सोलहवीं लोकसभा शोरगुल थम चुका है और इसी के साथ सभी प्रत्याशियों की किस्मत इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन मे कैद हो चुकी है । अब १६ मई बेसब्री से इन्तजार है लेकिन एक सवाल जो सभी के जेहन मे है वह मनमोहन को लेकर है आखिर इतिहास मनमोहन को कैसे याद रखे ?
आज से तकरीबन एक दशक पहले सोनिया गांधी ने जब मनमोहन को प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया तो लोग मनमोहन की साफगोई के कायल थे । मनमोहन ने आर्थिक सुधारो को नई हवा नरसिम्हा राव की उस थियोरी के आसरे देने की पहल शुरू की जिसमे आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक से लोन लेकर खुले बाज़ार तले बडा खेल खेला गया जिससे पहली बार मध्यम वर्ग मनमोहनी थाप पर नाचने को मजबूर हो गया जिसके चलते एक अलग चकाचौंध दैनिक जीवन मे देखने को मिले । खनन से लेकर टेलीकॉम को साधकर निजी कंपनियो के खुले बाजार में ले जाने का जो नव उदारवाद का खुला खेल नरसिंह राव की सरकार के दौर में ही शुरु हुआ वही मनमोहन के दौर में कारपोरेट घरानो के वारे न्यारे तक जा पहुंचा जिसके केंद्र मे मुनाफ़ा कमाने की जैसी होड मची जिसने कमोवेश हर चीज को खुले बाजार मे नीलाम कर दिया ।
यू पी ए -1 में अमरीका के साथ नाभिकीय करार को लेकर जहॉं उन्होने वामपंथियो की घुड़की से बेपरवाह होकर अपनी सरकार दांव पर लगा ड़ाली थी वहीं यू पी ए -2 में वह गठबंधन धर्म के आगे लाचार से दिखाई देने लगे । इस दरमियान प्रधान मंत्री ने गठबंधन धर्म की तमाम मजबूरियां गिनाने से भी परहेज नहीं किया । यूपीए 2 शासन काल में एक के बाद एक घोटालो की गुरु घंटाल पोल खुलती रही । २जी, कामनवेल्थ , आदर्श, कोयला ,हर बार पीएमओ की भूमिका का अस्पष्ट रही । अन्ना आंदोलन हो या दामिनी काण्ड हर बार प्रधानमंत्री की चुप्पी देश को खलती रही । मनमोहन हमेशा तमाशबीन बने रहे । अन्ना आंदोलन के मसले को वह ठीक से हैंडल नहीं कर सके वहीँ दामिनी के मसले पर ट्वीट करने में उन्हें हफ्ते लग गए । यूपीए सरकार में सत्ता के दो केंद्र रहे। एकधुरी की कमान खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संभाले थे तो दूसरी धुरी सोनिया गांधी रही जिनके हर आदेश का पालन करने की मजबूरी मनमोहन के चेहरे पर साफ़ देखी जा सकती थी । यू पी ए 1 से ज्यादा भ्रष्ट्र यू पी ए 2 नजर आया जहाँ एक से बढकर एक भ्रष्ट मंत्रियो की टोली मनमोहन सिंह की किचन कैबिनेट को सुशोभित करती रही । वैसे यू पी ए 2 ने तो भ्रष्ट्राचार के कई कीर्तिमानो को ध्वस्त कर दिया जहाँ सबसे ज्यादा ईमानदार पी ऍम की ही छवि ख़राब हुई । सी वी सी थॉमस की नियुक्ति से लेकर महंगाई के डायन बनने तक की कहानी यू पीए २ की विफलता को ही उजागर करती रही । आदर्श सोसाइटी से लेकर कामन वेल्थ , २ जी स्पेक्ट्रम से लेकर इसरो में एस बैंड आवंटन , कोलगेट तक के घोटाले तो केंद्र की सरकार की सेहत के लिए कतई अच्छे नही रहे जिनसे पूरी दुनिया में एक ईमानदार प्रधानमंत्री की छवि तार तार हो गयी ।
मनमोहन भले ही अच्छे अर्थशास्त्री रहे हों परन्तु वह एक कुशल राजनेता की केटेगरी में तो कतई नही रखे जा सकते और ना ही वह भीड़ को खींचने वाले नेता रहे । बीते लोक सभा चुनावो से पहले भाजपा के पी ऍम इन वेटिंग आडवानी ने मनमोहन के बारे में कहा था वह देश के सबसे कमजोर प्रधान मंत्री है । उस समय कई लोगो ने आडवानी की बात को हल्के में लिया था , पर आज 7 आर सी आर से मनमोहन सिंह की विदाई बेला पर यह बातें सोलह आने सच साबित हो रही है ।
