Monday, 25 March 2013

सुरापान और कुमाऊं की होली ...

 होली आपसी प्रेम , भाईचारे और सदभाव का त्यौहार है ।  यह  मन में नई  उमंग और उत्साह का संचार करता है । जिस प्रकार पतझड़ के बाद बसंत  का आगमन  होता है उसी प्रकार फागुनी बयार के आते  ही एक उल्लास का माहौल हमें देखने को मिलता है । यूँ तो होली पूरे देश में और विदेश में उत्साह के साथ मनाई जाती है लेकिन इसे मनाये जाने के तौर तरीके भी अब समय  के साथ साथ बदल रहे हैं । होली मनाने के पीछे भी तमाम मान्यताये हैं । विष्णु को परम शत्रु मानने वाला हिरण्यकश्यप  जब किसी तरह प्रहलाद की प्रभु भक्ति में रुकावट नहीं  डाल  पाया तो उसने उसे मारने की ठानी ।  हिरण्यकश्यप की बहन होलिका जिसे वरदान मिला था वह जिसे भी गोद में बिठाएगी वह आग में भस्म हो जायेगा । होलिका ने भी प्रहलाद को गोद में बिठाया तो प्रहलाद तो बच गए होलिका भस्म हो गयी । तभी से होलिका दहन करने की परम्परा चल पड़ी । वैसे द्वापर युग में होली  का जिक्र आते ही राधा और कृष्ण की रास लीला भी सबकी जुबान पर आ जाती है जिसके आधार पर लोग बरसाने की तरह लोगो के बीच जाकर रंग डालते हैं । 
     

 देवभूमि उत्तराखंड की होली की पूरे देश में विशेष पहचान है । बसंत पंचमी से यहाँ पर होली की महफिले सजने लगती हैं ।  एकादशी से लगातार घर घर होली के मंगल गीत गाये जाने लगते हैं । होली  के छठे  दिन रंग की हिली खेली जाती है जिसे पहाडो में छरडी कहते हैं । होली के दिन घर घर जाकर लोग आलू के गुटके, ,गुजिया  सुपारी , सौंफ खाके गले मिलकर एक दूजे को बधाईया देते हैं और होली के गीतों की फुहार में झूमते हैं । पहाड़ो  में छरडी के अगले दिन देवर भाभी और जीजा साली का टिका होता है जिसमे सभी टीका लगाकर बधाई  देते हैं ।


 कुमाऊ में होली के अवसर पर घर घर में धूम देखी  जा सकती है ।  इसमें होलियार होली के गीत गाकर समाँ बांधते हैं तो वहीँ महिलाओ के स्वांग रचने के उदाहरण  भी देखने को मिलते हैं जहाँ  वह पुरुष वेश धारण कर खूब हसी और ठिठोली में डूबे रहते हैं ।  कुमाऊँ  अंचल में एकादशी के बाद से ही घर घर में महिलाओ की बैठकी होली शुरू हो जाती है । शहरों की अपेक्षा गावो में होली के मौके पर ख़ास चहल पहल देखने को मिलती है ।  मनी ऑर्डर  इकॉनमी पर आधारित पहाड़ में अधिकांश सैनिक जो देश की सेवा में दिन रात तत्पर रहते हैं वह भी होली के ख़ास मौके पर अपने गाव जाना नहीं भूलते जिसके चलते गावो में उनके आने से होली के त्यौहार में चार चाँद लग जाते हैं । होली और दिवाली पहाड़ में एक ऐसे त्यौहार हैं  हैं जब पूरा परिवार एकजुट रहता है । गावो में होली घर के आँगन में गाई  जाती है । आंगन  में लकडियो की धूनी जलाई जाती है जिसके पास एक व्यक्ति गले में ढोल बजाता है । पूरे गाँव के लोक गोल घेरे में झूमते हुए परिक्रमा करते हुए होली गाते हैं ।  गोल घेरे के मध्य में एक गाव का कोई बुजुर्ग पहले एक लाइन गाता है फिर उसका अनुसरण सभी लोग करते हैं । होली गाने वाले पहाड़ के ये सभी होलियार झूम झूमकर मस्ती से होली  करते हैं । एक ताल में जहाँ गीतों के बोल मिलते हैं वहीँ कदम भी एक साथ चलते, गिरते और उठते हैं । पहाड़ के गावो में खेली जाने वाली इस होली में गोल घेरे में महिलाये सम्मिलित नहीं होती बल्कि वह बैठकर पुरुषो की इस होली का आनंद लेती हैं ।


