बीते बरस भाजपा में नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के नामांकन से ठीक पहले आडवानी संघ के एक कार्यक्रम में शिरकत करने मुंबई गए थे जहाँ उनके साथ नितिन गडकरी और सर कार्यवाह भैय्या जी जोशी भी मौजूद थे । इसी दिन महाराष्ट्र में गडकरी की कंपनी पूर्ती के गडबडझाले को लेकर आयकर विभाग ने छापेमारी की कारवाही सुबह से शुरू कर दी । आडवानी की भैय्या जी जोशी से मुलाकात हुई तो ना चाहते हुए बातचीत में पूर्ती का गड़बड़झाला आ गया । आडवानी ने भैय्या जी जोशी से गडकरी पर लग रहे आरोपों से भाजपा की छवि खराब होने का मसला छेडा जिसके बाद भैय्या जी को गडकरी के साथ बंद कमरों में बातचीत के लिए मजबूर होना पड़ा । काफी मान मनोव्वल के बाद गडकरी इस बात पर राजी हुए अगर संघ को उनसे परेशानी झेलनी पड़ रही है तो वह खुद अपने पद से इस्तीफ़ा देने जा रहे हैं । आडवानी से भैय्या जी जोशी ने गडकरी का विकल्प सुझाने को कहा तो उन्होंने यशवंत सिन्हा का नाम सुझाया । हालाँकि पहले आडवानी सुषमा के नाम का दाव एक दौर में चल चुके थे लेकिन सुषमा खुद अध्यक्ष पद के लिए इंकार कर चुकी थी लिहाजा आडवानी ने यशवंत सिंहा का ही नाम बढाने की कोशिश की जो संघ को कतई मंजूर नहीं हुआ । बाद में गडकरी से भैय्या जी ने अपना विकल्प बताने को कहा तो उन्होंने राजनाथ सिंह का नाम सुझाया जिस पर संघ ने अपनी हामी भर दी और आडवानी को ना चाहते हुए राजनाथ सिंह को पसंद करना पड़ा । इसके बाद शाम को दिल्ली में जेटली के घर भाजपा की डी --4 कंपनी की बैठक हुई जिसमे रामलाल मौजूद थे जिन्होंने भी राजनाथ सिंह के नाम पर सहमति बनाने में सफलता हासिल कर ली और देर रात राजनाथ सिंह को सुबह राजतिलक की तैयारी के लिए रेडी रहने का सन्देश भिजवा दिया गया । सुबह होते होते राजनाथ के घर का कोहरा भी छटता गया और इस तरह राजनाथ दूसरी बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने में सफल रहे ।
ऊपर का यह वाकया पार्टी मे राजनाथ के रुतबे और संघ मे उनकी मज़बूत पकड को बताने के लिये काफी है । वह ना केवल एक सुलझे हुए नेता है बल्कि उत्तर प्रदेश की उस नर्सरी से आते हैं जहाँ भाजपा ने हिंदुत्व का परचम एक दौर में फहराकर केंद्र में सरकार बनाने में सफलता हासिल की थी । लेकिन बड़ा सवाल यह है क्या इस बार अपनी दूसरी पारी में राजनाथ उस करिश्मे को दोहरा पाने की स्थिति मे हैँ जो कभी वाजपेयी- आडवाणी ने अपने कार्यकाल मे किया था ? यह सवाल इस समय इसलिए भी पेचीदा हो चला है क्युकि दूसरी पंक्ति के नेताओ में इस दौर में आगे निकलने की जहाँ होड़ मची हुई है तो वहीँ राज्यों में छत्रप दिनों दिन मजबूत होते जा रहे हैं जिसके चलते आगामी चुनावो में भाजपा के लिए 2014 में सबसे बड़ा संकट खड़ा हो गया है । असल संकट यह है अगर 272 के जादुई आंकड़े तक वह नमो की अगुवायी मे नही पहुंची तो क्या राजनाथ आने वाले समय मे डार्क हॉर्स साबित होंगे ?
