Tuesday 3 November 2015

हरि अनंत हरि कथा अनंता

        


कस होलो उत्तराखंड का होली राजधानी
राग –बागी यो आज करला आपुणी मनमानी
यो बातौक खुली –खुलास गैरसैण करुलो
हम लड़ते रैया भुली हम लड़ते रैया भुली

उत्तराखंड के प्रख्यात जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ भले ही आज हमारे बीच नहीं हों लेकिन गैरसैण रैली के ऊपर के उनकी कविता की ये पंक्तियाँ उत्तराखंड के मौजूदा हालत पर फिट बैठ रही है | पाश ने भी कहा था सपनों का मर जाना सबसे ज्यादा कष्टदायी है और उत्तराखंड के चश्मे से अगर चीजों को देखा जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा 15 बरस में अलग राज्य का सपना उत्तराखंड से टूटता दिखाई दे रहा है |  लम्बे जनसंघर्ष के बाद पृथक उत्तराँचल राज्य जब अस्तित्व में आया तो माना जा रहा था कि पहाड़ की उपेक्षित जनता को अपने जायज और लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए सडकों पर उतरने की जरूरत नहीं पड़ेगी लेकिन आज 15 बरस बीतने के बाद भी यह सब कोरी कल्पना साबित हुई है | 

पहाड़ की जनता के सामने राज्य गठन से पहले जैसी परिस्थितियां थी कमोवेश वैसी परिस्थितियां आज भी खड़ी  हैं | आये दिन जिस राज्य में बेरोजगार , सामाजिक कार्यकर्ता  और सरकारी कर्मचारी आन्दोलन की राह पकड रहे हों , अपराधों के ग्राफ ने नया रिकॉर्ड कायम कर दिया हो,  आमदनी की तुलना में बेकाबू होते वित्तीय प्रबंधन ने जिस राज्य के आर्थिक प्रबंधन की पोल खोल दी हो उस राज्य का भविष्य कम से कम हमें आशाजनक तो कतई  नहीं दिखाई देता | उत्तराखंड के राजनेताओं का सरोकार जहाँ इस दौर में जनता से टूट चुका है वहीँ पलायन की पीड़ा से पहाड़ी इलाके कराह रहे है लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नेता आज बचा नहीं है लिहाजा विकास चंद जिलों तक सिमट गया है और चमचमाते विकास दर के आकडे और प्रतिव्यक्ति आय 1 लाख 18 हजार रुपये होने पर  मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और नौकरशाह तक गदगद हैं | सत्ता की लूट खसोट में उन्हें पहाड़ की वह पीड़ा नहीं दिखाई देती जहाँ लोग बुनियादी स्वास्थ्य,पेयजल और बिजली सरीखी न्यूनतम जरुरत के लिए परेशान हैं और भीषण बेरोजगारी का दंश युवा झेल रहे हैं |

                          
राज्य में बढती असमानता इस बात से समझी जा सकती है कि राज्य में अमीर दिन प्रतिदिन अमीर होते जा रहे हैं लेकिन बड़ा तबका दिन पर दिन गरीब जिसके सामने न्यूनतम जरुरत को पूरा कर पाने का भीषण संकट सामने खड़ा है |  जिस राज्य में शिक्षा से लेकर सड़क , बिजली से लेकर पानी और स्वास्थ्य से लेकर रोजगार को लेकर आन्दोलन का दौर चल रहा हो और लोग बुनियादी समस्याओं के लिए परेशान दिखाई देते हैं वहां चमचमाती विकास दर के आंकड़े पेश कर सरकारें केवल अपने मुह मिया मिट्ठू  बन सकती हैं आम आदमी को बेवकूफ नहीं बना सकती  |  किसी भी राज्य के विकास में शिक्षा की सबसे बड़ी भूमिका होती है लेकिन उत्तराखंड की बात करें तो यहाँ शिक्षा की हालत दयनीय बनी हुई है | राज्य में कई महाविद्यालय जहाँ टिन शेड के भरोसे चल रहे हैं तो कहीं पढ़ाने के लिए प्रोफेसरों तक का अकाल पड़ा है | आंकड़े बताते हैं बीते 15 बरस में तकरीबन 1800 से ज्यादा विद्यालय जहा बंदी के कगार पर खड़े हैं वहीँ 1117 स्कूल ऐसे हैं जहाँ साफ़ पेयजल तक नहीं है | यही नहीं 546 विद्यालयों में शौचालय तक नहीं है | खुद राज्य के सी एम के विधानसभा इलाके में कई स्कूलों में बैठने तक की जगह नहीं है | यह तस्वीर भयावह हालातों को पेश करती है |  

गढ़वाल में उच्च शिक्षा के लिए हेमवती नंदन बहुगुणा सरीखे केन्द्रीय विश्वविद्यालय और कुछ निजी विश्वविद्यालय  बेशक जरूर हैं  लेकिन कुमाऊँ के सबसे पहले डी एस बी नैनीताल और अल्मोड़ा सरीखे मुख्य कैम्पसों में  छात्र छात्राओं के बैठने के लिए स्मार्ट क्लास रूम , अत्याधुनिक पुस्तकों से सजी डिजिटल लाइब्रेरी तो दूर पानी के लिए प्यूरीफायर तक के इंतजाम न हों वहां उच्च शिक्षा के हालात भयावह तस्वीर पेश करते हैं  और प्राथमिक शिक्षा का नजारा ऐसा है कि नौनिहाल जर्जर भवन में जहाँ पढने को मजबूर हैं वहीँ  बच्चों की पढाई लिखाई से ज्यादा चिंता राज्य के अध्यापकों  के लिए टाइम पास करना बन चुकी हो तो वहां के नौनिहालों का क्या भविष्य बनेगा इसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैंशिक्षा विभाग के आला अधिकारी आये दिन वेतन रोकने और रिजल्ट खराब आने पर कठोर कार्यवाही करने की धमकी देते रहते हैं लेकिन अध्यापकों का कोई बाल बांका तक नहीं कर पाता है और खुद मंत्री जी नौकरशाही के आगे बेबस हो जाते हैं तो शासन कैसा चल रहा होगा खुद समझा जा सकता है | 

