'स्टार बेस्टसेलर्स’ और 'चाणक्य’ जैसी टीवी सीरीज में नजर आने वाला वह मेंढक जैसी बड़ी आंखों वाला अभिनेता सिल्वर स्क्रीन पर देश की सबसे रईस फिल्मी प्रोफाइल वाला सेलेब्रिटी बनता जा रहा था । खुद सोचिए अगर ऐसा नहीं होता तो आंग ली जैसे दुनिया के सबसे प्रशंसित निर्देशक की बहुप्रतीक्षित फिल्म 'लाइफ ऑफ पी’ में वह क्यों लिया जाता? स्पाइडरमैन फ्रैंचाइजी की फिल्म 'द अमेजिंग स्पाइडरमैन’ के लिए जब सिर्फ एक फिल्म पुराने निर्देशक मार्क वेब ने कास्टिंग करनी शुरू की तो उसे ही क्यों चुना? वह एक्टर बड़े परदे पर इस बार जब उतरा तो ख्यात एथलीट और कुख्यात डकैत पान सिंह तोमर बनकर उसने सबके रोंगटे ही खड़े कर दिए । पान सिंह का इंटरव्यू लेने कोई जर्नलिस्ट आती है। पूछती है, “डकैत कैसे बने” तो वह कहता है, “आपको समझ नहीं आया। बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में”। सिंह, मा****। याद रखना, अगर हार गया तो तुझे मार-मारकर यहीं के यहीं गाड़ दूंगा।" जब पान सिंह जीत जाता है तो रंधावा बड़े राजी होते हैं, शाबासी देते हैं, पर वह कुछ नाराज है। रंधावा जब उससे पूछते हैं, तो वह रुआंसा होकर कहता है, "कोच साब आप गुरू हैं, लेकिन दोबारा मां की गाली नहीं देना। हमारे गांव में मां की गाली देने वाले को हम गोली मार देते हैं।" इतना कहकर वह रंधावा के पैर छू लेता है। और वो उसे गले लगा लेते हैं।पान सिंह नेशनल बाधा दौड़ के ट्रैक पर दौड़ रहा है। कोच रंधावा (राजेंद्र गुप्ता) को जब लगता है कि वह धीरे दौड़ रहा है तो चिल्लाकर कहते हैं, "ओए पान अब देखिए कि कितना सहज लेकिन धमाकेदार सीन है। ये फिल्म कुछ ऐसी ही है।
"दि लंच बॉक्स" में खाने और लंच बॉक्स के माध्यम से संचार और सहज इंसानी भावों को वह दर्शकों के सामने इतनी सहजता से निभाता है कि आप अपने आस-पास कहीं किसी लंच बॉक्स में ऐसी ही कहानी ढूढ़ने लग जाते हैं। फिल्म "कारवां" में गमगीन परिस्थिति में वे किसी आम व्यक्ति की तरह मदद करने की कोशिश करते हैं। वहीं "करीब-करीब सिंगल" में जिंदादिल आदमी का किरदार वे इतनी शिद्दत से निभाते हैं कि आप उनके फैन हो ही जाते हैं। ‘हासिल’ का डायलॉग “और जान से मार देना बेटा, हम रह गये ना, मारने में देर नहीं लगायेंगे,भगवान कसम आज भी लोगों कि जुबान पर चढ़ जाता है ।"अंग्रेज़ी मीडियम" के ट्रेलर इंट्रो में वे कहते हैं- “हैलो भाईयों एवं बहनों, ये फिल्म अंग्रेज़ी मीडियम मेरे लिए बहुत खास है। सच, यकीन मानिये कि मेरी दिली इच्छा थी कि इस फिल्म को उतने ही प्यार से प्रमोट करूं जितने प्यार से हम लोगों ने इसे बनाया है। लेकिन मेरे शरीर के अंदर कुछ अनवांटेड मेहमान बैठे हुए हैं, उनसे वार्तालाप चल रहा है, देखते हैं किस करवट ऊंट बैठता है। जैसा भी होगा, आपको इत्तला कर दी जाएगी।"इरफ़ान आगे कहते हैं- "कहावत है सच में जब जिंदगी आपके हाथ में नींबू थमाती है तो शिकंजी बनाना बहुत मुश्किल हो जाता है लेकिन आपके पास और चॉयस भी क्या है, पॉजिटिव रहने के अलावा। फिलहाल, हाथ में नींबू की शिकंजी बना पाते हैं या नहीं बना पाते हैं. यह आप पर है | यह सकारात्मकता ही इमरान को इतने बड़े अभिनेता के रूप में स्थापित करती है। 'हासिल' फ़िल्म इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति पर बनी थी और इरफ़ान का जीवंत अभिनय देखने लायक था "...और जान से मार देना बेटा, हम रह गये ना, मारने में देर नहीं लगायेंगे, भगवान कसम!" ये हैं इरफान खान की एक्टिंग जिसका तोड़ फिलहाल किसी के पास नहीं है ।
