Saturday 12 September 2020

जार्ज तुम सा नेता नहीं देखा

 

 

26 जून 1975 की  तपती दोपहरी  सभी की  नजर इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले पर जाती है जब इंदिरा ने आपातकाल लगाने का फैसला किया लेकिन आपातकाल की याद देश के पूर्व रक्षा मंत्री और दिवंगत समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस की जंजीरों वाली तस्वीर के बिना अधूरी रह जाती है।  ट्रेड यूनियन लीडर के रूप में सियासी करियर शुरू करने वाले धुर समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस भले ही इस दुनिया से रुखसत हो गए हों  लेकिन आजादी के बाद  इमरजेंसी के दौर की उनकी बेड़ियों से जकड़ी तस्‍वीर लोगों के जेहन में अभी भी कैद है। जब भी आपातकाल के क्रूर दौर का जिक्र होगा, उस दमन के विरोध के प्रतीकस्‍वरूप 'बागी' नेता जॉर्ज फर्नांडिज की उस तस्‍वीर का भी जिक्र होगा।  इसी कारण जॉर्ज को विद्रोही तेवर का नेता कहा गया । 1971 के आम चुनाव में 'गरीबी हटाओ' के नारे के साथ प्रचंड बहुमत 518 सीटें हासिल करने वाली इंदिरा गांधी ने जब उसी साल के अंत में पाकिस्‍तान को युद्ध में शिकस्‍त दी और बांग्‍लादेश दुनिया के नक्‍शे पर आया तो किसी दौर में 'गूंगी गुडि़या' कही जाने वाली इंदिरा गांधी को 'मां दुर्गा' कहा गया । उनको 'आयरन लेडी' कहा गया लेकिन अगले कुछ वर्षों के भीतर ही इंदिरा गांधी की सत्‍ता का इकबाल जाता रहा लिहाजा 25 जून, 1975 की आधी रात को देश में आपातकाल  की घोषणा कर दी गई ।  

मामला 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें उन्होंने अपने मुख्य प्रतिद्वंदी राज नारायण को पराजित किया  लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया, तय सीमा से अधिक खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया । अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया इसके बावजूद इंदिरा गांधी टस से मस नहीं हुईं । आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा क़ानून मीसा के तहत जिन राजनीतिक विरोधियों की गिरफ़्तारी की गई  उनमें जॉर्ज फ़र्नांडिस का नाम बड़े नेता के तौर पर शामिल था । इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया तो इसके विरोध में सभी पार्टियों ने देशभर में आंदोलन छेड़ दिया। जॉर्ज फर्नांडिस उस समय मजदूर नेता के रूप में उभरे थे ।वे अमेरिकी सम्राज्यवाद और विदेशी पूंजी के घोर विरोधी रहे लेकिन उन्होंने ही गुप्त रूप से सीआईए से मदद मांगी । ये बात बाद में विकीलीक्स के ज़रिए खुलकर समाने आ गई।

 जॉर्ज फर्नांडीस का जन्म  कर्नाटक के मंगलूर में  3 जून, 1930 को हुआ था।  जॉर्ज फर्नांडीस की  मां जॉर्ज पंचम की बहुत बड़ी प्रशंसक थी लिहाजा उन्होंने अपने सबसे बड़े बेटे का नाम जॉर्ज रखा। जॉर्ज अपने 6 बहन-भाई में सबसे बड़े थे। जॉर्ज को 16 साल की उम्र में पादरी बनने की शिक्षा लेने के लिए एक क्रिश्चियन मिशनरी में भेजा गया। लेकिन उनका मन इस शिक्षा में लगा नहीं और 18 साल की उम्र में वे चर्च छोड़ गए। इसके बाद रोजगार की तलाश में मुंबई पहुंचे जहाँ उन्हें जीवन का व्यवहारिक अनुभव हुआ। यहां वे चौपाटी पर सोया करते थे। अभावों में जीते हुए वे सोशलिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलनों के कार्यक्रम में भी लागतार भागीदारी करते थे। उस समय मुखर वक्ता डाक्टर राम मनोहर लोहिया उनके लिए प्रेरणा थे। श्रमिक आंदोलनों में भागीदारी करते हुए वर्ष 1950 के दौरान जॉर्ज फर्नांडिस टैक्सी ड्राइवर यूनियन के अग्रणी नेता बन गए। उनके नेतृत्व में ऐतिहासिक मजदूर आंदोलन हुए। इन आंदोलनों की बदौलत वे गरीबों के हीरो कहे जाने लगे।कहा तो यहां तक जाता है हिंदी फिल्मों के "ट्रेजिडी किंग " दिलीप कुमार को उनसे बहुत प्रेरणा मिला करती थी। अपनी फिल्मों की शूटिंग से पहले वह जार्ज की  सभाओ में जाकर अपने को तैयार करते थे।

