Friday 19 July 2013

तेलंगाना के चक्रव्यूह मे उलझती काँग्रेस

2014 की चुनावी बेला सामने आने से पहले काँग्रेस तेलंगाना के  चक्रव्यूह मे इस कदर उलझती जा रही है  जिससे पार पाना उसके लिए आसान नहीं दिखाई दे रहा | दस जनपथ के  संकेतो को अगर  डिकोड  करें तो  आगामी लोक सभा  चुनावो के मद्देनजर काँग्रेस के एक तबके मे तेलंगाना को लेकर एक खास तरह की पशोपेश की  स्थिति  पैदा हो रही है जिसमे लाभ से ज्यादा तेलंगाना पर काँग्रेस को नुकसान की संभावना दिखाई दे रही है जिसके चलते एक बार फिर तेलंगाना का मसला किनारे जाता दिख रहा है तो वही एक तबका तेलंगाना को साख ऊपर उठाने के लिए कारगर मुद्दे के तौर पर देख रहा है | 

 मौजूदा दौर मे काँग्रेस की  असल मुश्किल तेलंगाना ही नहीं बल्कि चुनावी साल मे तेलंगाना सरीखे कई इलाके हैं जहां अलग राज्य की चिंगारी उसके हाथ के  सामने न केवल  मुश्किलों को खड़ा  करेगी बल्कि तेलंगाना की तर्ज पर गोरखालैंड, बोडोलैंड, हरित प्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड ,विदर्भ और न जाने क्या क्या मामले सामने आ सकते हैं | ऐसी सूरत मे छोटे छोटे राज्यो के रूप मे देश के बटने का खतरा  पैदा होता दिखाई देता है | लेकिन काँग्रेस की असल मुश्किल 2014 मे अपनी तीसरी बार केंद्र मे सरकार बनाना और आंध्र की सत्ता मे फिर वापसी करना है वह भी उन परिस्थितियो मे जब उपलब्धियों के  नाम पर बीते चार बरस मे उसके पास कहने को कुछ नहीं बचा है |ऐसे मे काँग्रेस की  वार रूम पॉलिटिक्स के कर्ता धर्ताओ का मानना है काँग्रेस को दक्षिण दुर्ग को बचाने की रणनीति पर काम करने की अभी  जरूरत है जिसमे आंध्र प्रदेश उसके सामने बड़ी चुनौती बना हुआ है | पिछली बार के  लोक सभा चुनावो मे काँग्रेस ने राजशेखर रेड्डी की अगुवाई मे आशातीत सफलता पायी थी लेकिन इस बार जगन मोहन रेड्डी की बगावत ने काँग्रेस को बैकफुट पर जाने को मजबूर कर दिया है | 

अब परिस्थितियाँ पूरी तरह बदल चुकी हैं और तेलंगाना काँग्रेस की  एक दुखती रग बन चुका है क्युकि बीते दौर मे इस मसले मे काँग्रेस के  साथ सभी दलो ने न केवल राजनीतिक रोटियाँ सेकी हैं बल्कि अवसरवाद का लाभ तेलंगाना राष्ट्रीय समिति  सरीखी पार्टियो ने लेने की पूरी कोशिश भी की है  और अब वही काँग्रेस काफी माथापच्चीसी के बाद इस मसले से किनारा करते हुई आन्ध्र मे अपना जनाधार बचाने मे लग गई है | वही पहली बार दस जनपथ की अगुवाई मे राहुल गांधी  दक्षिण दुर्ग को बचाने की रणनीति बन रही है ताकि आने वाले दिनो मे लोक सभा चुनावो मे अच्छी सीटें लाकर केंद्र मे अपनी मजबूत बिसात बिछाई जा सके |इसकी झलक बीते दिनों हुए मंत्रिमंडल विस्तार मे साफ दिखने के साथ ही चिरंजीवी की प्रजा राज्यम के काँग्रेस मे विलय से समझी जा सकती है | वहीं काँग्रेस के बागी जगनमोहन रेड्डी काँग्रेस की मुश्किलों को राज्य मे लगातार बढ़ाते  ही जा रहे हैं जिसके चलते चुनावी साल मे काँग्रेस की चिंताएँ बढ़नी लाज़मी है | बीते दिनों जब दस जनपथ तेलंगाना पर मंथन के लिए काँग्रेस के कोर ग्रुप के साथ मंथन कर रहा था तो एकबारगी लगा कि जल्द ही काँग्रेस तेलंगाना पर बड़ी घोषणा का पिटारा खोल सकती है लेकिन यह मुद्दा एक बार फिर ठंडे बस्ते मे चला  गया है |

