Sunday, 27 January 2013

चिंतन, चुनावी आहट और राहुल का ट्रेलर .......

हिंदी सिनेमा में सत्तर का दशक  बालीवुड  के लिए  नायाब तोहफा है  । इस दशक को अगर याद करें तो  स्टारडम का क्रेज असल में यहीं से शुरू होता है । इसी दौर में अमिताभ बच्चन परदे पर एंग्री यंग मैन की छवि 'दीवार' के जरिये गढ़ते हैं और शशि कपूर उनके सामने आते हैं । अमिताभ कहते हैं मेरे पास गाड़ी है ,बंगला है , बैंक बैलेंस है?  तुम्हारे पास क्या है ? तो जवाब में शशि कपूर कहते हैं "मेरे पास माँ है " । 

अब परदे से इतर राजनीती के  मैदान में कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी अपनी इसी छवि को एंग्री यंग मैन के आसरे मतदाताओ के सामने गढ़ने की कोशिश इन दिनो कर रहे हैं क्युकि जयपुर के चिंतन शिविर से निकला सन्देश साफ़ है । इस दौर में जहाँ राहुल को 2014 की बिसात को अपने बूते बिछाना है वहीँ देश की युवा आबादी जिसकी तादात तकरीबन 65 फीसदी से ज्यादे है उसको कांग्रेस के पाले में लाना है । देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी  पार्टी कांग्रेस ने जयपुर में चिंतन कर राहुल को चुनावी कमान सौंपकर 2014 से पहले जनता को राहुल का ट्रेलर सही मायनों में दिखा दिया है । बीते दिनों जहाँ धोनी की अगुवाई में टीम इंडिया  ने इंग्लैंड की टीम को  रांची में शिकस्त देकर अपने को नम्बर वन  बनाया , वहीँ कांग्रेस ने जयपुर के चिंतन के आसरे राहुल को उपाध्यक्ष बनाकर उन्हें पार्टी में नम्बर 2 का ओहदा दे ड़ाला ।  

सोनिया गाँधी के साथ ही पूरी पार्टी ने युवा कार्ड खेलकर राहुल गाँधी को  नई  जिम्मेदारी देने  में किसी तरह की हिचक नहीं दिखाई । 42 वर्षीय राहुल गाँधी को उपाध्यक्ष बनाये जाने की खबर चिंतन शिविर के अंतिम दिन जैसे ही आई वैसे ही पूरे देश भर में कांग्रेस जश्न से सरोबार हो गई ।  पहले कांग्रेस में राहुल गाँधी महासचिव हुआ करते थे अब उन्हें पार्टी ने उपाध्यक्ष के तौर  पर प्रमोट किया है  । पार्टी में अपरोक्ष रूप से उनकी गिनती सोनिया के बाद ही होती थी अब भी वह पार्टी में उनके बाद ही गिने जायेंगे सिर्फ पद का बदलाव उनके लिए किया गया है । इस लिहाज से देखें तो राहुल की इस नई  ताजपोशी को एक बड़े क्रांतिकारी बदलाव के रूप में देखने की जरुरत नहीं है । 

   हालांकि  हमें यह नहीं भूलना चाहिए  चुनाव समिति की कमान राहुल को सौपकर कांग्रेस 2014 की बिसात बिछाने में लग गई  है ।  उपाध्यक्ष बनाये  जाने के बाद जिस अंदाज में राहुल ने अपना भाषण दिया वह अकसर हर नेता बड़े बड़े मंच से देता रहता है और इसको  जमीनी हकीकत में बदलना आसान भी नहीं रहता  लेकिन राहुल के भाषण में भावनात्मकता का भाव जहाँ  दिखा वहीँ  पार्टी के कैडर को प्रभावित करने के लिए उन्होंने जिन बातो का जिक्र किया उससे सभी राजनीतिक दल इस दौर में जूझ रहे है । फिर भी भावनाओ के जरिये राहुल यह अहसास कराने में तो कामयाब ही रहे कि अब कांग्रेस में संगठन की मजबूती के साथ जनाधार बढाने की कोशिशो को अमली जाम पहनाने  का सही समय आ गया है । राहुल ने कांग्रेस की जिन कमियों का जिक्र अपने संबोधन में किया वह  नई नहीं हैं क्युकि इसका जिक्र वह पहले भी कई बार मंचो से करते रहे हैं लेकिन जनता उनसे जवाब चाह रही है बीते आठ बरस में उनके द्वारा इस सिस्टम को सुधारने के क्या प्रयास किये गए जब वह खुद पार्टी के महासचिव बनकर पार्टी का झंडा थामे हुए हैं  ।
  मसलन राहुल अगर सत्ता को जहर मान रहे हैं तो सवाल उठाना लाजमी है अगर ऐसा है तो वह राजनीती के अखाड़े में अपने कदम क्यों बढ़ा  रहे हैं ? टिकट के बटवारे में अगर कांग्रेस के आम कार्यकर्ता की उपेक्षा इस दौर में हुई है तो इसका दोष किसका है जब उनका पूरा परिवार राजनीती में दशको से है और खुद सोनिया पिछले एक दशक से ज्यादा समय से कमान अपने हाथ में थामे हुई हैं ? सभी को मालूम है मनमोहन के दौर में सत्ता का असल केंद्र दस जनपथ बना है लेकिन राहुल कांग्रेस  को नए सिरे से परिभाषित करने पर जोर देते नजर आ रहे हैं । राहुल देश भर में ब्लाक स्तर पर नए नेता तैयार करने पर जोर दे रहे हैं लेकिन राज्यों और संगठन में कांग्रेस के बड़े नेताओ की गुटबाजी इतनी ज्यादा है कि हर चुनाव में यह पार्टी का खेल खराब ही  कर रही है  और नेताओ में आपसी सामंजस्य  का अभाव साफ़ देखा जा सकता है । इसके बाद भी वह यह सब कहकर इसका दोष किसके मत्थे  आखिर गढ़ना चाहते हैं ? 


