उत्तराखण्ड जहां अपनी मनमोहक प्राकृतिक सुषमा व नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए जाना जाता है वहीं इस देवभूमि की अनेक परम्पराएं यहां की धर्म संस्कृति से जुड़ी हुई है। ऐसी ही अनूठी परम्पराओं को अपने में संजोये देवीधूरा मेला है जिसे ‘‘आषाड़ी कौतिक‘‘ नाम से जाना जाता है। प्रतिवर्ष रक्षाबन्धन के पावन पर्व पर लगने वाले इस मेले को ‘बग्वाल‘ नाम से अधिक जाना जाता है। वह इसलिए क्योंकि इस मेले में होने वाले पत्थर युद्ध को लेकर दर्शकों में कौतूहल बना रहता है।
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के चार जनपदों के मध्य देवीधुरा कस्बा स्थित है जो नैनीताल, अल्मोड़ा, उधमसिंहनगर, चंपावत जिलों को एक दूसरे से जोड़ता है। जिला मुख्यालय चंपावत से 57 किमी0 की दूरी पर स्थित देवीधुरा कस्बा अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए मशहूर है। कहा जाता है कि देवीधुरा पूर्णागिरी का एक पीठ है जहां चंपा कालिका को प्रतिष्ठित किया गया। ऊंचे देवदार के घने वृक्षों व चीड़ के लम्बे वृक्षों के मध्य बग्वाल की पृष्ठभूमि चार राजपूती खामों के पुस्तैनी खेल से जुड़ी हुई है। खामों से तात्पर्य जाति से है जिसमें गहरवाल, वाल्किया, लमगड़िया, चम् याल मुख्य है। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन पूजा कर यह सभी एक दूसरे को निमंत्रण देते हैं और बग्वाल में भागीदार बनते हैं। बग्वाल में भाग लेने वाले कुछ दिन पूर्व से अपनी तैयारियों में जुट जाते हैं। पाषाण युद्ध के रणबांकुरों के चार दल सर्वप्रथम एक-एक करके देवी माता बाराही की परिक्रमा करते हैं बग्वाल में वल्किया व लमगड़िया खाम एक छोर पश्चिम से प्रवेश करती है तो चम्याल व गहरवाल पूर्वी छोर से रणभूमि में आती है। मंदिर के पुजारी द्वारा आशीर्वाद के बाद सभी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। आमतौर पर गहरवाल खाम सबसे अंत में आती है जिन पर गहखाल खाम का व्यक्ति पत्थर फेंककर प्रहार करता है। गहरखाल के पत्थर फेकने के साथ बग्वाली कौतिक शुरू हो जाता है। युद्ध में भाग लेने वाली चार खामों वैसे तो आपस के मित्र होते हैं लेकिन पाषाण युद्ध के समय वह सारे रिश्ते-नाते छोड़ एक दूसरे पर पूरी ताकत के साथ वार कर देते हैं। सुरक्षा के लिए दलों द्वारा लाठियों व फर्रो को सटाकर एक कवच बना लिया जाता है जो घायलों की सुरक्षा का कार्य करता है।बग्वाल के दौरान पत्थरों की वर्षा द्वारा शरीर के विभिन्न अंग लहुलुहान हो जाते हैं लेकिन रक्त की बूंदे गिरने के बाद भरी कोई चित्कार नहीं सुनायी पड़ता है। मुख्य पुजारी एक व्यक्ति के शरीर के बराबर रक्त गिरने के बाद बग्वाल को रोकने का आदेश दे देते हैं पत्थर मारने का यह सिलसिला ताम्र छात्र व चंवर गाय की पूंछ के मैदान में पहुंचते ही समाप्त माना जाता हे। तकरीबन 20 से 25 मिनट तक चलने वाले इस पाषाण युद्ध के समाप्त होने के बाद बग्वाल खेलने वाली खामें एक दूसरे के गले मिलते हैं। पत्थरों से घायल हुए लोगों को गंभीर चोटें नहीं आती ऐसा माना जाता है कुछ वर्ष पूर्व तक लोग बग्वाल खेले जाने वाले मैदान की बिच्छू घास अपने शरीर में लगा लिया करते थे जिसमें वे कुछ क्षण बाद स्वयं ठीक हो जाते थे लेकिन वर्तमान में यहां घायलों के इलाज का समुचित प्रबंध