कुछ
समय पूर्व छत्तीसगढ़ के कांकेर, दंतेवाडा जिलों में जाने का मौका मिला ।
नक्सलियों का भय यहाँ जाते हुए सबके चेहरे पर साफ़ देखा जा सकता
था। शाम ढलने के साथ ही सड़को में अजीब सा सन्नाटा पसर जाता था । यह
सब ऐसे इलाके हैं जहाँ मुख्यालय के आस पास ही सरकारी मशीनरी सक्रिय रहती
है । इलाके के अन्दर कोई सुरक्षा बल जाना पसंद नहीं करता । फिर इस इलाके
में मैंने कदम रखा तो लोगो ने अनुरोध किया आगे खतरा है मत जाइये लेकिन
मन कहाँ मानता । खबरों के साथ एक खास तरह का सरोकार था और नक्सल
प्रभावित
इलाको की वस्तुस्थिति जानना चाहता था सो अपने रिस्क पर चल पड़ा अपनी मंजिल
की तरफ बिना किसी खौफ के । रास्ते में रामकिशन नाम के एक शख्स से सामना हुआ । उसकी बातो
से आभास हुआ वह नक्सली विचारधारा का झंडा पूरे इलाके में काफी समय से
उठाये हुए है । जब नक्सली हिंसा को मैंने गलत ठहराने की कोशिश की तो
उसने बताया "हमारे
बाप दादा ने जिस समय हमारा घर बनाया था उस समय सब कुछ ठीक ठाक था
... संयुक्त परिवार की परंपरा थी ... सांझ ढलने के बाद सभी लोग एक छत के
नीचे बैठते थे और सुबह होते ही अपने खेत खलिहान की तरफ निकल पड़ते थे । अब
हमारे पास रोजी रोटी का साधन नहीं है... जल ,जमीन,जंगल हमसे छीने जा रहे है
और दो जून की रोटी जुटा पाना भी मुश्किल होता जा रहा है ... हमारी वन
सम्पदा टाटा , एस्सार , अम्बानी सरीखे कारपोरेट घराने लूट रहे है और "मनमोहनी इकोनोमिक्स " के इस दौर में
अमीरों और गरीबो की खाई दिन पर दिन चौड़ी होती जा रही है... विकास के इसी असंतुलन ने हमें सरकार से लड़ने को मजबूर किया है "
साठ साल के रामकिशन नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा सरीखे अति संवेदनशील उस इलाके से आते है जिनकी कई एकड़ जमीने उदारीकरण के दौर के आने के बाद कारपोरेटी बिसात के चलते हाथ से चली गई । पिछले दिनों रामकिशन ने मुलाक़ात के दौरान जब अपनी आप बीती सुनाई तो मुझे भारत के विकास की असली परिभाषा मालूम हुई । "शाईनिंग इंडिया", " भारत निर्माण " के हक़ के नाम पर विश्व विकास मंच पर भारत के बुलंद आर्थिक विकास का हवाला देने वाले हमारे देश के नेताओ को शायद उस तबके की हालत का अंदेशा नहीं है जिसकी हजारो एकड़ जमीने इस देश में कॉरपोरेट घरानों के द्वारा या तो छिनी गई है या यह सभी छीनने की तैयारी में हैं । दरअसल इस दौर में विकास एक खास तबके के लोगो के पाले में गया है वही दूसरा तबका दिन पर दिन गरीब होता जा रहा है जिसके विस्थापन की दिशा में कारवाही तो दूर सरकारे चिंतन तक नहीं कर पाई है ।
फिर अगर नक्सलवाद सरीखी पेट की लड़ाई को सरकार अलग चश्मे से देखती है तो समझना यह भी जरुरी होगा उदारीकरण के आने के बाद किस तरह नक्सल प्रभावित इलाको में सरकार ने अपनी उदासीनता दिखाई है जिसके चलते लोग उस बन्दूक के जरिये "सत्ता " को चुनौती दे रहे है जिसके सरोकार इस दौर में आम आदमी के बजाय " कारपोरेट " का हित साधने में लगे हुए हैं । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नक्सलवादी लड़ाई को अगर देश की आतंरिक सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा बताते है तो समझना यह भी जरुरी हो जाता है आखिर कौन से ऐसे कारण है जिसके चलते बन्दूक सत्ता की नली के जरिये "चेक एंड बेलेंस" का खेल खेलना चाहती है?
कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के रूप में नक्सलवाद की व्यवस्था पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से १९६७ में कानू सान्याल, चारू मजूमदार, जंगल संथाल की अगुवाई में शुरू हुई । सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक समानता स्थापित करने के उद्देश्य से इस तिकड़ी ने उस दौर में बेरोजगार युवको , किसानो को साथ लेकर गाव के भू स्वामियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था । उस दौर में " आमारबाडी, तुम्हारबाडी, नक्सलबाडी" के नारों ने भू स्वामियों की चूले हिला दी । इसके बाद चीन में कम्युनिस्ट राजनीती के प्रभाव से इस आन्दोलन को व्यापक बल भी मिला । केन्द्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इस समय आन्ध्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार , महाराष्ट्र समेत १४ राज्य नक्सली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित हैं ।
नक्सलवाद के उदय का कारण सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक असमानता और शोषण है । बेरोजगारी, असंतुलित विकास ये कारण ऐसे है जो नक्सली हिंसा को लगातार बढ़ा रहे है । नक्सलवादी राज्य का अंग होने के बाद भी राज्य से संघर्ष कर रहे है । चूँकि इस समूचे दौर में उसके सरोकार एक तरह से हाशिये पर चले गए है और सत्ता ओर कॉर्पोरेट का कॉकटेल जल , जमीन, जंगल के लिये खतरा बन गया है अतः इनका दूरगामी लक्ष्य सत्ता में आमूल चूल परिवर्तन लाना बन गया है । इसी कारण सत्ता की कुर्सी सँभालने वाले नेताओ और नौकरशाहों को ये सत्ता के दलाल के रूप में चिन्हित कर रहे हैं और समय आने पर अब उन पर हमले कर उनकी सत्ता को ना केवल चुनौती दे रहे हैं बल्कि यह भी बतला रहे हैं समय आने पर वह सत्ता तंत्र को आइना दिखाने का माददा रखते हैं ।
नक्सलवाद के बड़े पैमाने के रूप में फैलने का एक कारण भूमि सुधार कानूनों का सही ढंग से लागू ना हो पाना भी है जिस कारण अपने प्रभाव के इस्तेमाल के माध्यम से कई ऊँची रसूख वाले जमीदारो ने गरीबो की जमीन पर कब्ज़ा कर दिया जिसके एवज में उनमे काम करने वाले मजदूरों का न्यूनतम मजदूरी देकर शोषण शुरू हुआ । इसी का फायदा नक्सलियों ने उठाया और मासूमो को रोजगार और न्याय दिलाने का झांसा देकर अपने संगठन में शामिल कर दिया । यही से नक्सलवाद की असल में शुरुवात हो गई ओर आज कमोवेश हर अशांत इलाके में नक्सलियों के बड़े संगठन बन गए हैं ।
आज आलम ये है हमारा पुलिसिया तंत्र इनके आगे बेबस हो गया है इसी के चलते कई राज्यों में नक्सली समानांतर सरकारे चला रहे है । देश की सबसे बड़ी नक्सली कार्यवाही १३ नवम्बर २००५ को घटी जहाँ जहानाबाद जिले में माओवादियो ने किले की तर्ज पर घेराबंदी कर स्थानीय प्रशासन को अपने कब्जे में ले लिया जिसमे तकरीबन ३०० से ज्यादा कैदी शामिल थे। "ओपरेशन जेल ब्रेक" नाम की इस घटना ने केंद्र और राज्य सरकारों के सामने मुश्किलें बढ़ा दी । तब से लगातार नक्सली एक के बाद एक घटनाये कर राज्य सरकारों की नाक में दम किये है । चाहे मामला बस्तर का हो या दंतेवाडा का हर जगह एक जैसे हालात हैं । बीते दिनों छत्तीसगढ़ में एक हजार से ज्यादा नक्सलियों ने कांग्रेस के उनतीस से ज्यादा कांग्रेसी नेताओ को जिस तरह गोदम घाटी में मौत के घाट उतारा उसे राजनेताओ पर की गई पहली सबसे भीषण कार्यवाही माना जा सकता है । महेंद्र वर्मा तो नक्सलियों के निशाने पर पहले से ही थे लेकिन कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में नक्सलियों ने गोलाबारी में नन्द कुमार पटेल , उदय मुदलियार जैसे वरिष्ठ नेताओ को मारकर अपने नापाक इरादे जता दिए । 