कांग्रेस ने  राहुल को उपाध्यक्ष तो घोषित कर दिया है लेकिन भावी  प्रधानमंत्री के रूप में  पेश करने पर सस्पेंस अभी भी बरकरार है । पार्टी अभी उनके नाम को प्रोजेक्ट करने से डर  रही है संभव हो इसके पीछे लोक सभा चुनावो की तैयारिया छिपी हुई हों लेकिन जयपुर के चिंतन के जरिये कांग्रेस ने यह सन्देश देने में सफलता पायी है आज का युग गठबंधन राजनीती का है और आगे भी इसी के इर्द गिर्द भारतीय राजनीती सिमट कर रहेगी शायद यही सोचकर  कांग्रेस ने इस बात पर जोर दिया है अब आने वाले दिनों में उसे अपने लिए नए सहयोगियों की तलाश तो शुरू करनी ही होगी क्युकि अपने बूते वह तीसरी बार सत्ता पर काबिज नहीं हो सकती । पचमढ़ी में जहाँ एकला चलो रे का नारा  दिया गया था वहीँ शिमला में गठबंधन वाली लीक पर कांग्रेस चली थी । अब इस दौर में जयपुर में भी चिंतन राहुल और उनकी भावी राजनीती के मद्देनजर नए सहयोगियों को गठबंधन के आसरे अमली जामा पहनाने की कोशिशे शुरू होने  वाली हैं । 

कांग्रेस के निशाने पर 2014 है और नजरें युवा वोट बैंक पर हैं शायद तभी राहुल को बड़ा चेहरा  बनाने  की कोशिश जयपुर चिंतन के जरिये उसके द्वारा की गई है ।  उपाध्यक्ष  पद पर इस ताजपोशी ने वंशवाद की परंपरा को आगे बढाने की कांग्रेसी  पृष्ठभूमि की एक ननई  इबादत भी लिख डाली है और अब राहुल अपने युवा साथियो के साथ संगठन में जिन चेहरों को जगह देंगे उसमे भी इसकी छाप  दिखाई देगी । वैसे भी वैसे अभी राहुल की कोर टीम में   सचिन पायलट , ज्योतिरादित्य , जितिन  प्रसाद, ज्योति मिर्धा ,अरुण यादव,  संदीप दीक्षित ,अन्नू टंडन , प्रिया  दत्त सरीखे जो चेहरे शामिल हैं उन्हें राजनीती विरासत में ही मिली है । आने वाले दिनों में यही लोग उनकी टीम में अपनी दुबारा  जगह बनाने में कामयाब रहेंगे । युवा कार्ड खेलकर कांग्रेस ने सिर्फ और सिर्फ परिवारवाद की अमरबेल को बढाने का ही काम किया है । शायद राहुल यह भूल रहे हैं वह अपनी पार्टी में चाटुकारों की एक बड़ी टोली से घिरे हैं और यही चाटुकारों की टोली  हर चुनाव में कांग्रेस का खेल खराब कर रही है ।बेहतर होगा वह इन सबसे पिंड  छुड़ाकर कांग्रेस में नयी  जान फूंके । परिवारवाद द्वारा केवल कांग्रेस ने  केवल अपनी पीड़ी को  आगे बढाने का ही काम किया है । भारत के सम्बन्ध में इसे देखे तो हिन्दुस्तान में यह एक क्रांतिकारी घटना है जहाँ नेहरु गाँधी परिवार का सत्ता में वर्चस्व पिछले कई दशको से बरकरार है और अब उसकी पांचवी पीड़ी राजनीती के मैदान में है । 


