बालीवुड के प्राण
अब हमारे बीच नहीं रहे | बीते दिनों
उनकी मौत का समाचार जैसे ही मुम्बई के लीलावती अस्पताल से आया तो पूरा देश शोक मे
डूब गया | सिल्वर स्क्रीन पर प्राण ने अपनी ऐसी छाप छोडी
जिसकी यादों से अपने को बाहर निकाल पाना किसी के लिए आसान नहीं होगा क्युकि सिनेमा
के रंग मे अपने जीवंत अभिनय से प्राण ने नई जान फूँक दी थी शायद तभी उस दौर मे यह जुमला कहा जाता था प्राण
फिल्मों की जान |
मौजूदा दौर मे भारतीय
फिल्मे जहां प्रेमी , प्रेमिका और प्यार के त्रिकोण पर बनी हों लेकिन
आजादी के दौर को अगर आज याद करें तो उस समय ना केवल अच्छी कहानियाँ देखने को मिलती
थी वरन डायलाग भी ऐसे आते थे जिसकी रील को जेहन से उतार पाना मुश्किल ही नहीं
नामुमकिन सा हो जाता था | यही नहीं उस दौर का मधुर, प्रिय संगीत आज भी
लोगो के दिलो के तार को झंकृत कर देता है | बीते दौर मे नायक
और नायिका से ज्यादा नाम अगर फिल्म मे किसी का हुआ करता था तो वह खलनायक ही हुआ
करता था और प्राण कई दशक तक सिल्वर स्क्रीन पर इसका झण्डा उठाते हुए लोगो के दिलो
मे राज करते थे | पर्दे पर प्राण की एंट्री जहां दर्शको मे
एक अलग तरह का क्रेज पैदा कर देती थी वहीं फिल्म मे काम करने वालों के प्राण के
सामने पसीने छूटने लग जाते थे | प्राण ने हर किरदार को इस
कदर जिया कि उनके अभिनय से उस फिल्म मे चार चाँद लग जाया करते थे | प्राण को कैसे याद करें आज शब्द
कम पड़ते जा रहे हैं ?
पुरानी दिल्ली के बल्लीमारन
में 12 फरवरी 1920 को जन्मे प्राण के अभिनय कॅरियर की शुरुआत 1942 में दलसुख पंचोली की फिल्म खानदान से हुई । उन्होंने 40 के दशक में ही यमला जट खजांची कैसे कहूं और खामोश निगाहें जैसी फिल्मों में
काम किया। यही वह दौर भी था जब प्राण
अपने को लीड रोल मे ढाल भी रहे थे और अपने अभिनय से शोहरत की बुलन्दियो पर पहुँचने
के सपने भी देख रहे थे |
उन्होंने 1945- 46 में लाहौर में तकरीबन 20 फिल्मों में उन्होने काम किया। लेकिन 1947 में विभाजन के कारण उनका कॅरियर ठहर सा गया। इसके बाद उन्होंने 1948 में देव आनंद और कामिनी कौशल की जिद्दी के साथ बॉलिवुड में
अपने कॅरियर की शुरुआत की। जिद्दी उनके जीवन का
टर्निंग पॉइंट साबित हुई | जिद्दी की जिद्द ने शेर खान के रूप मे सिनेमा को
ऐसा कलाकार दिया जिसे आने वाली पीड़ियाँ शायद ही कभी भुला पाएँ | पचास से अस्सी के दशक तक प्राण एकलौते ऐसे कलाकार रहे जो सिल्वर स्क्रीन
पर एकछत्र राज करते नजर आते थे | देवदास्, मधुमती, जिस देश मे गंगा बहती है , हाफ टिकट , कश्मीर की कली, राम और श्याम इन जैसी
फिल्म प्राण की सफलता मे चार चाँद लगा देती हैं और खास बात यह रही कि इन फिल्मों
मे प्राण को नायक नायिका सरीखी रकम निर्देशको ने दी |
दिलीप कुमार देव आनंद और
राज कपूर की पचास और साठ के दशक की फिल्मों में
प्राण खलनायक के रूप में नजर आने लगे। दिलीप कुमार की आजाद प्राण ने अपने मधुमति
देवदास दिल दिया दर्द लिया या देव आनंद की जिद्दी मुनीमजी और जब प्यार किया से होता है और राज कपूर की आह जिस देश में गंगा बहती है और दिल ही तो है में उनके अभिनय को काफी
सराहा गया।
साठ के दशक में मनोज कुमार
की फिल्मों का भी अभिन्न हिस्सा रहे प्राण के उपकार (1967) में मलंग चाचा के किरदार को कौन भूल सकता है जिस पर कसमें वादे
प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या गीत फिल्माया गया था। वहीं उस दौर को याद करें को
जेहन मे 1965 आता है जब शहीद , पूरब और पश्चिम बेईमान सन्यासी और पत्थर के सनम जैसी मनोज कुमार
की कई सुपरहिट फिल्मों में प्राण ने काम किया और ज़िंदगी मे कभी पीछे मुड़कर
नहीं देखा | सत्तर के दशक की जंजीर मे प्राण
की भूमिका को कौन भूल सकता है | उस दौर मे यारी है ईमान मेरा
यार मेरी ज़िंदगी के गाने ने खूब धूम मचाई और अमिताभ के साथ प्राण को कामयाबी के
