राजनीती में कोई दोस्त और दुश्मन नहीं होता | राजनीति
हार और जीत की संभावनाओ का खेल है | बिहार में विधान सभा
उपचुनावों के लिए 10 सीटो पर जदयू, राजद और कांग्रेस की बिसात कमोवेश हर वोटर को यही अहसास बखूबी करवा रही है
| उपचुनावों के साथ ही अब उनके इस कदम से तीनो राजनीतिक दल आगामी विधान
सभा का चुनाव भी भाजपा के खिलाफ लड़ेंगे इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता |
तो क्या माना जाए बिहार एक बार फिर जातीय गठजोड़ की राजनीति में इस
कदर उलझता जा रहा है कि वोटर के मन में राजनेताओ के चाल, चलन
और चरित्र को लेकर फिर से नए सवाल खड़े हो रहे हैं
और पहली बार विचारधारा से इतर नेताओ की राजनीतिक
सौदेबाजी ने उसके सामने एक पशोपेश की स्थिति पैदा
कर दी है जिसके चलते वह अपने वोट को लेकर आशंकित हो चला है |
दरअसल बिहार की राजनीती फिर जातीय आंकड़ो
में इस कदर उलझती ही जा रही है कि मौजूदा दौर में हर दल के सामने अपने वजूद को
बचाने के लिए अपने जातीय वोट बैंक को साधना जरुरी
हो गया है | आगामी उपचुनावों के लिए भी तीन दलों
का साथ आना इसी लिहाज से महत्वपूर्ण ही कहा जा सकता है | बिहार की राजनीती में एक दौर में लम्बे समय तक सवर्णों का राज रहा लेकिन
नब्बे के दशक के आते आते परिस्थियाँ मंडल कमंडल ने इस कदर बदल डाली कि बिहार की
राजनीती भी जातीय गठजोड़ में उलझ कर रह गयी | कर्पूरी ठाकुर
के आते ही बिहार में दलितों को लेकर नई तरह की परिभाषा विकास के आसरे गढने की
कोशिशे तेज होती गयी तो वहीँ नब्बे के दशक के आते
ही लालू और नीतीश कुमार सरीखे नेता पिछड़े वर्गों के हिमायती बनकर उभरे |
इसी दौर में लालू प्रसाद की बिहार की राजनीती में तूती इस कदर बोली कि उन्हें गरीब गोरबा जनता और पिछड़ी दलित जातियों का
मसीहा कहा जाने लगा | इसकी महक को लालू ने अपने कार्यकाल में
बखूबी महसूस भी किया और अपने शासन में दलित ,पिछड़ी जातियों
और मुसलमानों को साधकर अपनी सियासी बिसात को ठसक
के साथ इस कदर मजबूत कर लिया कि बिहार की सियासत
में लालू ने अपने ‘माई’ समीकरण से अपना कद काफी ऊँचा कर लिया | लालू ने अपने कार्यकाल में माई समीकरणों से नई इबारत गढ़ने की कोशिश की
वहीँ उनके राज में तमाम घोटालो , कानून व्यवस्था की लचर
स्थिति और माफियाओ के वर्चस्व ने लोगो का लालू से
मोहभंग कराने में देर नहीं लगाई जिसके
चलते लोगो ने जंगल राज से मुक्ति की कामना एक दौर में की | सवर्णों
में लालू के प्रति साफ़ नाराजगी उस दौर में देखी
जा सकती थी | ऐसे दौर में गरीबो
के नए मसीहा के रूप में नीतीश कुमार का शासन शुरू होता है |
नीतीश के आने के बाद बिहार में काफी कुछ पटरी पर आ गया | लगातार
दूसरी बार भाजपा के साथ सरकार बनाकर 2010 में उन्होंने यह
साबित भी कर दिया बिहार अब जातीय राजनीती के चंगुल से बाहर आ रहा है और लोग विकास के आधार पर मतदान कर रहे हैं जिसके चलते भाजपा और जद यू गठबंधन ने बिहार की राजनीती में लगातार दूसरी बार वापसी की | नीतीश