  
 जिस राज्य को वेंटिलेटर पर संविदा अध्यापकों , संविदा डॉक्टरों ,संविदा प्रोफेसरों , संविदा कर्मचारियों के आसरे रखा गया हो वहां विकास की अलख जगाने का मतलब कोरी लफ्फाजी ही लगता है | राज्य गठन में जिस युवा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी वह आज हाशिये पर है और दर दर ठोकरें खाने को मजबूर है और दिल्ली से लेकर मुंबई तक ठोकरें खा रहा है और नौकरी के अभाव  में वह अपराध की दुनिया में अपने कदम बढ़ा रहा है । सरकारी नौकरियों का राज्य में अकाल हो गया है | नई भर्तियाँ अगर निकल भी रही हैं तो दस सीटों के लिए हजारों की तादात में लोगों का रेला निकल रहा है | डेढ़ दशक में उत्तराखंड के लाखों बेरोजगारियों की टोली में से महज 31145 लोगों को सरकारी नौकरी मिल सकी है |  

यही स्थिति स्वास्थ्य की भी है | सरकार की लाख कोशिशों और वेतन बढाने के बाद भी कोई भी डॉक्टर पहाड़ चढ़ने को तैयार नहीं दिखाई देता |  साफ़ है उत्तराखंड का पूरा  सिस्टम  इस दौर में फेल हो चला है जहाँ अपने आकाओंदरबारियों , और चेले चपोटों के वेतन बढाने के लिए तो सरकार का पास पैसे की कमी नहीं है लेकिन बुनियादी  इन्फ्रास्ट्रेक्चर के लिए सरकार के मुखिया हाथ में कटोरी लिए केंद्र की तरफ बार बार ताकते रहते हैं | अब ऐसे राज्य के स्वर्णिम भविष्य की उम्मीद कैसे कर सकते हैं ? 

             




महीने भर पहले नैनीताल में सेलिंग रिंगाटा प्रतियोगिता का आयोजन किया गया जहाँ प्रदेश के मुख्यमंत्री ने राज्यपाल के साथ  शिरकत की | वहां सी एम साहब से आयोजकों को उम्मीद थी कि वह सरकार के खजाने से कुछ रकम आयोजकों को देंगे जिससे इस तरह की स्पर्धाओं को भविष्य में बल मिलेगा लेकिन यहाँ तो हमारे सीएम रावत खुद आयोजकों के सामने कटोरा फैला दिए और कहने लगे आप हमें मदद कीजिये जिससे हम इस प्रकार के खेलों के आयोजन के लिए बुनियादी इन्फ्रास्ट्रेक्चर डेवलप कर सकें | 

अब मुख्यमंत्री को भला यह कौन समझाए कि इन्फ्रास्ट्रेक्चर डेवलप करने का काम सरकार का होता है ना कि जनता का | इस बात से समझा जा सकता है कि वर्तमान में रावत सरकार किस तरह हवाबाजी और आये दिन उद्घाटनों में अपना वक्त बर्बाद करने पर तुली हुई है और इससे पहाड़ की जनता का कुछ भी भला नहीं होने जा रहा | हाँ इतना जरूर है हर दिन नई नई घोषणा से मुख्यमंत्री घोषणावीर जरूर हो गए हैं और आये दिन उनके इश्तेहार देश के ऐसे ऐसे पत्र पत्रिकाओं आमुख पेज पर देखे जा सकते हैं जिनका राज्य में कोई नामलेवा तक नहीं है | यह सवाल हमारे मन को पीड़ा पहुंचाता है जो मुख्यमंत्री केंद्रीय मंत्री रहते पहाड़ के विकास की पीड़ा की बातें 9 , तीन मूर्ति लेनदिल्ली  में करते नजर आते थे आज वह भी बेलगाम नौकरशाही के चंगुल में इस कदर घिर चुके हैं कि अफसर अधिकारी उनकी एक नहीं सुनते और पहाड़ की पीड़ा उन्हें नजर नहीं आती | 

हाल के वर्षो में पहाड़ में पलायन की समस्या गंभीर रूप धारण करती जा रही है लेकिन सरकार के पास इन इलाकों को आबाद करने के लिए कोई नीतियां नहीं है | महज ‘हिटो पहाड़ रे’, ‘मेरा गाँव मेरा धन’ योजना के ‘इश्तेहार’ हर दिन पूरे देश के अखबारों में लुटवाकर आप गाँवों को आबाद नहीं कर सकते | आज पहाड़ में खेती घाटे का सौदा बन चुकी है | कोई छोटा मोटा फल का व्यापार भी नहीं करना चाहता | बागवानी तक करना पहाड़  में आज घाटे का सौदा बन गई है |  खेती का रकबा पहाड़ में लगातार सिकुड़ रहा है | पहाड़ों की तकरीबन 70000 हेक्टेयर से अधिक जमीन कम हो चुकी है | सरकार जरुर राज्य के जी डी पी विकास दर के बैंड बजाकर अपने को प्रसन्न मुद्रा में ला जरूर सकती है लेकिन गाँव के लागों के पास न्यूनतम जरुरत का संकट बना हुआ है |  