शिखर पर पहुंचा दिया था | इसी दौर मे प्राण के चर्चे देश से इतर विदेश तक मे होने लगे जहां उनके नाम से लोग सिनेमा देखने
कतार लगा दिया करते थे | प्राण के पहले वाले दौर मे हिन्दी सिनेमा की खलनायकी
में केएन सिंह का जलवा था जो महफिल लूट लिया करते थे। प्राण को समझने के लिए हमें उस दौर के सिनेमा के सच को भी समझना होगा जब सिल्वर स्क्रीन पर नायक से ज्यादा खलनायक
पॉपुलर हो रहा था । तब खलनायक फिल्म का अनिवार्य हिस्सा होता था। उसके बिना कहानी
पूरी ही नहीं हो सकती थी । हीरो की तरह उस पर नैतिकता का दबाव नहीं होता। अमूमन पहले वे अपने लिए एक
छवि गढ़ते हैं फिर वही छवि उनके लिए कारागार साबित होती है जिसको ताउम्र वे तोड़ नहीं पाते। वहीं अपने प्राण इसके अपवाद थे।
उन्होंने तकरीबन साढ़े चार
सौ फिल्मों में काम किया लेकिन एक फिल्म की छवि को दूसरे में दोहराया नहीं। उनकी
खासियत यह थी कि वे अपनी हर फिल्म में एक अलग संसार बसाते दिखते थे । चाहे वह हलाक्हो या कश्मीर की कली राम और
श्याम कश्मीर की कली पत्थर के सनम सावन की घटा हो। मनोज कुमार की फिल्म उपकार उनके फिल्मी
कॅरियर का टर्निंग प्वाइंट साबित हुई। लोगों के जेहन में आज भी उस फिल्म का
बैसाखियों पर झूलता तल्ख बातें करता मलंग चाचा दिखता है जिसने मन्ना डे के गाए गीत कस्मे वादे प्यार
महफूज वफा सब बातें है बातों की क्या को अपने जीवंत अभिनय से
यादगार बना दिया। इसके बाद तो उन्होंने कई
फिल्मों में चरित्र को ऐसे जिया जिसमें बहुत सी फिल्मे यादगार बन गयी । बेईमान
जंजीर विक्टोरिया नम्बर २०३ विश्वनाथ ऐसी ही फिल्में हैं। अपने कॅरियर के अंतिम
दौर में उन्होंने सिर्फ चरित्र भूमिकाएं ही अदा कीं। प्राण की अदायगी की विशेषता
यह थी कि वे पात्रों को अपने भीतर आत्मा के स्तर तक उतार लेते थे। लोगों ने उन्हें
खलनायक और चरित्र अभिनेता दोनों ही रूप में बेइंतहा दुलार दिया। उनकी सफल फिल्मों की फेहरिस्त बहुत लंबी
है। एक दौर ऐसा भी था जब प्राण को फिल्म के हीरो से अधिक पैसा मिलने लगा था। सत्तर
के दशक में प्राण ने खलनायक की बजाय अधिक चरित्र भूमिकाएं कीं। तीन बार बेस्ट
स्पोर्टिंग एक्टर का फिल्मफेयर, 1997 मे लाइफ टाइम एचिवमेंट पुरस्कार से उन्हें नवाजा
गया वहीं वर्ष २००० में स्टारडस्ट
ने उन्हें विलन ऑफ द मिलेनियम चुना और वर्ष 2001 में भारत
सरकार ने उन्हें पद्मभूषण सम्मान मिला |
प्राण आत्ममुग्धता से बहुत
दूर थे। इस बात से परेशान हो जाते थे कि मैंने यह सीन ठीक ढंग से नहीं किया ये
संवाद ठीक से नहीं बोला। प्राण अपने गेटअप को लेकर काफी सजग थे। जंजीर वाले शेर खान की पठान
छवि रेड विंग दाढ़ी आदि के गेटअप में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं था पर सिनेमा
के पर्दे पर वह अमर हो गया। जंजीर में पहले नायक की भूमिका देवानंद को ऑफर की गयी
थी लेकिन प्राण ने अमिताभ के नाम की सिफारिश की थी। इस सिफारिश ने हिन्दी सिनेमा को
एक एक युग दे दिया। कुछ इसी तरह की मदद किसी
जमाने में मंटो ने की थी और प्राण के रूप में हिन्दी सिनेमा को यादगार अभिनेता मिल
गया। प्राण ने कई पीढ़ियों के साथ काम किया। दिलीप कुमार देवानंद राजकपूर राजेश खन्ना अमिताभ
बच्चन का
मुक़ाबला करने वाले एक मात्र खलनायक प्राण ही थे। अगर
दिलीप कुमार को पहला सुपर स्टार माना जाता है तो प्राण को भी पहला सुपर विलेन माना
जाना चाहिए। रक्तरंजित आंखें और खास तरह का तिरस्कार भाव वाले चरित्र उनके खलनायक की पहचान थी।
वे नायकों से ज्यादा फीस लेते थे। नायक से ज्यादा खलनायक प्राण को दर्शक पसंद करते
थे।
तुमने ठीक
सुना बरखुरदार चोरों के भी उसूल होते हैं .....इस देश में राशन पर सिर्फ भाषण है
..... शेर
खान बहुत कम लोगों से हाथ मिलाता है इंस्पेक्टर साहब..... तुम
गोली नहीं चला सकते क्युकि मैं रिवाल्वर खाली रखता हूँ.... जेल मे जाओ पर रघुबीर
की जेल मे नहीं..... इस इलाके मे नए आए हो
साहब ..... वरना
शेर खान को कौन नहीं जानता ?