मनमोहन भले ही अच्छे अर्थशास्त्री रहे हों परन्तु वह एक कुशल राजनेता की केटेगरी में तो कतई नही रखे जा सकते और ना ही वह भीड़ को खींचने वाले नेता रहे । बीते लोक सभा चुनावो से पहले भाजपा के पी ऍम इन वेटिंग आडवानी ने मनमोहन के बारे में कहा था वह देश के सबसे कमजोर प्रधान मंत्री है । उस समय कई लोगो ने आडवानी की बात को हल्के में लिया था , पर आज 7 आर सी आर से मनमोहन सिंह की विदाई बेला पर यह बातें सोलह आने सच साबित हो रही है ।
मनमोहन सारे फैसले खुद से नही लेते थे । हमेशा सत्ता का केंद्र दस जनपद बना रहा । व्यक्तिगत तौर पर भले ही मनमोहन की छवि इमानदार रही परन्तु दिन पर दिन ख़राब हो रहे हालातो पर प्रधान मंत्री की हर मामले पर चुप्पी से जनता में सही सन्देश नही गया । इकोनोमिक्स की तमाम खूबियाँ भले ही मनमोहन सिंह में रही हो पर सरकार चलाने की खूबियाँ तो उनमे कतई नही है | यू पी ए २ में पूरी तरह से दस जनपद का नियंत्रण बना रहा । मनमोहन को भले ही सोनिया का "फ्री हैण्ड" मिला हो पर उन्हें अपने हर फैसले पर सोनिया की सहमति लेनी जरुरी हो जाती थी । दस जनपद में भी सोनिया के सिपैहसलार पूरी व्यवस्था को चलाते थे ।
चुनाव से ठीक पहले प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारु की किताब 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर मनमोहन सिंह' ने मनमोहन की खूब फजीहत करवाई । इसकी नब्ज को संजय बारु ने जिस अंदाज में पकड़ा उससे यू पी ए सरकार के ईमानदार मुखिया मनमोहन सिंह परहमले शुरू हो गए । एक ईमानदार प्रधानमंत्री पहली बार कटघरे में खड़ा रहा । इस किताब के अनुसार मनमोहन सिंह एक दुर्बल मुखिया की तरह रहे जिन्हे महत्वपूर्ण फैसलों के लिए सोनिया गांधी का यस बॉस बनना पड़ा । लोक सभा चुनावो के समय इन आरोपों से विपक्ष के निशाने पर आई कांग्रेस ने अपने बचाव में पी एम के वर्तमान मीडिया सलाहकार पंकज पचौरी का चेहरा सामने रखकर अपना पक्ष जरूर रखा जो मनमोहन के भाषणो की संख्या और आर्थिक विकास के चमचमाते आंकड़े पेश कर यू पी ए 2 के अभूतपूर्व विकास कहानी बताने मे जुटी रही लेकिन यूपीए २ के शासनकाल में हुए एक बाद एक घोटाले जनता को यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं मनमोहन की यह आखिरी पारी कितनी विवादों से भरी रही । मनमोहन हमेशा से यह कहते रहे हैं कि वह गठबंधन धर्म के आगे लाचार हैं अब विदाई बेला में यह किताब मनमोहन की बेबसी के बोल बखूबी बोल रही है ।
संजय बारु के आरोपों से भले ही पी एम ओ पाला झाड़ लिया हो लेकिन विश्व के सबसेबड़े लोकतंत्र के एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की क्या मजबूरी रही हो यहतो कोई नहीं जान सकता पर संजय बारु की किताब उन तमाम छिपे रहस्यों पर से पर्दा उठाती है जो यूपीए के दौरान घटे।