काँग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि अगर तेलंगाना बन भी गया तो इससे काँग्रेस घाटे मे ही रहेगी क्यूकि इसके बनने का सीधा लाभ तेलंगाना राष्ट्र समिति सरीखी पार्टियो को मिल सकता है जिन्होने समय समय पर अपने आंदोलन के जरिये पूरे प्रदेश मे ना केवल प्रदर्शन किए बल्कि तेलंगाना की बड़ी आबादी को अपने पक्ष मे लामबंद कर अपने अनुरूप बिसात बिछाने मे भी पिछले कुछ समय मे सफलता हासिल की | वहीं तेलंगाना को छोड़कर पूरे आन्ध्र मे इस समय जगन मोहन रेड्डी की तूती जिस तरह बोल रही है उसने पहली बार काँग्रेस की सियासतदानों की हवा एक तरह से निकाली हुई है जहां आने वाले दिनों मे वाई एस आर काँग्रेस , काँग्रेस को तगड़ी चुनौती देती नजर अगर आती है तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्युकि बीते चुनावो उप चुनावों मे उसने काँग्रेस की हवा सही मायनों मे निकालकर 2014 के चुनावो से पहले अपने बुलंद इरादे जता दिये हैं | ऐसे मे काँग्रेस उस दक्षिण के दुर्ग मे पहली बार हाँफ रही है जहां कभी राजशेखर रेड्डी के करिश्मे से उसने ना केवल सत्ता पायी बल्कि आन्ध्र  की राजनीति मे अपनी ठसक से चंद्रबाबू नायडू की टी डी पी सरीखी पार्टियो के जनाधार को सीधा नुकसान पहुंचाया |

अगर तेलंगाना की घोषणा का काँग्रेस कोई सिग्नल दे भी देती है तो फिर इसका लाभ आंध्र की दूसरी पार्टियो को कुछ हद तक मिलना तय है क्युकि आन्ध्र मे रीज़नल दल ऐसे मुद्दो के जरिये अपनी राजनीतिक रोटिया न केवल इस दौर मे सेक रहे हैं बल्कि अवसरवादिता के जरिये किसी भी गठबंधन का साथ देने को तैयार खड़े नजर आ रहे हैं क्युकि मुद्दा पहली बार सत्ता की मलाई खाने का हो चला  है जहां  बकरी और शेर एक घाट  के नीचे आने , पानी पीने को को तैयार खड़े बैठे हैं |

दरअसल आन्ध्र प्रदेश  मे तेलंगाना का मसला कोई नया नहीं है | यह मांग राज्य पुनर्गठन आयोग के दौर 1956 से चली आ रही है | 1969 मे एम चेन्ना रेड्डी के नेतृत्व मे मुल्कीरूल आन्दोलन मे अलग तेलंगाना को नई चिंगारी दी गई  लेकिन गौर करने लायक बात यह है ब्रिटिश शासन के दौर मे तेलंगाना कभी अंग्रेज़ो के सीधे नियंत्रण मे नहीं रहा | कुतुबशाही और मुगलिया सल्तनत के दौर के बाद शाही रजवाड़े के निजाम ने अपना राज यहाँ कायम किया |निजाम ने अंग्रेज़ो की  सत्ता तो स्वीकार कर वहाँ तेलंगाना मे अपना सिक्का गाड़े रखा | ब्रिटिश शासन के दौर मे रॉयल सीमा व आन्ध्र  इलाके मद्रास प्रेसीडेंसी मे आते थे मगर आजादी के बाद पो श्रीराम मुलु  की अगुवाई मे संयुक्त आन्ध्र का  बड़ा आंदोलन चला |


