
भाजपा में येदियुरप्पा अपने को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद से लगातार अपने को असहज महसूस कर रहे थे और समय समय पर संगठन को पार्टी छोड़ने की घुड़की देते रहते थे ।सदानंद गौड़ा के राज्य के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे के बाद पार्टी ने येदियुरप्पा के कहने पर राज्य के विधान सभा अध्यक्ष जगदीश शेट्टार को मुख्यमंत्री पद के लिए प्रमोट किया लेकिन येदियुरप्पा की दाल उनके साथ भी नहीं गल पाई क्युकि सत्ता सुख भोगते भोगते येदियुरप्पा की पार्टी में ठसक लगातार बढती ही गई और आये दिन वह आलाकमान के सामने अपनी मांगे मनवाने के लिए अपना शक्ति प्रदर्शन करते रहते थे । यही वजह थी उन्हें पार्टी में मुख्यमंत्री पद से इतर कोई पद नहीं चाहिए था । औरंगजेब की बीजापुर और गोलकुंडा विजय ने दक्षिण भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना का रास्ता तैयार किया था इसी तर्ज पर कर्नाटक में कमल खिलाने में येदियुरप्पा की भूमिका किसी से छिपी नहीं थी लिहाजा पार्टी ने येदियुरप्पा को मनाने की लाख कोशिशे की लेकिन मोहन भागवत से लेकर सुरेश सोनी और अरुण जेटली से लेकर वेंकैया नायडू सबका प्रबंधन डेमेज कंट्रोल के लिए काम नहीं आ सका ।
पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा दिए जाने से पूर्व येदियुरप्पा का दावा था कई सांसद, विधायक, मंत्री और पार्षद उनकी नई पार्टी में आने को तैयार हैं लेकिन भाजपा आलाकमान द्वारा अब येदियुरप्पा के समर्थन में उतरे एक मंत्री और एक सांसद के खिलाफ सख्त तेवर अपनाने के बाद अब राज्य में भाजपा से जुडा कोई व्यक्ति खुलकर येदियुरप्पा के साथ जाने से कतरा रहा है । पार्टी आलाकमान अब उन लोगो से भी पूछताछ कर रहा है जिन्होंने बीते दिनों येदियुरप्पा की हावेरी में हुई विशाल रैली में शिरकत की ।येदियुरप्पा पार्टी छोड़ते समय बहुत भावुक नजर आये और उन्होंने भाजपा को भी बहुत बुरा भला जरुर कहा लेकिन अभी तक उन्होंने कर्नाटक की शेट्टार सरकार को गिराए जाने की अपनी मंशा का इजहार खुले तौर पर नहीं किया है शायद इसका बड़ा कारण उनका लिंगायत संप्रदाय से होना है जिसका प्रतिनिधित्व खुद राज्य के मुख्यमंत्री शेट्टार करते हैं । कर्नाटक की पूरी राजनीती वोक्कलिक्का और लिंगायत के इर्द गिर्द ही घूमती है जिसमे लिंगायत की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है । जहाँ पिछले विधान सभा चुनावो में इसी लिंगायत समूह के व्यापक समर्थन के बूते येदियुरप्पा के मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ़ हुआ था वहीँ येदियुरप्पा द्वारा शेट्टार को नया मुख्यमंत्री बनाया गया था तो वह भी उनकी बिरादरी से ही ताल्लुक रखते थे ।लिहाजा संकेत साफ़ है येदियुरप्पा अभी शेट्टार सरकार को अपने समर्थको के बूते गिराने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते क्युकि आने वाले कर्नाटक के विधान सभा चुनाव में यही लिंगायत वोट एक बार फिर हार जीत के समीकरणों को प्रभावित करेंगे और अगर आज येदियुरप्पा समर्थक शेट्टार सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेते हैं तो यकीन जान लीजिए लिंगायत आने वाले चुनावो में येदियुरप्पा के साथ अपनी पुरानी हमदर्दी नहीं दिखा पाएंगे लिहाजा येदियुरप्पा ने कर्नाटक में अपनी रीजनल फ़ोर्स के आसरे भाजपा का खेल खराब करने का मन बना लिया । राज्य की तकरीबन 7 करोड़ की आबादी में लिंगायतो की तादात 17 फीसदी है तो वहीँ वोक्कलिक्का 15 फीसदी हैं जिन पर येदियुरप्पा की सबसे मजबूत पकड़ है । गौर करने लायक बात यह होगी कर्नाटक के आने वाले विधान सभा चुनावो में इन दोनों समुदायों का कितना समर्थन भाजपा छोड़ने के बाद येदियुरप्पा अपने लिए जुटा पाते हैं ।
