 गैर जाट मुख्यमंत्री देना भाजपा की मजबूरी है और इधर गैर जाट मुख्यमंत्री के रूप में यदि नजर दौड़ाएं तो भाजपा के पास चंद चेहरे हैं। इनमें से एक नाम कृष्णपाल गुर्जर और दूसरा राव इंद्रजीत हैं। इसके अलावा रामबिलास शर्मा का नाम भी चर्चा में है। सूत्रों से पता चला है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व कृष्णपाल गुर्जर या फिर सुषमा के पक्ष में है। रामबिलास शर्मा को मुख्यमंत्री बनाने के लिए भाजपा हाईकमान फिफ्टी  फिफ्टी वाली स्थिति  में  है । इसके अलावा  अन्य पसंद गुडग़ांव के सांसद राव इंद्रजीत कांग्रेस के नेता रहे हैं। भाजपा में वे हाल ही में शामिल हुए हैं | मौजूदा समीकरणों में  भाजपा यदि उन्हें मुख्यमंत्री आगे लाती है तो भाजपा में विद्रोह हो सकता है। इसके अलावा राव इंद्रजीत सोनिया गांधी व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को कांग्रेस में रहते हुए ही कोसते आए हैं इससे उनकी छवि पर भी सवाल खड़े हो गए हैं। दक्षिण हरियाणा गैर जाट बैल्ट है। भाजपा यदि इस क्षेत्र से मुख्यमंत्री को लाती है तो इससे दक्षिणी हरियाणा के लोगो की नाराजगी कम होने के साथ ही गैर जाट और जाट दोनों समीकरण सध सकते हैं | वैसे इस चुनाव में भाजपा को इन दोनों समुदायों ने जमकर  झोली भर के वोट दिया है | अब यह देखने दिलचस्प होगा कि भाजपा का संसदीय बोर्ड किसके नाम पर हरियाणा पर राजी होता है और किसके नाम की लाटरी हरियाणा में खुलती है ?


Friday, 3 October 2014

हरियाणा के सियासी कुरुक्षेत्र में दांव पर दिग्गजों की प्रतिष्ठा




हरियाणा में विधान सभा चुनावों की रणभेरी बज चुकी है । हरियाणा के चुनावी महासमर में सभी दलों ने चुनाव प्रचार में पूरी ताकत झोंक दी है । दिल्ली से सटे होने के चलते हरियाणा में इस समय कांग्रेस के सामने अपना पिछला इतिहास दोहराने की तगड़ी चुनौती तो है साथ में हुड्डा की साख इस चुनाव में सीधे दांव पर है क्युकि उनके सामने कांग्रेस की पुरानी सीटो पर हाथ को मजबूत बनाने की तगड़ी जिम्मेदारी है वहीँ ओमप्रकाश चौटाला के सामने भी अपनी पार्टी का अस्तित्व और वजूद बचाने की विकराल चुनौती है क्युकि जेबीटी शिक्षक घोटाले में जेल की हवा खाने के चलते उनके पुराने वोटर  अब पाला बदलने  की तैयारी में दिखायी देते हैं । हरियाणा में कांग्रेस हुड्डा के नाम के आगे अपने वोट मांगती  दिख रही है लेकिन राज्य की हुड्डा  सरकार के प्रति लोगो में थोडा बहुत गुस्सा भी साफ़ दिखाई देता है । बीते बरस दिसंबर में दिल्ली की जमीन से रुखसत कांग्रेस के सामने अब पडोसी राज्य हरियाणा में हुड्डा के विकास की कहानी लोगो तक पहुचाने की जिम्मेदारी है क्युकि भारी गुटबाजी और एंटी इंकम्बेंसी का अंदेशा राज्य की नब्बे  सीटों के गणित को सीधे प्रभावित कर रहा है लेकिन हरियाणा में विपक्ष के बिखराव का सीधा लाभ लेने के लिए मुख्यमंत्री हुड्डा अपनी बिसात दिन रात मजबूत करते नजर आ रहे हैं जिसके चलते वह सब पर भारी पड़ रहे हैं । पिछले एक दशक में हुड्डा ने अपने  कार्यो के बूते विकास की जो गंगा बहायी है उसकी नाव में सवार होकर कांग्रेस अपने लिए विधान सभा चुनावो में  भरोसेमंद साथियों को साथ लेकर अपने अनुकूल बिसात बिछाती नजर आ रही है ।  