आखिर क्यों नहीं पहाड़ में कोई छोटी औद्योगिक  इकाई  लगी ? आखिर क्यों पहाड़ से पलायन थमने का नाम नहीं ले रहा ? आखिर क्यों कोई यूनिवर्सिटी पहाड़ के बच्चों  के लिए नहीं खुल पा रही है ?  आखिर क्यों गाँवों को आबाद करने का कोई माडल पहाड़  में साकार नहीं हो पा रहा ? इसकी सबसे बड़ी वजह नीतियों का देहरादून से संचालित होना और राजनेताओं का अपने आकाओं का एजेंट बना रहना है | 

असल में उत्तराखंड की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यहाँ  पर सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं हो पाया | पहले नीतियां लखनऊ में बनती थी आज देहरादून से नीती नियंता अपना शासन चलाते हैं और छोटा राज्य होने के कारण कमीशनबाजी और लूटखसोट में मिलजुलकर सभी नेताओं के साथ हाथ साफ़ करने में लगे रहते हैं | इस राज्य का दुर्भाग्य ही कहेंगे  यहाँ सत्ता में जो भी दल भागीदार रहा उसका मुख्यमंत्री ठसक के साथ केवल अपनी सरकार ही बचाता रहा | नीतियों के बनने से लेकर उसके इम्प्लिटेशन में मुखिया की ही भागीदारी यत्र , तत्र  और सर्वत्र  देखी जा सकती है | उत्तराखंड का आम आदमी आज भी विकास की आस में अपनी देली पर बैठा हुआ है |

इन 15 बरस में भले ही हरिद्वार में गंगा में कितना पानी बह चुका हो लेकिन उत्तराखंड से ना तो पहाड़ों से लोगों का पलायन रुका और ना ही लूट खसोट | अविभाजित यू पी का आकार बड़ा था और तब हमारे यहाँ के नेता वहां पर अपनी अदद पहचान के लिए तरसा करते थे लेकिन अलग उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद छोटे छोटे विधान सभा इलाके और इकाइयाँ होने से हर किसी के पास लूट करने के कई रास्ते खुल गए जहाँ मंत्री से लेकर माफिया , नौकरशाहों से लेकर ठेकेदारों के काकटेल ने लूट की गंगा में सहभागिता दिखाने में देरी नहीं लगाई और शायद यही वजह रही उत्तराखंड में इन 15 बरसों में ऐसी लूट खसोट मची कि जिसकी मिसाल हमें देखने को नहीं मिलती | 

इन 15 बरसों में उत्तराखंड के हर विधायक और नेताओं की संपत्ति में भारी उछाल देखने को मिला है | पहले जिस नेता के पास स्कूटर तक नहीं होता था आज वह कई भवनों का मालिक है और करोड़ों  में खेल रहा है | कहानी यहीं नहीं थमती | राज्य के कई  नेता  रियल स्टेट से लेकर शिक्षा और शराब , खनन के ठेकों में परोक्ष रूप से अपनी भागीदारी कर मोटा माल कमा रहे हैं | राज्य के कई नेता ऐसे भी हैं जिन्होंने उत्तराखंड बनने के बाद से निजी इंजीनियरिंगमेडिकलपैरामेडिकलबी एड कालेजों , रिसोर्ट, होटलों को  खोलकर अपने आर्थिक विकास की नई गाथा लिखी है | कई नेता जो यह सब समय रहते नहीं कर पाए वह इस आर्थिक निर्माण में शेयरों के आसरे डुबकी लगा रहे हैं | यानी जनता की न्यूनतम जरूरत से ज्यादा जिस राज्य में नेताओं को अपने आर्थिक विकास की चिंता हो वहां अंतिम कोने तक विकास पहुचने की बातें कम से कम हमें तो इन हालातों में बेमानी ही लगती हैं |  

ईमानदारी का तमगा लिए हमारे मुख्यमंत्री हरीश रावत भले ही अपनी सरकार को साफ़ सुधरी बताने से पीछे नहीं दिखाई देते हों लेकिन यह सच किसी से शायद ही छिपा है कि वह अब तक की वह उत्तराखंड की सबसे भ्रष्ट सरकार चला रहे हैं जहाँ शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य , पेयजल से लेकर आपदा हर विभाग में खुली लूट चल रही है जहाँ अधिकारीमंत्री और संतरी तीनों की मिलीभगत और पूरी मशीनरी बहती गंगा में हाथ साफ़ करने में लगी है |      

एक बड़े जनांदोलन से निकला उत्तराखंड बीते 15 बरस में कई सियासी घटनाओं का गवाह रहा है | वर्ष 2000 में मानसून सत्र में लोकसभा ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन को मंजूरी दी जिसके बाद 9 नवम्बर 2000 को यह अलग राज्य अस्तित्व में आया चूँकि  अविभाजित अंतरिम सरकार में 30 में से 24 विधायक भाजपा के थे लिहाजा भाजपा की अंतरिम सरकार बनी जहाँ बाहरी  नित्यानंद स्वामी की सी एम के रूप में ताजपोशी हुई | स्थायी राजधानी के मसले पर इस सरकार की सबसे भारी भूल की कीमत प्रदेशवासी अभी तक चुका रहे है और आज हालत यह है कि राज्य की स्थाई राजधानी का विवाद जस का तस बना हुआ है | पूर्व मुख्यमंत्री स्वामी ने स्थायी राजधानी के चयन के लिए जिस वीरेन्द्र दीक्षित आयोग का गठन किया था हमारी राजनीतिक जमात ने उसका कार्यकाल दर्जनों बार बढ़ाया और आज तक देहरादून का मामला लटका हुआ है | 