प्रधानमंत्री पद का उम्मीवार बनाए जाने के बाद मोदी की महत्वाकांक्षा बढ़ गयी हैं और अगर नमो लहर फींकी रह जातीं है तो ऐसी सूरत मे एन डी ए को नये सहयोगी ढूँढ़ने पड़ेंगे जिसमे राजनाथ सिंह ट्रम्प कार्ड हो सकते हैं । ऐसे हालातो में राजनाथ के सामने सबसे बड़ी चुनौती एन डी ए का दायरा बढाने और नए सहयोगियों के तलाश की होगी । अटल बिहारी को प्रधानमंत्री बनाने में आडवानी उनके सारथी थे वहीँ राजनाथ मोदी के सारथी इस चुनाव मे जरुर हैँ । संघ के पास इस दौर में मोदी को छोड़कर ना कोई ब्रह्मास्त्र है ऐसे में जादुई आंकड़ा ना मिलने की सूरत मे भाजपा में संघर्ष विराम के लिए राजनाथ को आगे करने की पहल भविष्य मे ज्यादा कारगर साबित हो सकती है । वाजपेयी के राजनीती से सन्यास के बाद भाजपा में किसी सर्व मान्य नेता के नाम पर सहमति नहीं है । मोदी को संघ के दवाब मे आगे जरुर किया गया है परन्तु पार्टी का एक बढा तबका अंदरखाने उनके नाम पर सहमत नही है । राज्यों में उसके छत्रप दिनों दिन मजबूत हो रहे हैं तो वहीँ आडवानी का राजनीतिक करियर ढलान पर है । 7 रेस कोर्स में जाने की उनकी उम्मीदें भी अब ख़त्म हैं शायद तभी बीते बरस उन्हें अपने जन्म दिवस के मौके पर उन्हें यह कहना पड़ा पार्टी ने उन्हें बहुत कुछ दिया । वहीँ डी -4 की दिल्ली वाली चौकड़ी तो बीते चार बरस से मोहन भागवत के निशाने पर है जब अटल के राजनीती से सन्यास और लगातार दो लोक सभा चुनाव हारने के बाद से संघ ने भाजपा को एक व्यक्ति के करिश्मे की पार्टी न बनाने की रणनीति के तहत गडकरी को दिल्ली के अखाड़े में उतारा ताकि पार्टी में संघ का सीधा नियंत्रण स्थापित हो सके । राजनाथ सिंह भी संघ के वरदहस्त के चलते अध्यक्ष जरुर बने लेकिन उनके एन डी ए से जुड़े नेताओ से आज भी उनके मधुर सम्बन्ध हैं जिसका लाभ वह आने वाले दिनों में जरुर लेना चाहेंगे और शायद अपने पत्ते 16 मई के बाद फेटेंगे । वह पार्टी के पहले अध्यक्ष भी रह चुके हैं लिहाजा उनका अनुभव पार्टी के नाम आएगा लेकिन राजनाथ के जेहन में उनके पिछला कार्यकाल भी उस समय उमड़ घुमड़ रहा होगा तब पार्टी में गुटबाजी चरम पर थी जिसकी कीमत पार्टी को लोक सभा में करारी हार के रूप में चुकानी पड़ी थी वह भी उनके अपने ही कार्यकाल में । इस दौर ब्रांड मोदी की दीवानगी कार्यकर्ताओ से लेकर नेताओ में जरुर है लेकिन गठबंधन की राजनीति में मोदी की गुजरात से बाहर स्वीकार्यता अब भी दूर की कौड़ी दिख रही है । भविष्य में राजनाथ कैसे अपनी बिसात मज़बूत करते हैं यह देखने वाली बात होगी ? देखना यह भी होगा गठबंधन राजनीती के दौर मे वह पार्टी की नैय्या कैसे पार लगाएगे अगर भाजपा का प्रदर्शन फींका रहता है ?
