भारत रत्न पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त का नाम आज भी राष्ट्रीय राजनीती में बड़े गर्व के साथ लिया जाता है | पन्त जी के अतुलनीय योगदान के कारण वह पूरे राष्ट्र के लिए ऐसे युगपुरुष के समान थे जिसने अपने ओजस्वी विचारो के द्वारा राष्ट्रीय राजनीती में हलचल ला दी | उनके व्यक्तित्व में समाज सेवा, त्याग, दूरदर्शिता का बेजोड़ सम्मिश्रण था | उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और भारत रत्न गोविंद बल्लभ पंत को राजनीतिक रूप से पिछड़े माने जाने वाले पहाड़ी इलाकों को देश के राजनीतिक मानचित्र पर जगह दिलाने का श्रेय जाता है तो वहीँ तराई लिकाओं को भी आबाद कराने में उनकी खासी भूमिका रही |
पंत जी का जन्म 10 सितम्बर 1887 ई. वर्तमान उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले के खूंट नामक गाँव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इस परिवार का सम्बन्ध कुमाऊँ की एक अत्यन्त प्राचीन और सम्मानित परम्परा से है। पन्तों की इस परम्परा का मूल स्थान महाराष्ट्र का कोंकण प्रदेश माना जाता है और इसके आदि पुरुष माने जाते हैं जयदेव पंत। ऐसी मान्यता है कि 11वीं सदी के आरम्भ में जयदेव पंत तथा उनका परिवार कुमाऊं में आकर बस गया था। गोविन्द बल्लभ पंत के पिता का नाम श्री 'मनोरथ पन्त' था। श्री मनोरथ पंत गोविन्द के जन्म से तीन वर्ष के भीतर अपनी पत्नी के साथ पौड़ी गढ़वाल चले गये थे। बालक गोविन्द दो-एक बार पौड़ी गया परन्तु स्थायी रूप से अल्मोड़ा में रहा। उसका लालन-पोषण उसकी मौसी 'धनीदेवी' ने किया।
गोविन्द ने 10 वर्ष की आयु तक शिक्षा घर पर ही ग्रहण की। 1897 में गोविन्द को स्थानीय 'रामजे कॉलेज' में प्राथमिक पाठशाला में दाखिल कराया गया। 1899 में 12 वर्ष की आयु में उनका विवाह 'पं. बालादत्त जोशी' की कन्या 'गंगा देवी' से हो गया, उस समय वह कक्षा सात में थे। गोविन्द ने लोअर मिडिल की परीक्षा संस्कृत, गणित, अंग्रेज़ी विषयों में विशेष योग्यता के साथ प्रथम श्रेणी में पास की। गोविन्द इण्टर की परीक्षा पास करने तक यहीं पर रहे। इसके पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा बी.ए. में गणित, राजनीति और अंग्रेज़ी साहित्य विषय लिए। इलाहाबाद उस समय भारत की विभूतियां पं० जवाहरलाल नेहरु, पं० मोतीलाल नेहरु, सर तेजबहादुर सप्रु, श्री सतीशचन्द्र बैनर्जी व श्री सुन्दरलाल सरीखों का संगम था तो वहीं विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान प्राध्यापक जैनिग्स, कॉक्स, रेन्डेल, ए.पी. मुकर्जी सरीखे विद्वान थे। इलाहाबाद में नवयुवक गोविन्द को इन महापुरुषों का सान्निध्य एवं सम्पर्क मिला साथ ही जागरुक, व्यापक और राजनीतिक चेतना से भरपूर वातावरण मिला
1909 में गोविन्द बल्लभ पंत को क़ानून की परीक्षा में विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम आने पर 'लम्सडैन' स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। जनमुद्दो की वकालत करने की तीव्र जिज्ञासा ने इनको इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एल एल बी की डिग्री लेने को विवश किया | इस उपाधि के मिलने के बाद इन्होने अपना जीवन न्यायिक कार्यो में समर्पित कर दिया |गोविन्द बल्लभ पंत जी की वकालत के बारे में कई किस्से मशहूर रहे | उनका मुकदमा लड़ने का ढंग निराला था जो मुवक्किल अपने मुकदमों के बारे में सही जानकारी नहीं देते थे पंत जी उनका मुकदमा नहीं लेते थे | काकोरी मुकद्दमें ने एक वकील के तौर पर उन्हें पहचान और प्रतिष्ठा दिलाई | गोविंद बल्लभ पंत जी महात्मा गांधी के