Sunday 3 March 2013

कलह ने किया भाजपा को कमजोर .....


पार्टी विथ डिफरेंस जुमला भाजपा के बारे में जरुर कहा जाता है । इस पर अगर यकीन करें तो पार्टी में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ,और देश प्रेम का पाठ जोर शोर से हर कार्यकर्ता को ना केवल पढाया जाता है बल्कि संघ भी अपने अंदाज में राष्ट्रवाद के कसीदे पढ़कर दशको से एक नई लकीर अपने आसरे खींचता रहा है लेकिन आज भगवा खेमे में पहली बार हताशा का माहौल है । पार्टी में अब व्यक्ति की गिनती पहले होने लगी है । भगवा खेमे में इस बार हलचल ना केवल प्रधानमंत्री पद को पाने के लिए है बल्कि कांग्रेस से लगातार 2 लोक सभा चुनावो में हारने की कसक नेताओ में बरकरार है । अगर यही हालत रहे तो 2014 के लोकसभा चुनावो में भाजपा का प्रदर्शन फीका पड़ने के आसार अभी से ही दिखाई दे रहे हैं । जिस अनुशासन का हवाला देकर पार्टी अपने को दूसरो से अलग बताती थी आज वही अनुशासन पार्टी को अन्दर से कमजोर कर रहा है क्युकि अगले चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए जनता के बीच जाने के बजाए पार्टी प्रधानमंत्री के पद की किचकिच में उलझी है । उसे यह समझ नहीं आ रहा कैसे भाजपा की नैय्या 2014 में बिना अटल बिहारी के कैसे पार लगेगी ?


वर्तमान दौर में पहली बार भाजपा के अन्दर उथल पुथल है । यही कारण है बीते दिनों राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक में पार्टी ने सुशासन ,संकल्प और विकल्प का नारा ही दे डाला । यह अलग बात है पार्टी में अभी भी कलह थमने का नाम नहीं ले रही और इन सबके बीच पार्टी में अरुण जेटली के अलावे विजय गोयल, सुधांशु मित्तल, नितिन गडकरी जैसे नेताओ की फ़ोन टेपिंग का साया इस राष्ट्रीय कार्यकारणी में भी देखने को मिला है जो कहीं ना कहीं भाजपा के अन्तर्विरोध को एक बार फिर सबके सामने ला रहा है । मजेदार बात यह है राजनाथ के अध्यक्ष बनने से ठीक पहले भाजपा के कई नेताओ के फ़ोन टेप होने का मसला सामने आने से यह मसला दिलचस्प बन गया है जो पार्टी के भीतर तमाम सवालों को पैदा कर रहा है । गडकरी की विदाई के बाद लोगो को उम्मीद थी कि राजनाथ सिंह के अध्यक्ष बनने के बाद सब कुछ सामान्य हो जायेगा पर अभी तक वह अपनी टीम ही नहीं बना सके हैं । इस दौर में भाजपा के पास अपने अस्तित्व को बचाने की गहरी चुनौती है । उसके पुराने मुद्दे अब वोटर पर असर नहीं छोड़ पा रहे तो भावनात्मक मुद्दे भी लोगो को नहीं रिझा पा रहे । यू पी ए 2 की हर एक विफलता को भुनाने मे वह अब तक नाकामयाब ही रही है । हाल ही में उत्तराखंड , उत्तर प्रदेश और हिमांचल सरीखे राज्य उसके हाथ से निकल गए जहाँ वह अच्छा कर सकती थी वहीँ अन्य प्रदेशो में भी पार्टी बहुत अच्छी स्थितियों में नहीं है । हर राज्य में उसके छत्रप लगातार अपने दम पर मजबूत होते जा रहे हैं तो वही यही लोग अपने अंदाज में समय समय पर पार्टी को अपने अंदाज में ठेंगा भी दिखा रहे हैं । बीते कुछ समय पहले येदियुरप्पा और वसुंधरा राजे इसका नायाब उदाहरण रहे हैं वहीँ गुजरात में भाजपा नहीं मोदी लगातार जीत रहे हैं जो बतलाता है पार्टी में हर नेता अपने को पार्टी से बड़ा समझने लगा है जिसके चलते पार्टी 2014 में किसी नेता को प्रोजेक्ट करने से ना केवल डर रही है बल्कि मोदी को लेकर भी कमोवेश इस दौर में तस्वीर साफ़ होती नहीं दिख रही है क्युकि इससे एन डी ए के टूटने का खतरा बना हुआ है जबकि मोदी में ही पार्टी का बड़ा तबका 2014 में भाजपा के लिए नई उम्मीद देख रहा है ।