ये चंद संवाद अलग-अलग फिल्मों के
हैं जिसे एक ही अभिनेता प्राण ने पर्दे पर अभिनीत किया और हर बार के बोलने में उनका एक खास अंदाज रहा
है जिसके लिए वे हिन्दी सिनेमा
में अलग से जाने-पहचाने जाते हैं। प्राण को केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने हाल ही में दादा साहब फाल्के पुरस्कार
से सम्मानित कर उस नायाब प्रतिभा को सम्मान दिया गया है जहां नायक और खलनायक का भेद मिट जाता है। हमारे यहां नायकों को ही
सम्मान देने की परंपरा रही है चाहे वह फिल्मी पर्दे के ही क्यों न हो जिस दौर में प्राण अभिनय कि बुलन्दियो को छू रहे थे उस दौर मे आओ सुनाये प्यार की एक कहानी और एक था राजा एक
थी रानी का जलवा दिखता था | दोनों के
बीच में अवरोधक बना खलनायक होता था। उस दौर में फिल्म
के हर पोस्टर पर लिखा होता था हीरो-हीराइन
का नाम और साथ में प्राण तो समझा जा सकता है
प्राण पर्दे पर अपने किस अंदाज के लिए जाने जाते होंगे ? बालीवुड मे
यह प्राण के नाम का ही खौफ था कि पर्दे पर उनके अभिनय तो देखकर हर किसी के हाथ
पाँव फूल जाते थे | यही नहीं उस दौर मे कोई अपने बच्चे का
नाम प्राण नहीं रखना चाहता था | सच मे प्राण के बिना शायद उस
दौर का सिनेमा भी नीरस लगता | प्राण ने हर रोल
को चुनौती के साथ निभाया और हर फिल्म मे अपना सौ प्रतिशत देने की कोशिश की | प्राण एक ऐसे इकलौते कलाकार थे
जो लोगो के दिलो मे भी बसते थे साथ ही
हीरोइन उनके नाम से खौफ भी खाती थी | प्राण अपने सिगरेट के खास कश के लिए भी जाने जाते थे तो वहीं वह जेल मे जाकर ये पुलिस स्टेशन है तुम्हारे बाप का घर नहीं कहने वाले अमिताभ
सरीखे नायक को भी वही धमका सकते थे | यही नहीं वह किसी छोटे
या बड़े आदमी के पास से जाकर सिगार तो क्या शराब तक छीन सकते थे | प्राण सीना ठोककर अपनी बात कहते थे यही कारण रहा हर रोल को उन्होने अपनी
उपस्थिति से बड़ा बना दिया | प्राण कॉमेडी भी करते थे तो सबको
गुदगुदाते थे | प्रेमिका से प्यार करते थे तो उसके रूठने पर
मनाते भी थे | डान बनकर पुलिस के पसीने निकाल देते थे तो वहीं ग्रेट शौमेन
राज कपूर के रोल को फीका कर देते थे | दिलीप कुमार के विलेन , मनोज कुमार के मलंग चाचा और अशोक कुमार के दोस्त के रूप मे उनको हमेशा
याद रखा जाता रहेगा | 60 साल के सिनेमा मे कई पीड़ियाँ चली गई
पर प्राण तो प्राण ही थे जिनका जादू शायद ही देश की पुरानी और नई पीड़ी भुला पाएगी | वो मुसकुराता चेहरा , बुलंद आवाज आज खामोश जरूर है लेकिन बॉलीवुड के ये प्राण लंबे समय तक लोगो
के दिलो मे बसेंगे और सिल्वर स्क्रीन
अब उनकी यादों से ही गुलजार रहेगी लेकिन संयोग देखिये शिवाजी पार्क
के वैकुंठ धाम मे जब प्राण का अंतिम
संस्कार हो रहा था तो अमिताभ , राजबब्बर , अनुपम खेर, राजा मुराद ,
शाटगन वाली वही पुरानी पीड़ी अन्त्येष्टि मे नजर आ रही थी |
नई पीड़ी ने टिवीटर , फेसबुक पर अपनी संवेदना जताई पर अंतिम
संस्कार से नदारद दिखाई दी | यह सवाल मन को कहीं न कहीं
कचोटता है कि बॉलीवुड के प्राण सिल्वर स्क्रीन की जान थे |
1 comment:
फिल्मों में प्राण डालते थे प्राण..श्रद्धांजलि..
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