जीवन दर्शन को देश की जनशक्ति में आत्मिक ऊर्जा का स्त्रोत मानते रहे | गोविंद बल्लभ पंत जी ने देश के राजनेताओं का ध्यान अपनी पारदर्शी कार्यशैली से आकर्षित किया | भारत के गृहमंत्री के रूप में वह आज भी प्रशासकों के आदर्श हैं| पंत जी चिंतक, विचारक, मनीषी, दूरदृष्टा और समाजसुधारक थे| उन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज की अंतर्वेदना को जनमानस में पहुंचाया | उनका लेखन राष्ट्रीय अस्मिता के माध्यम से लोगों के समक्ष विविध आकार ग्रहण करने में सफल हुआ |
उनके निबंध भारतीय दर्शन के प्रतिबिंब हैं | उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए भी अपनी लेखनी उठाई | प्रबुद्ध वर्ग के मार्गदर्शक पंत जी ने सभी मंचों से मानवतावादी निष्कर्षों को प्रसारित किया | राष्ट्रीय चेतना के प्रबल समर्थक पंत जी ने गरीबों के दर्द को बांटा और आर्थिक विषमता मिटाने के अथक प्रयास किए |1909 में पंतजी के पहले पुत्र की बीमारी से मृत्यु हो गयी और कुछ समय बाद पत्नी गंगादेवी की भी मृत्यु हो गयी। उस समय उनकी आयु 23 वर्ष की थी। वह गम्भीर व उदासीन रहने लगे तथा समस्त समय क़ानून व राजनीति को देने लगे। 1910 में गोविन्द बल्लभ पंत ने अल्मोड़ा में वकालत आरम्भ की। अल्मोड़ा के बाद पंत जी ने कुछ महीने रानीखेत में वकालत की वहाँ से काशीपुर आ गये। उन दिनों काशीपुर के मुक़दमें डिप्टी कलक्टर की कोर्ट में पेश हुआ करते थे। यह अदालत ग्रीष्म काल में 6 महीने नैनीताल व सर्दियों के 6 महीने काशीपुर में रहती थी। इस प्रकार पंत जी का काशीपुर के बाद नैनीताल से सम्बन्ध जुड़ा।वह अल्मोड़ा , नैनीताल , लखनऊ ,काशीपुर में अत्यधिक सक्रिय रहे | कुमाऊ परिषद् के सचिव होने के साथ ही उन्होंने गढ़वाल में भी आज़ादी की अलख जगाई |
परिवार के दबाव पर 1912 में पंत जी का दूसरा विवाह अल्मोड़ा में हुआ। उसके बाद पंतजी काशीपुर आये। पंत जी काशीपुर में सबसे पहले 'नजकरी' में नमक वालों की कोठी में एक साल तक रहे। सन 1912-13 में पंतजी काशीपुर आये उस समय उनके पिता जी 'रेवेन्यू कलक्टर' थे। श्री 'कुंजबिहारी लाल' जो काशीपुर के वयोवृद्ध प्रतिष्ठित नागरिक थे, का मुक़दमा पंत' जी द्वारा लिये गये सबसे 'पहले मुक़दमों' में से एक था। इसकी फ़ीस उन्हें 5 रु० मिली थी।
1913 में पंतजी काशीपुर के मौहल्ला खालसा में 3-4 वर्ष तक रहे। अभी नये मकान में आये एक वर्ष भी नहीं हुआ था कि उनके पिता मनोरथ पंत का देहान्त हो गया। इस बीच एक पुत्र की प्राप्ति हुई पर उसकी भी कुछ महीनों बाद मृत्यु हो गयी। बच्चे के बाद पत्नी भी 1914 में स्वर्ग सिधार गई।1916 में पंत जी 'राजकुमार चौबे' की बैठक में चले गये। चौबे जी पंत जी के अनन्य मित्र थे। उनके द्वारा दबाव डालने पर पुनःविवाह के लिए राजी होना पडा तथा काशीपुर के ही श्री तारादत्त पाण्डे जी की पुत्री 'कलादेवी' से विवाह हुआ। उस समय पन्त जी की आयु 30 वर्ष की थी।
काशीपुर में एक बार गोविन्द बल्लभ पंत जी धोती, कुर्ता तथा गाँधी टोपी पहनकर कोर्ट चले गये। वहां अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट ने आपत्ति की। पन्त जी की वकालत की काशीपुर में धाक थी और उनकी आय 500 रुपए मासिक से भी अधिक हो गई। पंत जी के कारण काशीपुर राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से कुमाऊँ के अन्य नगरों की अपेक्षा अधिक जागरुक था। अंग्रेज़ शासकों ने काशीपुर नगर को काली सूची में शामिल कर लिया। पंतजी के नेतृत्व के कारण अंग्रेज़ काशीपुर को ”गोविन्दगढ़“ कहती थी।
