Tuesday 7 January 2014

"भगवा" कूचे में येदियुरप्पा की दस्तक



जिस समय भाजपा अपने चुनावी प्रबंधको को साथ लेकर "आप "की  रेड कार्पेट का तोड़ ढूंढने में लगी हुई थी   उसी समय भाजपा की कर्नाटक इकाई बेंगलूरु   में  अपने राष्ट्रीय महासचिव अनंत कुमार और राज्य इकाई अध्यक्ष प्रहलाद जोशी के साथ अपने बिछड़े साथी और पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा  की भाजपा में विलय की पटकथा  लिख रही  थी  । बहुप्रतीक्षित विलय की पटकथा  ठीक उस समय लिखी गई, जब कर्नाटक भाजपा के प्रतिनिधिमंडल ने येदियुरप्पा से विलय के निमंत्रण के लिए मुलाकात की। इस  आमंत्रण को उन्होंने सहर्ष  स्वीकार  करते हुए केजीपी के भाजपा में  विलय के फैसले पर  अपनी हामी भरने में देरी नहीं लगायी । हमेशा अपनी शर्तो के आसरे  कर्नाटक  में  सियासत करने वाले येदियुरप्पा इस बार खामोश नजर आये ।  शायद इसकी बड़ी वजह कर्नाटक  में  उनकी पार्टी केजीबी का बुरा हश्र हो , लेकिन "नमो" को प्रधानमंत्री बनाने के संकल्प के साथ उन्होंने  अपनी पार्टी केजेपी का भाजपा में विलय कर  ही दिया। दक्षिण में भाजपा की पहली सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाने वाले येद्दयुरप्पा की वापसी के लिए आधार पहले ही तैयार हो गया था।

दरअसल, विधानसभा चुनाव में उनकी  पार्टी की करारी हार ने  येदियुरप्पा की भावी राजनीती पर ग्रहण सा लगा दिया था और उसी समय से उन्होंने "नमो मंत्र" की माला जपनी शुरू कर दी थी जिसके बाद मोदी की तारीफो में कसीदे पड़कर चीजो को अपने पक्ष में करने की कोशिशे कर्नाटक में तेज हो गयी थी लेकिन भ्रष्टाचार के मसले पर कोई समझौता  ना करने वाली   भाजपा को  लिंगायत वोट बैंक के चलते अब येदियुरप्पा   की सेवाएं लेने को मजबूर होना पड़  रहा है  । भाजपा के शीर्ष  नेतृत्व को भी  जल्द यह महसूस हो गया  कि प्रभावी लिंगायत समुदाय के सर्वमान्य  नेता के रूप में येद्दयुरप्पा ही  राज्य में भाजपा का आधार बढ़ा सकते हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद उन्हें  दो बरस पहले मुख्यमंत्री पद से हटाया गया था। बाद में नाराज येद्दयुरप्पा ने पार्टी छोड़ दी थी जिसके बाद उन्होंने अपनी खुद की पार्टी बनायी और कर्नाटक के विधान सभा चुनावो में महज छह  सीटें पायी लेकिन भाजपा के खेल को उन्होंने पूरी तरह बीते बरस ख़राब कर दिया था । राज्य इकाई की ओर से भी केंद्रीय नेतृत्व को आशंका जताई गई थी कि विधानसभा चुनाव की तर्ज पर ही अगर दोनों पार्टिया चुनाव लड़ी  तो लोकस भा चुनाव में भी भाजपा का सूपड़ा साफ़ हो सकता है लिहाजा पार्टी ने अपने मिशन 272 के तहत उनको साथ लेने की ठानी ।वैसे भी पिछले लोक सभा चुनाव में  राज्य में येदियुरप्पा  की मदद से  ही भाजपा ने 18 सीटें जीती थी ।

 येदियुरप्पा को समझने के लिए हमें   बीते दो बरस की तरफ रुख करना होगा जब उन्होंने   भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा  30 नवम्बर ,2011   को ही दे दिया था लेकिन  उन्होंने अपनी खुद की पार्टी ' कर्नाटक जनता पार्टी ' को राज्य  के सियासी अखाड़े में उतारकर पहली बार आरएसएस और भाजपा की ठेंगा दिखाते हुए भाजपा को येदियुरप्पा होने के मायने बता दिए ।