 जार्ज को समझने ले लिए हमको 50 के दशक की तरफ रुख करना होगा। इसी दौर में  एक मजदूर नेता के तौर पर उन्होंने अपना परचम महाराष्ट्र की राजनीती में लहराया। यही वह दौर था जब उनकी राजनीति परवान पर गयी। 1950 आते-आते वे टैक्सी ड्राइवर यूनियन के बेताज बादशाह बन गए । बिखरे बाल, और पतले चेहरे वाले फर्नांडिस, तुड़े-मुड़े खादी के कुर्ते-पायजामे, घिसी हुई चप्पलों और चश्मे में खांटी एक्टिविस्ट लगा करते थे । कुछ लोग तभी से उन्हें अनथक विद्रोहीकहने लगे थे । आज की नयी नवेली पीढ़ी के पास इतनी भी फुर्सत नहीं कि वह उस दौर को जी ले जिसमें जॉर्ज जनता के सरोकारों की राजनीति करते  देश की राजनीति के पोस्टर बॉय के रूप में उभरे। वह भी एक दौर था जब देश की राजनीति का असली बैरोमीटर मुजफ्फरपुर हुआ करता था। यह भी एक दौर है जब मोदिनोमिक्स की बिसात तले समूची सियासत 360 डिग्री घूम चुकी है। 1967 के लोकसभा चुनावों में वे उस समय के बड़े कांग्रेसी नेताओं में से एक एसके पाटिल के सामने मैदान में उतरे । जार्ज को असली पहचान उस समय मिली जब 1967 में उन्होंने मुंबई में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता एस के पाटिल को पराजित कर दिया। लोकसभा में पाटिल जैसे बड़े नेता को हराकर उन्होंने उस समय लोक सभा में दस्तक दी। इस जीत ने जार्ज को राजनीति का महानायक बना दिया।बॉम्बे साउथ की इस सीट से जब उन्होंने पाटिल को हराया तो लोग उन्हें जॉर्ज द जायंट किलरभी कहने लगे ।  बाद में अपने समाजवाद का झंडा बुलंद करते हुए 1974  में वह रेलवे संघ के मुखिया बना दिए गए। उस समय उनकी ताकत को देखकर तत्कालीन सरकार के भी होश उड़ गए थे। जार्ज जब सामने हड़ताल के नेतृत्व के लिए आगे आते थे तो उनको सुनने के लिए मजदूर कामगारों की टोली से सड़के जाम हो जाया करती थी। बात 1974 की है, जब जॉर्ज फर्नांडिस ऑल इंडिया रेलवे मैन फेडरेशन के अध्यक्ष थे । उस दौरान उन्होंने रेलकर्मियों की मांगों को लेकर सबसे बड़ी हड़ताल कराई थी  ।उनकी मांगें पूरी नहीं की जा सकती थीं और जॉर्ज झुकने को तैयार नहीं हुए । श्रीपाद डांगे की सीपीआई की यूनियन एटक के हाथ से जॉर्ज ने आंदोलन बड़ी बड़ी मांगें करके अपने हाथ में ले लिया और जो सबसे बड़ी हड़ताल थी वो सबसे असफल हड़ताल भी बनी क्योंकि मज़दूरों की मांगें पूरी नहीं हो सकी जिससे 15 लाख से अधिक रेलकर्मियों के शामिल होने से मानो देश ही ठहर गया था । 30000 मज़दूर गिरफ्तार हुए लेकिन अति उत्साह में जॉर्ज ने हर समझौते से इनकार कर दिया । इस  दौरान हजारों को नौकरी और रेलवे की सरकारी कॉलोनियों से बेदखल कर दिया गया । कई जगह तो सेना  बुलानी पड़ी । इस निर्ममता का असर दिखा और तीन हफ्ते के अंदर हड़ताल खत्म हो गई  लेकिन इंदिरा गांधी को इसका हर्जाना भी भुगतना पड़ा और फिर वे जीते-जी कभी मजदूरों-कामगारों के वोट नहीं पा सकी। 