मौजूदा रावत  सरकार गैरसैण को जनभावना से जोड़कर वहां पर न केवल ग्रीष्मकालीन राजधानी का सब्जबाग प्रदेशवासियों को दिखाने में लगी हुई है बल्कि वहां पर विधानसभा भवन के निर्माणकार्यों  को अंजाम देने में लगी हुई है | गैरसैण में दो तीन दिन के सत्र के नाम पर हर बरस घंटों में करोड़ों की जनता की कमाई स्वाहा कर दी जाती है | गैरसैण में राजधानी बसाने का स्वांग करने वाले उत्तराखंड के सभी विधायकों की असलियत यह है इन्होने आज अपने सभी परिवारों को हल्द्वानी और देहरादून सरीखे सुविधाजनक शहरों में जहाँ बसा दिया है वहीँ उत्तराखंड की सत्ता का चरित्र ऐसा है कि हमारे माननीय पहाड़ों की तरफ फटकना ही नहीं चाहते और ये सभी लोग विधानसभा इलाकों से लगातार दूर भाग रहे हैं | जनता के सरोकार कहीं पीछे छूट रहे हैं | गैरसैण पर ध्यान खींचने के लिए और कैमरों में बाईट देने के लिए आज हर कांग्रेसी और भाजपाई लालायित है जबकि असलियत यह है यह सभी नेता ऐसे हैं जो पहाड़ों को छोड़कर दून और हल्द्वानी में अपनी अपनी आलिशान ‘कोठियां’ और ‘विला’ बना चुके हैं | हमाम में सभी नंगे हैं | अब ऐसे नेताओं से पहाड़ों में विकास की उम्मीद करना हमें तो बेमानी लगता है |
  
नित्यानंद स्वामी के दौर में नौकरशाहों ने हमारे नए नवेले ऐसे नेताओं की घिग्गी बाँध दी जिनकी उत्तर प्रदेश में कोई पूछ परख भी नहीं होती थी | नौकरशाही ने इसी दौर से उत्तराखंड में अपने पैर मजबूती के साथ जमाने शुरू कर दिए जिससे यहाँ के नेता असहज हो गए शुरुवात के महीनों में तो भाजपा बाहरी और भीतरी इसी की उधेड़बुन में उलझ कर रह गई जिससे विकास कार्य सीधे प्रभावित हुए और स्वामी तो घुमक्कड़ी और ताबड़तोड़ घोषणाओं के महावीर निकल गए जिससे उनकी पार्टी में खूब किरकिरी हुई | मजबूर होकर भाजपा को  राज्य के प्रथम विधान सभा चुनावों से ठीक चार महीने पहले वरिष्ठ नेता भगत सिंह कोश्यारी को आगे करना पड़ा जो स्वामी की सरकार में उर्जा मंत्री भी थे | 

कोश्यारी का करिश्मा फीका पड़ गया और राज्य के प्रथम विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी | कांग्रेस में भी मुख्यमंत्री  बनाने की बारी आई तो उसके प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत मुख्यमंत्री के स्वाभाविक दावेदार थे लेकिन आलाकमान ने यू पी के चार बार मुख्यमंत्री रहे एन डी तिवारी को उत्तराखंड की पहली निर्वाचित सरकार का मुखिया बनाया | तिवारी ने बुनियादी  आधारभूत संरचना के लिए केंद्र से मदद की गुहार लगाई और राज्य में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश को बढावा दिया | उनके कार्यकाल में जहाँ सिडकुल की स्थापना हुई वहीँ पहली बार औद्योगिक इकाईयों ने उधमसिंहनगर और हरिद्वार सरीखे शहरों की तरफ रुख किया और राज्य की जनता के लिए नौकरियों के पिटारे खोले |


तिवारी के कार्यकाल में सड़क , पर्यटन , शिक्षा , स्वास्थ्य , आई टीऊर्जा  सेक्टर में बूम आने के दावे जोर शोर से किये गए और उन्हें विकास पुरुष के नाम से नवाजा जाने लगा लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह था  तिवारी जी ने राज्य में दिल खोल के सरकारी  खजाना लुटाया और अपने पांच बरस के कार्यकाल में 16 हजार करोड़ रुपये के कर्ज में राज्य के कदम डुबोने में देरी नहीं लगाई | ऊपर से दरोगा भरती , पटवारी भरती , लालबत्ती जैसे विवादों और  घोटालों ने उनकी सरकार की मिटटी पलीत कर दी जिसकी बड़ी कीमत उनकी सरकार को 2007 के चुनावों में चुकानी पड़ी जब भाजपा की उत्तराखंड में पूर्ण बहुमत से वापसी हुई लेकिन यहाँ पर भी मुख्यमंत्री पद को लेकर आर पार की लड़ाई जारी रही | विधायक बड़े पैमाने पर कोश्यारी की रहनुमाई कर रहे थे लेकिन आलाकमान ने जनरल खंडूरी को आगे किया | खंडूरी के आते ही नौकरशाही खौफ खाने लगी |