                 भाजपा में येदियुरप्पा अपने को  पद से हटाए जाने के बाद से लगातार अपने को असहज महसूस कर रहे थे और समय समय पर  संगठन को पार्टी छोड़ने की घुड़की देते रहते थे ।सदानंद गौड़ा के राज्य के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे के बाद पार्टी ने येदियुरप्पा के कहने पर राज्य के विधान सभा अध्यक्ष जगदीश  शेट्टार को  12 जुलाई  2012  में मुख्यमंत्री पद के लिए प्रमोट किया लेकिन येदियुरप्पा की दाल उनके साथ भी नहीं गल पाई  क्युकि  सत्ता सुख भोगते भोगते येदियुरप्पा की पार्टी में  ठसक  लगातार  बढती  ही गई और आये दिन वह आलाकमान के सामने अपनी मांगे मनवाने के लिए अपना शक्ति  प्रदर्शन करते रहते थे । यही वजह थी उन्हें पार्टी में मुख्यमंत्री पद से इतर कोई पद नहीं चाहिए था । औरंगजेब  की बीजापुर और गोलकुंडा विजय ने दक्षिण भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना का रास्ता तैयार किया  था  इसी तर्ज पर कर्नाटक  में कमल खिलाने में येदियुरप्पा की भूमिका किसी से छिपी नहीं थी लिहाजा    पार्टी ने येदियुरप्पा को मनाने की लाख कोशिशे की लेकिन मोहन भागवत  से लेकर सुरेश सोनी और अरुण जेटली से लेकर वेंकैया नायडू सबका प्रबंधन डेमेज कंट्रोल के लिए काम नहीं आ सका । रही सही कसर उनके धुर विरोधी रहे भाजपा   राष्ट्रीय महासचिव अनंत कुमार ने पूरी कर दी जिन पर येदियुरप्पा सरकार को अस्थिर करने के आरोप उस दौर में लगे जिनका येदियुरप्पा के साथ खुद छत्तीस  का आंकड़ा जगजाहिर रहा।

 कर्नाटक  की पूरी राजनीती वोक्कलिक्का और लिंगायत के इर्द गिर्द ही घूमती  है जिसमे लिंगायत की बड़ी महत्वपूर्ण  भूमिका है । जहाँ  एक दौर  में  विधान सभा चुनावो में इसी लिंगायत समूह के व्यापक समर्थन के बूते येदियुरप्पा के मुख्यमंत्री बनने  का रास्ता साफ़ हुआ था वहीँ  जब येदियुरप्पा द्वारा शेट्टार को नया मुख्यमंत्री बनाया गया था तो वह भी उनकी बिरादरी से ही ताल्लुक रखते थे । आने वाले लोक सभा  चुनाव में यही लिंगायत वोट एक बार फिर हार जीत के समीकरणों  को प्रभावित करेंगे ।  कर्नाटक में   येदियुरप्पा के प्रभाव को हम नकार नहीं सकते ।   राज्य  की तकरीबन 7 करोड़ की आबादी में लिंगायतो की तादात 17 फीसदी है तो वहीँ वोक्कलिक्का 15 फीसदी  हैं जिन पर येदियुरप्पा की सबसे मजबूत पकड़ है । गौर करने लायक बात यह होगी कर्नाटक के आने वाले  चुनावो में इन दोनों समुदायों का कितना समर्थन भाजपा में वापस आने  के बाद येदियुरप्पा अपनी पार्टी के  लिए जुटा  पाते हैं ।