1914 में काशीपुर में 'प्रेमसभा' की स्थापना पंत जी के प्रयत्नों से ही हुई। ब्रिटिश शासकों ने समझा कि समाज सुधार के नाम पर यहाँ आतंकवादी कार्यो को प्रोत्साहन दिया जाता है। फलस्वरूप इस सभा को हटाने के अनेक प्रयत्न किये गये पर पंत जी के प्रयत्नों से वह सफल नहीं हो पाये। 1914 में ही पंत जी के प्रयत्नों से ही 'उदयराज हिन्दू हाईस्कूल' की स्थापना हुई। राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के आरोप में ब्रिटिश सरकार ने इस स्कूल के विरुद्ध डिग्री दायर कर नीलामी के आदेश पारित कर दिये। जब पंत जी को पता चला तो उन्होंनें चन्दा मांगकर इसको पूरा किया।
1916 में पंत जी काशीपुर की 'नोटीफाइड ऐरिया कमेटी' में लिये गये। बाद में कमेटी की 'शिक्षा समिति' के अध्यक्ष बने। कुमायूं में सबसे पहले निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा लागू करने का श्रेय पंत जी को ही जाता है। पंतजी ने कुमायूं में 'राष्ट्रीय आन्दोलन' को 'अंहिसा' के आधार पर संगठित किया। आरम्भ से ही कुमाऊं के राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व पंत जी के हाथों में रहा। कुमाऊं में राष्ट्रीय आन्दोलन का आरम्भ कुली उतार, जंगलात आंदोलन, स्वदेशी प्रचार तथा विदेशी कपडों की होली व लगान-बंदी आदि से हुआ। दिसम्बर 1920 में 'कुमाऊं परिषद' का 'वार्षिक अधिवेशन' काशीपुर में हुआ जहां 150 प्रतिनिधियों के ठहरने की व्यवस्था काशीपुर नरेश की कोठी में की गई। पंतजी ने बताया कि परिषद का उद्देश्य कुमाऊं के कष्टों को दूर करना है न कि सरकार से संघर्ष करना। सन 1916 में 'कुमायूँ परिषद' की स्थापना की और इसी वर्ष 'अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी' के सदस्य चुने गये। यह वर्ष पन्त जी के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष साबित हुआ | इस वर्ष पन्त जी अपने असाधारण कार्यो के कारण किसी के परिचय के मोहताज नही रहे | यही वह वर्ष था जब वे राष्ट्रीय राजनीती में धूमकेतु की तरह चमके| कुँमाऊ परिषद् के सचिव रहते हुए उन्होंने गढ़वाल में भी आज़ादी कि अलख जगाई | 1920 में गाँधी जी के सहयोग से असहयोग आन्दोलन में इन्होने अपना सक्रिय सहयोग दिया | की।1923 में 'स्वराज्य पार्टी' के टिकट पर उत्तर प्रदेश 'विधान परिषद के लिए निर्वाचित हुए वहीँ सन 1927 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। बाद में धीरे-धीरे कांग्रेस द्वारा घोषित असहयोग आन्दोलन की लहर कुमायूं में छा गयी।
1927 में सर्व सम्मति से कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए | 19 नवम्बर 1928 को लखनऊ में जब साईमन कमीशन आया तो नेहरु की साथ इन्होने भी उनका विरोध किया | इसी वर्ष पंडित नेहरु और पन्त जी के नेतृत्व में साईमन कमीशन के लखनऊ आगमन पर भारी जुलूस निकाला गया जिसमे पुलिस के लाथिचार्ग में उनको गायल भी होना पड़ा | 23 जुलाई, 1928 को पन्त जी 'नैनीताल ज़िला बोर्ड' के चैयरमैन चुने गए | पंत जी का राजनीतिक सिद्धान्त था कि अपने क्षेत्र की राजनीति की कभी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। 1929 में गांधी जी कोसानी से रामनगर होते हुए काशीपुर भी गये। काशीपुर में गांधी जी लाला नानकचन्द खत्री के बाग़ में ठहरे थे। पंत जी ने काशीपुर में एक चरखा संघ की विधिवत स्थापना नवम्बर, 1928 में लखनऊ में साइमन कमीशन का बहिष्कार करने की ठानी और स्वतंत्रता संग्राम के दौर में कई वर्ष जेल रहे | 10 अगस्त, 1931 को भवाली में उनके सुपुत्र श्रीकृष्ण चन्द्र पंत का जन्म हुआ। नवम्बर, 1934 में गोविन्द बल्लभ पंत 'रुहेलखण्ड-कुमाऊं' क्षेत्र से केन्द्रीय विधान सभा के लिए निर्विरोध चुन लिये गये। 17 जुलाई, 1937 को गोविन्द बल्लभ पंत 'संयुक्त प्रान्त' के प्रथम मुख्यमंत्री बने जिसमें नारायण दत्त तिवारी संसदीय सचिव नियुक्त किये गये थे।