 खंडूरी ने नौकरशाहों , माफियाओं और खुद अपनी पार्टी के उन नेताओं के नाक में दम कर दिया जो लूट खसोट की कमीशनबाजी से अपनी समानांतर सरकार उत्तराखंड में चलाते आये थे | पहली बार ऐसा लगा उत्तराखंड में कोई ईमानदार मुख्यमंत्री आया है जिसके मन में राज्य के प्रति कुछ करने की तमन्ना है | जिन नारायण दत्त  तिवारी ने अपनों को खुश करने के लिए 350 से ज्यादा लालबत्ती देने की जो परंपरा विरासत में उत्तराखंड को दी ,पहली बार उन परम्पराओं से इतर जनरल खंडूरी ने अपनी अलग पहचान बनाई और राज्य में भ्रष्टाचार की गंगा में रोक लगायी जिसके चलते माफियाओं , नौकरशाहों और खुद अपनी पार्टी के नेताओं की आँखों में खंडूरी खटकने लगे जिसके चलते एक षड़यंत्र के चलते भाजपा के नेताओं निशंक और कोश्यारी ने उनको मुख्यमंत्री पद की कुर्सी से  न केवल हटाया बल्कि भाजपा का राज्य में जहाज डुबो दिया  जिसके बाद नई उम्मीद और नए युवा नेतृत्व के तहत डॉ निशंक को भाजपा ने मुख्यमंत्री बनाया |


निशंक भी अपनी कुर्सी बचाने के लिए हर उस तिकड़म का सहारा लेने से पीछे नहीं रहे जो रास्ता एन डी तिवारी ने पकड़ाउसी के पगचिन्हों पर चलते हुए निशंक ने न केवल अपने तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी को  पार्टी फंड में रिकार्ड धन देकर खुश किया बल्कि  अपनों को लालबत्ती की सवारी कराने में देरी नहीं लगाई | यही नहीं अपनी मीडिया मैनेजरी से डॉ निशंक ने हर मामले में  मीडिया को भी मैनेज करने में देरी नहीं लगाई लेकिन निशंक की यह मैनेजरी अधिक दिनों तक नहीं चल पाई |

 बिजलीजमीन के  प्रोजेक्टों में धांधलीकुम्भ  , सिट्जुरिया में घोटाले से निशंक हिट विकेट हो गए और कोश्यारी और जनरल खंडूरी की जुगलबंदी ने उत्तराखंड में फिर से 2012 के चुनावों से पहले जनरल खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाया | अपने तीन माह के कार्यकाल में खंडूरी ने जो निर्णय लिए उसकी मिसाल भारतीय राजनीति में देखते को नहीं मिलती यही वजह रही अपनी ईमानदारी के आसरे खंडूरी उस चुनाव में भाजपा का मुख्य चेहरा बने और कांटे की टक्कर के बीच वह भाजपा के जहाज को 31 सीटों तक पार ले गए | 

यह अलग बात है वह पार्टी के भीतरघात के चलते खुद कोटद्वार से चुनाव हार गए जिसके बाद सूबे में कांग्रेस ने पी डी ऍफ़ की मदद से सरकार बनाई और विजय बहुगुणा को काफी विरोध के बाद मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन केदारनाथ की 2013 की आपदा ने भी खुद उनका विकेट लेने में देरी नहीं की जिसके बाद हरीश रावत की ताजपोशी कांग्रेस ने की | 

हरीश के आने के बाद उम्मीद थी कि सब कुछ कांग्रेस में सामान्य हो जायेगा लेकिन यहाँ भी मंत्री पद को लेकर और लालबत्ती को लेकर अंदरूनी खींचतान जारी है | छोटा राज्य होने के कारण  पार्टी  में झगड़े और व्यक्तिगत स्वार्थ इतने अधिक हैं कि अँधा बांटे रेवेड़ी वाली बात उत्तराखंड में  हर सरकार में लागू है | जिसको खुश नहीं कर सको वहीँ आँखें तरेर देता है जिससे उत्तराखंड का विकास दूर की कौड़ी लगता है | 9 महीने से एक कैबिनेट की सीट भरने के लिए मारामारी चल रही है आलाकमान से मिलने के लिए प्रदेश के कांग्रेस विधायक हर समय लालायित दिखाई देते हैं | यही नहीं ‘लैटर बम’ भी परवान पर है  | विकास कार्यों से इतर संगठन- सरकार की ‘तोता- मैना’ में ही वक्त जाया हो रहा है | 

उत्तराखंड में पार्टी के हर नेता का करीबी अपनों के लिए लालबत्ती न केवल मांगता है बल्कि अपने इलाके की हर विकास योजनाओं में कमीशनबाजी चाहता है जिसके चलते उत्तराखंड का विकास किसी दिवास्वप्न से कम तो नहीं लगता |  राज्य के एक आईएएस कैडर के अधिकारी ने ऑफ द रिकॉर्ड बीते दिनों खुद बताया उत्तराखंड की हालत किस तरह डगमग है यह इस बात से समझा जा सकता है कि अब सडकों के गड्ढे भी वर्ल्ड बैंक के पैसे से भरे जा रहे हैं तो आर्थिक विकास दर के झटके बखूबी महसूस किये जा सकते हैं |






हमारे मौजूदा मुख्यमंत्री ‘हरदा’ भी तिवारी जी के पग चिन्हों पर चलते हुए न केवल अपनी कुर्सी किसी तरह बचाने की दुआ कर रहे हैं बल्कि मंत्री , नौकरशाहों और ठेकेदारों के साथ मिलकर समावेशी विकास का वह माडल खींच रहे हैं जिससे उनकी गाडी भी किसी तरह 2017 तक चल जाए शायद यही वजह है वह भी लालबत्ती बांटकर अपने करीबियों की वाहवाही बटोरने में लगे हैं । यही नहीं विज्ञापनों के इश्तेहारों और मीडिया को साधकर वह अपना गुणगान अपने पूर्ववर्ती तिवारी जी ,बहुगुणा की तर्ज पर करने में लगे हैं जिससे राज्य में विकास केन्द्रीकृत होकर रह गया है | यह निश्चित रूप से राज्य के विकास के लिए दुखद त्रासदी  है | 