                      हालाँकि कुछ समय पूर्व येदियुरप्पा  की  कांग्रेस  में शामिल होने की अटकले भी मीडिया में खूब चली क्युकि  भाजपा से नाराज येदियुरप्पा ने  कई मौको पर जहाँ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उनकी पार्टी के  विषय में तारीफों  के पुल  बांधे वहीँ बीते बरस सोनिया की येदियुरप्पा के गुरु से हुई मुलाकात के राजनीतिक गलियारों में  कई  सियासी अर्थ निकाले  जाने लगे थे लेकिन येदियुरप्पा अपने संगठन  के बूते कर्नाटक की सियासत में अपना खुद का मुकाम बनाना चाहते थे जो भाजपा और कांग्रेस से इतर एक अलग दल के रूप में ही  उन्हें नजर  भी आया लेकिन कर्नाटक सरीखे बड़े दक्षिण के दुर्ग में के जी पी की करारी हार के बाद येदियुरप्पा बैक फुट  पर चले गये जिसके बाद से वह सार्वजनिक मंचो से नमो नमो का गान करते रहे । भाजपा से बाहर  रहकर भी उन्होंने  प्रधानमंत्री पद के लिए नमो को अपना पूर्ण समर्थन देने और तन , मन ,धन न्योछावर करने की घोषणा की जिसके बाद से ही उनकी पार्टी में वापसी की अटकलें तेज हो गई थी  । 

                             राजनीती  संभावनाओ का खेल है । यहाँ किसी भी पल कुछ भी संभव हो सकता है । इसी सियासत के अखाड़े में बगावत और फिर वापसी  की भी पुरानी  अदावत  रही हैं । कर्नाटक की राजनीती में येदियुरप्पा का एक बड़ा नाम है  उनका साथ भाजपा  को फिर  मिलने से आने वाले  लोक सभा चुनावो में भाजपा जरुर कुछ उम्मीद कर सकती है लेकिन भ्रष्टाचार के जिस आरोप के चलते उनकी कुर्सी गई उससे पार्टी की साख पर जो बट्टा लगा उसकी भरपाई  इतनी आसान होती हो कम  से कम  हमें नहीं दिखायी देती ।   पार्टी छोड़ते समय येदियुरप्पा की आंखो से आंसू जरुर छलके  लेकिन उनकी समझ में यह नहीं आया कि  उनकी कुर्सी भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते चली गई । इसके बाद उत्तराखंड में घोटालो की गंगा बहाने के आरोप  ने  रमेश पोखरियाल "निशंक" की भी उत्तराखंड के  मुख्यमंत्री पद से विदाई कराई थी । रेड्डी बंधुओ को  लाभ  पहुचाने के आरोप में लोकायुक्त जस्टिस  संतोष हेगड़े  की एक रिपोर्ट ने  कर्नाटक  में खनन के कारपोरेट गठजोड़ को न केवल सामने ला दिया बल्कि इसमें सीधे तौर पर येदियुरप्पा के साथ रेड्डी  बंधुओ  को कठघरे में खड़ा किया ।  येदियुरप्पा पर अपने रिश्तेदारो को सरकारी जमीन सस्ते में अलॉट करने , अपनी करीबी मंत्री शोभा करंदलाजे  को एक बिल्डर से  छह  करोड़ रुपये दिलवाने और खनन लाबी से अपनी " प्रेरणा एजुकेशन सोसाइटी" के लिए बीस करोड़ रुपये की रिश्वत के आरोप लगे जिनकी जांच अभी भी जारी है ।   इसी के साथ  येदियुरप्पा की  भावी राजनीती पर ग्रहण लग गया । अपने  दामन  को पाक साफ़ बताने वाले येदियुरप्पा  शायद यह भूल गए राजनीती जज्बातों से नहीं चलती । वह पार्टी के वफादार सिपाही जरुर थे लेकिन इसका यह मतलब नहीं था पार्टी उन्हें करोडो के वारे न्यारे करने की खुली छूट देती ।
    