इरफ़ान ने कुछ समय पहले अपना अंतिम पत्र लिखा जिसमें कहा 'कुछ महीने पहले अचानक मुझे पता चला कि मैं न्यूरोएन्डोक्राइन कैंसर से जूझ रहा हूं, मेरी शब्दावली के लिए यह बेहद नया शब्द था, इसके बारे में जानकारी लेने पर पता चला कि यह एक दुर्लभ कैंसर की बीमारी है और इसपर अधिक शोध नहीं हुए हैं। अभी तक मैं एक बेहद अलग खेल का हिस्सा था। मैं एक तेज भागती ट्रेन पर सवार था, मेरे सपने थे, योजनाएं थीं, आकांक्षाएं थीं और मैं पूरी तरह इस सब में बिजी था। तभी ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे कंथे पर हाथ रखते हुए मुझे रोका। वह टीसी था: 'आपका स्टेशन आने वाला है, कृपया नीचे उतर जाएं। ' मैं परेशान हो गया, 'नहीं-नहीं मेरा स्टेशन अभी नहीं आया है.' तो उसने कहा, 'नहीं, आपका सफर यहीं तक था, 'कभी-कभी यह सफर ऐसे ही खत्म होता है'।इस सब के बीच मुझे बेइंतहां दर्द हुआ | इस सारे हंगामे, आश्चर्य, डर और घबराहट के बीच, एक बार अस्पताल में मैंने अपने बेटे से कहा, 'मैं इस वक्त अपने आप से बस यही उम्मीद करता था कि इस हालत में मैं इस संकट से न गुजरूं । मुझे किसी भी तरह अपने पैरों पर खड़े होना है। मैं डर और घरबाहट को खुद पर हावी नहीं होने दे सकता। यही मेरी मंशा थी... और तभी मुझे बेइंतहां दर्द हुआ।
दुनिया में महज़ एक ही चीज निश्चित है वो अनिश्चितता है । 'जब मैं दर्द में, थका हुआ अस्पताल में घुस रहा था, तब मुझे एहसास हुआ कि मेरा अस्पताल लॉर्ड्स स्टेडियम के ठीक सामने है। यह मेरे बचपन के सपनों के 'मक्का' जैसा था. अपने दर्द के बीच, मैंने मुस्कुराते हुए विवियन रिचर्ड्स का पोस्टर देखा। इस हॉस्पिटल में मेरे वॉर्ड के ठीक ऊपर कोमा वॉर्ड है। मैं अपने अस्पताल के कमरे की बालकॉनी में खड़ा था, और इसने मुझे हिला कर रख दिया। जिंदगी और मौत के खेल के बीच मात्र एक सड़क है। एक तरफ अस्पताल, एक तरफ स्टेडियम। मैं सिर्फ अपनी ताकत को महसूस कर सकता था और अपना खेल अच्छी तरह से खेलने की कोशिश कर सकता था । इस सब ने मुझे अहसास कराया कि मुझे परिणाम के बारे में सोचे बिना ही खुद को समर्पित करना चाहिए और विश्वास करना चाहिए, यह सोचा बिना कि मैं कहां जा रहा हूं, आज से 8 महीने, या आज से चार महीने, या दो साल । अब चिंताओं ने बैक सीट ले ली है और अब धुंधली से होने लगी हैं। पहली बार मैंने जीवन में महसूस किया है कि 'स्वतंत्रता' के असली मायने क्या हैं.'एक उपलब्धि का अहसास। इस कायनात की करनी में मेरा विश्वास ही पूर्ण सत्य बन गया। उसके बाद लगा कि वह विश्वास मेरे हर सेल में पैठ गया। वक़्त ही बताएगा कि वह ठहरता है कि नहीं! फ़िलहाल, मैं यही महसूस कर रहा हूं।
इस सफ़र में सारी दुनिया के लोग...सभी, मेरे सेहतमंद होने की दुआ कर रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं, मैं जिन्हें जानता हूं और जिन्हें नहीं जानता, वे सभी अलग-अलग जगहों और टाइम ज़ोन से मेरे लिए प्रार्थना कर रहे हैं। मुझे लगता है कि उनकी प्रार्थनाएं मिल कर एक हो गयी हैं… एक बड़ी शक्ति… तीव्र जीवनधारा बन कर मेरे स्पाइन से मुझमें प्रवेश कर सिर के ऊपर कपाल से अंकुरित हो रही है।अंकुरित होकर यह कभी कली, कभी पत्ती, कभी टहनी और कभी शाखा बन जाती है… मैं खुश होकर इन्हें देखता हूं। लोगों की सामूहिक प्रार्थना से उपजी हर टहनी, हर पत्ती, हर फूल मुझे एक नयी दुनिया दिखाती है।अहसास होता है कि ज़रूरी नहीं कि लहरों पर ढक्कन (कॉर्क) का नियंत्रण हो… जैसे आप क़ुदरत के पालने में झूल रहे हों!