अब हरदा आम आदमी पर तरह तरह के करों का बोझ लादने पर तुले हुए हैं जिससे किसी तरह राज्य की गाडी पटरी पर आ सके | वैसे भी 2017 अब ज्यादा दूर नहीं है लिहाजा मुख्यमंत्री भी फूंक फूंक कर कदम बढाने में लगे हुए हैं | मौजूदा  हरीश सरकार ने आम आदमी को भारी कर्ज के बोझ तले ले जाने का काम किया है | वर्तमान दौर में सरकार की माली हालत बहुत खराब हो चली है | नई नौकरियां जहाँ हाल के वर्षो में सरकार पैदा नहीं कर सकी है वहीँ सरकारी कर्मचारियों के वेतन के लिए  बार बार कर्ज लेने में लगी है | इससे बड़ी विडम्बना किसी राज्य के लिए क्या हो सकती है 15 बरस बाद भी जो राज्य अपने पैरों में खड़ा नहीं हो सका हो और हर समय केंद्र के विशेष राज्य के दर्जे की दिशा में ताकता ही नजर आता हो |

इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही के बाद सरकार करीब 1700 करोड़ का कर्ज उठा चुकी है और जून माह में 750 करोड़ का कर्ज वह पहले ही उठा चुकी है लिहाजा  राज्य में गंभीर वित्तीय असंतुलन पैदा हो गया है |  सरकार का वेतन और पेंशन मद पर बढ़ने वाला कर्ज दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है | एक अनुमान के अनुसार आने वाले समय में उत्तराखंड पर 50000 करोड़ का कर्ज पहुँचने का अनुमान लगाया जा रहा है अगर राज्य इस आंकड़े को पार कर लेता है तो यह नवोदित राज्य के लिए एक नया कीर्तिमान होगा जहाँ भ्रष्टाचार की गंगा में कदम कर्ज में डूबते ही चले जा रहे हैं लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री और मंत्रियों को हवाई घोषणा करने में कोई एतराज नहीं है |

 केंद्र सरकार आये दिन सरकार को गैर योजना मद में कटौती की हिदायत देती रहती है लेकिन सरकार पर इसका कोई असर नहीं होता बावजूद इसके वह एडीबी और विश्व बैंक सरीखी एजेंसियों से हर बरस करोड़ों के कर्ज को लेने में पीछे नहीं  है | पुरानी देनदारी भी साल दर साल बढती ही जा रही है ऐसे माहौल में राज्य में विकास की योजनायें खुद ब खुद दम तोड़ने के मुहाने पर खड़ी हैं |

  
राज्य गठन की सबसे बड़ी विडम्बना यह रही कि इसे कोई सशक्त नेतृत्व नहीं मिल पाया | जनरल खंडूरी ने अपनी अलग पहचान जरूर बनाई लेकिन कड़े फैसले खुद भाजपा के अपने नेताओं को रास नहीं आये जिसके चलते निशंक और कोश्यारी की जोड़ी ने उन्हें ठिकाने लगाने में देरी नहीं लगाई | अनुभव के मामले में तिवारी जी सबसे तजुर्बेकार थे लेकिन उन्होंने भी अपनों के लिए दिल खोल के खजाना खोलने में देरी नहीं लगाई जिससे राज्य पर कर्ज दिनों दिन बढ़ता ही चला गया | डॉ निशंक तो तिवारी की कार्बन कॉपी वाली पहचान बनाने में कामयाब रहे | उनके चेलों ने भी सरकारी खजाने पर करोड़ों की चपत प्रतिदिन लगाई साथ ही भ्रष्टाचार में निशंक का ट्रेक रिकॉर्ड और स्ट्राइक रेट उत्तराखंड की पिच पर सबसे ज्यादा रहा |

विजय बहुगुणा भी अपनी कुर्सी बचाने के लिए तिवारी के नक्शेकदम पर चले जिससे राजकोष पर भारी व्यय पड़ा और राज्य में आर्थिक हालात चिंताजनक बन गए और फिर मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत भी अपनी कुर्सी बचाने और  सबको खुश करने के फेर में राज्य की माली हालत बदतर करते जा रहे हैं | रावत सरकार के संरक्षण में तो उत्तराखंड में माफियाओं का एक बड़ा नेटवर्क सक्रिय है जो मंत्रियो से लेकर नौकरशाहों को साधकर राज्य से मोटा माल बटोरने में लगा हुआ है | यह सब खुला खेल तो मुख्यमंत्री की नाक के नीचे खेला जा रहा है लेकिन मीडिया इस पर चूं तक नहीं कर रहा क्युकि सी एम की मीडिया मैनेजरी ने सब कुछ मैनेज कर रखा है | खनन में लाखों के वारे न्यारे  हर दिन इस सरकार के कार्यकाल में हो रहे हैं लेकिन लोगों के सरोकारों की बात करने वाले सभी मीडिया समूह इस समय खामोश हैं |