मुख्यमंत्री हुड्डा के सामने इस चुनाव में सत्ता में वापसी कर हैट्रिक बनाने की तगड़ी चुनौती है वहीँ विपक्षी दल दक्षिणी हरियाणा में भेदभाव को लेकर उन पर सीधे निशाना साधने से नही चूक रहे |  भाजपा के साथ इनलो , हजका, गोपाल कांडा की हरियाणा लोकहित पार्टी समेत विनोद शर्मा की नई नवेली पार्टी हरियाणा जनचेतना पार्टी , बसपा के मैदान में होने से हरियाणा की जंग दिलचस्प राजनीती का अखाड़ा बन गई है |

 



 



1966 में हरियाणा के अस्तित्व में आने के बाद से यहाँ की पूरी राजनीती 3 लालों की धुरी बनी रही जिसमे देवीलाल, बंशीलाल और भजन लाल का नाम आज भी बड़े जोर शोर से लिया जाता है | कांग्रेस मुक्त भारत की बात करने वाली भाजपा के सामने भी मौजूदा दौर की सबसे बड़ी मुश्किल किसी कद्दावर जाट नेता के न होने से ही खड़ी हुई है , वहीँ तीनो लालों का औरा और हुड्डा का कद भाजपा के चुनावी समीकरणों को आज भी गड़बड़ा रहा है शायद यही वजह है हरियाणा के चुनावी इतिहास में भाजपा आज तक कभी यहाँ विधान सभा के वोट प्रतिशत में दहाई का आंकड़ा तक नहीं छू पाई है लेकिन केंद्र  में नमो सरकार बनने के बाद भाजपा हरियाणा को लेकर इस दौर में सबसे ज्यादा आशान्वित भी है | लोक सभा चुनावों में नमो लहर ने जैसा करिश्मा हरियाणा में दिखाया वैसे ही करिश्मे की उम्मीद भाजपा को हरियाणा के विधान सभा चुनाव को लेकर भी है | अमित शाह और मध्य प्रदेश भाजपा के हनुमान कैलाश विजयवर्गीय जिस तरीके से हरियाणा की चुनावी बिसात को बिछाने में लगे हुए हैं उससे यह साफ़ जाहिर होता है भाजपा हरियाणा में सरकार बनाने का सुनहरा मौका इस बार नहीं चूकना चाहती है | हाल के लोक सभा चुनावो में भाजपा 90 विधान सभा सीटों में 52 सीटों में आगे रही थी लेकिन तब नमो लहर पूरे शबाब पर थी और कुलदीप विश्नोई के साथ भाजपा का गठबंधन हरियाणा में था जिसने जातीय समीकरणों को ध्वस्त करने में अहम भूमिका निभायी  लेकिन आज  चार महीने बाद नमो का मैजिक चलेगा इसमें थोडा संशय लग रहा है क्युकि हरियाणा की राजनीती में कांग्रेस और रीजनल पार्टियों का दबदबा लम्बे समय से रहा है जिस वजह से भाजपा को भी एक दौर में यहाँ इनलो और हजका सरीखे छोटे दलों की बैशाखियों का सहारा लेकर चुनाव लड़ना पड़ा |  लेकिन पहली बार स्पष्ट जनादेश  लेकर आई नमो सरकार के आने  और अमित शाह के हाथ भाजपा की कमान आने के बाद कार्यकर्ताओ का जोश इस कदर सातवें आसमान पर है कि अब भाजपा गठबंधन की राजनीती को धता बताते हुए महाराष्ट्र और हरियाणा सरीखे राज्यों में खुद अपने दम पर पैर पसारना चाह रही है तो यह भाजपा में मोदी और शाह के नए युग की आहट की तरफ साफ़ इशारा है | इसके परिणाम आने वाले दिनों में हमें पंजाब सरीखे राज्य में भी देखने को मिल सकते हैं जहाँ अकालियो के साथ भाजपा की गठबंधन सरकार है और बहुत सम्भव है आने वाला पंजाब का विधान सभा चुनाव भाजपा अकेले लड़े | हरियाणा में अतीत में भाजपा इनलो से समझौता 2009 में जहाँ कर चुकी है वहीँ कुलदीप विश्नोई की पार्टी हजका के साथ गठबंधन की गाँठ बीते कुछ महीनो पूर्व टूट चुकी है जिसके बाद भाजपा ने अपने दम पर हरियाणा के चुनावी महासमर में कूदने का एलान किया | 

 