दरअसल कांग्रेस में आजादी के बाद से ही परिवारवाद के बीज बोये जाने लगे थे । इसकी शुरुवात तो हमें मोतीलाल नेहरु के दौर से ही देखने को मिलती है जब कांग्रेस के कई नेताओ के न चाहते हुए उन्होंने जवाहरलाल नेहरु को कमान दे दी थी । महात्मा  गाँधी तो कभी नहीं चाहते थे आजादी के बाद कांग्रेस उनके नाम का उपयोग करे । शायद तभी गाँधी ने आजादी के बाद कांग्रेस को भंग करने की मांग की थी लेकिन नेहरु ने उनकी एक ना सुनीं । जवाहर ने भी मोतीलाल वाली लीक पर चलकर न केवल इंदिरा को उस दौर में अध्यक्ष बनाया तब उनकी उम्र भी महज 42 बरस की थी । उस दौर को अगर हम याद करें तो कांग्रेस के पास कई अच्छे चेहरे थे प्रति जिनको वह  आगे कर सकती थी लेकिन इंदिरा की बादशाहत को कोई चुनौती  नहीं दे सका ।  इंदिरा से पहले का एक दौर शास्त्री वाला भी हमें देखने को मिलता है जहाँ उन्होंने अपनी उपयोगिता को सही मायनों में साबित करके दिखाया लेकिन इसके बाद कांग्रेस ने नेहरु गाँधी परिवार के नाम को भुनाने का काम ही किया । इंदिरा एक दौर में तानाशाह भी बनी, किसी ने उन्हें दुर्गा कहा तो किसी ने गूंगी गुडिया भी कहा । वहीँ कई लोगो ने उनके नेतृत्त्व की सराहना भी की लेकिन इंदिरा के बाद संजय, राजीव , सोनिया और अब राहुल सब अपने परिवार के आसरे हर दौर में आगे रहे । सभी ने अपने परिवार से इतर किसी को सत्ता के  केंद्र में आने से रोका । नरसिंह राव वाला दौर अलग दौर रहा । उस समय पार्टी  की अगुवाई करने से सोनिया ने साफ़ इनकार कर दिया था लेकिन सीताराम केसरी के  दौर के बाद उन्होंने कमान न केवल अपने हाथ में ली वरन खड्डे में जाती कांग्रेस की नाव को भवसागर पार लगाया था । उस दौर में उन्होंने  2004 में न केवल प्रधान मंत्री का पद ठुकरा कर  अनूठी  मिसाल कायम की । लेकिन मनमोहन के दौर  में भी मनमोहन मजबूरी का नाम पी ऍम बने रहे।  असल नियंत्रण का केंद्र तो दस जनपथ  ही बना रहा |

कुछ समय पहले तक राहुल गाँधी को भी राजनीती में आने से परहेज था लेकिन वह भी न चाहते हुए राजनीती में आये । आज से 8 साल पहले जब यू पी  के चुनावो में  राहुल को स्टार बनाकर कांग्रेस ने उतारा तो उन्हें किसी ने गंभीरता के साथ नहीं सुना ।  किसी ने  राहुल पर राजनीती को जबरन थोपे जाने के आरोप भी लगाये तो  कुछ लोगो ने तो राहुल की तुलना राजीव गाँधी  से कर डाली तो कुछ राहुल में राजीव गाँधी का  अक्स देखते पाए गए लेकिन राजीव का दौर वर्तमान दौर से बिलकुल अलग है । तब कांग्रेस को चुनौती  देने वाली पार्टी कोई नहीं थी तो वहीँ आज रीजनल पार्टिया देश की राजनीती को सही मायनों में प्रभावित कर रही है । भाजपा और कांग्रेस इस दौर में बड़े दल जरुर है लेकिन दोनों अपने बूते सत्ता में नहीं आ सकते शायद तभी इस दौर में गठंधन एक  सच्चाई  बन चुकी है । ऐसे माहौल में कांग्रेस के सामने चुनौतियों का पहाड़ ज्यादा है और एंटी इन्कम्बेंसी का भी खतरा बना है और उसकी नज़रे अब युवा वोट बैंक पर लगी दिख रही हैं । 