 हरदा की चिंता भले ही किसी तरह अपनी सरकार को 2017 तक खींचने की हो लेकिन इससे उत्तराखंड का कुछ भी भला नहीं होने जा रहा है | अपनों को लाभ पहुचाने से इतर राज्य के भविष्य के बारे में सोचने की उन्हें भी फुर्सत नहीं है | चार्वाक दर्शन की तरह हमारे पहाड़ी मुख्यमंत्री ‘हरदा’ का भी उत्तराखंड में दर्शन खाओ पीयो और मौज करो बन चुका है लिहाजा आने वाले वर्षों में राज्य के सामने अपने बूते संसाधन जुटाना मुश्किल है ही साथ में कर्मचारियों को वेतन ही समय से मिल जाए यही गनीमत होगी | वैसे भी सातवें वेतन आयोग की दस्तक शुरू हो चुकी है और इन सबके बीच अगले बरस इसकी सिफारिशे राज्य सरकार को मुश्किल में डाल सकती हैं क्युकि इससे कई हजार करोड़ रुपये का भार राजकोष पर पड़ेगा | 

ऐसे डगमग हालातों में उत्तराखंड की हालत कैसी होगी इसकी कल्पना करने मात्र से ही हम सिहिर उठते हैं क्युकि उत्तराखंड के कदम कर्ज में डूबते ही जा रहे हैं और हमारे सी एम हरदा हर दिन नई नई घोषणाएं ही करते जा रहे हैं | घोषणाओं के मामले में हरदा ने अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों तक को पीछे छोड़ दिया है | आंकडे इस बात की गवाही दे रहे हैं कि हरदा ने अपने 17 महीने से ज्यादा के कार्यकाल में 2000 से भी अधिक घोषणाएं की हैं जिनका पूरा होना बहुत दूर की गोटी है | आंकड़े बताते हैं खुद शिक्षा के मसले पर डेढ़ दशक में राज्य में तकरीबन 120 बड़ी घोषणाएं की गई हैं जिनमे से आज तक महज 15 ही पूरी हो पाई हैं |

उत्तराखंड का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही कहेंगे जिन राजनेताओं के मन में उत्तराखंड को लेकर किसी तरह की कोई पीड़ा नहीं थी उनके नुमाइंदे मंत्री संतरी और रागदरबारी बन शासन कर रहे है जिनके मन में आम जनता के प्रति कोई पीड़ा नहीं हो ,पलायन की पीड़ा जिनसे नहीं देखी जा रही हो उनसे आप विकास की उम्मीद किस तरह से कर सकते हैं ? सत्ता पर चाहे भाजपा रही हो या कांग्रेस सरकारी खजाने को दोनों ने भारी चपत ही लगाई है | बुनियादी समस्याएं आज भी 15 बरस के बाद लोगों को नसीब नहीं हो पाई हैं | 

हाँ हरिद्वार , देहरादून और उधमसिंहनगर में औद्योगिक ईकाइयां लगने को विकास का बड़ा पैमाना इस समूचे दौर में मान लिया गया और विशेष राज्य के दर्जे के नाम पर कई औद्योगिक इकाइयों को इंडस्ट्री लगाने के लिए करों में भारी छूट भी दी गई लेकिन कॉरपरेट घराने उत्तराखंड में मौज करते रहे और उत्तराखंड के नौजवान के सामने बेरोजगारी विकराल रूप धारण करती रही लेकिन हमारी सरकारी उर्जा प्रदेश , हर्बल स्टेटआई स्टेट,आयुष प्रदेश के कागजी दावे ही करने में मशगूल रही | जमीन पर इस मसले पर ढेला भर काम नहीं हुआ और अरबों रुपये विज्ञापनों के नाम पर स्वाहा कर दिए गए | यही हाल पर्यटन और फिल्म नीति का भी रहा | हवाई बयानबाजी खूब जोर शोर से की गई लेकिन धरातल पर कुछ भी काम नहीं हुआ | बस सरकारी खजाने की लूट खसोट जारी रही | 

औद्योगिक ईकाइयों के नाम पर बेशकीमती जमीनें कौड़ियों के भाव भू माफियाओं और बिल्डरों को नीलाम कर दी गई  और आपदा प्रबंधन विभाग तो इस राज्य में कई बरस से ऐसी दुधारू गाय बन गया जिसे हर दल के नेताओं ने दुहने में कोई कोर कसर नहीं छोडी जिसकी बड़ी बंदरबांट हर जिले में बीते 15 बरस में हुई है और तो और शराब से लेकर खनन तक को साधकर यहाँ हर सरकारों ने अपना याराना दिखाया है यानी सत्ता में जो भी आया अपनों पर करम गैरों पर सितम इन 15 बरस में खूब किया जिसके चलते राज्य की सेहद बद से बदतर हो गई है | उत्तराखंड की राजनीतिक जमात का चरित्र ही पहाड़  विरोधी रहा है | यह नेता पहाड़ के साथ झूठ और फरेब की राजनीती करते रहे हैं और आज भी यही इतिहास हरदा के कार्यकाल में दोहराया जा रहा है | राज्य के विकास के बजाए सरकार का ध्यान उसके अपनों की सेहत सुधारने और अपने करीबियों को ठेके और कमीशन दिलवाना बन गया  है | 

बार बार उत्तराखंड के विकास के लिए हिमाचल माडल की बात कही जाती है और यशवंत सिंह परमार सरीखे नेता की चर्चा यहाँ भी होती रही है लेकिन इसे प्रदेश का दुर्भाग्य ही कहेंगे यहाँ पर परमार सरीखा नेतृत्व तो दूर लीक से अलग हटकर सोचने वाला कोई दूरदर्शी नेतृत्व ही नहीं उभर पाया है | जो नेतृत्व उभरा भी उसे पार्टी के नेताओ ने हटाने के लिए अपनी पूरी उर्जा लगा दी |  