इरफान ने सिनेमाई स्क्रीन में जो मुकाम हासिल किया, उसके पीछे काम के प्रति उनका गहरा जूनून रहा । बहुत कम लोगों को यह बात मालूम है कि इरफान बचपन में एक दौर में क्रिकेटर हुआ करते थे और क्रिकेटर बनना चाहते थे जिसके लिए वह सी के नायडू ट्राफी भी खेल चुके थे लेकिन क्रिकेट के चौके और छक्कों के बीच उन्होंने अभिनय में भी दो दो हाथ करने की ठानी और गली-मोहल्ले में नुक्कड़ नाटक करने लगे । इरफान का ये शौक उन्हें जयपुर के रबीन्द्र मंच से दिल्ली के मशहूर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में ले आया । एनएसडी से एक्टिंग की ट्रेनिंग लेने के बाद इरफान सीधे मुंबई पहुंचे और यहां के संघर्ष से उन्हें नई पहचान मिली । एक दौर ऐसा था कि रोजी-रोटी के लिए इरफान हर तरह के किरदार करने लगे, कई टी.वी. शो में उन्होंने छोटे रोल किए । 1990 में आई फिल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ में उनका एक छोटा सा रोल मिला लेकिनं ख़ास पहचान नहीं मिल पाई । इरफान ने 1994 में सीरियल 'द ग्रेट मराठा नजीबुद्दौला' में रोहिल्ला सरदार और 1992 में सीरियल 'चाणक्य' में सेनापति भद्रसाल का किरदार निभाया था। 2002 में रिलीज हुई आसिफ कपाड़िया की फिल्म ‘द वारियर’ ने इरफान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। इसके बाद 2003 में आई इरफान की फिल्म ‘हासिल’ और 2004 में ‘मकबूल’ रिलीज हुई जिसने इरफान को हिंदी सिनेमा में न सिर्फ शोहरत दिलाई बल्कि उनके अभिनय की धाक जमाई ।
इसके बाद तो इरफान ने बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड में भी अपने अभिनय का लोहा मनवाया । अमेजिंग स्पीडर मैन, ए माइटी हार्ट में इरफ़ान ने अपनी एक्टिंग से सबका दिल जीत लिया। हॉलीवुड की ‘द अमेजिंग स्पाइडरमैन‘ (2012) में इरफान ने एक विलेन का रोल किया था। 2007 में आयी एंजेलिना जोली की ‘ए माइटी हार्ट‘ हो, 2015 में आयी ‘जुरैसिक पार्क‘ हो या फिर ‘द नेमसेक‘ हो इरफान ने अपने फैंस के दिलों को जीतने में कोई कमी नहीं छोड़ी।इरफान ने लगभग सभी किरदार निभाये फिर चाहे वो छोटा किरदार हो या बड़ा, किसी चोर-चरसी का किरदार हो, चाहे पुलिस वाला या सड़कछाप गुंडा हो, नवाब या डकैत से लेकर एक प्रेमी, एक मंगेतर, एक पति तक। इसी दौर में 'लाइफ इन अ मेट्रो', 'स्लमडॉग मिलेनियर', 'न्यूयॉर्क' जैसी फिल्मों ने इरफ़ान की प्रतिभा को सबके सामने लाने का काम किया । किस्सा , दी वारियर , न्यू यॉर्क , ब्लेकमेल , साहेब बीवी और गैंगेस्टर , ये साली जिन्दगी , पीकू , कारवां , मदारी , फेवरेट , तलवार , बिल्लू बारबर, पार्टीशन, नाक आउट , इनफैरनो, हैदर" और "तलवार में उनके दमदार अभिनय की दुनिया भर में सराहना हुई । इन सभी फिल्मों में इरफ़ान की एक्टिंग देखने लायक थी । आस्कर जीतनेवाली फ़िल्म "स्लमडॉग मिलियनेयर" (2008) में पुलिस इंस्पेक्टर का छोटा किरदार भी जिया । ओम पुरी के बाद इरफ़ान अकेले ऐसे अभिनेता थे जिनका डंका विश्व सिनेमा में बजता था । ” द वारियर ” ( आसिफ कपाड़िया, 2001), ” द नेमसेक ” ( मीरा नायर, 2006) ” ” अ माईटी हार्ट” ( विलियम विंटरबाटम, 2007),” “स्लमडाग मिलिनायर”( डैनी बायले, 2008), ” लाइफ आफ पाई”(अंग ली, 2012) , ” किस्सा ” ( अनूप सिंह, 2014), ” इनफरनो “( रोन हावर्ड, 2016) आदि कई अंतरराष्ट्रीय फिल्मों में उनका काम बेमिसाल रहा ।