जयपुर के चिंतन के जरिये राहुल ने कांग्रेस  को नए रूप में ढालने का जो मंत्र  दिया है अह आने वाले दिनों में कितना कारगर होगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए केवल राहुल को  उपकप्तान बनाने से अब कांग्रेस के अच्छे  दिन नहीं आने  वाले हैं क्युकी राहुल भी इस दौर में चाटुकारों की बड़ी टीम से घिरे हुए हैं और इसी टीम के साथ मिलकर वह यू पी और बिहार चुनाव में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा  चुके  है जहाँ पर  कांग्रेस को करारी  शिकस्त खाने पर मजबूर होना पड़ा  । यू पी  में एक दौर में प्रचार कर जहाँ उन्होंने अपरिपक्व नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाई वहीँ कांग्रेस की सीटें भी नहीं बढाई । अभी भी अगर 2014 में राहुल के सामने अगर खुदा  ना खास्ता मोदी सामने आते हैं तो राहुल का जलवा फेल  ही रहने वाला है  । गुजरात में इस बार भी अंतिम दिनों में चुनाव प्रचार में जहाँ जहाँ राहुल गए वहां कांग्रेस की करारी हार हुई । राहुल को अब यह समझना होगा बिना पार्टी का संगठन  खड़े किये बिना कांग्रेस के अच्छे दिन नहीं आने वाले हैं । राहुल को सरकार की नीतियों को जनता तक पहुचाना होगा और संगठन में नेताओ के नाते रिश्तेदारों को हटाना पड़ेगा । आज भी अधिकाश पदों पर कांग्रेस के मंत्रियो के रिश्तेदार महत्वपूर्ण पदों पर कुंडली मारकर बैठे हैं ।  2014 के लोक सभा चुनाव की  डुग डुगी  बजने में 15 माह से भी कम का समय बचा है । इतने कम समय में  संगठन मजूत हो जाएगा और सही टिकटों का बटवारा होगा यह सब संभव नहीं दिखाई देता । यह समय ऐसा है जब आम आदमी का मनमोहनी नीतियों से मोहभंग हो गया है । सरकार कॉर्पोरेट पर दरियादिली दिखा रही है जबकि आम आदमी की उपेक्षा कर रही है । महंगाई बढ़  रही है । गैस की घरेलू सब्सिडी ख़त्म है तो  डीजल के दाम लगातार बढ़ रहे है  । भ्रष्टाचार का सवाल जस का तस है । कांग्रेस अगर सोच रही है मनमोहन के बजाए राहुल का चेहरा आगे कर देने भर से कांग्रेस तीसरी बार केंद्र में वापसी कर जाएगी तो यह दिवा स्वप्न से कम नहीं लगता । ऐसे  माहौल में राहुल के सामने चुनोतियो का पहाड़ ही खड़ा है । राहुल के पिता राजीव का भी राजनीती में प्रवेश संजय गाँधी की मौत के बाद हुआ था तो उन्हें भी महासचिव बनाया गया था लेकिन तब सहानुभूति की लहर ने राजीव को सत्ता के  शीर्ष पर पहुचाया लेकिन आज के दौर में यह दूर की गोटी है क्युकि  राज्यों में रीजनल पार्टियों का प्रभुत्व है वह केंद्र में सरकार बनाने में मोल तोल  कर रही है  और शायद यही कारण  है कांग्रेस भी रिटेल में ऍफ़ डी  आई  के मसले पर इनके सहयोग  के बिना आर्थिक सुधारों का फर्राटा नहीं भर सकती ।  आज कांग्रेस का जनाधार लगातार सिकुड़ रहा है । कार्यकर्ता उपेक्षित है तो उसके अपने  नेताओ के पास  मिलने का समय नहीं है । कांग्रेस 28 राज्यों में से 18 राज्यों में पूरी तरह साफ़ है । संगठन लुंज पुंज है । ऐसे में राहुल को लोगो को यह अहसास कराना होगा वह परिवारवाद की विरासत बचाने  आगे नहीं आये हैं बल्कि उनका सपना गाँव के अंतिम छोर  में खड़े व्यक्ति तक विकास पहुचाना है लेकिन बिना संगठन के यह सब संभव नहीं है । राहुल की असली चुनौती  बिहार और उत्तर प्रदेश है । यही वह प्रदेश है जहाँ  अच्छा  करने पर कांग्रेस केंद्र में सरकार बना सकती है । यू  पी में इस  28 विधायक और 22 संसद हैं । पिछले कुछ समय से यहाँ पर पार्टी का वोट प्रतिशत नहीं बढ रहा इस पर गंभीरता से विचार की जरुरत अब है । राहुल ने जयपुर में जो कुछ कहा उससे एक बारगी ऐसा लगा  वह अपने पिता राजीव वाली लीक पर चलकर कांग्रेस के लिए बिसात बिछा रहे हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए राजीव गाँधी भी कहा करते थे वह सत्ता के दलालों से कांग्रेस को बचाना चाहते हैं लेकिन इन्ही दलालों ने राजीव को फंसा दिया । बोफोर्स का जिन्न कांग्रेस की लुटिया उस दौर में डुबो गया था । अब राहुल को समझना होगा वह उन गलतियों से सबक लें ।


जयपुर में सोनिया की सहमति से राहुल को उपाध्यक्ष बनाने का फैसला पार्टी कार्यकर्ताओ में नए जोश का संचार भले ही कर जाए  लेकिन राहुल गाँधी की राह आने वाले दिनों में इतनी आसान  भी नहीं है | २००९ के लोक सभा चुनावो में भले ही वह पार्टी के सेनापति रहे थे लेकिन जीत का सेहरा मनमोहन की मनरेगा आरटीआई, किसान कर्ज माफ़ी जैसी योजनाओ के सर ही बंधा था | वहीँ उस दौर को अगर याद करें तो आम युवा वोटर राहुल गाँधी में एक करिश्माई युवा नेता का अक्स देख रहा था जो भारतीयों के एक बड़े मध्यम वर्ग को लुभा रहा था क्युकि वह नेहरु की तर्ज पर भारत की  खोज करने पहली बार निकले  जहाँ वह दलितों के घर आलू पूड़ी खाने जाते थे  वहीँ कलावती सरीखी महिला के दर्द को संसद में परमाणु करार की बहस में उजागर करते थे  | लेकिन संयोग देखिये राजनीती एक सौ अस्सी डिग्री के मोड़ पर कैसे मुड़ जाती है यह कांग्रेस को अब पता चल रहा है | अभी मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से तो घिरी ही है साथ ही आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ के नारों की भी हवा निकली हुई है क्युकि महंगाई चरम पर है | सरकार  ने घरेलू गैस की सब्सिडी ख़त्म कर दी है जिससे उसका ग्रामीण मतदाता भी नाखुश है और इन सबके बीच राहुल ने पार्टी के सामने नई जिम्मेदारी ऐसे समय में दी है जब बीते चार बरस में मनमोहन सरकार से देश का आम आदमी नाराज हो चला है | वह भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई , घरेलू गैस की सब्सिडी खत्म करने के मुद्दे  से लेकर डीजल , तेल की बड़ी कीमतों के साथ ही ऍफ़डीआई के मुद्दे पर सीधे घिर रही है | देश की अर्थव्यवस्था जहाँ सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है वहीँ आम आदमी का नारा देने वाली कांग्रेस सरकार से आम आदमी सबसे ज्यादा परेशान है क्युकि उसका चूल्हा इस दौर में नहीं जल पा रहा है | यह सरकार अपने मनमोहनी इकोनोमिक्स द्वारा आम आदमी के बजाए  कारपोरेट घरानों पर दरियादिली ज्यादा  दिखा रही है |