सन 1937 से 1939 एवं 1954 तक अर्थात मृत्यु पर्यन्त केन्द्रीय सरकार के स्वराष्ट्र मंत्री रहे। पन्त जी 1946 से दिसम्बर 1954 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। पंत जी को भूमि सुधारों में पर्याप्त रुचि थी। 21 मई, 1952 को जमींदारी उन्मूलन क़ानून को प्रभावी बनाया। मुख्यमंत्री के रूप में उनकी विशाल योजना नैनीताल तराई को आबाद करने की थी। पंत जी एक विद्वान क़ानून ज्ञाता होने के साथ ही महान नेता व महान अर्थशास्त्री भी थे। स्व कृष्णचन्द्र पंत उनके पुत्र केन्द्र सरकार में विभिन्न पदों पर रहते हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे और भाजपा के टिकट पर नैनीताल संसदीय सीट का प्रतिनिधित्व भी किया |
पन्त जी के जीवन पर महात्मा गाँधी का विशेष प्रभाव पड़ा |गाँधी के कहने पर ये वकालत को छोड़कर राजनीती में चले आये | उस समय समाज में दो तरह की विचार धाराएं थी | पहली विचारधारा में प्रगतिशील लोग हुआ करते थे, वही दूसरी विचार धारा में स्वदेश प्रेमी लोग थे | पन्त जी ने दोनों विचार धारा में समन्वय कायम कर उत्तराखंड के कुमाऊ में राष्ट्रीय चेतना फ़ैलाने में अपनी महत्त्व पूर्ण भूमिका निभाई |उन्होंने गरीबो के विरोध में आवाज उठाते हुए कुली बेगार के खिलाफ विशाल आन्दोलन चलाया | अपने प्रयासों से ही कुमाऊ परिषद की स्थापना की और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी चुने गए | कांग्रेस के पार्टी उनकी इतनी अगाध आस्था रही 30 बरस तक वह राष्ट्रीय कांग्रेस कार्यकारणी के सदस्य रहे | गांधी जी के द्वारा चलाये गए कई आन्दोलन में उन्होंने बढ़ चढ़कर भाग लिया और कई बार जेल भी जाना पड़ा |
देश की आजादी में पन्त के योगदान को कभी नही भुलाया जा सकता है | जंगे आजादी की दौर में हिमालय पुत्र की द्वारा प्रत्येक आन्दोलन चाहे वह सत्याग्रह हो या असहयोग आन्दोलन ,अपना पूरा योगदान दिया | आजादी की दौर में अपनी सक्रिय भूमिकाओं की चलते पन्त जी को कई बार जेल की यात्राये भी करनी पड़ी | देश की आज़ादी के लिए ब्रिटिश हुकूमत के साथ वह गोलमेज वार्ता में भी वह शामिल हुए | वर्ष 1937 में पंत जी संयुक्त प्रांत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और 1946 में उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने | 15 अगस्त 1947 को वह आज़ाद भारत में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाये गए | इस पद पर वह 1952 तक काम करते रहे | 1952 में देश की संविधान बनाये जाने के बाद जब प्रथम आम चुनाव हुए तो उनका सञ्चालन पन्त जी की प्रयास से हुआ | इन चुनावो में कांग्रेस ने विजय पताका लहराई | 1954 में जवाहर लाल नेहरु की आग्रह पर केन्द्रीय मंत्रिमंडल में गृह मत्री का ताज पहना और देश के विकास में अपना योगदान दिया |
सन 1957 में गणतन्त्र दिवस पर महान देशभक्त, कुशल प्रशासक, सफल वक्ता, तर्क के धनी एवं उदारमना पन्त जी को भारत की सर्वोच्च उपाधि ‘भारतरत्न’ से विभूषित राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने किया | अपने कार्यकाल में पन्त जी ने विभिन्न कामो को पूरा करने का भरसक प्रयत्न किया | हिन्दी को राजकीय भाषा का दर्जा दिलाने में भी गोविंद वल्लभ पंत जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा | 26 जनवरी का दिन कुमाऊ के इतिहास में बड़ा महत्वपूर्ण रहा | इस तिथि को भारत सरकार ने उन्हें "भारत रत्न" की उपाधि से विभूषित किया | 7 मार्च 1961 को पन्त जी की ह्रदय गति रुक जाने से मौत हो गई |