2009 में लालगढ़ में नक्सलियों ने अपना खौफ पूरे बंगाल में दिखाया था इसके बाद 2007 में पचास से ज्यादा पुलिस कर्मी नक्सली हिंसा में मारे गए तो वहीँ 2010 में छत्तीसगढ़ में सी आर पी एफ के 76 जवानो की हत्या से नक्सलियों ने तांडव ही मचा दिया । उसके बाद से अब तक यह पहली भीषण कार्यवाही है जब नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेताओ को निशाने पर लिया ।
केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जुलाई 2011 में पेश रिपोर्ट में तकरीबन तिरासी जिले ऐसे पाए गए जहाँ माओवादी समानांतर सरकार चला रहे हैं । हालाँकि 2009 तक आठ राज्यों के तकरीबन देश के एक चौथाई जिले नक्सलियों के कब्जे में थे । वर्तमान में नक्सलवादी विचारधारा हिंसक रूप धारण कर चुकी है । सर्वहारा शासन प्रणाली की स्थापना हेतु ये हिंसक साधनों के जरिये सत्ता परिवर्तन के जरिये अपने लक्ष्य प्राप्ति की चाह लिये है तो वहीँ सरकारों की "सेज" सरीखी नीतियों ने भी आग में घी डालने का काम किया है । सेज की आड़ में सभी कोर्पोरेट घराने अपने उद्योगों की स्थापना के लिये जहाँ जमीनों की मांग कर रहे है वही सरकारों का नजरिया निवेश को बढ़ाना है जिसके चलते औद्योगिक नीति को बढावा दिया जा रहा है ।
कृषि " योग्य भूमि जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीड है उसे ओद्योगिक कम्पनियों को विकास के नाम पर उपहारस्वरूप दिया जा रहा है जिससे किसानो की माली हालत इस दौर में सबसे ख़राब हो चली है । यहाँ बड़ा सवाल ये भी है "सेज" को देश के बंजर इलाको में भी स्थापित किया जा सकता है लेकिन कंपनियों पर " मनमोहनी इकोनोमिक्स " ज्यादा दरियादिली दिखाता नजर आता है । जहाँ तक किसानो के विस्थापन का सवाल है तो उसे बेदखल की हुई जमीन का विकल्प नहीं मिल पा रहा है । मुआवजे का आलम यह है सत्ता में बैठे हमारे नेताओ का कोई करीबी रिश्तेदार अथवा उसी बिरादरी का कोई कृषक यदि मुआवजे की मांग करता है तो उसको अधिक धन प्रदान किया जा रहा है । मंत्री महोदय का यही फरमान ओर फ़ॉर्मूला किसानो के बीच की खाई को और चौड़ा कर रहा है ।
सरकार से हारे हुए मासूमो की जमीनों की बेदखली के बाद एक फूटी कौड़ी भी नहीं बचती जिस के चलते समाज में बढती असमानता उन्हें नक्सलवाद के गर्त में धकेल रही है । आदिवासी इलाको में तस्वीर भयावह है । प्राकृतिक संसाधनों से देश के यह सभी जिले भरपूर हैं लेकिन राज्य और केंद्र सरकार की गलत नीतियों ने यहाँ के आदिवासियों का पिछले कुछ दशक से शोषण किया है और इसी शोषण के प्रतिकार का रूप नक्सलवाद के रूप में हमारे सामने आज खड़ा है । "सलवा जुडूम" में आदिवासियों को हथियार देकर अपनी बिरादरी के "नक्सलियों" के खिलाफ लड़ाया जा रहा है जिस पर सुप्रीम कोर्ट तक सवाल उठा चुका है । हाल के वर्षो में नक्सलियों ने जगह जगह अपनी पैठ बना ली है