 ऐसे निराशाजनक माहौल के बाद भी कांग्रेस इस मुगालते में है राहुल गाँधी को आगे करने से उसके भ्रष्टाचार के आरोप धुल जायेंगे तो यह बेमानी ही है क्युकि यूपीए २ की इस सरकार के कार्यकाल में उपलब्धियों के तौर पर कोई बड़ा  काम इस दौर में नहीं हुआ है | उल्टा कांग्रेस कामनवेल्थ ,२ जी ,कोलगेट जैसे मसलो पर लगातार घिरती  रही है जिससे उसका इकबाल कमजोर हुआ है | ऊपर से रामदेव , अन्ना के जनांदोलन के प्रति उसका रुख गैर जिम्मेदराना रहा है जिससे जनता में उसके प्रति नाराजगी का भाव है |  यही नहीं दिल्ली में बीते दिनों हुई गैंगरेप की घटना के बाद जिस तरह फ्लैश माब  सड़को पर उतरा और उसके कदम लुटियंस की दिल्ली के रायसीना हिल्स की तरफ बढे उसने कांग्रेस के सामने मुश्किलों का पहाड़ लोक सभा चुनावो से ठीक पहले खड़ा कर दिया है।  । देश में  मजबूत विपक्ष के गैप को अब केजरीवाल सरीखे लोग भरते नजर आ रहे हैं जो गडकरी से लेकर खुर्शीद तक को उनके संसदीय इलाके फर्रुखाबाद तक में चुनौती दे चुके हैं | ऐसे निराशाजनक माहौल में कांग्रेस के युवराज के सामने पार्टी को मुश्किलों से निकालने की बड़ी चुनौती सामने खड़ी है क्युकि राहुल को आगे करने से कांग्रेस की चार साल में खोयी हुई  साख वापस नहीं आ सकती | दाग तो दाग हैं वह पार्टी का पीछा नहीं छोड़ सकते |

 ऊपर से  आम आदमी के लिए आर्थिक सुधार इस दौर में कोई मायने  नहीं रखते क्युकि उसके लिए दो जून की रोजी रोटी ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन सरकार का ध्यान विदेशी निवेश में लगा है | वह आम आदमी को हाशिये पर रखकर इस दौर में कारपोरेट के ज्यादा करीब नजर आ रही है क्युकि वही सरकार के लिए चुनावो में बिसात बिछा रहा है | ऐसे खराब माहौल में राहुल को बैटिंग करने में दिक्कतें पेश आ सकती हैं | साथ ही राहुल के सामने उनका अतीत भी है जो वर्तमान में भी उनका पीछा शायद ही छोड़ेगा |ज्यादा समय नहीं बीता जब २००९ में २००  से ज्यादा सीटें लोक सभा चुनावो में जीतने के बाद कांग्रेस का बिहार ,उत्तर प्रदेश, पंजाब,तमिलनाडु के विधान सभा चुनावो में प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा | उत्तराखंड में लड़खड़ाकर कांग्रेस संभली जरुर लेकिन यहाँ भी भाजपा में खंडूरी के जलवे के चलते कांग्रेस पूर्ण बहुमत से दूर ही रही | इन जगहों पर राहुल गाँधी ने चुनाव प्रचार की कमान खुद संभाली थी | संगठन भी अपने बजाय राहुल का औरा लिए करिश्मे की सोच रहा था लेकिन लोगो की भीड़ वोटो में तब्दील नहीं हो पाई और चुनाव निपटने के बाद राहुल गाँधी ने भी उन इलाको का दौरा नहीं किया जहाँ कांग्रेस कमजोर नजर आई | चुनाव  निपटने के बाद संगठन को मजबूत करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किये गए | ऐसे में  अब दूसरी परीक्षा में पास होने की बड़ी चुनौती राहुल के सामने खड़ी है |  
    