 जॉर्ज की सियासत को समझने के लिए हमें उस दौर में जाना होगा जब ट्रेड यूनियन आंदोलन को नयी धार देने में वह आगे न केवल रहे बल्कि जेपी के आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने और इंदिरा के खिलाफ आक्रोश को हवा देने में वह नई लकीर खींचते नजर आये। यही नहीं नीतीश कुमार, शरद यादव को मोहरा बनाकर लालू प्रसाद को राजनीति की बिसात में चेक देने से लेकर गैर कांग्रेस वाद का झंडा बुलंद करने में जॉर्ज हमेशा आगे रहे। वह मानते थे कि नेहरू परिवार देश की दुर्गति का सबसे बड़ा कारण है इसलिए समाजवादी पार्टी के कलकत्ता अधिवेशन में डॉ लोहिया ने पहली बार जब गैर-कांग्रेस का नारा दिया तो गैर-कांग्रेसवाद का झंडा बुलंद करने वालों में जॉर्ज फर्नांडिस आगे थे। जॉर्ज फर्नांडिस पर आरोप लगा कि वो किसी भी कीमत पर कांग्रेस पार्टी को सत्ता से उखाड़ना चाहते थे। इसके लिए उनपर रेल की पटरियों को डाइनामाइट से उड़ाने का षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया गया। डायनामाइट का इस्तेमाल कर जॉर्ज और उनके साथ सरकार के प्रमुख संस्थाओं और रेल पटरियों को उखाड़कर पूरे सिस्टम को हिला देना चाहते थे।

 फर्नाडीस को 10 जून, 1976 को कोलकाता में गिरफ्तार कर उन पर बहुचर्चित बड़ौदा डायनामाइट मामले में केस चलाया गया था। उन पर तत्कालीन इंदिरा सरकार का तख्तापलट करने की कोशिश में सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने का भी मुकदमा चलाया गया था। जॉर्ज फर्नांडिस ने भारत सरकार के खिलाफ खुले आम अमेरिका की जासूसी संस्था सीआईए और फ्रांस सरकार से भारत सरकार के खिलाफ मदद मांगी थी. विकिलीक्स के दस्तावेजों के मुताबिक, आपातकालीन विरोधी आंदोलन के तहत, जॉर्ज फर्नांडिस सरकारी संस्थानों को डायनामाइट से उड़ाना चाहते थे ।  अमेरिका विरोध के बाद भी 1975 में जॉर्ज फर्नांडिस ने कहा था कि वे इसके लिए सीआई से भी धन लेने के लिए तैयार हैं.विकिलीक्स ने बाकायदा खुलासा किया था कि पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने अपातकाल के दौरान अमेरिकी खुफिया एजेंसी 'सीआईए' और फ्रांस सरकार से आर्थिक मदद मांगी थी ।  जॉर्ज फर्नांडिस उस समय भूमिगत थे और सरकार विरोधी आंदोलन चला रहे थे।फर्नाडीस सरकार की गैरसंवैधानिक नीतियों का सशस्त्र विरोध करने के पक्षधर थे। इसके लिये हथियार की जरूरत थी और हथियार जुटाने के लिए जॉर्ज फर्नांडिस ने पुणे से मुंबई जाने वाली ट्रैन को लूटने का प्लान बनाया। दरअसल इस ट्रेन से सरकारी गोला बारूद भेजा जाता था।