इरफान बीते बरस ही लंदन से इलाज करवाकर लौटे थे और लौटने के बाद के डॉक्टरों की देखरेख में चेकअप करवा रहे थे। 2018 में उन्होंने सोशल मीडिया पर पोस्ट कर बताया था कि वह न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर से पीड़ित हैं जिसके बाद वह लंदन अपने इलाज के लिए रवाना हुए और लम्बे समय लंदन में रहकर इलाज करा रहे थे । हाल ही में इरफ़ान ख़ान की मां सईदा बेगम का जयपुर में निधन हो गया। लॉकडाउन की वजह से इरफ़ान अपनी मां की अंतिम यात्रा में शरीक नहीं हो पाए थे और वीडियो कॉल के ज़रिए ही उन्होंने मां के जनाज़े में शिरकत की थी। मां की मौत के महज चार दिन बाद ही इरफान खान का इंतकाल हो गया । इरफान 2018 से न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर नामक बीमारी से जूझ रहे थे। कैंसर की बीमारी से निजात पाने के बाद पिछले साल उन्होंने फिल्म ‘अंग्रेजी मीडियम’ के जरिए वापसी की थी। यह फिल्म इस 13 मार्च को रिलीज हुई थी लेकिन होली के बाद लगे लॉकडाउन के चलते यह सिनेमाघरों में ज्यादा दिन नही चल पाई थी।
अपने तीन दशक के करियर में उन्होनें 50 से अधिक राष्ट्रीय फिल्मों और धारावाहिकों में अभिनय किया है। इतने कम समय में ही इरफान का नाम विशिष्ट कहे जाने वाले अभिनेताओं की श्रेणी में आ गया था।यह सब उनकी मेहनत और लगन का नतीजा है । 2004 में हासिल मूवी में खलनायक की भूमिका के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला वहीँ 2008 में इरफान को फ़िल्म "लाइफ इन ए मेट्रो" के लिए फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार से नवाजा गया । 60वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 2012 में इरफ़ान खान को फिल्म "पान सिंह तोमर" में अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला वहीँ 2018 में हिंदी मीडियम के लिए उनको फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला ।
विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘हैदर’ में इरफान खान का एक डायलॉग हैः
“दरिया भी मैं, दरख्त भी मैं
झेलम भी मैं, चिनार भी मैं
दैर हूं, हरम भी हूं
शिया भी हूं, सुन्नी भी हूं
मैं हूं पंडित… मैं था, मैं हूं और मैं ही रहूंगा.”
सही में कम समय में इरफ़ान को इतना बड़ा ओहदा उन्हें विरासत में नहीं मिला बल्कि यह उनकी लगन और मेहनत से हासिल किया । मृत्यु एक शाश्वत सत्य है जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं है । सिनेमा जगत के लिए उनके निधन की भरपाई करना आसान नहीं होगा | उनके निधन की खबर से अभी तक उनके तमाम प्रशंसक और परिवार वाले सदमे में हैं। इरफान खान अपने पीछे पत्नी सुतापा सिकदर और दो बेटे अयान और बाबिल खान को छोड़ गए हैं।आज इरफान हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अपनी फिल्मों से भावी पीढ़ी यह जान पायेगी कि इरफान खान होने के क्या मायने थे | आज भले ही वे इस दुनिया को छोड़ गए लेकिन अपने जीवंत अभिनय से इरफान ने अपनी अलहदा पहचान कायम की | इरफान चाहे वास्तविक तौर पर यहां अब शायद मौजूद न हो लेकिन वो हमेशा लाखों करोड़ों के दिलों में जिंदा रहेंगे। उनके किरदार और डायलाग हमेशा के लिए अमर रहेंगे ।
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