      पहाड़ में होली गायन  "सिद्धि को दाता  विघ्न विनाशन" गणेश वंदना से शुरू होता है । वही द्वादशी के दिन से रंग राग शुरू हो जाता है । मत जाओ पिया होली आय रही जैसे गीतों के जरिये जहाँ नायिका अपने पति को परदेश जाने से रोकती है वहीँ विरह की पीड़ा भी इस होली में "ठाडी जो हेरू बाट  म्यार सैय्या कब आवे" जैसे गीतों में होली का यह उत्साह चरम पर चला जाता है । पहाड़ो में अगर आप होली देखे तो यहाँ की होलिया ढलती  उम्र मे किसी भी व्यक्ति को युवावस्था की याद दिलाकर उसे अपने मोहपाश में जकड लेती हैं । कुमाऊं में छरडी  के पहले से ही  होली की जबरदस्त धूम घर घर में देखने को मिल जाती है । लोग अपना काम काज छोड़कर गाँवों में उत्साह के साथ होली के आयोजन में अपनी सहभागिता करते हैं । घर घर में होल्यारो की मंडलिया देर रात तक होली के गीतों में थिरकती रहती हैं ।  छरडी के दिन गले मिलकर लोग अपनी खुशियाँ बांटते हैं और नहाने धोने के बाद शाम को गाँवों में खड़ी  होली गायन करते हैं जो देर रात तक चलता है ।  अंत में लोग " केसरी रंग डारो  भिगावन को , सांवरी रंग डारो  भिगावन  को  " जैसे गीतों से परिवार के हर सदस्य को आशीष देते हैं ।


 उत्तराखंड में कई वर्षो पहले तक जो होली गाँवों में देखने को मिलती थी वह अब समाप्त होती जा रही है । हाल के वर्षो में रोजगार के अभाव में पहाड़ो से पलायन काफी बढ़ा है । खेती बाड़ी चौपट है तो जल जमीन जंगल के नाम पर लूट चल रही है । लोग महानगरो की तरफ रोजी रोटी की तलाश में बढ  रहे हैं जिससे होली जैसे त्यौहार भी अब  गावो में सिमटते जा रहे हैं क्युकि  इस दौर में समूची कवायद तो कॉर्पोरेट के आसरे विकास के चमचमाते सपने दिखाने में लगी हुई है और इन सबके बीच परम्परा को भी आधुनिकता का ग्रहण लग चुका  है । कुमाऊ  में गौरंग घाटी , चम्पावत, लोहाघाट और अल्मोड़ा की होली आज भी अपने अस्तित्व को बचाए हुए है  । एक दौर ऐसा भी था जब कुमाऊ  की इस होली की अलग पहचान थी और लोग इससे देखने के लिए लालायित रहते थे लेकिन अब माहौल पहले जैसा नहीं रहा । पहाड़  के गाव दिनों दिन खाली होते जा रहे हैं । युवा पीड़ी माल संस्कृति वाली हो गयी है । वह पहाड़ से जुड़ाव महसूस  नहीं करती  । शराब ने  नशा नहीं रोजगार दो के दौर में पहाड़ो को खोखला कर दिया था । अब होली के मौके पर भी सुरापान ट्रेंड अपने  चरम पर है । कच्ची शराब के कल कारखाने जहाँ  घर घर में फूलने लगे हैं वहीँ सूबे के मुखिया विजय बहुगुणा  ने शराब को बढ़ावा देने के लिए जिस तरह नीतिया यहाँ हाल के वर्षो में बनाई हैं उससे देवभूमि में अब हर चाय के ढाबे में  चाय कम सुरापान ज्यादा होने के आसार बन रहे  हैं । दस जनपथ की कृपा से  मुख्यमंत्री बने विजय बहुगुणा कॉपरेट और सिंडिकेट के आसरे उत्तराखंड में नई  बोतल में पुरानी शराब घर घर तक पहुचाने में  गए हैं । ऐसे में सरकार की नीयत पर सवाल उठने  लगे हैं । ऊपर से होली सरीखे  बड़े त्योहारों में भी देवभूमि में शराब की गंगा बहनी अब तय ही दिख रही है । अगर ऐसा हुआ तो उत्तराखंड में होली के  मौके पर  रंग में भंग पड़ना तय है और शराब के रंग के आगे इस बार की  होली के रंग भी फीके ही रहेंगे ।

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सुरा ने सुरों की धरती की रंगत बिगाड़ दी है।

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

रात-रातभर होली के मंगल गीत-गायन और छरड़ी मुझे भी याद है। बहुत सुन्‍दर आलेख और विचारणीय परंपरा ह्रास चिंता। मेरे लिंक (chandkhem.blogspot.in) पर (गांव, बचपन, होली) नामक आलेख पढ़ने का कष्‍ट करें। इसमें भी आप पहाड़ों (गढ़वाल) की होली का वर्णन पढ़ पाएंगे। क्‍या आप कुमाऊं से हैं?