पन्त जी ने अपने प्रयासों से राष्ट्र हित के जितने काम किये उसके कारण भारतीय इतिहास में उनके योगदान को नही भुलाया जा सकता | पन्त जी को सच्ची श्रद्धांजलि तब मिल पाएगी जब हम उनके द्वारा कहे गए विचारो और सिद्धांतो पर चले |
पंत जी का जन्म 10 सितम्बर 1887 ई. वर्तमान उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले के खूंट नामक गाँव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इस परिवार का सम्बन्ध कुमाऊँ की एक अत्यन्त प्राचीन और सम्मानित परम्परा से है। पन्तों की इस परम्परा का मूल स्थान महाराष्ट्र का कोंकण प्रदेश माना जाता है और इसके आदि पुरुष माने जाते हैं जयदेव पंत। ऐसी मान्यता है कि 11वीं सदी के आरम्भ में जयदेव पंत तथा उनका परिवार कुमाऊं में आकर बस गया था। गोविन्द बल्लभ पंत के पिता का नाम श्री 'मनोरथ पन्त' था। श्री मनोरथ पंत गोविन्द के जन्म से तीन वर्ष के भीतर अपनी पत्नी के साथ पौड़ी गढ़वाल चले गये थे। बालक गोविन्द दो-एक बार पौड़ी गया परन्तु स्थायी रूप से अल्मोड़ा में रहा। उसका लालन-पोषण उसकी मौसी 'धनीदेवी' ने किया।
गोविन्द ने 10 वर्ष की आयु तक शिक्षा घर पर ही ग्रहण की। 1897 में गोविन्द को स्थानीय 'रामजे कॉलेज' में प्राथमिक पाठशाला में दाखिल कराया गया। 1899 में 12 वर्ष की आयु में उनका विवाह 'पं. बालादत्त जोशी' की कन्या 'गंगा देवी' से हो गया, उस समय वह कक्षा सात में थे। गोविन्द ने लोअर मिडिल की परीक्षा संस्कृत, गणित, अंग्रेज़ी विषयों में विशेष योग्यता के साथ प्रथम श्रेणी में पास की। गोविन्द इण्टर की परीक्षा पास करने तक यहीं पर रहे। इसके पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा बी.ए. में गणित, राजनीति और अंग्रेज़ी साहित्य विषय लिए। इलाहाबाद उस समय भारत की विभूतियां पं० जवाहरलाल नेहरु, पं० मोतीलाल नेहरु, सर तेजबहादुर सप्रु, श्री सतीशचन्द्र बैनर्जी व श्री सुन्दरलाल सरीखों का संगम था तो वहीं विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान प्राध्यापक जैनिग्स, कॉक्स, रेन्डेल, ए.पी. मुकर्जी सरीखे विद्वान थे। इलाहाबाद में नवयुवक गोविन्द को इन महापुरुषों का सान्निध्य एवं सम्पर्क मिला साथ ही जागरुक, व्यापक और राजनीतिक चेतना से भरपूर वातावरण मिला
1909 में गोविन्द बल्लभ पंत को क़ानून की परीक्षा में विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम आने पर 'लम्सडैन' स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। जनमुद्दो की वकालत करने की तीव्र जिज्ञासा ने इनको इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एल एल बी की डिग्री लेने को विवश किया | इस उपाधि के मिलने के बाद इन्होने अपना जीवन न्यायिक कार्यो में समर्पित कर दिया |गोविन्द बल्लभ पंत जी की वकालत के बारे में कई किस्से मशहूर रहे | उनका मुकदमा लड़ने का ढंग निराला था जो मुवक्किल अपने मुकदमों के बारे में सही जानकारी नहीं देते थे पंत जी उनका मुकदमा नहीं लेते थे | काकोरी मुकद्दमें ने एक वकील के तौर पर उन्हें पहचान और प्रतिष्ठा दिलाई | गोविंद बल्लभ पंत जी महात्मा गांधी के जीवन दर्शन को देश की जनशक्ति में आत्मिक ऊर्जा का स्त्रोत मानते रहे | गोविंद बल्लभ पंत जी ने देश के राजनेताओं का ध्यान अपनी पारदर्शी कार्यशैली से आकर्षित किया | भारत के गृहमंत्री के रूप में वह आज भी प्रशासकों के आदर्श हैं| पंत जी चिंतक, विचारक, मनीषी, दूरदृष्टा और समाजसुधारक थे| उन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज की अंतर्वेदना को जनमानस में पहुंचाया | उनका लेखन राष्ट्रीय अस्मिता के माध्यम से लोगों के समक्ष विविध आकार ग्रहण करने में सफल हुआ |