मद्रास प्रेसीडेंसी और तेलंगाना के निजाम ने हैदराबाद  के इलाको को एक ही राज्य मे भाषाई एकता के सुर मे तेलगु आधार बनाने का रास्ता आन्ध्र प्रदेश के रूप मे साफ किया | उस दौर मे तेलंगाना हैदराबाद के निजाम की रियासत का एक हिस्सा रहा था और मुल्की नाम से जाना जाता था | शेष दो हिस्से मद्रास प्रेसीडेंसी के अंदर आते थे  | वर्तमान मे आन्ध्र को  तीन हिस्सो मे बांटा जा सकता है | पहला इलाका तटवर्ती आन्ध्र , दूसरा रॉयल सीमा और तीसरा तेलंगाना है | तेलंगाना के जिस इलाके के लिए पिछले कुछ समय से आंदोलन चल रहा है उसमे आन्ध्र  के दस जिले शामिल हैं | सदियो से राजशाही के सीधे नियंत्रण मे रहने के चलते यह इलाका काफी पिछड़ा है | राज्य की तकरीबन 40 फीसदी आबादी तेलंगाना से आती है लेकिन यहाँ पर विकास  की बयार हाइटेक हैदराबाद सरीखी नहीं बही है जिसके चलते लोग उपेक्षित हैं और अलग राज्य  का सपना कई बरस से न केवल देख रहे हैं बल्कि के सी आर को  भी इस दौर मे अपना नया  मसीहा मान चुके हैं जो सड़क से लेकर संसद तक ना केवल अलग राज्य का राग अलाप रहे हैं बल्कि आन्ध्र प्रदेश  मे काँग्रेस और भाजपा की मुश्किलों को भी बड़ा रहे हैं |

निजाम वाले दौर मे भी तेलंगाना के प्राकृतिक संसाधनो का खूब दोहन हुआ और आज भी कमोवेश वैसे ही हालत हैं | राज्य के पचास फीसदी जंगल तेलंगाना मे पाये जाते हैं साथ ही यहाँ प्रचुर मात्रा मे प्राकृतिक संसाधन भी |  तेलंगाना से इतर तटवर्ती आन्ध्र  मे न केवल कारपोरेट घरानो ने बीते दशको मे बड़ा निवेश किया बल्कि  हैदराबाद सरीखे इलाके को देश के हाई टेक शहरो मे शामिल कर लिया | हैदराबाद की चमचमाहट देखकर आप सहज अनुमान लगा सकते हैं बीते दौर मे तेलंगाना विकास की दौड़ मे किस कदर पिछड़ गया होगा | शायद यही वजह थी आंध्र मे के सी आर अनशन कर और आंदोलन के रास्ते काँग्रेस के होश फाख्ता करते रहे और काँग्रेस भी बार बार आश्वासनों का  ही झुनझुना थमाकर उन्हे मनाती रही | लेकिन के सी आर नहीं माने और दो साल के भीतर उन्होने काँग्रेस गठबंधन से अलग होने का फैसला कर लिया | 

आन्ध्र प्रदेश मे मौजूदा संकट अब ऐसा है कि तेलंगाना पर हर कोई आर पार की लड़ाई सीधे लड़ रहा है जिसमे काँग्रेस के कई विधायक भी शामिल हैं | यही नहीं कई विधायक भी अब सीधे इस्तीफ़ों के जरिये केन्द्र सरकार को सीधे ललकार रहे हैं तो वहीं भाजपा भी अब टी डी पी के सुर मे सुर मिलाती कदमताल तेलंगाना को लेकर पहली बार कर रही है क्युकि जल्द ही चुनावी डुगडुगी बजनी है और जनता के सामने जाकर इस मसले पर वोट पाये जा सकते हैं | जबकि अटल बिहारी वाले दौर मे यही दोनों पार्टी  तेलंगाना नहीं बना सकी जबकि उस दौर से  भाजपा अपने को छोटे राज्यो का बड़ा हितैषी साबित करती रही है  | इस दौर मे काँग्रेस ऐसी मुश्किल मे घिर गई है जहां से उसका रास्ता अब डगमग नजर आता है शायद इसकी बड़ी  वजह है काँग्रेस अब राज्य पुनर्गठन आयोग के नाम पर इस मसले को जैसे तैसे लोक सभा चुनावो तक लटकाए रखना चाहती है |

