सियासत और खेल में टाइमिंग का खासा महत्व रहा है । 2014 की चुनावी बिसात के बीच किताबों के नए 'टाइम बम' ने राजनीती को एक सौ अस्सी डिग्री पर ना केवल झुकने को मजबूर कर दिया है बल्कि विपक्षी पार्टियो को भी लगे हाथ सत्ता पक्ष के खिलाफ मुखर होने का नायाब मौका दे दिया है । प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारु की किताब 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर मनमोहन सिंह' के आने से इन दिनों चुनावी पारा सातवें आसमान पर चला गया है । इसकी नब्ज को बारु ने जिस अंदाज में पकड़ा गया है उससे यू पी ए सरकार के ईमानदार मुखिया मनमोहन सिंह पर हमले शुरू हो गए हैं । एक ईमानदार प्रधानमंत्री पहली बार कटघरे में खड़ा है । बारु के अनुसार यूपीए सरकार में सत्ता के दो केंद्र रहे। एक धुरी की कमान खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संभाले थे तो दूसरी धुरी सोनिया गांधी रही जिनके हर आदेश का पालन करने की मजबूरी मनमोहन के चेहरे पर साफ़ देखी जा सकती है । इस किताब के अनुसार मनमोहन सिंह एक दुर्बल मुखिया की तरह रहे जिन्हे महत्वपूर्ण फैसलों के लिए सोनिया गांधी का यस बॉस बनना पड़ा । लोक सभा चुनावो के समय इन आरोपों से विपक्ष के निशाने पर आई कांग्रेस अपने बचाव में पी एम के वर्तमान मीडिया सलाहकार पंकज पचौरी का चेहरा सामने रखकर अपना पक्ष जरूर रख रही है जो मनमोहन के भाषणो की संख्या और आर्थिक विकास के चमचमाते आंकड़े पेश कर यू पी ए 2 के अभूतपूर्व विकास बता रही है लेकिन यूपीए २ के शासनकाल में हुए एक बाद एक घोटाले जनता को यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं मनमोहन की यह आखिरी पारी कितनी विवादों से भरी रही । मनमोहन हमेशा से यह कहते रहे हैं कि वह गठबंधन धर्म के आगे लाचार हैं अब विदाई बेल में यह किताब मनमोहन की बेबसी के बोल बखूबी बोलती है ।
संजय बारु के आरोपों से भले ही पी एम ओ पाला झाड़ ले लेकिन यूपीए 2 के शासन काल में सब बढ़िया रहा ऐसा भी नहीं है । एक के बाद एक यही घोटालो की गुरु घंटाल पोल खुलती रही । २जी, कोयला ,कामनवेल्थ , आदर्श हर बार पीएमओ की भूमिका का अस्पष्ट रही । अन्ना आंदोलन हो या दामिनी काण्ड हर बार प्रधानमंत्री की चुप्पी देश को खलती रही । मनमोहन हमेशा तमाशबीन बने रहे । अन्ना आंदोलन के मसले को वह ठीक से हैंडल नहीं कर सके वहीँ दामिनी के मसले पर ट्वीट करने में उन्हें हफ्ते लग गए । विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की क्या मजबूरी रही हो यह तो कोई नहीं जान सकता पर संजय बारु की किताब उन तमाम छिपे रहस्यों पर से पर्दा उठाती है जो यूपीए के दौरान घटे। कांग्रेस इस किताब की टाइमिंग पर सवाल उठा रही है लेकिन राजनीतिक दलों ने इस किताब को लपकने में देरी नहीं लगाई है ।
यू पी ए 1 से ज्यादा भ्रष्ट्र यू पी ए 2 नजर आया जहाँ एक से बढकर एक भ्रष्ट मंत्रियो की टोली मनमोहन सिंह की किचन कैबिनेट को सुशोभित करती रही । वैसे यू पी ए 2 ने तो भ्रष्ट्राचार के कई कीर्तिमानो को ध्वस्त कर दिया जहाँ सबसे ज्यादा पी ऍम की छवि ख़राब हुई । सी वी सी थॉमस की नियुक्ति से लेकर महंगाई के डायन बनने तक की कहानी यू पीए २ की विफलता को उजागर करती है। आदर्श सोसाइटी से लेकर कामन वेल्थ , २ जी स्पेक्ट्रम से लेकर इसरो में एस बैंड आवंटन , कोलगेट तक के घोटाले केंद्र की सरकार की सेहत के लिए कतई अच्छे नही रहे जिनसे पूरी दुनिया में एक ईमानदार प्रधानमंत्री की छवि तार तार हो गयी । मनमोहन भले ही अच्छे अर्थशास्त्री हों परन्तु वह एक कुशल राजनेता की केटेगरी में तो कतई नही रखे जा सकते और ना ही वह भीड़ को खींचने वाले नेता हैं । बीते लोक सभा चुनावो से पहले भाजपा के पी ऍम इन वेटिंग आडवानी ने मनमोहन के बारे में कहा था वह देश के सबसे कमजोर प्रधान मंत्री है । उस समय कई लोगो ने आडवानी की बात को हल्के में लिया था , आज मनमोहन सिंह पर यह बातें सोलह आने सच साबित हो रही है ।