असल में भाजपा को सबसे बड़ी चुनौती पार्टी के भीतर से ही मिल रही है । अटलबिहारी सरीखे करिश्माई नेता की कमी जहाँ भाजपा को इस दौर में खल रही है वहीँ 80 पार के आडवानी इस दौर में भी प्रधान मंत्री की कुर्सी का अपना मोह नहीं छोड़ पा रहे है । यह अलग बात है इशारो इशारो में आडवानी कहते रहे हैं पार्टी ने उन्हें बहुत कुछ दिया है अब किसी और चीज की चाह नहीं है लेकिन राजनीती का मिजाज ही कुछ ऐसा है व्यक्ति चाहकर भी इसका मोह नहीं छोड़ता । पिछले चुनाव मनमोहन को कमजोर बताने वाले आडवानी के नेतृत्व को देश का वोटर नकार चुका है लिहाजा पार्टी को आडवानी पर निर्भरता छोड़कर केवल उन्हें मार्गदर्शन तक सीमित रखतेहुए दूसरी पंक्ति के किसी नेता पर दाव 2014 में लगाना चाहिए लेकिन इस पर भी भाजपा से लेकर संघ में एका नहीं है क्युकि डी -4 की दिल्ली वाली चौकड़ी तो भागवत के निशाने पर उस दौर से ही है जिस दौर में गडकरी को महाराष्ट्र की राजनीती से पैराशूट की तर्ज पर दिल्ली में उतारा गया वहीँ सुषमा से लेकर जेटली , मोदी से लेकर राजनाथ सभी इस दौर में पीं एम् इन वेटिंग वाली आडवानी वाली लकीर पर चल निकले हैं लेकिन संघ के आशीर्वाद के बिना कोई भी इस पद को नहीं पा सकता । वहीँ इनका सपना भी तभी पूरा हो पायेगा जब 2014 के लोक सभा चुनावो में भाजपा 200 सीटें अपने दम पर पार करे जो इस समय दूर की गोटी ही दिख रही है । हमको तो यह बात हजम नहीं होती पिछले लोकसभा चुनावो में आडवानी ने कहा था अगर वह 2009 मे प्रधान मंत्री नहीं बन पाए तो वह राजनीती से सन्यास ही ले लेंगे लेकिन इस दौर में पार्टी आडवानी पर अपनी निर्भरता नहीं छोड़ पा रही । आडवानी ने चुनावो के बाद अपने को विपक्ष के नेता पद से दूर जरुर किया लेकिन सुषमा और जेटली को आगे कर अपना सबसे बड़ा दाव संघ के सामने ना केवल चला बल्कि जिस गडकरी को पिछली बार उन्होंने संघ के आसरे भाजपा के अध्यक्ष पद पर बिठाया था आज उन्ही को अपनी बिसात के जरिये दूसरा टर्म देने से रोका है जो आज भी साबित करता है आज भी भाजपा में आडवानी का सिक्का जोरो से चलता है । अब जैसे जैसे लोकसभा चुनाव पास आते जा रहे है आडवानी एक बार फिर से पुराने रंग में लौटते जा रहे हैं । हाल ही में उन्होंने पाकिस्तान को हैदराबाद बम धमाको में सीधा जिम्मेदार ठहराया है बल्कि समय समय पर बीते दौर में यू पी ए सरकार को भी अपने निशाने पर लिया है जो बताता है रेस कोर्स के लिए आडवानी आखरी जंग लड़ने के मूड में हैं और अगर खुद ना खास्ता भाजपा अच्छी सीटें नहीं ला पायी तो आडवानी का चेहरा ही ऐसा है जिस पर एन डी ए बिखरने से बच सकता है बल्कि अटल सरकार को छोड़कर गए पुराने पंछी भी फिर से जहाज पर सवार हो सकते हैं । लिहाजा आडवानी अंदरखाने अपने अंदाज में पार्टी के बीच अपना गणित बिठाने में लगे हुए हैं । वैसे भी आज भाजपा में आडवानी के रुतबे में कोई कमी नहीं आई है लिहाजा सुषमा,जेटली से लेकर शिवराज और रमन सिंह सरीखे मुख्यमंत्री उनकी उनकी सबसे बड़ी ताकत बने हुए हैं । पार्टी में आडवानी के नाम पर आज भी वैसी ही सर्व स्वीकार्यता है जैसी नेहरु गाँधी परिवार को लेकर कांग्रेस में है ।