कुमार ने बिहार की राजनीती में अपनी जडें भाजपा के साथ मिलकर मजबूत कर ली लेकिन
सोलहवी लोक सभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा द्वारा
नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद जद यू की भाजपा से
दूरियां बढ़ गयी और यही बाद में बड़ी दुश्मनी में जाकर तब्दील हो गयी |
इससे पहले गठबंधन के दौर में नीतीश कुमार ने मोदी को चुनाव प्रचार
और बिहार में रैलियां करने से रोक दिया था | दरअसल
नीतीश कुमार मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के सख्त खिलाफ थे | इस मसले पर शरद यादव भी नीतीश कुमार के सुर में सुर मिला रहे थे | उन्होंने 2002 में गोधरा दंगे का मुद्दा उछालकर एनडीए से अलग होने का एलान कर दिया |सोलहवी
लोक सभा से ठीक पहले नीतीश कुमार की नरेन्द्र मोदी के साथ बढ़ी दूरियों ने एक बार
फिर यह साबित कर दिया बिहार में अपना वजूद बचाने के लिए दोस्त के दुश्मन बनने में
देरी नहीं लगेगी और हुआ भी ऐसा ही | नमो की अगुवाई में भाजपा
की पूर्ण बहुमत से केंद्र में प्रचंड जीत ने यह साबित कर दिया आने वाले समय में
उसके खिलाफ विरोधियो की एक बड़ी गोलबंदी शुरू हो सकती है जिसकी शुरुवात बिहार से ही
वहां होने जा रहे आगामी उपचुनाव से होने जा रही है | कभी भाजपा की गोद में
बैठने वाले नीतीश कुमार अब नरेन्द्र मोदी से दो दो हाथ करने को इस कदर बेताब हैं कि उनकी गैर कांग्रेसवाद की राजनीती अब कहीं पीछे जा चुकी है |वह
लालू और कांग्रेस को साधकर अपनी पार्टी जद यू का
वजूद बचाने में जुट गए हैं |
आने वाले बिहार के विधान सभा उपचुनावों की दस सीटो पर नीतीश ,लालू और कांग्रेस की
तिकड़ी भाजपा को नेस्तनाबूद करने की पुरजोर कोशिश करने में जुट गयी है | जदयू और राजद जहाँ चार सीटो पर अपने
प्रत्याशी उतार रही है वहीँ सूपड़ा साफ़ कर चुकी
कांग्रेस सांप्रदायिक शक्तियों के मुकाबले के लिए दो सीट मिलने के बाद भी अगर फूली
नहीं समा रही है तो इस सियासत की मजबूरियों को बखूबी समझा जा सकता है | |
इस उपचुनाव का सबसे दिलचस्प पहलू नीतीश कुमार और लालू प्रसाद का एक मंच पर सामने आना
है | बिहार में हाल के लोक सभा चुनाव में भाजपा ने आशातीत सफलता पायी जिसके बाद सारे विपक्षी दल उसके खिलाफ लामबंद
दिखाई दे रहे हैं | हाल में जिस तरीके से भाजपा का वोट
प्रतिशत और सीटें राज्य में बढ़ी हैं उसने हर किसी के सामने मुश्किलों का पहाड़ ही खड़ा
कर दिया है जिसके बाद हर राजनीतिक दल की कोशिश भाजपा के जनाधार में सेंध लगाना बन
चुकी है जिसकी शुरुवात अब बिहार से होने जा रही है |
राजनीती की सबसे दिलचस्प तस्वीर बिहार में लालू और नीतीश के
साथ आने बन रही है और विपक्षी दल होने का तमगा तक खो चुकी कांग्रेस भी अब उनके साथ
कदमताल कर रही है | उसकी मजबूरी भी भाजपा को सांप्रदायिक साबित करना बन गयी है | कर्पूरी ठाकुर और जे पी की छाँव तले राजनीती
का ककहरा सीखने वाले लालू प्रसाद और नीतीश कुमार कभी एक दूसरे को देखना तक
पसंद नहीं करते थे लेकिन भाजपा में नरेन्द्र मोदी जिस तरह का प्रचंड जनादेश लेकर आये उससे इन दोनों