आपातकाल के दौरान उन्होंने मुजफ्फरपुर की जेल से अपना नामांकन भरा और जे पीका समर्थन किया। तब जॉर्ज के पोस्टर मुजफ्फरपुर के हर घर में लगा करते थे। लोग उनके लिए मन्नते माँगा करते थे और कहा करते थे जेल का ताला टूटेगा हमारा जॉर्ज छूटेगा।

1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी तो उनको उद्योग मंत्री बनाया गया। उस समय उनके मंत्रालय में जया जेटली के पति अशोक जेटली हुआ करते थे। उसी समय उनकी जया जेटली से पहचान हुई। बाद में यह दोस्ती में बदल गयी और वे उनके साथ रहने लगी। लैला कबीर और जॉर्ज के किस्से राजनीति में सुने जाते हैं। लैला कबीर उनकी जिन्दगी में उस समय आ गयी थी जब वह मुम्बई में संघर्ष कर रहे थे। तभी उनकी मुलाकात तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री हुमायू कबीर की पुत्री लैला कबीर से हुई जो उस समय समाज सेवा से जुडी हुई थी। लैला के पास नर्सिंग का डिप्लोमा था और वह इसी में अपना करियर बनाना चाहती थी। बताया जाता है तब जॉर्ज ने ही उनकी मदद की और उनके साथ यही निकटता प्रेम सम्बन्ध में बदल गयी और 21 जुलाई 1971 को वो परिणय सूत्र में बढ़ गए।  इसके बाद कुछ वर्षो तक दोनों के बीच सब कुछ ठीक चला लेकिन जैसे ही जॉर्ज मोरार जी की सरकार में उद्योग मंत्री बनाये गए तो लैला कबीर जॉर्ज से दूर होती गईं। जॉर्ज अपने निजी सचिव अशोक जेटली की पत्नी जया जेटली के ज्यादा निकट चले गए। इस प्रेम को देखते हुए लैला कबीर ने अपने को जॉर्ज से दूर कर लिया और 31 अक्टूबर 1984 से दोनों अलग अलग रहने लगे | इसके बाद लैला दिल्ली के पंचशील पार्क में रहने लगी। वहीँ  जॉर्ज कृष्ण मेनन मार्ग में बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर एक दौर में लालू अपराजेय मान लिए गए थे।

 आपातकाल समाप्त होने के ठीक बाद 1977 में जेल से मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ने वाले जॉर्ज भारी मतों से जीते थे। यह चुनाव तानाशाही बनाम लोकशाही के रूप में जाना जाता था। जॉर्ज के खिलाफ कांग्रेस के नेता नीतेश्वर प्रसाद सिंह चुनाव लड़े थे। जॉर्ज की हथकड़ी लगी तस्वीर की चर्चा पूरे देश में रही। पूरा मुजफ्फरपुर इस तस्वीर से पाट दिया गया था।  1980 में जॉर्ज ने फिर मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ा। उनके खिलाफ कांग्रेस के रजनी रंजन साहू उम्मीदवार थे। इस बार भी जॉर्ज फर्नांडीस चुनाव जीते। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वर्ष 1984 के चुनाव में जॉर्ज साहब ने मुजफ्फरपुर का चुनावी मैदान छोड़ दिया और बेंगलुरु से भाग्य आजमाया लेकिन वह हार गए। वर्ष 1989 के चुनाव में जॉर्ज साहब फिर मुजफ्फरपुर लौटे और पूर्व केन्द्रीय मंत्री व कांग्रेसी उम्मीदवार ललितेश्वर प्रसाद शाही और 1991 में कांग्रेसी उम्मीदवार रघुनाथ पाण्डेय को पराजित किया। जॉर्ज वीपी सिंह सरकार में रेल मंत्री  रहे। उनके रक्षा मंत्री रहते पोखरण में परमाणु परीक्षण हुआ1996 के लोकसभा चुनाव में जॉर्ज ने नालंदा कूच किया और राजद उम्मीदवार विजय कुमार यादव को धूल चटाई  जॉर्ज  अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में रक्षा मंत्री भी रहे। उनके रक्षा मंत्री रहते पोखरण में परमाणु परीक्षण हुआ वहीँ  1999 में वामपंथी उम्मीदवार गया सिंह को पराजित किया। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में जॉर्ज साहब ने फिर मुजफ्फरपुर का रुख किया और  लोजपा के उम्मीदवार भगवानलाल सहनी को पराजित किया परन्तु  2009 के चुनाव में जयनारायण निषाद से से पराजित हो गए।