हालाँकि कुछ समय पूर्व येदियुरप्पा की कांग्रेस में शामिल होने की अटकले भी मीडिया में खूब चली क्युकि भाजपा से नाराज येदियुरप्पा ने कई मौको पर जहाँ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उनकी पार्टी के विषय में तारीफों के पुल बांधे वहीँ सोनिया की येदियुरप्पा के गुरु से हुई मुलाकात के राजनीतिक गलियारों में कई सियासी अर्थ निकाले जाने लगे थे लेकिन येदियुरप्पा अपने संगठन के बूते कर्नाटक की सियासत में अपना खुद का मुकाम बनाना चाहते थे जो भाजपा और कांग्रेस से इतर एक अलग दल के रूप में ही उन्हें नजर आया ।
राजनीती संभावनाओ का खेल है । यहाँ किसी भी पल कुछ भी संभव हो सकता है । इसी सियासत के अखाड़े में बगावत की भी पुरानी अदावत रही हैं । कर्नाटक की राजनीती में येदियुरप्पा का एक बड़ा नाम है उनका साथ भाजपा को न मिलने से आने वाले विधान सभा और लोक सभा चुनावो में भाजपा की सत्ता में वापसी की राह जरुर मुश्किल हो सकती है । पार्टी छोड़ते समय येदियुरप्पा की आंखो से आंसू जरुर छलके लेकिन उनकी समझ में यह नहीं आया कि उनकी कुर्सी भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते चली गई । इसके बाद उत्तराखंड में घोटालो की गंगा बहाने के आरोप ने निशंक की भी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद से विदाई कराई थी । रेड्डी बंधुओ को लाभ पहुचाने के आरोप में लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े की एक रिपोर्ट ने कर्नाटक में खनन के कारपोरेट गठजोड़ को न केवल सामने ला दिया बल्कि इसमें सीधे तौर पर येदियुरप्पा के साथ रेड्डी बंधुओ को कठघरे में खड़ा किया । इसी के साथ येदियुरप्पा की भावी राजनीती पर ग्रहण लग गया । अपने दामन को पाक साफ़ बताने वाले येदियुरप्पा शायद यह भूल गए राजनीती जज्बातों से नहीं चलती । वह पार्टी के वफादार सिपाही जरुर थे लेकिन इसका यह मतलब नहीं था पार्टी उन्हें करोडो के वारे न्यारे करने की खुली छूट देती ।
बहरहाल यह कोई पहला मौका नहीं है जब सियासत के अखाड़े में किसी जनाधार वाले नेता ने पार्टी को गुडबाय बोला है । भाजपा में इससे पहले कल्याण सिंह ने एक दौर में भाजपा छोड़ी । 2010 में राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई लेकिन कुछ कर नहीं पाए । मौलाना मुलायम नेताजी का भी दामन थामा लेकिन भाजपा छोड़ने के बाद उनका राजनीतिक करियर समाप्त हो गया । मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को ही लीजिए । राष्ट्रीय जनशक्ति पार्टी बनाई लेकिन कुछ खास करिश्मा वह भी नहीं कर पाई और मजबूर होकर इस साल यू पी के चुनावो से ठीक पहले उनकी दुबारा भाजपा में वापसी हुई । दिल्ली में भाजपा की सियासी जमीन तैयार करने वाले मदन लाल खुराना को ही देख लें एक दौर में उनका भी पार्टी से मोहभंग हो गया था लेकिन अपने खुद के दम पर वह सियासत में कुछ खास करिश्मा नहीं कर पाए । गुजरात में केशुभाई पटेल को ही देख लें मोदी का बाल बाका तक नहीं कर पाए ।अभी गुजरात के अखाड़े में अपनी अलग पार्टी बनाकर मोदी के विरुद्ध वह कदम ताल जरुर कर रहे हैं लेकिन असल ताकत 20 दिसम्बर को पता चलेगी जब गुजरात के विधान सभा चुनावो के परिणाम सामने आयेंगे । देखना होगा कितनी सीटो पर उनकी नई पार्टी जमानत जब्त होने से बचा पाती है । शंकर सिंह बाघेला को ही देखें भाजपा छोड़ने के बाद कांग्रेस में जाकर कुछ ख़ास करिश्मा नहीं कर पाए ।2006 में अर्जुन मुंडा ने भी भाजपा को अलविदा कहा था लेकिन आज तक वह झारखण्ड में अपने बूते कोई बड़ा आधार अपने लिए तैयार नहीं कर सके हैं ।येदियुरप्पा के भविष्य के साथ अगर हम इन सबको जोडें तो एक बात साफ़ है जिन लोगो ने भी पार्टी से किनारे जाकर बगावत का झंडा थामा वह सफल नहीं हो पाए और लोगो के बीच उनकी साख और विश्वसनीयता को लेकर पहली बार सवाल उठे । यही नहीं दूसरी पार्टियों में जाने के बाद भी उन्हें वो सम्मान नहीं मिल पाया जो उनकी मूल पार्टी में मिला करता था ।
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