उनके निबंध भारतीय दर्शन के प्रतिबिंब हैं | उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए भी अपनी लेखनी उठाई | प्रबुद्ध वर्ग के मार्गदर्शक पंत जी ने सभी मंचों से मानवतावादी निष्कर्षों को प्रसारित किया | राष्ट्रीय चेतना के प्रबल समर्थक पंत जी ने गरीबों के दर्द को बांटा और आर्थिक विषमता मिटाने के अथक प्रयास किए |1909 में पंतजी के पहले पुत्र की बीमारी से मृत्यु हो गयी और कुछ समय बाद पत्नी गंगादेवी की भी मृत्यु हो गयी। उस समय उनकी आयु 23 वर्ष की थी। वह गम्भीर व उदासीन रहने लगे तथा समस्त समय क़ानून व राजनीति को देने लगे। 1910 में गोविन्द बल्लभ पंत ने अल्मोड़ा में वकालत आरम्भ की। अल्मोड़ा के बाद पंत जी ने कुछ महीने रानीखेत में वकालत की वहाँ से काशीपुर आ गये। उन दिनों काशीपुर के मुक़दमें डिप्टी कलक्टर की कोर्ट में पेश हुआ करते थे। यह अदालत ग्रीष्म काल में 6 महीने नैनीताल व सर्दियों के 6 महीने काशीपुर में रहती थी। इस प्रकार पंत जी का काशीपुर के बाद नैनीताल से सम्बन्ध जुड़ा।वह अल्मोड़ा , नैनीताल , लखनऊ ,काशीपुर में अत्यधिक सक्रिय रहे | कुमाऊ परिषद् के सचिव होने के साथ ही उन्होंने गढ़वाल में भी आज़ादी की अलख जगाई |
परिवार के दबाव पर 1912 में पंत जी का दूसरा विवाह अल्मोड़ा में हुआ। उसके बाद पंतजी काशीपुर आये। पंत जी काशीपुर में सबसे पहले 'नजकरी' में नमक वालों की कोठी में एक साल तक रहे। सन 1912-13 में पंतजी काशीपुर आये उस समय उनके पिता जी 'रेवेन्यू कलक्टर' थे। श्री 'कुंजबिहारी लाल' जो काशीपुर के वयोवृद्ध प्रतिष्ठित नागरिक थे, का मुक़दमा पंत' जी द्वारा लिये गये सबसे 'पहले मुक़दमों' में से एक था। इसकी फ़ीस उन्हें 5 रु० मिली थी।
1913 में पंतजी काशीपुर के मौहल्ला खालसा में 3-4 वर्ष तक रहे। अभी नये मकान में आये एक वर्ष भी नहीं हुआ था कि उनके पिता मनोरथ पंत का देहान्त हो गया। इस बीच एक पुत्र की प्राप्ति हुई पर उसकी भी कुछ महीनों बाद मृत्यु हो गयी। बच्चे के बाद पत्नी भी 1914 में स्वर्ग सिधार गई।1916 में पंत जी 'राजकुमार चौबे' की बैठक में चले गये। चौबे जी पंत जी के अनन्य मित्र थे। उनके द्वारा दबाव डालने पर पुनःविवाह के लिए राजी होना पडा तथा काशीपुर के ही श्री तारादत्त पाण्डे जी की पुत्री 'कलादेवी' से विवाह हुआ। उस समय पन्त जी की आयु 30 वर्ष की थी।
काशीपुर में एक बार गोविन्द बल्लभ पंत जी धोती, कुर्ता तथा गाँधी टोपी पहनकर कोर्ट चले गये। वहां अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट ने आपत्ति की। पन्त जी की वकालत की काशीपुर में धाक थी और उनकी आय 500 रुपए मासिक से भी अधिक हो गई। पंत जी के कारण काशीपुर राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से कुमाऊँ के अन्य नगरों की अपेक्षा अधिक जागरुक था। अंग्रेज़ शासकों ने काशीपुर नगर को काली सूची में शामिल कर लिया। पंतजी के नेतृत्व के कारण अंग्रेज़ काशीपुर को ”गोविन्दगढ़“ कहती थी।
1914 में काशीपुर में 'प्रेमसभा' की स्थापना पंत जी के प्रयत्नों से ही हुई। ब्रिटिश शासकों ने समझा कि समाज सुधार के नाम पर यहाँ आतंकवादी कार्यो को प्रोत्साहन दिया जाता है। फलस्वरूप इस सभा को हटाने के अनेक प्रयत्न किये गये पर पंत जी के प्रयत्नों से वह सफल नहीं हो पाये। 1914 में ही पंत जी के प्रयत्नों से ही 'उदयराज हिन्दू हाईस्कूल' की स्थापना हुई। राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के आरोप में ब्रिटिश सरकार ने इस स्कूल के विरुद्ध डिग्री दायर कर नीलामी के आदेश पारित कर दिये। जब पंत जी को पता चला तो उन्होंनें चन्दा मांगकर इसको पूरा किया।
