Wednesday 12 December 2012

अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग ..........

रिटेल में  एफडीआई  के विरोध में विपक्ष की ओर से लाया गया प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में गिरने के बाद यूपीए सरकार इन दिनों बमबम है । सरकार  एफडीआई के मोर्चे पर एक बड़ी जंग जीतने के रूप में इसे प्रचारित करने में लगी हुई है और इसे ऐतिहासिक लकीर के तौर पर पेश करने में लगी   है लेकिन असल तस्वीर ऐसी नहीं है । यूपीए इस जीत के लिए सपा  और बसपा सरीखे दलों के समर्थन पर इतरा  जरुर सकती है जिसने विपरीत परिस्थितियों में  संकट की इस घडी में सरकार को उबारने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिससे एफडीआई की राह आसान  हो गई । 

सपा , बसपा के बूते जहाँ लोक सभा में  यूपीए का संख्या बल सरकार के पक्ष में गया वहीँ राज्य सभा में बसपा ने वोटिंग कर यू पी ए को आर्थिक मोर्चे पर लादे जा रहे अब तक के सबसे बड़े संकट से उबारा ।  एफडीआई के आसरे अब मनमोहनी इकोनोमिक्स की थाप पर पूरा देश नाचेगा  और इसी के आसरे 2014 की बिसात बिछाने में कांग्रेस लग गई है ।  मौजूदा दौर में एफडीआई  पर सपा और बसपा के रुख से कई सवाल पहली बार उठने लगे हैं ।मसलन उत्तर प्रदेश सरीखे बड़े राज्य में दोनों धुर विरोधी दलों की यह कैसी राजनीती है जो एक  ओर सड़क से संसद तक एफडीआई  के विरोध में आर पार की लड़ाई लड़ते हैं लेकिन जब संसद में मतदान की बारी आती है तो वह या तो वाकआउट कर लेते हैं या सदन के संख्या बल के आधार  पर अपनी चालें चलते इस दौर में नजर आते हैं । यही नहीं मत विभाजन होने की सूरत में एक ओर  वह जहाँ  सरकार के साथ भागीदारी वोटिंग के जरिये करते  हैं वहीँ दूसरी तरफ  लोक सभा से वाकआउट कर सरकार को संकट से उबारते हैं ।

                       राजनीती का मिजाज ही कुछ ऐसा है । यहाँ समीकरण बनते और बिगड़ते ही रहते है लेकिन मौजूदा दौर में जैसी मोल भाव की राजनीती प्रादेशिक दलों द्वारा केंद्र में की जा रही है उसे आप और हम स्वस्थ राजनीती नहीं कह सकते ।  पुराने पन्ने टटोलें  तो ज्यादा समय नहीं बीता जब सपा से लेकर बसपा और द्रमुक से लेकर एनसीपी  एफडीआई के विरोध में बढ़ चढ़कर अपनी भागीदारी करने में लगे हुए थे । यही नहीं कुछ माह पूर्व हुए भारत बंद के दौरान जहाँ सपा, बसपा और द्रमुक भी विपक्ष के साथ खड़े नजर आये लेकिन जब संसद पर बहस और मतदान की बारी आई तो या तो उन्होंने उससे किनारा कर लिया या अपनी प्राथमिकता और एजेंडा   ही बदल  डाला ।  कल तक जो समाजवादी कोलगेट पर कांग्रेस को सड़क से संसद में घेर  रहे  थे आज वह एफडीआई पर सरकार के साथ सुर में सुर मिला रहे हैं ।


                                  संसद में मुलायम सिंह का राग को देखिये । अपने को खांटी समाजवादी समझते हैं । किसानो का सबसे बड़ा  हितैषी  बताते हैं और उत्तर प्रदेश में एफडीआई ना लाने की बात दोहराते  फिरते हैं । देश हित में हमारे छोटे व्यापारियों के लिए इसे नुकसानदेहक बताने से  भी पीछे नहीं रहते लेकिन वोटिंग के दरमियान वाकआउट  कर अपना दोहरा चरित्र जनता के सामने उजागर कर देते  हैं । यही हाल माया बहन जी का भी है  । एक तरफ  वह कुछ माह पूर्व एफडीआई के विरोध में महारैली की हुंकार भारती हैं वहीँ संसद में यू पी ए के साथ कदमताल करती नजर आती हैं ।