और आज हालात ये है बारूदी सुरंग बिछाने से लेकर ट्रेन की पटरियों को निशाना बनाने में ये नक्सली पीछे नहीं है । अब तो ऐसी भी खबरे है हिंसा और अराजकता का माहौल बनाने में जहाँ चीन इनको हथियारों की सप्लाई कर रहा है वही हमारे देश के कुछ सफेदपोश नेता और कई विदेशी संगठन धन देकर इनको हिंसक गतिविधियों के लिये उकसा रहे है । अगर ये बात सच है तो यकीन जान लीजिये यह सब हमारी आतंरिक सुरक्षा के लिये खतरे की घंटी है । केंद्र सरकार के पास इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति का अभाव है वही राज्य सरकारे केंद्र सरकार के जिम्मे इसे डालकर अपना उल्लू सीधा करती है और बड़ा सवाल इस दौर में यह भी है नक्सल प्रभावित राज्यों में बड़े बड़े पॅकेज देने के बाद भी यह पैसा कहाँ खर्च हो रहा है इसकी जवाबदेही तय करने वाला कोई नहीं है । इलाको में बिजली नहीं है तो पानी का संकट भी अहम हो चला है । वहीँ अस्पताल के लिए आज भी आजादी के बाद लोगो को मीलो दूर का सफ़र तय करना पड़ रहा है । परन्तु दुःख है हमारी सरकारों ने नक्सली हिंसा को सामाजिक , आर्थिक समस्या से ना जोड़कर उसे कानून व्यवस्था से जोड़ लिया है । इन्ही दमनकारी नीतियों के चलते इस समस्या को गंभीर बताने पर सरकारे ना केवल तुली हैं बल्कि उसे लोकतंत्र के लिए बाद खतरा बता भी रही है और वोट बैंक के स्वार्थ के चलते एक की कमीज दूसरे से मैली बताने पर भी तुली हुई हैं । जबकि असलियत ये है कानून व्यवस्था शुरू से राज्यों का विषय रही है लेकिन हमारा पुलिसिया तंत्र भी नक्सलियों के आगे बेबस नजर आता है । राज्य सरकारों में तालमेल में कमी का सीधा फायदा ये नक्सली उठा रहे है । पुलिस थानों में हमला बोलकर हथियार लूट कर वह जंगलो के माध्यम से एक राज्य की सीमा लांघ कर दूसरे राज्य में चले जा रहे है बल्कि आये दिन अपनी बिछाई बिसात से सत्ता को अपने अंदाज में चुनौती दे रहे हैं । ऐसे में राज्य सरकारे एक दूसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेती है । इसी आरोप प्रत्यारोप की उधेड़बुन में हम आज तक नक्सली हिंसा समाधान नहीं कर पाए है...गृह मंत्रालय की " स्पेशल टास्क फ़ोर्स " रामभरोसे है । केंद्र के द्वारा दी जाने वाली मदद का सही इस्तेमाल कर पाने में भी अभी तक पुलिसिया तंत्र असफल साबित हुआ है । भ्रष्टाचार रुपी भस्मासुर का घुन ऊपर से लेकर नीचे तक लगे रहने के चलते आज तक कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ पाए हैं साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों में आबादी के अनुरूप पुलिस कर्मियों की तैनाती नहीं हो पा रही है । कॉन्स्टेबल से लेकर अफसरों के कई पद जहाँ खली पड़े है वही ऐसे नक्सल प्रभावित संवेदनशील इलाको में कोई चाहकर भी काम नहीं करना चाहता । इसके बाद भी सरकारों का गाँव गाँव थाना खोलने का फैसला समझ से परे लगता है।