भाजपा ने इस चुनाव में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर किसी के नाम को घोषित नहीं किया है | हरियाणा में ‘चलो चलें मोदी के साथ ’ का नारा जोर शोर से चलता दिखाई दे रहा है जिससे यह साफ है पार्टी यहाँ भी नमो मंत्र का सहारा लेकर चुनावी वैतरणी को पार करना चाह रही है | उसके पास मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवारो की भारी भरकम फ़ौज खड़ी है लेकिन किसी को वह मुख्यमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट नहीं कर पाई  है जबकि आम तौर पर राज्यों में भाजपा किसी चेहरे को प्रोजेक्ट कर चुनाव लडती रही है शायद इसकी बड़ी वजह हरियाणा की जाट राजनीती रही है |  हुड्डा के शासन में दक्षिणी हरियाणा विकास लहर से सबसे ज्यादा वंचित रहा है और यहाँ से भाजपा के पास अहीरवाल इलाके में केन्द्रीय मंत्री राव इन्द्रजीत मुख्यमंत्री पद के सबसे  प्रबल दावेदार हैं | लोक सभा चुनावो से ठीक पहले वह हुड्डा के जहाज को छोड़ने वाले पहले शख्स थे | उन्होंने गुडगाँव लोक सभा सीट पर ऐतिहासिक जीत हासिल कर अपने विरोधियो को धूल चटा दी | अहीरवाल इलाके में भाजपा का यह ट्रम्प कार्ड अगर चल गया तो इनके प्रभाव की तकरीबन 20 विधान सभा सीटों पर भाजपा अपना कमल खिला सकती है | राव इन्द्रजीत का पार्टी में  प्रभाव कितना है इसका अंदाज  इसी  बात से लगाया जा सकता है पार्टी की टिकट आवंटन की पहली सूची में ही वह अपने चहेते लोगो को टिकट देने में कामयाब रहे | भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता रहे कैप्टन अभिमन्यु भी मुख्यमंत्री पद के सशक्त दावेदारों में शामिल हैं | युवा होने के साथ ही उनकी अमित शाह से गहरी निकटता चुनाव बाद नया गुल खिला सकती है | वहीँ भारतीय जनता पार्टी की किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओम प्रकाश धनकड़ भी मुख्यमंत्री पद की कतार में खड़े हैं | वह लोक सभा चुनाव में दीपेन्द्र हुड्डा से पराजित भी हो चुके हैं लेकिन वाजपेयी के दौर में धनकड़ पर पैट्रोल पम्प आवंटन का दाग अभी भी उनकी संभावनाओ पर पलीता लगा रहा है | भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रामविलास शर्मा भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में बने रहने के लिए अपने समर्थको के साथ बिसात बिछाने में लगे हुए हैं | महेंद्रगढ़ में अहीर मतदाताओ पर उनका प्रभाव रहा है इसी के चलते 2000 के विधान सभा चुनाव में उन्होंने एकतरफा जीत हासिल की लेकिन इस बार उनके कितने चेहरे चुनाव जीत पाते हैं यह देखना होगा क्युकि भाजपा में टिकट आवंटन में उनकी ही सबसे ज्यादा चली है | कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए चौधरी बीरेंद्र सिंह का भी मुख्यमंत्री पद का दावा भाजपा में कमजोर नहीं है | वह सर छोटू राम के नाती रह चुके हैं जिनका हरियाणा में जबरदस्त प्रभाव रहा | बीरेंद्र चार बार प्रदेश में मंत्री और तीन बार संसद रह चुके हैं | यू पी ए 2 के अंतिम कार्यकाल में हुए मंत्रिमंडल फेरबदल में उनका नाम  पवन बंसल के स्थान पर रेल मंत्री के रूप में खूब चला