 15वीं लोकसभा का जब भी जिक्र होगा तो यह जॉर्ज के बिना अधूरा रहेगा। असल में मुजफ्फरपुर से जार्ज फर्नांडीज अक्सर चुनाव लड़ा करते थे लेकिन 15वीं लोकसभा में उनका पत्ता कट गया। नीतीश और शरद यादव की जोड़ी ने उनको टिकट देने से साफ़ मना कर दिया। इसके बाद यह संसदीय इलाका पूरे देश में चर्चा में आ गया था।  तब  नीतीश ने तो साफ़ कह दिया था अगर जार्ज यहां से चुनाव लड़ते है तो वह चुनाव लड़कर अपनी भद करवाएंगे।  पर जार्ज कहां मानते? उन्होंने निर्दलीय चुनाव में कूदने की ठान ली। आखिरकार इस बार उनकी नहीं चल पायी और उनको पराजय का मुंह देखना पड़ा।  जार्ज के चलते मुजफ्फरपुर में विकास कार्य तो तेजी से हुए लेकिन निर्दलीय मैदान में उतरने से उनकी राह आसान नही हो पायी।  लालू के शासन के तीसरे साल में जब जॉर्ज ने उन्हें सत्ता से नेस्तनाबूद करने की ठानी तो किसी को सहसा यकीं नहीं हुआ।  वह भी एक दौर आया जब 1995 के विधानसभा चुनाव में समता पार्टी महज सात सीटों पर सिमट गई तो यही कहा गया कि जॉर्ज की सियासत का अंत हो जायेगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।  पराजय के बाद शरद और नीतीश कुमार ठोस रणनीति के साथ मैदान में आए जिसमें लालू की जंगलराज की सियासत को घेरने का ब्रह्मास्त्र जॉर्ज ने ही छोड़ा। लालू के दुर्ग पर फतह पाने के लिए उन्होंने  भाजपा से दोस्ती की और एनडीए के संयोजक भी बने जिसमें बाजपेयी के साथ कई पार्टियों का कुनबा 1998 में जुड़ा। पहली बार विचाराधारा से इतर कोई दल एनडीए का घटक बना तो वह जॉर्ज की समता पार्टी थी। इसके बाद जॉर्ज एनडीए के संयोजक बने और उन्होंने कई दलों को एनडीए में लाने में अहम भूमिका निभाई। जॉर्ज की स्वीकार्यता ज्यादा होने के कारण उन्हें एनडीए का संयोजक बनाया गया और इस प्रकार कई दल एनडीए का हिस्सा बने। एनडीए के भीतर और बाहर दोनों जगह वाजपेयी के बाद उनकी स्वीकार्यता सर्वाधिक थी। 1998 से 2004 के बीच दो बार एनडीए की सरकार के गठन और विभिन्न मौकों पर उत्पन्न परिस्थितियों एवं मतभेदों के समाधान में जॉर्ज फर्नांडिस अहम भूमिका निभाते थे। इस प्रकार कांग्रेस के खिलाफ तीसरे मोर्चे की विफलता से जो स्थान रिक्त हो रहा था, उसे एनडीए ने पूरा किया। 1999 में रक्षामंत्री रहते हुए उन्होंने कारगिल से पाक सैनिकों को खदेड़ने में अहम भूमिका निभाई थी। वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में 1989 में वह रेल महकमे के ही मंत्री बने थे। इस सरकार में अधिकांश वामपंथी नेता थे। संघ विरोधी पर अटल सरकार में रहे जॉर्ज फर्नाडीस आरएसएस के कट्टर आलोचक थे लेकिन उन्होंने अटल सरकार में 19981999 में रक्षा मंत्री पद संभाला था। उन्हीं के नेतृत्व में भारत ने कारगिल युद्ध लड़ा और 1998 में पोकरण में परमाणु परीक्षण किए थे।