    वैसे एक दशक से ज्यादा समय से राजनीती में राहुल को लेकर कांग्रेसी चाटुकार मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा आशावान हैं | लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में राहुल का चुनावी प्रबंधन पार्टी के काम नहीं आ सका | एमबीए, एमसीए डिग्रियों से लैस उनकी युवा टीम ने जहाँ  इन्टरनेट की दुनिया में राहुल के लिए माहौल  बनाया वहीँ कांग्रेसी चाटुकारों की टोली ने उन्हें विवादित बयान देने और चुनावी सभा में बाहें ही चढ़ाना सिखाया | अगर वह जनता की नब्ज पकड़ना जानते तो शायद उत्तर प्रदेश के अखाड़े में वह उनसे कम उम्र के अखिलेश यादव से नहीं हारते | एक दशक से भारत की राजनीती में सक्रिय राहुल गाँधी जहाँ पुराने चाटुकारों से घिरे इस दौर में  नजर आते हैं वहीँ उनकी सबसे बड़ी कमी यह है की चुनाव  निपटने के बाद वह उन संसदीय इलाको और विधान सभा के इलाको में फटकना तक पसंद नहीं करते जहाँ कांग्रेस लगातार हारती जा रही है | यही उनकी सबसे बड़ी कमी इस दौर में बन चुकी है और शायद यही वजह है हिंदी भाषी रायो में कांग्रेस का सूपड़ा पूरी तरह साफ़ हो गया है । दक्षिण  में आन्ध्र के जगन मोहन रेड्डी ने कांग्रेस की मुश्किलें बढाई  हुई हैं तो केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा , केरल में उसका कोई जनाधार बचा नहीं दिख रहा । 

वहीँ अगर राहुल के बरक्स हम युवा तुर्क अखिलेश यादव को देखें तो उत्तर  प्रदेश के चुनावो में वह मीडिया की नज़रों से बिलकुल ओझल रहे लेकिन उन्हें अपने काम पर भरोसा था वह जनता से सीधा संवाद स्थापित करने में कामयाब रहे और जनता ने सपा को इस साल मौका दिया वहीँ कांग्रेस को उसी हाल पर छोड़ दिया जहाँ वह बरसो से उत्तर प्रदेश में खड़ी है |  अखिलेश की सबसे बड़ी खूबी यह है वह अच्छे संगठनकर्ता हैं ही साथ ही वह एक एक कार्यकर्ता का नाम तक जानते हैं और उनसे कभी भी सीधा संवाद आसानी से स्थापित कर लेते हैं | वहीँ राहुल गाँधी को अपने चाटुकारों से फुर्सत मिले तब बात बने | 

राहुल गाँधी को अगर आने वाले दिनों में  अपने बूते कांग्रेस को तीसरी बार सत्ता में लाना है तो संगठन की दिशा में मजबूत प्रयास करने होंगे साथ ही कार्यकर्ताओ की भावनाओ का ध्यान रखना होगा क्युकि किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी रीड उसका कार्यकर्ता होता है | अगर वह ही हाशिये पर रहे तो पार्टी का कुछ नहीं हो सकता | राहुल को उन कार्यकर्ताओ में नया जोश भरना होगा जिसके बूते वह जनता के बीच जाकर सरकार की नीतियों के बारे में बात कर सकें | उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन करने की सबसे बड़ी चुनौती राहुल के सामने खड़ी है तो कांग्रेस की मौजूदा लोक सभा सीटो की चुनोती बरक़रार रखने की विकराल चुनौती  सामने है ।

        एक दशक से ज्यादा समय से भारतीय राजनीती में सक्रियता दिखाने वाले राहुल गाँधी ने शुरुवात में कोई पद ग्रहण नहीं किया | उन्होंने बुंदेलखंड के इलाको के साथ बिहार , उड़ीसा ,विदर्भ के इलाको के दौरे किये और जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओ को गौर से सुना | इसी दौरान वह उड़ीसा में पोस्को और नियमागिरी के इलाको में जाकर वेदांता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी कर चुके हैं जिन पर पूरे देश का ध्यान गया | यही नहीं भट्टा परसौल, मुंबई की लोकल ट्रेन से लेकर कलावती के दर्द को उन्होंने बीते एक दशक में करीब से महसूस किया है | लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमी यह रही है वह इन इलाको में एक बार अपनी शक्ल  दिखाने और  मीडिया में सुर्खी बटोरने के लिए जाते जरुर हैं  उसके बाद खामोश हो जाते हैं और उन इलाको को उसी हाल पर छोड़ देते हैं जिस हाल पर वह इलाका पहले हुआ करता था तो उनके  विरोधी  सवाल उठाने  लगते है |