लेकिन हुड्डा से छत्तीस के आंकड़े के चलते वह केंद्र में मंत्री बनने से चूक गए | कांग्रेस में रहते उनकी मुख्यमंत्री पद को पाने की कसक पूरी नहीं हो सकी | अब भाजपा में आने के बाद वह अपना दावा मुख्यमंत्री पद के लिए छोड़ देंगे इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है |  हरियाणा में मुख्यमंत्री के तौर पर भाजपा हाईकमान की नजर में एक चौकाने वाला नाम कृष्णपाल गुर्जर का  है। यदि गैर जाट मुख्यमंत्री पर भाजपा की सहमति बनी तो कृष्णपाल गुर्जर के नाम पर मोहर लगनी तय मानी जा रही है। इसके अलावा हरियाणा भाजपा में कोई ऐसा चेहरा नजर नहीं आ रहा है जिसे भाजपा मुख्यमंत्री प्रोजैक्ट कर सके। दक्षिण हरियाणा मुख्यमंत्री  हुड्डा के शासन में सबसे ज्यादा उपेक्षित रहा है। सर्वाधिक राजस्व देने के बावजूद फरीदाबाद व गुडग़ांव सबसे अधिक उपेक्षित रहे हैं  | चौटाला के मुख्यमंत्री रहते हुए जहाँ  सिरसा क्षेत्र में विकास कार्य चरम पर रहे वहीँ हरियाणा में  भजनलाल के  हाथ मुख्यमंत्री की कमान रहते हुए हिसार का जबरदस्त विकास हुआ | बीते 10 बरस में कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने रोहतक के आसपास के क्षेत्र का विकास किया |  रोहतक में हुड्डा ने न केवल अपने चहेते लोगो को रेवड़ियाँ बांटीं  दिलाई बल्कि अपने चहेते नौकरशाहों को उनके मनमाकिफ विभागों की जिम्मेदारियां दी |  दक्षिण हरियाणा गैर जाट बैल्ट है और  भाजपा यदि इस क्षेत्र से ही गैर जाट मुख्यमंत्री लाती है तो यह कांग्रेस की मुश्किलें बढा सकता है | डार्क हॉर्स के रूप में विदेश मंत्री  सुषमा स्वराज  का नाम भी यहाँ के सियासी गलियारों में चल रहा है | अगर चुनाव के बाद किसी एक नाम पर सहमति नहीं बनती है तो अमित शाह और मोदी की जोड़ी सुषमा स्वराज के नाम को आगे कर सकती है | सुषमा मूल रूप से अम्बाला की हैं और अतीत में वह दिल्ली की मुख्यमंत्री की कुर्सी भी संभाल चुकी हैं |

बात इनलो की करें तो ओमप्रकाश चौटाला और अजय चौटाला के जी बी टी शिक्षक भारती घोटाले में फंसने और जेल की सजा होने के बाद अब दुष्यंत चौटाला के सामने अपनी पार्टी इनलो का वजूद बचाने की तगड़ी चुनौती है | बीते 25 सितम्बर को ताऊ देवीलाल की जन्म शताब्दी के मौके पर अपने समर्थको को इकट्टा कर जिस तरह के तल्ख़ तेवर उन्होंने दिखाए हैं उससे इनलो के कार्यकर्ताओ की बांछें खिल गयी हैं और इस रैली के जरिये ओम प्रकाश चौटाला ने यह जताने की भी पूरी कोशिश की है उनको कमजोर समझना एक बहुत बड़ी भूल होगी | जींद में आयोजित अपनी रैली में उन्होंने हुड्डा को निशाने पर लिया और हरियाणा में एक बार फिर इनलो के हाथ सत्ता सौंपने की अपील अपने समर्थको के बीच की | इस रैली के बाद पूरे जाटलैंड के समीकरण बदल गए हैं क्युकि पिछडो के साथ यही इमोशनल कार्ड चौटाला को न केवल सत्ता के गलियारों तक एक बार फिर पहुंचा सकता है बल्कि इसी से उनकी साख प्रतिष्ठा बच सकती है |  असल में हरियाणा की राजनीती पर लालों का बाद दबदबा रहा है | देवीलाल की खडाऊ लेकर राजनीती करने वाले चौटाला आज भले ही कानूनी बाध्यता के चलते चुनाव ना लड़ पाये हों लेकिन एक दौर में हरियाणा में उनकी भी खूब तूती