रहता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार देवीधुरा किसी समय काली के उपासना का प्रमुख केन्द्र था जिसमें देवी के गणों को प्रसन्न करने के लिए नर बलि की प्रथा प्रचलित थी यह बलि बग्वाल खेलने वाली चार खामों से ही दी जा सकती थी एक बार चमियाल खाम की एक वृद्धा के परिवार से बलि की बारी आयी परिवार में उस वृद्धा का एकमात्र सहारा उसका एक पौत्र था। कहा जाता है उस वृद्धा ने वंश नाश के भय से मॉ बाराही की आराधना की और कठोर तप किया। वृद्धा के तप से मॉ बाराही प्रसन्न हुई और उन्होंने राजा व प्रजा से बलि का दूसरा विकल्प ढूंढने को कहा। प्रजा के विचार- विमर्श के बाद राजा ने आम सहमति बनाते हुए यह निर्णय लिया कि यदि मनुष्य के रक्त के बराबर रक्त बहा दिया जाए तो उसे नरबलि माना जा सकता है कहा जाता है तभी से पत्थर मारकर रक्त बहाने का सिला चलन में है। अठवार का तात्पर्य है कि किसी मनोकामना के पूर्ण होने के बाद व्यक्ति द्वारा जो बलि स्वेच्छा से दी जाती है अठवारी बलि बग्वाल के एक दिन पहले होती है। यह समय चतुदर्शी को रहता है। क्योंकि चतुदर्शी को पूर्णिमा पड़ती है और इसी दिन पाषाण युद्ध होती है। अठवारी में एक भैंस,छः बकरे व एक नारियल चढ़ते हैं।
देवीधुरा के बाराही देवी के मंदिर में तांबे के पिटारे में रखी देवी की मूर्तियां कई तरह के रहस्यों को समेटे हैं तांबे के पिटारे में महाकाली,सरस्वती व बाराही की मूर्तियां हैं। बाराही की मूर्ति में तेज चमक होने के कारण किसी ने अपने खुले नेत्रों से इसके दर्शन नहीे किये। ऐसा माना जाता है कि बाराही माता लक्ष्मी का नवीन रूप है जिसके दर्शन वर्जित हैं। यदि कोई इसे देखने का प्रयास करता है तो उसे अपनी ज्योति से हाथ धोना पड़ता है। इसी कारण मंदिर के मुख्य पुजारी भी देवी को स्नान कराते समय आंखों में पट्टी बांधे रखते हैं।
बग्वाल के दिन चारों खामों के प्रधान देवी का पहरा करते हैं बग्वाल के अगले दिन तीनों मूर्तियों को स्नान कराया जाता है। तांबे के बक्से की चाबी गहरवाल के प्रधान के पास रहती र्है वह बग्वाल के दिन इसे अन्य प्रधानों को देता है सर्वप्रथम बाराही की मूर्ति को दूध से स्नान कराया जाता है फिर दो मूर्तियों को। तत्पश्चात् तीनों को उस बक्से में रख दिया जाता है।
उत्तराखंड के देवीधुरा का बग्वाल ‘मेला‘ आधुनिक परमाणु युग में भी पाषाण युद्ध की परम्परा को संजोये है। यह मेला आपसी सदभाव की जीती जागती प्रत्यक्ष मिसाल हे। देवीधूरा क्षेत्र में पर्यटन की व्यापक संभावनाऐं हैं। यहां के बाराही मंदिर में प्रतिवर्ष खेले जाने वाले बग्वाल को देखने देशभर से लोग पहुंचते हैं और एक अमिट छाप लेकर जाते हैं। यहां पहुंचकर श्रद्धालुओं को देवभूमि में अपनी उपस्थिति का वास्तविक अहसास होता है। तीर्थाटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसे पवित्र स्थल राज्य के आर्थिक विकास में खासे उपयोगी है। यह अलग बात है कि सरकारी अव्यवहारिक नीतियों के चलते देवीधुरा के विकास का कोई खासा तैयार नहीं किया गया है जिस कारण उत्तराखंड में सांस्कृतिक परम्पराएं दम तोड़ रही है। वैश्वीकरण के इस दौर में यदि आज बग्वाल सरीखी सांस्कृतिक विरासत जीवित है तो इसका श्रेय इन मान्यताओं का वैज्ञानिक स्वरूप है।
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