मिसाल के तौर पर विदर्भ के इलाके को लीजिए | बीते एक दशक में साढ़े तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्याए कर चुके हैं जिसको राहुल अपनी राजनीति से उठाते है | कलावती के दर्द को संसद के पटल पर परमाणु करार के जरिये उकेरते हैं लेकिन उसके बाद कलावती को उसी के हाल पर छोड़ देते हैं | २००५ में अपने पति को खो चुकी कलावती का दर्द आज भी कोई नहीं समझ सकता | न जाने लम्बा समय बीतने के बाद वह कहाँ गुमनामी के अंधेरो में खो गई | राहुल उसकी सुध इस दौर में लेते नहीं दिखाई दिए जबकि आडवानी की रथ यात्रा के  दौरान २०११ में अक्तूबर के महीने में उसकी बेटी सविता ने भी ख़ुदकुशी कर ली  | वहीँ इसी साल २०१२ में कलावती की छोटी बेटी के पति ने खेत में कीटनाशक दवाई खाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी | तब राहुल गाँधी  की तरफ से उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई | जबकि कलावती के जरिये संसद में परमाणु करार पर मनमोहन सरकार ने खूब तालियाँ अपने पहले कार्यकाल में बटोरी थी तब  वाम दलों की घुड़की के आगे हमारे प्रधानमंत्री नहीं झुके | उसके बाद क्या हुआ कलावती अपने देश में बेगानी हो गयी |  कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में थकी हुई रीता बहुगुणा जोशी के हाथ कमान दी जो अपने जीवन का एक चुनाव तक नहीं जीत सकी | शुक्र है इस बार के चुनाव में उन्हें हार नहीं मिली |  चुनावो के बाद भीतरघातियो पर कारवाही  तक नहीं हुई और ना ही राहुल  उत्तर प्रदेश के आस पास फटके | यही हाल बिहार में हुआ अकेले चुनाव लड़ने का मन तो बना लिया लेकिन संगठन दुरुस्त नहीं था न कोई चेहरा था जो नीतीश के सामने टक्कर दे सकता था इसी के चलते २०१० के विधान सभा चुनाव में केवल ४ सीट ही हाथ लग सकी | चुनाव निपटने के बाद बिहार को भी वैसा ही छोड़ दिया जैसा उत्तर प्रदेश है | अब ऐसे हालातो में पार्टी का प्रदर्शन कैसे  सुधरेगा यह एक बड़ी पहेली बनता जा रहा है |  राहुल को यह कौन समझाए वोट कोई पेड पर नहीं उगते | उसे पाने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है और कार्यकर्ताओ को साथ लेकर चलना पड़ता है जिसमे संगठन एक बड़ी भूमिका अदा करता है | लेकिन राहुल की सबसे बड़ी मुश्किल यही है चुनाव के दौरान ही वह चुनाव प्रचार करने इलाको में नजर आते हैं चुनाव निपटने के बाद उन इलाको से नदारद पाए जाते है |
          यू पी ए २ में राहुल के पास अपने को साबित करने की एक बड़ी चुनौती है जिस पर वह अभी तक खरा नहीं उतर पाए हैं | मिसाल के तौर पर अन्ना के आन्दोलन को ही देख लीजिए उस  दौरान  सोनिया गाँधी बीमार थी | राहुल को कांग्रेस के बड़े नेताओ के साथ डिसीजन मेकिंग की कमान दी गई थी लेकिन अन्ना के आन्दोलन पर उनकी एक भी प्रतिक्रिया नहीं आई | यही नहीं जनलोकपाल जैसे अहम मसलो पर वह उनकी पार्टी का स्टैंड सही से सामने नहीं रख पाए | वह इस पूरे दूसरे कार्यकाल में संसद से नदारद पाए गए है | सदन में कोई बड़ा बयान उनके द्वारा जहाँ नहीं दिया गया वहीँ किसानो की आत्महत्या, महंगाई, ऍफ़डीआई ,गैस सब्सिडी खत्म करने  जैसे मसलो पर उनका कोई बयान मीडिया में नहीं आया  है जो सीधे आम आदमी से जुड़े मुद्दे हैं | यही नहीं भ्रष्टाचार के मसले पर भी वह ख़ामोशी की चादर ओढे बैठे रहे | वाड्रा डीएलएफ के गठजोड़ पर भी उनकी चुप्पी ने कई सवालों को जन्म तो दिया ही साथ ही कांग्रेस पार्टी द्वारा हाल ही में अपनी पार्टी के कोष से नैशनल हेराल्ड को दिए गए ९० करोड़ रुपये के चंदे पर भी राहुल ने खामोश रहना मुनासिब समझा | हाल ही में हुए मंत्रिमंडल विस्तार में ऐसे लोगो का कद बढ़ाया गया  जिन पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे | लेकिन राहुल ने उस पर भी कुछ नहीं कहा और ना ही मंत्रिमंडल विस्तार में युवा चेहरों की वैसे तरजीह मिली जिससे कहा जा सके कि विस्तार में राहुल की छाप दिखाई दे रही है | ऐसे  में  राहुल गाँधी  की भूमिका को लेकर सवाल उठने लाजमी ही हैं | अब समय आ गया है जब उनको देश से और आम जनता से जुड़े मुद्दे सामने लाने से नहीं डरना होगा तभी बात बनेगी | नहीं तो अभी के हालत  कांग्रेस के लिए बहुत अच्छे नजर नहीं आते | वर्तमान में पार्टी जहाँ उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे बड़े राज्यों में ढलान पर है वहीँ मध्य प्रदेश , गुजरात  पंजाब, हिमाचल , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ में उसकी हालत बहुत पतली है | औरंगजेब की बीजापुर और गोलकुंडा विजय ने दक्षिण में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना का रास्ता खोला था लेकिन यहाँ पर कांग्रेस पतली हालत में है | सबसे ज्यादा खराब हालत आन्ध्र में है जहाँ जगन मोहन रेड्डी आने वाले विधान सभा चुनावो में मजबूत खिलाडी बनकर उभरेंगे इसके आसार अभी से नजर आने लगे हैं | देश  की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के हालत भी कांग्रेस  जैसे ही हैं | चोर चोर मौसरे भाई जुगलबंदी  यहाँ पर सटीक बैठ रही है | नितिन गडकरी पर लग रहे भ्रष्टाचार के दाग भाजपा की साख को ख़राब कर दी है भले ही संघ का लाडला अब दूसरी बार अध्यक्ष बनने से रह गया हो लेकिन इसने भाजपा की भ्रष्टाचार की लड़ाई को कमजोर ही किया है ।  ऐसे में रास्ता इन दोनों दलों से इतर तीसरे मोर्चे की तरफ जा रहा है जहाँ पर अपने अपने राज्यों के छत्रप मजबूत स्थिति में जाते दिख रहे है जिससे भाजपा और कांग्रेस दोनों की सत्ता में आने  की सम्भावनाए धुंधली होती दिखाई दे रही है | ऐसे में राहुल को कांग्रेस के लिए रास्ता तैयार करने में मुश्किलें पेश आ  सकती हैं |