बोलती रही है | किसानो के बड़े वर्ग और जाटो के बड़े वोट बैंक पर इनकी मजबूत पकड़ रही है | पुराने पन्नो को टटोलें तो जेपी की छाँव तले देवीलाल ने 70 के दशक में न केवल इंदिरा को अपनी ठसक का अहसास कराया बल्कि रक्षा मंत्रालय की कमान केंद्र में संभालते समय अपने भरोसेमंद चेहरे बनारसी दास गुप्ता को हरियाणा की कुर्सी पर बिठाने में देरी नहीं की | आपातकाल के बाद देवीलाल के हाथ फिर हरियाणा की कमान आई लेकिन बगावती माहौल के बीच भजनलाल ने सत्ता हथियाने में देरी नहीं लगाई | अस्सी का दशक आते आते भजनलाल इंदिरा के साथ कांग्रेस में आ गए और प्रदेश के पांचवे विधान सभा चुनाव में बहुमत ना होने के बावजूद उनको मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई जिसका एक दौर में देवीलाल ने खूब विरोध भी किया जिसके बाद 1986 में  बंशीलाल को कुर्सी सौंपी गई लेकिन जनता के हको की लड़ाई लड़ने वाले देवीलाल इस लड़ाई में जीते जब उनके हाथ 1987 में हरियाणा के मुख्यमंत्री की कुर्सी आ गई | और संयोग ऐसा रहा 1989 में जब वह उप प्रधानमंत्री बने तो अपने बेटे ओम प्रकाश चौटाला को हरियाणा का मुख्यमंत्री बना दिया | देवीलाल के निधन के बाद से इनलो अपना वजूद बचाने को संघर्ष करती नजर आ रही है |  चौटाला  को जेल की सजा सुनाये जाने के बाद हरियाणा का ऊट किस करवट बैठता है इस पर सबकी नजर है क्युकि यह जेल का मामला कोई छोटा बड़ा मामला नहीं है | भ्रष्टाचार के मामले में कई वारे न्यारे करने से यू पी ए की चार महीने पूर्व हुए लोक सभा चुनावो में खासी किरकिरी हुई | देखने वाली बात यह होगी जनता की अदालत में चौटाला के साथ कितनी सहानुभूति की लहर इस चुनाव में साथ रहती है ?


बात सत्तारुढ कांग्रेस की करें तो इस चुनाव में उसकी सबसे बड़ी चुनौती बगावत को रोककर अपना विजय रथ आगे बढ़ाना है | आतंरिक गुटबाजी ,अंतर्कलह और बगावत के बीच इस चुनाव में भी कांग्रेस का बड़ा चेहरा हुड्डा ही बने हुए हैं | उन पर दस जनपथ का भरोसा जरुर है लेकिन कई पुराने साथी इस चुनाव में हुड्डा के जहाज को छोड़कर दूसरे जहाज पर सवार हो चुके हैं | राज्य में विभिन्न पार्टियों के अलग अलग लड़ने को हुड्डा अपने पक्ष में कैश कराने में लगे हुए हैं | भाजपा के पास हुड्डा को चुनौती देना इतना आसान नहीं है क्युकि बीते दस बरस में हरियाणा विकास के मामले में कहीं आगे निकल चुका है और ख़ास बात यह है हरियाणा कांग्रेस शासित राज्यों का सबसे बड़ा रोल माडल इस समय बना हुआ है | भाजपा मोदी के  जिस गुजरात  माडल की दुहाई देकर इस समय केंद्र सरकार चला रही है कांग्रेस के शासन में हरियाणा माडल ने पूरे देश में एक नई लकीर हुड्डा के कार्यकाल में खींचने की कोशिश की है शायद यही वजह है कांग्रेस शासित राज्यों के विकास माडल के मामले में हरियाणा माडल हाईवे में इस समय फर्राटा बन दौड़ रहा है क्युकि प्रति व्यक्ति सालाना आय के मामले से लेकर मनरेगा में सबसे ज्यादा मजदूरी और दुग्ध उत्पादन से लेकर फसलो की पैदावार के मामले में हरियाणा अन्य राज्यों से आज कहीं आगे है | वहीँ बीते दस बरस में बुनियादी इन्फ्रास्ट्रक्चर के मामले  में भी हरियाणा ने नई ऊंचाई को छूने का काम