अब इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे यहाँ पर ऐसा नेतृत्व है जिसकी केंद्र सरकार तक में पूछ परख तक नहीं है और अपने संसाधनों के बूते राज्य में नई लकीर खीचने का माद्दा भी किसी राजनेता में बचा नहीं है जिसके चलते इस नवोदित राज्य में अलग राज्य की अवधारणा अब दम तोडती नजर आती है | क्षेत्रीय ताकतों की बात करनी बेमानी है क्युकि वह भी अपने निजी स्वार्थो के चलते सत्ता के तलवे चाटते रहे | राज्य में राष्ट्रीय दलों को पटखनी दे सकने वाली क्षेत्रीय शक्ति की जरूरत हमेशा महसूस की गई। इसके लिए अनुकूल स्थितियां भी पैदा हुईं लेकिन नेताओं की अक्षमता स्वार्थ लोलुपता और अदूरदर्शिता के चलते क्षेत्रीय विकल्प के जो मौके उभरे थे वे भी हाथ से चले गए | 

अब तक यहां शासन में रहे भाजपा और कांग्रेस जैसे दल विकास के मोर्चे पर बुरी तरह फेल रहे हैं। भ्रष्टाचार और घोटालों के दर्जनों किस्से मंत्रियों और नौकरशाहों के दामन पर चिपके रहे। आज भी बाहुबल और धनबल पूरी तरह पहाड़ पर हावी है। राज्य में होने वाली नियुक्तियों  और राज्य में लगने वाले उद्योगों में पहाड़ियों को दरकिनार किया जा रहा है।  यहां के मुख्यमंत्रियों की भूमिका अपने पार्टी हाईकमान की कृपा पर टिकी है । बेचारा मुख्यमंत्री समय-समय पर अपने आकाओं के पार्टी फंड में मोटी रकम न केवल दे रहा है बल्कि प्राकृतिक संसाधनों के बेशकीमती  उपहार भी अपने आकाओं के नाम करने  में पीछे नहीं  है । उत्तराखंड का दर्शन हाल के वर्षो में कुछ इस तरह का बन चुका है  ‘तुम भी खाओ और हम भी खाते हैं ’

जिन उद्देश्यों के लिए उत्तर प्रदेश से अलग राज्य  बनाया गया था गया वह सपना धूल धूसरित हो रहा है और उत्तराखंड  ने उन सभी बुराइयों को आत्मसात कर लिया है जो बुराइयाँ उत्तर प्रदेश में पाई जाती थी । 

लूट खसोट के मामले में तो इसने अपने पडोसी राज्य तक को पीछे छोड़ दिया है जहाँ आलम यह है एक चिकित्सक के ट्रान्सफर के रेट 25 से 35 लाख तक जा पहुचे हैं जिसमे स्वास्थ्य मंत्री से लेकर सभी आला अधिकारियों के शेयर फिक्स हो चले हैं | यह तो एक विभाग की कहानी है ।  सी एम की नाक के नीचे ऐसा खुला खेल तो उत्तराखंड के हर विभाग में खेला जा रहा है लेकिन त्रासदी देखिए उत्तराखण्ड में परिवर्तनकारी क्षेत्रीय शक्तियों की सबसे अधिक जरूरत  यहाँ के लोगों को इस समय है  लेकिन आपसी खींचतान और चुनावी संसाधनों के अभाव के चलते कोई नेतृत्व सामने नहीं उभर पा रहा है | अन्य राज्यों में जहाँ क्षेत्रीय ताकतें दिनों दिन मजबूती के साथ अपने कदम बढ़ा रही हैं वहीँ उत्तराखंड में क्षेत्रीय शक्तियां  सत्ता की चरण वंदना में अपना वक्त जाया करने में लगी हुई हैं|  


उत्तराखंड में चाहे सरकार कांग्रेस की रही हो या भाजपा की स्थानीय ताकतों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थो को हमेशा ज्यादा तरजीह दी जिसके चलते विकल्प की छटपटाहट आज भी उत्तराखंड में करीब से महसूस की जा रही है शायद यही वजह है यहाँ की जनता अब भाजपा और कांग्रेस से अपने को छला हुआ पा रही है और  दबी जुबान से  यह कहने से परहेज नहीं कर रही है इससे अच्छा तो उत्तर प्रदेश ही था तो समझा जा सकता है उत्तराखंड की राजनीतिक जमात ने किस तरह यहाँ की जनता को बीते 15 बरस में दिन में भी तारे दिखाने से परहेज नहीं किया है जिसके चलते अब लोग महज 15 बरस में ही उत्तराखंड राज्य के अलग अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगाने लगे हैं और तस्वीर का सबसे बुरा पहलू हमें गाँवों में नजर आता है जहाँ 3600 से अधिक गाँव वीरान होने के कगार पर खड़े हैं | अगर समय रहते हमारी राजनीतिक जमात ने आने वाले एक दो वर्षों के भीतर इस पलायन को रोकने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाये तो अलग पहाड़ राज्य की वास्तविक अवधारणा पर ही सवालिया निशान लगना तय है |  

उत्तराखंड के मौजूदा हालातों और राजनेताओं के चाल , चलन और चेहरे को देखते हुए हमें इन गावों के  फिर से आबाद होने की उम्मीदें बेमानी लगती हैं क्युकि उत्तराखंड में विकास के बजाए मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने और बचाने का सियासी ड्रामा राज्य गठन के बाद से ही खेला जा रहा है शायद यही वजह है बीते 15 बरस में यह राज्य 8 मुख्यमंत्रियों का शासन देख चुका है और इन सबके के बीच क्या पता 2017 आते आते क्या पता यहाँ पर 9 वें मुख्यमंत्री का सियासी ड्रामा देखने को न मिल जाए ?   

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