                 वैसे असल परीक्षा तो आने वाले दिनों में दस राज्यों के विधान सभा चुनावो में है जहाँ कांग्रेस के साथ राहुल की प्रतिष्ठा दाव पर लगी है ।  अगर यहाँ कांग्रेस अच्छा कर गई तो वह लोक सभा चुनाव का जुआ जल्द खेल सकती है ।  लेकिन यह दूर की गोटी है  राहुल इतने कम समय में कांग्रेस में नई  जान फूंक पायेंगे ? बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा , भूमि अधिग्रहण, लोकपाल  जैसे मसले अभी भी अधर में लटके हैं। मनमोहन के दौर में अमीरों और गरीबो की खाई  दिन पर दिन चौड़ी ही होती जा रही है । इस दौर में कारपोरेट दिनों दिन मजबूत होता जा रहा है तो वहीँ सरकार  ने पूरा बाजार उसके हवाले कर दिया है जहाँ नीतियों के निर्धारण में सीधे उसका साफ़ दखल देखा जा सकता है । भारत के संविधान की बहुत सारी चीजें  पीछे छूट गई हैं । समाजवाद रददी  की टोकरी में चला गया है तो जय जवान जय किसान का नारा लगाने वाला कोई नेता इस दौर में नहीं बचा है । सभी वालमार्ट  के स्वागत में फलक फावड़े बिछाये हुए है । ऐसे माहौल में क्या राहुल इस पर ध्यान दे पायेंगे यह अपने में बड़ा सवाल है । 

वैसे भी यू पी ए के लिए यह समय मुश्किलों भरा है जहाँ उसके पास उपलब्धियों के नाम पर कुछ खास कहने को बचा नहीं है क्युकि  हर बार वह किसी न किसी मुश्किल में घिरती ही रही है ।  मनमोहन पी ऍम पद के अपने आखरी पडाव पर खड़े हैं । गाँधी परिवार के आसरे कांग्रेस एकजुट नजर आती है इसलिए राहुल मजबूरी का नाम कांग्रेसी चाटुकारों के लिए बन चुके हैं जो हर चुनाव में राहुल को दिग्भ्रमित करने का काम किया करते हैं । कांग्रेस में इस समय कोई जनाधार वाला नेता नहीं बचा है लिहाजा कांग्रेस को एकजुट करने के लिए राहुल ही तुरूप का पत्ता इस दौर में बन चुके हैं । ऐसे में कांग्रेस पार्टी का  सबसे बड़ा खेवनहार वही गाँधी परिवार बना रहेगा जिसके बूते वह लम्बे समय से भारतीय राजनीती में छाई है और यही राहुल गाँधी का औरा उसे चुनावी मुकाबले में भाजपा के बराबर खड़ा कर सकता है क्युकि सोनिया का स्वास्थ्य सही नहीं है | मनमोहन के आलावे कोई दूसरा चेहरा पार्टी में ऐसा इस दौर में बचा नहीं है जो भीड़ खींच सके और लोगो की नब्ज पकड़ना जाने | जाहिर है रास्ता ऐसे में उसी गाँधी परिवार पर जा टिकता है  जिसके नाम पर पार्टी इतने वर्षो से एकजुट नजर आई है और यही औरा गाँधी परिवार की पांचवी पीड़ी में पार्टी के कार्यकर्ताओ को राहुल गाँधी के रूप में नजर आता है जो उसमे नेहरु से लेकर इंदिरा, संजय  और राजीव  गाँधी तक का अक्स देख रहा है |  शायद इसके मर्म को सोनिया गाँधी भी बखूबी समझ रही हैं तभी कांग्रेस जयपुर के चिंतन के आसरे राहुल गाँधी को कमान सौंपने वाली ढाई चाल इस दौर में चलती दिखाई दे रही है |

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