भी किया है शायद यही वजह है बिजली पानी और सड़क सरीखी बुनियादी सेवाओ के विस्तार में हरियाणा में बीते कुछ समय में गाँव गाँव काम हुआ है लेकिन इन सब के बाद भी हुड्डा पर सबसे बड़ा आरोप विरोधी विकास कार्यो में भेदभाव को लेकर लगाते रहे हैं जो बहुत हद तक सही भी है | हुड्डा के शासन में चमचमाते फ्लाई ओवर जरुर बने लेकिन यह भी एक सच है इस चकाचौंध का सीधा असर रोहतक , झज्जर और सोनीपत जैसे इलाको तक ही सिमटा जिसके चलते दक्षिणी हरियाणा के लोगो में हुड्डा के प्रति निराशा इस चुनाव में भी साफ़ देखी जा सकती है | एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर के बीच कांग्रेस के हाथ का एक मात्र सहारा  हरियाणा  के मुख्यमंत्री भूपेन्दर सिंह हुड्डा ही बने हैं शायद यही वजह है बीते एक दशक में हरियाणा में एक जुमला  'हरियाणा इज हुड्डा' , 'हुड्डा इज  हरियाणा' खूब  चला है जो इस चुनावी बरस में भी इंदिरा गांधी वाले दौर की यादें ताजा कर देता है तब इंदिरा गांधी कांग्रेस का पूरे देश में सहारा हुआ करती थी । कम से कम हरियाणा में पूरे देश में कांग्रेस  विरोधी लहर के बाद भी अगर हुड्डा की तारीफो के कसीदे वोटरों  से सुनने को मिल रहे  हैं  तो यह कांग्रेस के लिए अच्छे संकेत की तरफ इशारा कराता है लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस में भारी अंतर्कलह पूरा खेल बिगाड़ सकती है | कैथल में नरेन्द्र मोदी के मंच पर जिस तरह की हूटिंग हुड्डा को लेकर की गयी उसने कांग्रेस की मुश्किलों को बढाने का काम किया है वहीँ बीते दिनों टिकटों के बंटवारे को लेकर प्रदेश अध्यक्ष तंवर और हुड्डा में जिस तरह की खींचतान मची उसने भी कई सवालों को भी पहली बार हवा देने का काम किया |  इस चुनाव में कांग्रेस सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है और जीत हो या हार दोनों परिस्थितियो में सेहरा हुड्डा के सर ही बंधना तय है |  वैसे भी इस बार टिकट आवंटन में भी हुड्डा सब पर भारी पड़े हैं | युवा प्रदेश अध्यक्ष तंवर के मन में अपने चहेते व्यक्तियों को टिकट ना दे पाने की  कसक इस क़दर  देखने  को बेटे दिनों मिली कि मनमाकिफ टिकटों का आवंटन ना होने के चलते उन्होंने हुड्डा के सामने अपना त्याग पत्र कांग्रेस हाई कमान को भेजने का एलान कर दिया हालाँकि बाद में बातचीत से सब कुछ सुलझा लिया गया लेकिन इससे अभी भी तंवर के समर्थको में नाराजगी साफ़ दिखाई दे रही है | वहीँ हुड्डा विरोधी खेमे की कमान अभी कुमारी शैलजा के समर्थको ने संभाली हुई है | शैलजा बीते कुछ समय से हुड्डा के खिलाफ कई मंचो से बयानबाजी ना केवल कर चुकी हैं बल्कि अपने समर्थको के साथ मिलकर हुड्डा को कमजोर करने का कोई मौका हरियाणा की राजनीती में नहीं छोड़े हुए हैं | इस बार के विधान सभा चुनावो मे भी यह देखना होगा उनके समर्थक हुड्डा को गले लगाते हैं या हुड्डा को डैमेज करने के लिए विरोधियो से हाथ मिलाकर  कांग्रेस में भीतरघात को हवा कई सीटों पर देते हैं |