                       बहरहाल यह कोई पहला मौका नहीं है जब सियासत के अखाड़े में किसी जनाधार वाले नेता ने  पार्टी को गुडबाय  बोलकर फिर पार्टी में वापसी की है  ।  भाजपा में इससे पहले कल्याण सिंह ने एक दौर में भाजपा छोड़ी । 2010 में राष्ट्रीय  क्रांति पार्टी बनाई लेकिन कुछ कर नहीं पाए । मौलाना मुलायम नेताजी का भी दामन  थामा  लेकिन भाजपा छोड़ने के बाद से  उनका राजनीतिक करियर समाप्त ही  हो गया और अब आखरी पारी में भाजपा में वापस आने के बाद कल्याण सिंह का पुराना करिश्मा तो गायब है ही साथ में  विश्वसनीयता में  भी भारी कमी आयी है । मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को ही लीजिए  । राष्ट्रीय  जनशक्ति पार्टी बनाई लेकिन कुछ खास करिश्मा  वह भी नहीं कर पाई  और मजबूर होकर डेढ़  बरस पहले   यू पी के चुनावो से ठीक पहले उनकी दुबारा भाजपा में वापसी हुई । दिल्ली में  भाजपा  की सियासी जमीन  तैयार करने वाले  मदन लाल खुराना  को ही देख लें  एक दौर में उनका भी पार्टी से मोहभंग हो गया था लेकिन अपने खुद के दम पर वह सियासत में कुछ खास करिश्मा नहीं कर पाए । गुजरात में केशुभाई पटेल को ही देख लें  मोदी का बाल बाका  आज तक नहीं कर पाए । गुजरात के अखाड़े में अपनी अलग पार्टी  बनाकर मोदी के विरुद्ध वह कदम ताल भी किये लेकिन नतीजा सिफर ही हुआ और अब उनकी भी भाजपा में वापसी का माहौल बन रहा है  । केशुभाई ने अगस्त 2012 में भाजपा से अलग होकर गुजरात जनता पार्टी (जीपीपी) बनाई थी और गुजरात विधानसभा चुनाव में दो सीटें जीती थीं। एक साल पहले गुजरात में भाजपा से नाराज होकर अलग पार्टी बनाने वाले केशुभाई पटेल अब फिर से भाजपा में शामिल हो सकते हैं।शंकर सिंह बाघेला को ही देखें  भाजपा छोड़ने के बाद कांग्रेस में जाकर कुछ ख़ास करिश्मा नहीं कर पाए ।2006 में अर्जुन मुंडा ने भी भाजपा को अलविदा कहा था लेकिन आज तक वह झारखण्ड में अपने बूते कोई बड़ा आधार अपने लिए तैयार नहीं कर सके हैं ।येदियुरप्पा के भविष्य के साथ अगर हम इन सबको जोडें तो एक बात साफ़ है जिन लोगो ने भी पार्टी से किनारे जाकर बगावत का झंडा  थामा वह सफल नहीं हो पाए और  लोगो के बीच उनकी साख और विश्वसनीयता को लेकर पहली बार सवाल उठे । यही नहीं दूसरी पार्टियों में जाने के बाद भी उन्हें वो सम्मान नहीं मिल पाया  जो उनकी मूल पार्टी में मिला  करता था ।
                                    
मसलन  अगर कांग्रेस के पन्ने टटोलें तो राजगोपालाचारी से लेकर जगजीवन राम , चौधरी चरण सिंह से लेकर कामराज , मोरार जी देसाई  से लेकर नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह  से लेकर नटवर सिंह तक सभी ने एक दौर में पार्टी छोड़ी लेकिन अपना अलग मुकाम नहीं बना सके । इन सबके बीच क्या येदियुरप्पा  कर्नाटक  के कीचड़  में कमल को आने वाले समय में क्या खिला पाएंगे  यह एक बड़ा सवाल जरुर है जो जेहन में आता जरुर है लेकिन  लेकिन येदियुरप्पा की गिनती कर्नाटक में एक बड़े नेता के तौर पर होती है  जिसने " नमस्ते प्रजा  वत्सले  मातृभूमे " से लेकर  इमरजेंसी  के दौर और संगठानिक  छमताओ से लेकर दक्षिण में भाजपा के सत्तासीन होने के मिजाज को बहुत निकटता  से बीते 42 बरस में  महसूस किया है । यही नहीं येदियुरप्पा  ने सरकार से लेकर  संगठन हर स्तर पर लोहा अपने बूते  मनवाया है । जहाँ 2004 में तत्कालीन  कांग्रेसी सीं एम धरम सिंह की सरकार से समर्थन वापस लेने के लिए जनता दल  सेकुलर को उन्होंने  ही  राजी  किया वहीँ  जेडीएस के आसरे कर्नाटक  की राजनीती में गठबंधन की बिसात बिछाई । यही नहीं उस दौर को अगर याद करें तो जब  कुमारस्वामी  बारी बारी से सरकार चलाने  के गठबंधन के फैसले से मुकर  गए तो येदियुरप्पा ही वह शख्स  भाजपा में थे जिन्होंने अकेले चुनाव में कूदने का मन बनाया और 2008 में पहली बार भाजपा को अपने दम पर जिताया । लेकिन सी एम बनने  के बाद से येदियुरप्पा लगातार विवादों में घिरे रहे । उस दौर में सरकारी  जमीन अपने रिश्तेदारों को  डिनोटिफाई करवाने के आरोपों से उनकी जहाँ खूब भद्द पिटी  वहीँ अपनी बेहद करीबी मंत्री शोभा करंदलाजे को एक बिल्डर से करोडो की  घूस दिलवाने के आरोपों के साथ ही उन पर अपने एनजीओ  के लिए खनन माफिया से भारी  भरकम रिश्वत लेने के आरोप भी लगे । इसके बाद लोकायुक्त संतोष हेगड़े  की एक  रिपोर्ट ने 30 जुलाई 2011 को उनकी मुख्यमंत्री  पद की कुर्सी छीन  ली । उसके बाद कर्नाटक  में भाजपा के दो मुख्यमंत्रियों के हाथ राज्य में कमान आयी  जिनमे सदानंद गौड़ा , जगदीश शेट्टार शामिल रहे जिनको आगे कर भाजपा अभी हाल में  सत्ता में  वापसी नहीं कर पायी ।