                     राजनीतिक गलियारों में यह चर्चाएं जोरो पर हैं इस बार भी माया, मुलायम ने  संसद में अपने रुख के मद्देनजर एक तीर से कई निशाने साधे हैं । इसके एवज में जहाँ मुलायम को उत्तर प्रदेश के विकास के लिए करोडो का मोटा पॅकेज मिलने जा  रहा  है वहीँ  माया बहनजी ने इस बहाने प्रमोशन में  एस टी,एससी आरक्षण का पुराना  राग छेड़  दिया है ।  दोनों दल अब आगामी लोक सभा चुनावो को देखते हुए इसी के आसरे अपनी बिसात बिछा  रहे हैं  । बसपा और सपा का वोट बैंक  भले ही जो हो लेकिन अपने अपने सियासी फायदे नुकसान  के अनुरूप कांग्रेस के साथ खड़ा होना इन दोनों की मजबूरी इस समय बनी हुई है क्युकि जल्द चुनाव होने पर जहाँ मायावती घाटे  में रहने वाली हैं वही असल  फायदा तो सही मायनों में ऐसी सूरत में मुलायम को ही  मिलेगा । लेकिन मुलायम की मजबूरी भी कांग्रेस के साथ जाने की इस रूप में बन चुकी है अगर भविष्य में नेता जी को प्रधान मंत्री की कुर्सी पानी है तो कांग्रेस के साथ सम्बन्ध खराब करना उनके लिए सही नहीं है ।  


एफडीआई पर संसद में चर्चा से पहले इन दोनों दलों का साफ़ स्टैंड था । उन्होंने साफ़ तौर पर यह कहा था यह हमारे भारतीय किसानो और व्यापारियों को निगल लेगा लेकिन संसद में अपनी भूमिका को उसने पूरे देश के सामने उजागर कर दिया । कांग्रेस ने इस दफा भी सी बी आई के डंडे से इनको डराया जिसकी परिणति  एफडीआई को लागू कराने के लिए मिली हरी झंडी के रूप में हुई । एफडीआई  पर अब यू पी ए की मंशा साफ़ है । उसकी माने तो 10 लाख की आबादी वाली जगहों पर विदेशी कंपनिया अपने स्टोर खोल सकेंगी वही अब यह राज्य सरकारों के रुख पर निर्भर होगा क्या वह अपने अपने राज्य में इसे खोलने के लिए सहमति  देंगी या नहीं ?  वह चाहें तो इसे लागू करे ना चाहें तो मत करें । ऐसे माहौल में बसपा और सपा के रंग ढंग देखने लायक आने वाले दिनों में होने वाले हैं क्युकि संसद में इन दोनों दलों ने बीते दिनों जिस तरीके से कांग्रेस के साथ जाने की जिद पकड़ी उससे आम वोटर में सही सन्देश नहीं जा पाया है । अब देखना होगा अपने बड़े वोट बैंक  को यह दल  कैसे  समझा पाते हैं ।

                                  बसपा और सपा भाजपा की सांप्रदायिक राजनीती का हवाला देते हुए अक्सर सरकार को घेरने के मसले पर सदन में विपक्ष के साथ खड़े नहीं दिखते  लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए संसद में इसे लेकर 18 दलों की राय पहली बार पूरे देश के सामने बहस में सामने आई । इस लिहाज से देखें तो यह की भाजपा की निजी समस्या नहीं है ।  कांग्रेस के  एफडीआई  लागू कराने के फैसले पर  जहाँ उसके सहयोगी साथ खड़े इस दौर में नहीं दिखते  वहीँ वाम और तृणमूल भी इस पर कांग्रेस के साथ  कदमताल करते नहीं दिखे । तो क्या माना जाये वह भी सांप्रदायिक हो गए । 


सपा और बसपा की यह पहेली किसी के गले नहीं उतर सकती कि  बीते दिनों सदन के पटल पर सांप्रदायिक ताकतों की करारी हार हुई है । रिटेल के मोर्चे पर अपने रणनीतिकारो के आसरे भले ही कांग्रेस ने मैदान मार लिया हो लेकिन इसने उसकी साख पर भी सवाल उठाये हैं। वैसे भी लगातार लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों से उसकी साख मिटटी में मिली हुई है अब जब लोक सभा चुनावो के होने में 18 माह से भी कम का समय बचा हुआ है तो आर्थिक मोर्चे पर आर्थिक  सुधारों को हवा देने के लिए उसने पहली बार माया मुलायम के जरिये देश में एक नई  लकीर  खींच दी है जहाँ मनमोहनी इकोनोमिक्स अपने चकाचौध तले मध्यम वर्ग  में अपनी पकड़ मजबूत आगामी चुनावो के  जरिये बनाएगा वहीँ विदेशी  निवेशको का दिल जीतने की कोशिश शुरू होगी । 

वैसे भी 2 जी की आंच के बाद से कारपोरेट  डरा  और सहमा हुआ है । नया निवेश जहाँ  इस दौर में नहीं हो पा रहा है वहीँ पहली बार कई परियोजनाओ के लिए एनओंसी मिलने की राह मुश्किल हो चली  है । ऐसे में  अब ऍफ़ डी आई के जरिये भले ही कांग्रेस की मुस्कान लौट आई हो लेकिन  उसकी राज्य सरकारों के अलावे अन्य  राज्य जहाँ उसकी सरकार नहीं है शायद ही कोई इसे वहां लागू करा  पाए । 