इधर जाते जाते संजय बारु का मामला ठंडा भी नहीं हुआ था क़ि पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख की किताब 'क्रूसेडर या कांसिपिरेटर' ने बाजार में आकर बखेड़ा ही खड़ा कर दिया । पारेख पर नजर इसलिए भी थी क्युकि सीबीआई ने कोयला घोटाला मामले में पीसी पारेख को नोटिस भेजा। पिछले वर्ष 2013 में सीबीआई नेपारेख समेत हिंडालको और अन्य अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज किया था।मामला दर्ज किए जाने के दौरान सीबीआई ने इस बात को भी स्वीकारा था सभी अधिकारी साल 2005 से कोलगेट घोटाले में अप्रत्यक्ष रूप से शामिलहैं। पारेख के ऊपर आरोप लगाया गया कि उन्होंने सिर्फ कथित तौर पर हीकोल ब्लॉक आवंटन किया है।जिसमे अन्य अधिकारियों ने भी उनका साथ दिया ।इस किताब में भी पी एम ओ पर निशाना साधा गया । कोलगेट पर लिखी गई इस किताब में तमाम नौकरशाहों और राजनीतिक जमात को कठघरे में रखा गया जहाँ मनमोहनी बिसात फीकी पढ़ गयी । कोयले की आंच पहली बार सरकार में शामिल मंत्री से लेकर कॉरपोरेट घरानों तक गई जहां रिश्तेदारो को आउने पौने दामो पर कोल ब्लॉक आवंटित कर दिए गए । कैग की रिपोर्ट में जब कोयला आवंटन में हुई धांधली को उजागरकिया गया तब तत्कालीन नियंत्रक महालेखा परीक्षक विनोद राय की भूमिका पर यूपीए ने सबसे पहले सवाल दागे जिससे यह सवाल बड़ा हो गया क्या यू पी ए को संवैधानिक संस्थाओ पर भरोसा नहीं रहा ?
पारिख के अनुसार पीएम मनमोहन ने खुली निविदा के जरिए अगस्त 2004 में कोयला आवंटन की मंजूरी दी थी। मगर उनके दो मंत्रियों शिबू सोरेन और दसई राव ने उनकी नीतियों का पालन नहीं किया । दोनों मंत्रियों के कार्यकाल में कोयला मंत्रालय में निदेशक पद परनियुक्ति के लिए भी घूस ली जाती थी । पारिख ने कहा उन्होंने सांसदों को ब्लैकमेलिंग और वसूली करते हुए खुद देखा । यू पी ए 2 के दौर में पानी सर से इतना नीचे बह चु का था कि अधिकारियों के लिए ईमानदारी से काम करना मुश्किल हो गया । पारिख ने किताब में कहा है कोयला सचिव के रूप में उनके कार्यकाल में जो भी उपलब्धियां हासिल की गईं वह उस दौरान की गईं जब मंत्रालय मनमोहन सिंह के पास था।
नेहरू गांधी परिवार भले ही बीते चुनाव मे मनमोहन को तुरूप के इक्के के रुप मे आगे कर चुका हो लेकिन इस चुनाव मनमोहन कहीँ नजर नहीं आये । भ्रष्टाचार , क्रोनी कैपिटलिज्म , मंत्री संतरी कॉरपोरेट के नेक्सस , घोटालो की पोल , मनी लॉन्ड्रिंग न्यायपालिका और सुप्रीम कोर्ट निगरानी में हर जॉंच ने ईमानदार प्रधानमंत्री को अपने अंतिम कार्यकाल मे इतना झकझोर दिया कि मनमोहन 7 आर सी आर से अपनी विदाई की तैयारियों मे उसी समय से जुट गये थे जब जयपुर मे बीते बरस कांग्रेस मे राहुल को उपाध्यक्ष बनाकर अघोषित रूप से उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया ।
अपने आखिरी कार्यकाल में मनमोहन अपनी कमीज साफ़ बचाने पर भले ही लगे रहे जबकि उसके छींटें कांग्रेस और उसके सहयोगियो पर भी पडते नजर आये । शायद यही वजह रही मौजूदा 2014 का जनादेश कांग्रेस के पतन की पटकथा चुनाव परिणाम आने से पहले ही लिख चुका है जिसमे मनमोहन की हर नीति का मर्सिया ना केवल पढ़ा जा रहा है बल्कि 12 ,तुगलक रोड से लेकर 15 रकाबगंज रोड और 24 रोड तक सन्नाटा पसरा है और पहली बार मनमोहन आंकड़ों की बाजीगरी ना केवल कांग्रेस को डरा रही है बल्कि राजा से रंक बनने की पटकथा भी आंखो से सीधा संवाद स्थापित कर रही है जहाँ जश्न की बजाए कांग्रेस वार रुम मे अब चुनाव निपटने के बाद घुप्प अंधेरा ही पसरा है । हमेशा की तरह इस बार भी दांव पर गांधी परिवार है मनमोहन सिंह नही ।
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