1916 में पंत जी काशीपुर की 'नोटीफाइड ऐरिया कमेटी' में लिये गये। बाद में कमेटी की 'शिक्षा समिति' के अध्यक्ष बने। कुमायूं में सबसे पहले निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा लागू करने का श्रेय पंत जी को ही जाता है। पंतजी ने कुमायूं में 'राष्ट्रीय आन्दोलन' को 'अंहिसा' के आधार पर संगठित किया। आरम्भ से ही कुमाऊं के राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व पंत जी के हाथों में रहा। कुमाऊं में राष्ट्रीय आन्दोलन का आरम्भ कुली उतार, जंगलात आंदोलन, स्वदेशी प्रचार तथा विदेशी कपडों की होली व लगान-बंदी आदि से हुआ। दिसम्बर 1920 में 'कुमाऊं परिषद' का 'वार्षिक अधिवेशन' काशीपुर में हुआ जहां 150 प्रतिनिधियों के ठहरने की व्यवस्था काशीपुर नरेश की कोठी में की गई। पंतजी ने बताया कि परिषद का उद्देश्य कुमाऊं के कष्टों को दूर करना है न कि सरकार से संघर्ष करना। सन 1916 में 'कुमायूँ परिषद' की स्थापना की और इसी वर्ष 'अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी' के सदस्य चुने गये। यह वर्ष पन्त जी के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष साबित हुआ | इस वर्ष पन्त जी अपने असाधारण कार्यो के कारण किसी के परिचय के मोहताज नही रहे | यही वह वर्ष था जब वे राष्ट्रीय राजनीती में धूमकेतु की तरह चमके| कुँमाऊ परिषद् के सचिव रहते हुए उन्होंने गढ़वाल में भी आज़ादी कि अलख जगाई | 1920 में गाँधी जी के सहयोग से असहयोग आन्दोलन में इन्होने अपना सक्रिय सहयोग दिया | की।1923 में 'स्वराज्य पार्टी' के टिकट पर उत्तर प्रदेश 'विधान परिषद के लिए निर्वाचित हुए वहीँ सन 1927 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। बाद में धीरे-धीरे कांग्रेस द्वारा घोषित असहयोग आन्दोलन की लहर कुमायूं में छा गयी।
1927 में सर्व सम्मति से कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए | 19 नवम्बर 1928 को लखनऊ में जब साईमन कमीशन आया तो नेहरु की साथ इन्होने भी उनका विरोध किया | इसी वर्ष पंडित नेहरु और पन्त जी के नेतृत्व में साईमन कमीशन के लखनऊ आगमन पर भारी जुलूस निकाला गया जिसमे पुलिस के लाथिचार्ग में उनको गायल भी होना पड़ा | 23 जुलाई, 1928 को पन्त जी 'नैनीताल ज़िला बोर्ड' के चैयरमैन चुने गए | पंत जी का राजनीतिक सिद्धान्त था कि अपने क्षेत्र की राजनीति की कभी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। 1929 में गांधी जी कोसानी से रामनगर होते हुए काशीपुर भी गये। काशीपुर में गांधी जी लाला नानकचन्द खत्री के बाग़ में ठहरे थे। पंत जी ने काशीपुर में एक चरखा संघ की विधिवत स्थापना नवम्बर, 1928 में लखनऊ में साइमन कमीशन का बहिष्कार करने की ठानी और स्वतंत्रता संग्राम के दौर में कई वर्ष जेल रहे | 10 अगस्त, 1931 को भवाली में उनके सुपुत्र श्रीकृष्ण चन्द्र पंत का जन्म हुआ। नवम्बर, 1934 में गोविन्द बल्लभ पंत 'रुहेलखण्ड-कुमाऊं' क्षेत्र से केन्द्रीय विधान सभा के लिए निर्विरोध चुन लिये गये। 17 जुलाई, 1937 को गोविन्द बल्लभ पंत 'संयुक्त प्रान्त' के प्रथम मुख्यमंत्री बने जिसमें नारायण दत्त तिवारी संसदीय सचिव नियुक्त किये गये थे।