राजनेताओ की घिग्गी इस कदर बंध गयी कि दोनों की
मजबूरी अब अपनी पार्टी का भविष्य बचाना बन गयी जिसके बाद दोनों ने साथ आने का
फैसला लेने पर मजबूर होना पड़ा | लालू के समय में बिहार में
जंगल राज रहा जिसके खात्मे के लिए नीतीश कुमार आगे आये और भाजपा के साथ मिलकर
उन्होंने एक दौर में लालू के पतन की पटकथा बिहार
वासियों को लालू के जंगल राज से मुक्ति दिलवाकर ली |हाल के समय में चारा घोटाले में बड़ी सजा
पाने के बाद जहाँ यह कयास लगाये जा रहे थे लालू बिहार में अपनी चमक खो चुके हैं
वहीँ अब नीतीश कुमार और कांग्रेस के उनके साथ आने
से यह साबित हो गया है लालू की बिहार में प्रासंगिकता पहले भी थी, अभी भी है और शायद भविष्य में भी रहे | वहीँ
वक्त का पहिया भी नीतीश कुमार के शासन में ऐसा
घूमा कि अपने शासन में हुए विकास कार्यो से
उन्होंने लालू प्रसाद से इतर अपनी एक अलग तरह की पहचान लगातार दो कार्यकाल मिलने के बाद बनाई जिस कारण उन्हें ‘सुशासन बाबू’ के रूप
में जाना जाने लगा | यह दौर बिहार के अन्दर ऐसा रहा जब लालू
ने भी नीतीश से आर पार लड़ने का मन बना लिया और एक दूसरे पर टिप्पणी, कोसने का का शायद ही कोई मौका उन्होंने चूका | इन
सबके बाद भी अगर दोनों अपनी पार्टी के वजूद को बचाने के लिए साथ आये हैं तो इसके
पीछे उनकी मजबूरियों को समझा जा सकता है |
लोक सभा चुनावो में बिहार में भाजपा को अपने बूते मिली
जबरदस्त सफलता और वोट प्रतिशत ने पहली बार इन दोनों जमीनी नेताओ की सियासी जमीन पर
ही इस कदर सेंधमारी कर दी जिससे उबरने के लिए इनका साथ आना मजबूरी ही बन गया था |लोक सभा चुनाव में बिहार की 40 सीटो में से 31
सीटो पर झंडा न केवल भाजपा ने गाड़ा
बल्कि अपने वोट में 39 प्रतिशत का इजाफा भी कर लिया वहीँ
राजद 20, जद यू 16
और कांग्रेस 8 प्रतिशत में ही सिमट
कर रह गयी जिसके बाद बिहार की राजनीती में ऐसी खलबली मच गयी कि हर दल की मजबूरी भाजपा को रोकना बन गयी | भाजपा के वोट
प्रतिशत के मुकाबले इन तीन राजनीतिक दलों का वोट
प्रतिशत अगर मिलाकर देखें तो लोक सभा चुनावो में तीनो का वोट भाजपा से पांच
प्रतिशत ज्यादा बैठता है शायद यही वजह और मजबूरी
है जो इन्होने उपचुनाव में भाजपा को हराने के लिए
अपना पूरा जोर लगवा दिया है | नीतीश की पार्टी जद यू के भीतर उनके इस फैसले पर भीतर ही भीतर आक्रोश साफ़ देखा जा सकता है | यहाँ तक की शरद यादव सरीखे खांटी और जमीनी नेता जो गैर कांग्रेसवाद की राजनीती दशको
से करते आये हैं इस चुनाव में फिर से कांग्रेस के साथ आ गए हैं जिससे उनके समर्थको
में भी भारी नाराजगी झलक रही है | यह नाराजगी उस समय भी देखने को मिली थी जब बिहार में भाजपा और जद यू का कई बरस पुराना गठबन्धन टूट गया था | लेकिन हार जीत का फैसला जनता जनार्दन
की अदालत के पास रहता है इसलिए बिहार उपचुनाव में
भी ऊंट किस करवट बैठेगा यह सब तय करना अब जनता का
काम है |
जहाँ तक लोक सभा चुनावों की बात थी तो देश में एंटी