दरअसल नए राज्य के बारे मे काँग्रेस की नीति मे बड़ा खोट शुरुवात से देखा जा सकता है | भाषायी आधार पर राज्य की मांग को काँग्रेस ने उठाया जरूर लेकिन 1937 मे ठसक के साथ काँग्रेस जब सत्ता मे आई तो पार्टी ने भाषाई मांग को दोहरा दिया | 1953 मे पहली बार जब भारत सरकार ने फजल के नेतृत्व मे पहला राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया तो नेहरू ने ही   उसकी रिपोर्ट को ठंडे बस्ते मे डाला | राममुलु के त्यागपत्र के बाद आन्ध्र प्रदेश का गठन हुआ तो उसमे  तेलंगाना के लोग शामिल होने को तैयार नहीं हुए परन्तु सरकार ने वहाँ के लोगो को भरोसा दिया तेलंगाना पर विशेष ध्यान उसके द्वारा दिया जाएगा पर ऐसा हुआ नहीं | पूरा ध्यान तो तटीय आन्ध्र  और रॉयल सीमा मे दिया गया जहां विकास की नयी बयार चल निकली |


तेलंगाना के  नेताओ ने  भी  अपने स्वार्थो  के कारण किसी भी दल के साथ जाने से परहेज नहीं किया  | मसलन के सी आर को ली लें तो वो कभी टी डी पी का दामन थामे थे | 2001 मे उन्होने चन्द्रबाबू नायडू  को अलविदा कहा क्युकि नायडू ने उनको मंत्री बनाने से साफ इंकार कर दिया था  जिसके बाद उन्होने तेलंगाना के सरोकारों की अलख जगाने के लिए टी आर एस बनाई | चुनावी साल मे केंद्र और राज्य मे सत्ता की मलाई खाई | 2004 मे काँग्रेस की कृपा से केंद्र मे मंत्री भी बने लेकिन 2006 मे ही तेलंगाना के मसले पर काँग्रेस से नाता तोड़ दिया |  2006 मे काँग्रेस से दूरी बनाकर अपनी खुद की बनाई लीक पर चल निकले लेकिन तेलंगाना के मसले पर उनकी सीटो  मे कुछ खास इजाफा नहीं देखा गया | बाद मे काँग्रेस ने श्रीकृष्णन आयोग की रिपोर्ट बनाकर मामले को ना केवल लटकाया बल्कि तेलंगाना के  मसले से ही पल्ला झाड़ने मे कोई हिचक नहीं दिखाई |

गृह मंत्रालय ने कभी भी इस मसले पर कोई सीधे बयान नहीं दिया | यहाँ पर सबसे बड़ी मुश्किल हैदराबाद को लेकर उभरी क्युकि तटीय आन्ध्र के कई नेताओ ने यहाँ  भारी निवेश किया बल्कि कारपोरेट घरानो ने भी अपने अनुकूल बिसात बिछाने मे सफलता हासिल की | ऐसे लोग इसे केंद्र शासित प्रदेश घोषित करने की मांग दोहराते रहे | आन्ध्र की राजनीति मे 294 विधान सभा सीटो मे से 119 सीटें तेलंगाना , 175 रायल सीमा और तटीय आन्ध्र की हैं | यही नहीं लोक सभा की 17 सीटें तेलंगाना से हैं और 25 सीटें शेष आन्ध्र से आती हैं | 

मुख्य रूप से पूरे आंध्र मे काँग्रेस को सबसे ज्यादा चुनौती अगर आने वाले समय मे कोई देने जा रहा है तो वह जगन मोहन रेड्डी ही हैं और बड़े पैमाने पर काँग्रेस के  विधायक, मुख्यमंत्री  किरण कुमार रेड्डी की कार्य शैली को लेकर इस समय नाराज चल रहे हैं | आने वाले दिनो मे इस बात की पूरी संभावना है चुनाव पास आने पर इनमे से कुछ लोग पाला बदल सकते हैं | वहीं दूसरी तरफ अगर तेलंगाना की घोषणा हो भी जाती है तो सीधा लाभ के सी आर  की पार्टी  को मिलना है साथ ही आन्ध्र  के  अखाड़े मे अब तेलगु देशम पार्टी की स्थिति भी इस चुनाव मे करो या मारो वाली हो गयी है क्युकि एन डी ए मे जाने के बाद चंद्रबाबू का मुस्लिम वोट उनके हाथ से छिटका है जिसकी भरपाई करना इतना आसान नहीं है |