जॉर्ज की छवि रक्षा सौदों में दलाली से लेकर तहलका तक में बहुत धूमिल हुई। 2000 आते-आते लालू प्रसाद की सत्ता को चुनौती मिली और बिहार में यह जुमला कहा जाने लगा समोसे में रहेगा आलू पर बिहार में नहीं रहेंगे लालू।  जार्ज के दौर में ही यह मिथक टूट गया था कि लालू अपराजेय हैं। केंद्रीय मंत्री के रूप में जॉर्ज हमेशा दो फैसलों के लिए जाने रहेंगे । 1977 में उन्होंने कोका कोला व आईबीएम को भारत से बाहर कर दिया था और 2002 में देश की दूसरी सबसे बड़ी तेल कंपनी एचपीसीएल को बेचने की प्रक्रिया में अड़ंगा लगाया था। 2002 में हुए ताबूत घोटाले में भी जॉर्ज फर्नांडिस पर आरोप लगे. ये ताबूत भी अमेरिका से खरीदे गए ।  आरोप लगा कि इन ताबूतों को लिए 13 गुना ज्यादा कीमत तय की गई    ये ताबूत सैनिकों के शव लाने ले जाने के लिए कारगिल युद्ध के बाद खरीदे गए थे लेकिन जार्ज अपनी स्पष्ट वादिता और मूल्यों की राजनीति के लिए हमेशा जाने जाते रहेंगे।  रक्षा सौदों में दलाली के मसले पर विपक्ष  ने उनको खूब घेरा लेकिन जॉर्ज इस्तीफ़ा देने से नहीं घबराये।  ऐसा कहा जाता है तहलका दाग लगाने में जया जेटली की बड़ी भूमिका रही। यही नही जॉर्ज को मुजफ्फरपुर से लोकसभा चुनाव लड़वाने  की रणनीति भी खुद जया की थी। इस हार के बाद उनको राज्यसभा में भेजने की कोई जरुरत नहीं थी।वैसे भी एक दौर में जॉर्ज कहा करते थे समाजवादी कभी राज्यसभा के रास्ते "इंट्री" नहीं करते।इन सब बातों के बावजूद भी उनका राज्यसभा जाना मेरे मन में कई बार सवालों को पैदा करता था। यही नहीं शरद-नीतीश की जोड़ी का हाथ पकड़कर उनको राज्यसभा पहुंचाना कई बार उनकी समाजवादी उनकी छवि पर ग्रहण लगाता था।जॉर्ज भारत के एकमात्र रक्षामंत्री रहे जिन्होंने  सियाचिन ग्लेशियर का 18 बार दौरा किया था । मंत्री रहते हुए जॉर्ज के बंगले के दरवाजे कभी बंद नहीं होते थे और अपने काम स्वयं किया करते थे  । जॉर्ज भले ही आज भले ही हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन भारतीय राजनीति के इतिहास में हमेशा उनको संघर्षशील , जिंदादिल और सादगीपूर्ण और शालीन नेता के तौर पर याद किया जाता रहेगा जिसने अपनी राजनीति से जनता के सरोकारों की हमेशा फ़िक्र की।

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