कुलदीप विश्नोई की पार्टी हजका यह विधान सभा चुनाव अपने दम पर लड़ रही है | भाजपा के साथ उसका गठबंधन टूटने के बाद अब उसके सामने भाजपा की मौकापरस्ती को सामने लाने का सुनहरा अवसर सामने है लेकिन सीटो पर समझौता न होने से दोनों दल एक दूसरे  से अलग हो गए जिसका पूरा फायदा उठाने की कोशिश अब इनलो और कांग्रेस हरियाणा में करेंगे | इस लोक सभा चुनाव में दोनों के गठबंधन ने हरियाणा में ऐतिहासिक जीत दर्ज की | कई सर्वे में यह बात सामने आई अगर मौजूदा विधान सभा चुनाव भाजपा और हजका साथ साथ लड़ते तो दोनों के वोट प्रतिशत में मजबूत इजाफा होता जिसका सीधा नुकसान हुड्डा को उठाना पड़ता लेकिन अब दोनों के अलग अलग लड़ने से कांग्रेस अपने अनुरूप बिसात बिछा रही है | राजनीती संभावनाओ का खेल है | यहाँ कुछ भी संभव है | हिसार से सटे कई इलाको में कुलदीप का प्रभाव आज भी हरियाणा में मौजूद है | इस चुनाव में उन्होंने विनोद शर्मा की नई नवेली पार्टी हरियाणा जनचेतना पार्टी से हाथ मिलाया है | दोनों साथ आकर हरियाणा के मुकाबले को दिलचस्प बना रहे हैं | वहीँ गीतिका शर्मा केस में आरोपी गोपाल कांडा की नई पार्टी हरियाणा लोकहित पार्टी की भी सिरसा से सटे इलाको में बड़ी धूम मची हुई है | इस चुनाव में कांडा ने 100 करोड़ का बजट चुनाव प्रचार का रखा है | वह घर घर राशन पानी के गिफ्ट देकर अपनी सियासी पार्टी के जनधार को मजबूत करने में लगे हुए हैं | सिरसा से सटे इलाको में कांडा इफ़ेक्ट अगर चल गया तो सबसे ज्यादा मुश्किल इनलो को झेलनी पड सकती है | ऐसे में इनलो के वोट बैंक में बिखराव भी तय माना जा रहा है | 2009  के विधान सभा चुनावो में भी कांग्रेस बहुमत से दूर ही रही थी | उसके पास महज 40 सीटें थी लेकिन इसके बाद भी वह सत्ता की दहलीज तक विनोद शर्मा और कांडा की मदद से पहुंची थी तब हजका के पांच  विधायक टूटकर कांग्रेस में शामिल हो गए  और हुड्डा मुख्यमंत्री भी इनकी बैसाखियों के सहारे पहुंचे थे और संयोग देखिये आज वही साथी हुड्डा से दूर जाकर खुद अपनी पार्टियों के जनाधार को मजबूत करते देखे जा सकते हैं |   
 

 मौजूदा दौर में  हरियाणा में 90 सीटो की सीधी लड़ाई में कांग्रेस के सामने  इनलो ,भाजपा, हजका सीधे खड़ी हैं लेकिन इस  बार के विधान सभा चुनाव में हरियाणा जनचेतना  पार्टी, हरियाणा लोकहित पार्टी और बसपा ने कई इलाको में संघर्ष ने हरियाणा के सियासी महासमर को रोचक बना दिया है जहाँ हर किसी दिग्गज की प्रतिष्ठा सीधे दांव पर लगी है | हुड्डा को जहाँ अपने विकास कार्यो के बूते चुनाव जीतने को लेकर आशान्वित दिखाई दे रहे हैं वहीँ इनलो को अब सहानुभूति की लहर का सहारा है |  भाजपा भी नमो लहर से ही बड़े करिश्मे की उम्मीद लगाये बैठी है ।  भाजपा नमो को हरियाणा के तारणहार के रूप में देख रही है वही पंजाब में भाजपा की सहयोगी  अकाली दल के लोग इनलो के चुनाव प्रचार में साथ भागीदारी कर भाजपा की मुश्किलो को सीधे बढ़ाने का काम कर रहे हैं । अगर एकमुश्त पंजाबी वोट इनलो अपने पाले में लाने में कामयाब हो जाती है तो  इससे भाजपा, कांग्रेस  और  हजका को परेशानी कई सीटो पर पेश आ सकती है । विनोद शर्मा और गोपाल कांडा की पार्टी हार जीत की संभावनाओ पर सीधा असर डाल सकती है ऐसी संभावनाओ से इंकार नहीं किया जा सकता | ऐसे में देखने वाली बात यह होगी इन सबके बीच हरियाणा में ऊंट किस करवट बैठता है ?