नक्सल प्रभावित राज्यों पर केंद्र को सही ढंग से समाधान करने की दिशा में गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। चूँकि इन इलाको में रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी समस्याओ का अभाव है जिसके चलते बेरोजगारी के अभाव में इन इलाको में भुखमरी की एक बड़ी समस्या बनी हुई है। सरकारों की असंतुलित विकास की नीतियों ने इन इलाके के लोगो को हिंसक साधन पकड़ने के लिये मजबूर कर दिया है । हमें यह समझना पड़ेगा कि लुटियंस की दिल्ली के एसी कमरों में बैठकर नक्सली हिंसा का समाधान नहीं हो सकता । इस दिशा में सरकारों को अभी से गंभीरता के साथ विचार करना होगा तभी बात बनेगी अन्यथा आने वाले वर्षो में ये नक्सलवाद "सुरसा के मुख" की तरह अन्य राज्यों को निगल सकता है ।
कुल मिलकर आज की बदलती परिस्थितियों में नक्सलवाद भयावह रूप लेता नजर आ रहा है । बुद्ध, गाँधी की धरती के लोग आज अहिंसा का मार्ग छोड़कर हिंसा पर उतारू हो गए है। विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार करने वाले आज पूर्णतः विदेशी विचारधारा को अपना आदर्श बनाने लगे है । नक्सल प्रभावित राज्यों में पुलिस कर्मियों की हत्या , हथियार लूटने की घटना और अब सीधे छत्तीसगढ़ में राजनेताओ की हत्या बताती है नक्सली अब "लक्ष्मण रेखा" लांघ चुके हैं । नक्सल प्रभावित राज्यों में जनसँख्या के अनुपात में पुलिस कर्मियों की संख्या कम है। इस दौर में पुलिस जहाँ संसाधनों का रोना रोती है वही हमारे नेताओ में इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति नहीं है । ख़ुफ़िया विभाग की नाकामी भी इसके पाँव पसारने का एक बड़ा कारण है । एक हालिया प्रकाशित रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इन नक्सलियों को जंगलो में "माईन्स" से करोडो की आमदनी होती है जिसका प्रयोग वह अपनी ताकत में इजाफा करने में करते हैं
। कई परियोजनाए इनके दखल के चलते अभी विभिन्न राज्यों में लंबित पड़ी हुई है । नक्सलियों के वर्चस्व को जानने समझने करता सबसे बेहतर उदाहरण झारखण्ड का "छतरा " और छत्तीसगढ़ का "बस्तर" , कांकेर और "दंतेवाडा " जिला है जहाँ बिना केंद्रीय पुलिस कर्मियों की मदद के बिना किसी का पत्ता तक नहीं हिलता और इन इलाको के जंगल में जाने से हर कोई कतराता है । यह हालत काफी चिंताजनक तस्वीर को सामने पेश करते हैं ।
नक्सल प्रभावित राज्यों में आम आदमी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाना चाहता । वहां पुलिसिया तंत्र में भ्रष्टाचार पसर गया है साथ ही पुलिस का एक आम आदमी के साथ कैसा व्यवहार है यह बताने की जरुरत नहीं है। अतः सरकारों को चाहिए वह नक्सली इलाको में जाकर वहां बुनियादी समस्याए दुरुस्त करे आर्थिक विषमता के चले ही वह लोग आज बन्दूक उठाने को मजबूर हुए हैं । सरकारों को गहनता से साथ यह सोचने की जरुरत है इन इलाको में विकास का पंछी यहाँ के दरख्तों से गायब है और समझना होगा अब राजनीतिक रंग से इतर तालमेल, बातचीत के साथ इन इलाको में विकास की बयार बहाने का समय आ गया है । कम से कम छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित घने जंगलो में जाकर मुझे तो यही अहसास हुआ है ।
1 comment:
हमारी सरकारों ने नक्सली हिंसा को सामाजिक, आर्थिक समस्या से ना जोड़कर उसे कानून व्यवस्था से जोड़ लिया है..........कोई कुछ भी कहे गलती सरकार की ही है। किसी को हथियार उठा कर खून बहाने का शौक नहीं है, इसके पीछे के इतिहास और खेल को समझे बिना नक्सलियों को अकेले दोषी कह देना सरकारी अदूरदर्शिता, अक्षमता का ही परिचायक है।
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