कांग्रेस लहर को मोदी ने बखूबी कैश किया जिसके चलते पूरे देश में भाजपा की सीटो और
वोट प्रतिशत में इजाफा हुआ लेकिन लोक सभा चुनावो और विधान सभा चुनावो में जमीन
आसमान का अंतर होता है |
यह हाल के उत्तराखंड के तीन उपचुनावों से भी समझा जा सकता है जहाँ
दो महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा 5-0 से आगे रही थी
वहीँ हाल में विधान सभा उपचुनाव की तीन सीटो
धारचूला, सोमेश्वर और डोईवाला में कांग्रेस ने तीनो सीटो पर
भाजपा को करारी मौत दे दी | ऐसे में लोक सभा चुनावों के
मुकाबले भाजपा के सामने भी विधान सभा उपचुनावों के लिए डगर आसान नही लग रही |विधान सभा उपचुनावों में भी भाजपा अच्छा कर जाएगी इसकी कोई गारंटी नहीं है
क्युकि महंगाई , डीजल पेट्रोल के बढे दाम , बढ़ा रेल किराया मोदी की मुश्किलों को बढाने का काम कर रहा है | वहीँ बिहार की राजनीती में एक बार फिर जातीय गणित न केवल जातीय
समीकरणों को उलझा रहा है बल्कि कुर्सी पाने के
लिए नेताओ द्वारा किसी भी पाले में जाने से वोटर की ख़ामोशी भी बहुत कुछ कहानी बयां
कर रही है |
लोक सभा चुनावो में भाजपा को आशातीत सफलता अगर मिली थी तो इसकी बड़ी वजह मोदी का
मैनेजमेंट था और बिहार में कांग्रेस , जद यू और राजद के अलग अलग लड़ने का लाभ भाजपा ले गयी साथ में राम विलास पासवान के चुनावो से ठीक पहले भाजपा के साथ आने से दलितों के
वोट भाजपा के पाले में आ गए थे | लेकिन अब परिस्थितियां अलग हैं | लोक सभा में पार्टी
की करारी हार के बाद नीतीश ने मूड भांपकर जीतन राम माझी के कंधे पर सवार होकर अपनी
सरकार बचाने के लिए हर सियासी तिकड़म का सहारा लिया है जिसमे कांग्रेस से लेकर लालू प्रसाद तक को साथ लेकर अपना दांव बिहार में खेला है |
इधर भाजपा में मोदी की दीवानगी
कार्यकर्ताओ से लेकर स्वयंसेवको तक में जरुर है
लेकिन अच्छे दिनों के वादे के साथ सत्ता में आई
मोदी सरकार अल्प समय में ऐसा कुछ नहीं कर पायी है जिससे मतदाताओ का दिल जीता जा
सके | ऐसे में चुनावी डगर
बहुत मुश्किल दिख रही है | फिर आज के समय का वोटर यह समझ रहा है किसको कब कहाँ वोट करना है | ऐसे में बदले माहौल में बिहार उपचुनाव में भाजपा कैसा प्रदर्शन करती है यह
देखने लायक होगा |
वैसे अमित शाह और मोदी की जोड़ी की असल परीक्षा अब शुरू होने
जा रही है |
बिहार में माझी सरकार के कार्यकाल के बाद विधान सभा चुनाव होने जा
रहे हैं जिसमे सुशील कुमार मोदी , रवि शंकर प्रसाद, शत्रुघ्न सिन्हा , शाहनवाज हुसैन , राजीव प्रताप रूडी , राधा मोहन सिंह मंगल पांडे , सी पी ठाकुर सरीखे
नेताओ की भारी भरकम फ़ौज सी एम इन वेटिंग की कतार में खडी है और इन सबके बीच किसी एक नेता को प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ना मुश्किल हो चला है जब पार्टी
की बिहार इकाई की बेंच स्ट्रेंथ बेहद मजबूत नजर आ
रही है | देखना होगा आने वाले दिनों में बिहार की
यह जातीय राजनीती किस करवट बैठती है ?
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