सन 1937 से 1939 एवं 1954 तक अर्थात मृत्यु पर्यन्त केन्द्रीय सरकार के स्वराष्ट्र मंत्री रहे। पन्त जी 1946 से दिसम्बर 1954 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। पंत जी को भूमि सुधारों में पर्याप्त रुचि थी। 21 मई, 1952 को जमींदारी उन्मूलन क़ानून को प्रभावी बनाया। मुख्यमंत्री के रूप में उनकी विशाल योजना नैनीताल तराई को आबाद करने की थी। पंत जी एक विद्वान क़ानून ज्ञाता होने के साथ ही महान नेता व महान अर्थशास्त्री भी थे। स्व कृष्णचन्द्र पंत उनके पुत्र केन्द्र सरकार में विभिन्न पदों पर रहते हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे और भाजपा के टिकट पर नैनीताल संसदीय सीट का प्रतिनिधित्व भी किया |
पन्त जी के जीवन पर महात्मा गाँधी का विशेष प्रभाव पड़ा |गाँधी के कहने पर ये वकालत को छोड़कर राजनीती में चले आये | उस समय समाज में दो तरह की विचार धाराएं थी | पहली विचारधारा में प्रगतिशील लोग हुआ करते थे, वही दूसरी विचार धारा में स्वदेश प्रेमी लोग थे | पन्त जी ने दोनों विचार धारा में समन्वय कायम कर उत्तराखंड के कुमाऊ में राष्ट्रीय चेतना फ़ैलाने में अपनी महत्त्व पूर्ण भूमिका निभाई |उन्होंने गरीबो के विरोध में आवाज उठाते हुए कुली बेगार के खिलाफ विशाल आन्दोलन चलाया | अपने प्रयासों से ही कुमाऊ परिषद की स्थापना की और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी चुने गए | कांग्रेस के पार्टी उनकी इतनी अगाध आस्था रही 30 बरस तक वह राष्ट्रीय कांग्रेस कार्यकारणी के सदस्य रहे | गांधी जी के द्वारा चलाये गए कई आन्दोलन में उन्होंने बढ़ चढ़कर भाग लिया और कई बार जेल भी जाना पड़ा |
देश की आजादी में पन्त के योगदान को कभी नही भुलाया जा सकता है | जंगे आजादी की दौर में हिमालय पुत्र की द्वारा प्रत्येक आन्दोलन चाहे वह सत्याग्रह हो या असहयोग आन्दोलन ,अपना पूरा योगदान दिया | आजादी की दौर में अपनी सक्रिय भूमिकाओं की चलते पन्त जी को कई बार जेल की यात्राये भी करनी पड़ी | देश की आज़ादी के लिए ब्रिटिश हुकूमत के साथ वह गोलमेज वार्ता में भी वह शामिल हुए | वर्ष 1937 में पंत जी संयुक्त प्रांत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और 1946 में उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने | 15 अगस्त 1947 को वह आज़ाद भारत में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाये गए | इस पद पर वह 1952 तक काम करते रहे | 1952 में देश की संविधान बनाये जाने के बाद जब प्रथम आम चुनाव हुए तो उनका सञ्चालन पन्त जी की प्रयास से हुआ | इन चुनावो में कांग्रेस ने विजय पताका लहराई | 1954 में जवाहर लाल नेहरु की आग्रह पर केन्द्रीय मंत्रिमंडल में गृह मत्री का ताज पहना और देश के विकास में अपना योगदान दिया |
सन 1957 में गणतन्त्र दिवस पर महान देशभक्त, कुशल प्रशासक, सफल वक्ता, तर्क के धनी एवं उदारमना पन्त जी को भारत की सर्वोच्च उपाधि ‘भारतरत्न’ से विभूषित राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने किया | अपने कार्यकाल में पन्त जी ने विभिन्न कामो को पूरा करने का भरसक प्रयत्न किया | हिन्दी को राजकीय भाषा का दर्जा दिलाने में भी गोविंद वल्लभ पंत जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा | 26 जनवरी का दिन कुमाऊ के इतिहास में बड़ा महत्वपूर्ण रहा | इस तिथि को भारत सरकार ने उन्हें "भारत रत्न" की उपाधि से विभूषित किया | 7 मार्च 1961 को पन्त जी की ह्रदय गति रुक जाने से मौत हो गई |
पन्त जी ने अपने प्रयासों से राष्ट्र हित के जितने काम किये उसके कारण भारतीय इतिहास में उनके योगदान को नही भुलाया जा सकता | पन्त जी को सच्ची श्रद्धांजलि तब मिल पाएगी जब हम उनके द्वारा कहे गए विचारो और सिद्धांतो पर चले |
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