पिछले कार्यकाल में राजनाथ को आडवानी के विरोधी खेमे के नेता के तौर पर प्रचारित किया गया था लेकिन इस बार की परिस्थितिया बदली बदली सी दिख रही हैं । भाजपा लगातार 2 लोक सभा चुनाव हारने के बाद से केंद्र में वापसी के लिए छटपटा रही है । उम्र के इस अंतिम पडाव पर अब आडवानी को मोदी में जहाँ उम्मीद दिख रही है वही पिछली दफे राजनाथ ने मोदी को पार्टी के संसदीय बोर्ड से बाहर कर दिया था वहीँ इस बार राजनाथ ने मोदी को सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार कहने को मजबूर होना पड़ा है । जाहिर है यह सब भाजपा में नई संभावनाओ का द्वार खोल रहा है । संकेतो को डिकोड करें तो राजनाथ सिंह इशारो इशारो मे मोदी की तारीफो के क़सीदे यूँ ही नही पढ रहे हैं । राजनाथ यह बात बखूबी जान रहे हैं मोदी अगर आशानुरूप सीटें नहीं ला पाये तो खुद उनके सितारे बुलंदी पर जा सकते हैँ । 2014 की बिसात में आडवानी 7 रेस कोर्स की रेस से बाहर हैं तो डी -4 की दिल्ली वाली चौकड़ी के निशाने पर मोहन भागवत शुरु से रहे हैं और बदली फिजा मे संघ बैक ग्राउंड के नेता मोदी पी एम बनाने की तान इस दौर में छेड़ रहे हैं । ऐसे में राजनाथ संघ के आशीर्वाद से भाजपा के नये सहयोगियों को 16 मई के बाद ना केवल साध सकते हैं बल्कि एन डी ए के सर्वमान्य नेता के तौर पर पहचान बनाने मे भी सफ़ल हो सकते हैं ।
राजनाथ को यह समझना जरुरी है कांग्रेस के खिलाफ़ इस चुनाव मे गहरी नाराजगी है । लोग भाजपा में उम्मीद देख रहे हैं लेकिन सभी को एकजुट करने की भी बड़ी चुनौती भी अब उनके सामने है । वहीँ संघ को भी 16 मई के बाद बदली परिस्थियों के अनुरूप भाजपा के लिए बिसात बिछाने की जिम्मेदारी राजनाथ के कंधो पर देनी होगी क्युकि खुदा ना खास्ता अगर नमो की लहर अौंधे मुह गिरतीं है तो सवाल संघ की तरफ भी उठेगे क्युकि सँघ के दखल के बाद ही नमो नमो मन्त्र भाजपा मे गूंजा है । संघ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है वह बहुत जल्द इस दौर में लोगो पर भरोसा कर रहा है और कहीं ना कहीं संगठन को लेकर भी बहुत जल्दबाजी दिखाने मे लगा है । शायद इसी वजह से गडकरी सरीखे लोगो ने संघ के जरिये अपने निजी और व्यवसायिक हित एक दौर में साधे ।
अब संघ की कोशिश इसी व्यक्तिनिष्ठता को खत्म करने की होनी चाहिए और यही चुनौती असल में राजनाथसिंह को 16 मई के बाद झेलनी पड सकती है । आज भाजपा को दो नावो में सवार होना है । गुजरात में मोदी की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर पर अपना दक्षिणपंथी चेहरा विकास की तर्ज पर पेश करना होगा जहाँ हिंदुत्व के मसले पर देश के जनमानस को एकजुट करना होगा जिसकी डगर हमें फिलहाल तो मुश्किल दिख रही है क्युकि गुजरात की परिस्थितिया अलग थी पूरे देश का मिजाज अलग है । वहां मोदिनोमिक्स माडल को हिंदुत्व के समीकरणों और खाम रणनीति के आसरे मोदी ने नई पहचान अपनी विकास की लकीर खींचकर दिलाई लेकिन केंद्र में गठबंधन राजनीती में ऐसी परिस्थितिया नहीं हैं लिहाजा राजनाथ की राह में गंभीर चुनौती है । 2006 से 2009 के दौरान भाजपा प्रमुख के तौर पर राजनाथ ने काफी प्रतिष्ठा हासिल की और दिखा दिया कि चाहे मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी हो या केंद्रीय मंत्री या फिर पार्टी की कमान वह कुशलता से हर जिम्मेदारी निभा सकते हैं। राजनाथ सिंह पहले भी विभिन्न संकटों के बीच सरताज बनकर उभरे हैं। देखते है राजनाथ सिंह क्या इस बार 2014 की प्रधान मंत्री पद की बिसात मे तुरूप का इक्का बन पाते हैं ?
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