इस किताब ने यह भी बताया है मनमोहन सारे फैसले खुद से नही लेते । सत्ता का केंद्र दस जनपद बना रहता है । व्यक्तिगत तौर पर भले ही मनमोहन की छवि इमानदार रही है परन्तु दिन पर दिन ख़राब हो रहे हालातो पर प्रधान मंत्री की हर मामले पर चुप्पी से जनता में सही सन्देश नही गया । . बारु की किताब यह भी बताती है "इकोनोमिक्स की तमाम खूबियाँ भले ही मनमोहन सिंह में रही हो पर सरकार चलाने की खूबियाँ तो उनमे कतई नही है| यू पी ए २ में पूरी तरह से दस जनपद का नियंत्रण बना रहा । मनमोहन को भले ही सोनिया का "फ्री हैण्ड" मिला हो पर उन्हें अपने हर फैसले पर सोनिया की सहमति लेनी जरुरी हो जाती थी । दस जनपद में भी सोनिया के सिपैहसलार पूरी व्यवस्था को चलाते थे ।
संजय बारु का मामला ठंडा भी नहीं हुआ था क़ि पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख की किताब 'क्रूसेडर या कांसिपिरेटर' ने बाजार में आकर बखेड़ा ही खड़ा कर दिया । पारेख पर नजर इसलिए भी है क्युकि सीबीआई ने कोयला घोटाला मामले में पीसी पारेख को नोटिस भेजा है। पिछले वर्ष 2013 में सीबीआई ने पारेख समेत हिंडालको और अन्य अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज किया था। मामला दर्ज किए जाने के दौरान सीबीआई ने इस बात को भी स्वीकारा था कि सभी अधिकारी साल 2005 से कोलगेट घोटाले में अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं। पारेख के ऊपर आरोप लगाया गया है कि उन्होंने सिर्फ कथित तौर पर ही कोल ब्लॉक आवंटन किया है।जिसमे अन्य अधिकारियों ने भी उनका साथ दिया । इस किताब में भी पी एम ओ पर निशाना साधा गया है। कोलगेट पर लिखी गई इस किताब में तमाम नौकरशाहों और राजनीतिक जमात को कठघरे में रखा गया है। कोयले की आंच पहली बार सरकार में शामिल मंत्री से लेकर कॉरपोरेट घरानों तक गई जहां रिश्तेदारो को आउने पौने दामो पर कोल ब्लॉक आवंटित कर दिए गए । कैग की रिपोर्ट में जब कोयला आवंटन में हुई धांधली को उजागर किया गया तब तत्कालीन नियंत्रक महालेखा परीक्षक विनोद राय की भूमिका पर यूपीए ने सबसे पहले सवाल दागे जिससे यह सवाल बड़ा हो गया क्या यू पी ए को संवैधानिक संस्थाओ पर भरोसा नहीं रहा ? पारेख की लेखनी कोयला मंत्रालय और प्रकाश जायसवाल की भूमिका पर हंगामा करने का विपक्ष को बहुत मसाला देती है। पारिख ने इस मौके पर कहा कि पीएम ने खुली निविदा के जरिए अगस्त 2004 में कोयला आवंटन की मंजूरी दी थी। मगर उनके दो मंत्रियों शिबू सोरेन और दसई राव ने उनकी नीतियों का पालन नहीं किया । उन्होंने लिखा है दोनों मंत्रियों के कार्यकाल में कोयला मंत्रालय में निदेशक पद पर नियुक्ति के लिए भी घूस ली जाती थी । पारिख ने कहा उन्होंने सांसदों को ब्लैकमेलिंग और वसूली करते हुए खुद देखा । यू पी ए 2 के दौर में पानी सर से इतना नीचे बह चु का था कि अधिकारियों के लिए ईमानदारी से काम करना मुश्किल हो गया । पारिख ने किताब में कहा है कोयला सचिव के रूप में उनके कार्यकाल में जो भी उपलब्धियां हासिल की गईं वह उस दौरान की गईं जब मंत्रालय मनमोहन सिंह के पास था।
बहरहाल जो भी हो देश चुनावी मॉड में है और इन दोनों किताबो के सामने आने से जहाँ विपक्षियो को यू पी ए २ के सामने आक्रामक होने का एक बड़ा मुद्दा मिल गया है वहीं भ्रष्टाचार , महंगाई और एंटी इन्कम्बेंसी झेल रही कांग्रेस के सामने पहली बार स्थिति पेचीदा हो चली है । कई कांग्रेसी दिग्गज जहाँ पहले ही लोक सभा चुनावो से मुह फेर लिए हैं वहीँ कई नेता ऐसे हैं जो हार के संभावित खतरों के मद्देनजर चुनाव प्रचार से ही दूर हो गए हैं । मनमोहन पहले ही 2014 की बिसात में फिट नहीं बैठ रहे हैं वहीँ गर्मी में ताबड़तोड़ प्रचार से सोनिया के पसीने छूट रहे हैं । देश के मुखिया मनमोहन की कोशिश इन लोक सभा चुनावो के दौरान इस बात की होनी चाहिए थी यू पी ए २ को कैसे मौजूदा चुनौती के दौर से बाहर निकाला जाए ? लेकिन इस चुनाव में मनमोहन कहीं नजर नहीं आ रहे तो वहीँ उनके कई कैबिनेट मंत्री चुनाव प्रचार से दूर चले गए हैं । वहीँ पार्टी की चुनाव प्रचार की कमान अब राहुल और सोनिया गांधी और प्रियंका की तिकड़ी के जिम्मे आ गयी है जो मैदान में बिना लाव लश्कर के साथ डटे हैं जिनकी बिसात भी जाति , धर्म , गरीबी ,सियासी तिकड़मों के आसरे मोदी को निशाने पर लेकर ही चल रही है । ऐसे में देखने वाली बात यह होगी तमाम विरोधी लहर के बीच कांग्रेस इस लोक सभा चुनाव में क्या करिश्मा कर पाती है ?
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