हालांकि भाजपा आन्ध्र मे काँग्रेस को पटखनी देने  के  लिए जगन मोहन रेड्डी और चंद्रबाबू नायडू से समझौता  करने का मन बना रही है लेकिन कम से कम जैसे हालात  हैं उसको देखते हुए हमें नहीं लगता फिलहाल आन्ध्र प्रदेश  मे टीडी पी किसी बड़े दल के  साथ कोई समझौता  करने जा रही है | आंध्र की तकरीबन 32 फीसदी मुस्लिम  आबादी मे से 22 फीसदी वोट अकेले तेलंगाना से आते हैं जहां पर चन्द्रबाबू की कोशिश के सी आर की पार्टी के वोट बैंक मे सैंध लगाने की बन चुकी है | ऐसे मे फिलहाल काँग्रेस को सीधी लड़ाई जगन मोहन रेड्डी से लड़नी है |  काँग्रेस मान रही है के सी आर और चंद्रबाबू मुस्लिम वोट मे सैंध लगाएंगे जिससे वह अपने पुराने वोट के  आसरे सीटें  बढ़ा ले जाएगी | मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी भी अब दस जनपथ को समझाने मे लगे हैं |  तेलंगाना काँग्रेस की गले की फांस जरूर बन गया है लेकिन फिलहाल इसकी घोषणा से काँग्रेस को घाटा ही होना है और शायद यही वजह हैं काफी मान मनोव्वल के  बाद अब दस जनपथ ने भी पार्टी के नेताओ को बीते दिनों इस बात की नसीहत दे डाली है इस मसले पर वह मीडिया मे कुछ बयान नहीं दें |

काँग्रेस के आंकलन  और सर्वे रिपोर्टों का आधार क्या है यह तो मुख्यमंत्री रेड्डी और उनके नेता ही जाने लेकिन फिलहाल आन्ध्र मे काँग्रेस को नेस्तनाबूद करने की रणनीति विपक्षी दल  बना रहे हैं | उनकी कोशिश है आगामी चुनावो मे काँग्रेस को रोकने के  लिए  राज्य मे एक मोर्चा बनाया जाये जहां आकर सभी काँग्रेस  के सामने मुश्किल खड़ी करें लेकिन विपक्षी  दल भी अपने नफे नुकसान के अनुरूप  बिसात बिछा रहे हैं | पुराने अनुभव के  आधार पर फिलहाल टी डी पी भाजपा मे कोई खिचड़ी पकनी दूर की गोटी है वहीं वाई एस आर काँग्रेस के  किरण कुमार रेड्डी से समझौते के  आसार नहीं हैं |

मौजूदा आन्ध्र  की राजनीति का सच यह है यहाँ जगन अपने को काँग्रेस से बड़ा खिलाड़ी साबित करने के  मूड मे दिख रहे हैं तो वहीं भाजपा कर्नाटक मे कमल खिलाने के बाद आन्ध्र प्रदेश  मे अपनी संभावनाएँ टटोल रही है और खाता खोलने की जुगत मे है | राजनीति संभावनाओ का खेल है और अगर आन्ध्र  मे सभी दल अलग अलग चुनाव लड़ते हैं तो आने वाले समय  मे आंध्र की राजनीति मे एक बड़ा संघर्ष देखने को मिल सकता है | लेकिन फिलहाल तो काँग्रेस आन्ध्र  प्रदेश के विभाजन तो टालने का मूड बना चुकी है | वह इस तर्क को मजबूती के साथ लोगो के बीच पेश  भी करेगी कि छोटे राज्यो के पास विकास की चाबी नहीं है | मसलन भाजपा शासन मे बने उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ और झारखंड की भी आज कोई बहुत अच्छी स्थिति  मे नहीं हैं  | सभी जगह भारी लूट खसोट मची है और वह सवाल पीछे चले गए हैं जिनके कारण  इन राज्यो  का गठन किया गया था तो समझा जा सकता है नौ दिन चले अड़ाई का कोस से किसी भी राज्य  के दिन नहीं बहुरने वाले | देखना होगा आने वाले समय  मे तेलंगाना मसले को किनारे कर काँग्रेस राज्य मे किस तरह अपनी बिसात मजबूत करती है जिससे साँप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे ?लेकिन फिलहाल तेलंगाना की डगर तो हमें  कम से कम मुश्किल  ही दिख रही है |  



1 comment:

rajneesh pandey said...

harsh bhai dhanyavaad vistrit jaankari dene ke liye