बीते दौर को अगर याद करें तो दीनदयाल उपाध्याय , कुशाभाऊ ठाकरे, विजयराजे सिंधिया और अटल बिहारी सरीखे करिश्माई दिग्गज नेताओ का नाम जेहन में आता है जिनकी बदौलत भाजपा ने एक बड़ा मुकाम बनाया । उस दौर में पूरी पार्टी एकजुट थी । अहं का टकराव नहीं था लेकिन आज कैसा अंतर्कलह मचा हुआ है यह यशवंत सिन्हा द्वारा पार्टी फोरम से बाहर मोदी को पी एम बनाने , गडकरी को चुनौती देने के लिए खुद मैदान ए जंग में आने के बयानों से साफ झलका है ।वहीँ पार्टी अध्यक्ष द्वारा मीडिया में पी एम पद केलिए खुले तौर पर कुछ भी कहने से मनाही के बाद हर नेता पार्टी में अपने बयानों के नए तीर 2014 के चुनावो से पहले छोड़ रहा है जो बतलाता है भाजपा का मौजूदा संकट किस कदर गहराया हुआ है ? राजनाथ के आने के बाद भी पार्टी में आज कार्यकर्ताओ में वह जोश गायब है जो वाजपेयी वाले दौर में हमें देखने को मिलता था । पार्टी मे आज पंचसितारा संस्कृति हावी हो चुकी है । पार्टी का चाल,चलन और चेहरा आज बदल गया है । गडकरी के कार्यकाल में पार्टी के फंड मे सबसे ज्यादा रिकॉर्ड धन प्राप्त हुआ है जो बताता है भाजपा भी किस तरह इस दौर में कारपोरेट के आगे नतमस्तक है । कांग्रेस की तमाम बुराइया भाजपा ने आत्मसात जहाँ कर ली हैं वहीँ गुटबाजी में भी पार्टी ने कीर्तिमान ही तोड़ दिए हैं । पार्टी अपने मूल मुद्दों से भटक ही गई है । राम लहर पर सवार होकर उसने सत्ता सुख जरुर भोगा लेकिन अपने कार्यकाल में गठबंधन की मजबूरियां गिनाकर वह अपने एजेंडे से ही भटक गई । सत्ता की मलाई चाटते चाटते वह इतनी अंधी हो गई कि हिंदुत्व और एकात्म मानवतावाद रद्दी की टोकरी मे जहाँ चले गए वहीँ बाबूसिंह कुशवाहा सरीखे लोगो को उसने बीते दौर में ना केवल गले लगाया बल्कि येदियुरप्पा और निशंक सरीखे नेताओ के भ्रष्टाचार से आँखें मूँद ली । यही नहीं खंडूरी सरीखे जिस नेता को उन्होंने पिछले लोक सभा चुनावो में उत्तराखंड से हटा दिया और विधान सभा चुनावो से ३ माह पहले वापस बुलाकर अपनी भद्द ही कराई । बड़ा सवाल यह था अगर खंडूरी अच्छा काम उत्तराखंड में कर रहे थे तो उनको क्यों हटाया गया और फिर चुनाव पास आतेदेख पार्टी को उनकी याद क्यों आ गई ?यही बात वसुंधरा राजे केलिए भी लागू होती है । उनकी पिछली सरकार ने राजस्थान में अच्छा काम किया फिर भी राजनाथ ने अपने पहले कार्यकाल में उनको नेता प्रतिपक्ष पद से हटा दिया और संयोग देखिये अब राजस्थान में विधान सभा चुनावो में वही वसुंधरा पार्टी का बड़ा चेहरा होने जा रही हैं ?

भारतीय जनसंघ का दौर अलग था ।तब पार्टी के पास एक विजन था । 1977 में यह जनता पार्टी के साथ मिल गयी । इसके बाद १1979 में जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद 1980 मे भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ । 1984 में जहाँ पार्टी ने दो सीटें जीती वहीँ 1989 में 86 सीटो पर भगवा परचम लहराया । इसके बाद नब्बे का दशक आते आते पार्टी राम लहर में सवार हो गई जिसने 1996 में उसे सबसे बड़ी पार्टी बनाया । 1999 से 2004 तक भाजपा ने अटल के आसरे गठबंधन राजनीति की नई लकीर खींची जहाँ प्रमोद महाजन सरीखे नेता की मैनेजरी के जरिये भाजपा ने राजनीती में नई इबारत लिखी । पोखरण, कारगिल उस दौर की यादगार घटनाये रही । साथ ही संसद पर हमला ,आई सी 814 का अपहरण ,गोधरा पार्टी के लिए कलंक साबित हुआ जिसके दाग अभी तक नहीं छूट पाएं है । 2004 के लोकसभा चुनावो में इंडिया शाईनिंग के फब्बारे क़ी ऐसी हवा निकली जिसके जख्मो से वह लगातार पिछले दो लोक सभा चुनावो से नहीं उबर पायी है और इस बार भी चुनाव की बिसात बिछाने से ज्यादा पार्टी में प्रधान मंत्री पद को पाने के लिए सारी रस्साकसी चल रही है । कहीं यह 2014 में भाजपा की मिटटी पलीद नकार दे । बेहतर होगा वह पी एम पद के बजाए2014 में अपना प्रदर्शन सुधारने पर जोर दे । यह दौर ऐसा है जब जनता यू पी ए -2 की नीतियों से परेशान दिख रही है और कहीं का कहीं भ्रष्टाचार के मसले पर बीते कुछ समय से उसकी खासी किरकिरी भी हुई है जिसको भुनाने में भाजपा नाकामयाब ही रही है । सरकार को घेरने का हर मौका भाजपा चूकी है और भ्रष्टाचार की लड़ाई को कमजोर उसने गडकरी सरीखे नेता को बचाकर पूरा किया है जो बतलाता है भाजपा में साढे साती की यह दशा 2014 में भी कहीं उसका खेल कहीं खराब नहीं कर दे और शायद यही वजह है भाजपा पहली बार राजनाथ के अध्यक्ष बनाये जाने के बाद एकजुट होकर राष्ट्रीय कार्यकारणी के जरिये यह बतलाने की कोशिश का रही है 2014 के लिए वह कमर कस चुकी है लेकिन पार्टी का अंदरूनी कलह असंतोष के लावे को सबके सामने तो ला ही रहा है






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