 अब   कर्नाटक  में  के जी पी का बुरा हश्र देखकर येदियुरप्पा बिना शर्तो के साथ भाजपा में वापसी कर रहे हैं ।  मायने साफ़ हैं अब सबको साथ लेकर चलना है  और 2014  की "नमो" वाली  बिसात को अपने बूते ही बिछाना  है । कर्नाटक  में रीजनल पार्टियों में बंगारप्पा और रामकृष्ण हेगड़े  की पार्टियों का नाम जेहन में उभरता है लेकिन यह दोनों दल अभी तक कर्नाटक में  कुछ खास करिश्मा नहीं कर पाए हैं । कांग्रेस राज्य में सत्ता में जरुर है लेकिन  हाल के विधानसभा  चुनावो  के ट्रेंड को देखते हुए  लोक सभा चुनावो का पिछला इतिहास दोहराना उसके  लिए आसान नहीं होगा क्युकि पूरी देश में कांग्रेस के खिलाफ जबरदस्त सत्ता विरोधी लेकर कमोवेश हर राज्य में देखी जा सकती है   । हालांकि कर्नाटक  की  सीधी लड़ाई  इस बार भी भाजपा और कांग्रेस में ही है लेकिन राज्य में येदियुरप्पा के कार्यकाल में  जो भाजपा  कई गुटो में बट गयी थी अब उसी के कई नेता येदियुरप्पा  को कितना पचा पाएंगे यह देखने वाली बात होगी । साथ में बाद सवाल यह भी है  भ्रष्टाचार के आरोपो में लोकायुक्त जांच में घिरे येदियुरप्पा को साथ लेकर भाजपा   राज्य में लोक सभा की कुछ सीटें जरुर ले आये लेकिन उसकी साख को जो धक्का लगा है उसकी भरपाई कर पाना इतना आसान नहीं होगा  वह भी ऐसे दौर में जब बीते एक  दो बरस में पूरे देश में  भष्टाचार  विरोधी लहर ने एक पार्टी को दिल्ली में सत्ता तक पंहुचा दिया है और जिसने पारम्परिक राजनीती के मुह पर ऐसा तमाचा मारा है जिसकी टीस पारिवारिक विरासत को सम्भालने वाले हमारे राजनेताओ को इस चुनावी बेला में सबसे ज्यादा  सता रही है  ।   ऐसे में लाख टके का सवाल यह है क्या येदियुरप्पा अपने बूते राज्य में नमो के लिए  सियासी बिसात बिछा पाएंगे   फिलहाल कुछ कहा पाना मुश्किल है क्युकि इसके लिए  जून 2014 तक का तो  इन्तजार हमें  करना ही  होगा । 

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