कांग्रेस के दस जनपथ के चाटुकार मुख्यमंत्री जहाँ  इसे पूरी तरह अपने राज्यों में लागू करने के हिमायती दिख रहे हैं वहीँ अन्य पार्टियों में इसे लेकर अभी तक कोई सहमति  नहीं है । मसलन राकपा , तृणमूल, सपा सरीखे दल तो कतई अपने अपने अपने राज्यों  में इसे नहीं ला रहे हैं क्युकि चुनावी वर्ष में कोई भी चाल सोच समझकर चलने  की उनकी भी मजबूरी है । ऐसे में अगर यू पी ए  सोच रही है इसके आने के बाद भारतीय  अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी  उसका कायाकल्प हो जायेगा तो यह तर्क  किसी के गले नहीं उतर रहा ।

यकीन जान लीजिये मौजूदा दौर में विदेशी कंपनियों की माली हालत खस्ता है । पूरी दुनिया में अभी भी मन्दी  के बादल पूरी तरह  नहीं छटें  हैं  । उदारीकरण के इस दौर में आम आदमी को चकाधौंच दिखाने वाली वालमार्ट सरीखी कंपनियों का एक मात्र मकसद मुनाफा कमाना है । कोई भी विदेशी कंपनी यहाँ घाटे  का व्यवसाय करने नहीं  आएगी । ऐसे में यह तर्क किसी  के गले शायद ही उतरे कि इससे भारतीयों  का भला होने जा रहा है । यह हमारे किसानो और व्यापारियों के पेट पर लात मारने के सिवाय कुछ नहीं करेंगी । 

वैसे भी वर्तमान में वास्तविकता यह है चालू वर्ष की दूसरी तिमाही में जीडीपी अनुमान के मुताबिक़ 5.3 पर फिसल चूका है ।   ऐसे में लाख टके का सवाल यह है एफडीआई  के आने से भारतीय बाजार कैसे गुलजार हो जायेगा ? वालमार्ट के आने का मतलब जान लीजिये धीरे धीरे पूरा बाजार ये हाईजैक कर लेंगी और रेहड़ी पटरी पर लगाने वालो की कमर टूट जाएगी । हमारे  किराना स्टोर तबाह हो जायेंगे  और पूरा देश हौले हौले विदेशी कंपनियों की थाप पर थिरकेगा ।

                 ऍफ़ डी आई के मसले पर कांग्रेस के साथ खड़े  होकर माया और मुलायम ने जिस तरीके का रुख दिखाया है उससे इनकी साख भी प्रभावित हुई है ।आम आदमी के नाम पर ये दोनों दल जनविरोधी फैसलों  पर जिस तरीके से अपना समर्थन परदे के पीछे से  दे रहे  है उससे जनता में इन दोनों दलों के प्रति नाराजगी का भाव है जो आने वाले चुनावो में असर दिखा सकता है ।  मुलायम ने जहाँ इस एफडीआई पर कांग्रेस के साथ खड़े होकर उत्तर प्रदेश के लिए करोडो का पॅकेज जुटाया है वहीँ मायावती ने मुंबई में  अम्बेडकर  स्मारक की जमीन दलित वोट बैंक के लिए पा ली है ।यही नहीं अब वह दलितों को अपने साथ लाने की फिराक में जुट गई हैं क्युकि अब संसद में  रिजर्वेशन में एस टी ,एस सी आरक्षण को लेकर उन्होंने कांग्रेस को अपना अल्टीमेटम  दे दिया है ।


 बसपा इसके बहाने से जहाँ अपना दलित वोट फिर से मजबूत करेगी वहीँ सपा उसके साथ खड़ी  नहीं हो सकती क्युकि  इस साल उत्तर प्रदेश के चुनावो में इसके विरोध के चलते ही नेता जी  की पार्टी सिंहासन पर काबिज हो पाई । ऐसे में आने वाले दिनों में संसद पर सभी की नजरें  टिकी रहने वाली है  और आने वाले दिनों में सियासी नफा नुकसान देखकर ही चुनावी चौसर मजबूत या कमजोर होगी  । ऐसे में हर दल अपने फायदे के लिए संसदीय राजनीती में अपनी बिसात बिछाने में लगा हुआ है । बसपा और सपा भी अगर इसी के जरिये अपने वोट बैंक को मजबूत कर रहे हैं ।इस पूरे वाकये में  दोनों दलों की सच्चाई से भी पहली बार पर्दा उठ रहा है  वहीँ उनकी साख भी सीधे तौर पर प्रभावित हो रही है । ऐसा नहीं है जनता इस ट्रेलर को नहीं देख रही है । ये पब्लिक है सब जानती है पब्लिक है । तो इन्तजार कीजिए आने वाले समय में होने वाले चुनावो का जब यही पब्लिक हर दल के मोल भाव वाले  नुकसान को अपने वोट के आसरे आईना दिखाएगी ।

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