छत्तीसगढ़ के सुकमा के चिंतागुफा क्षेत्र में
नक्सलियों के हमले ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि नक्सलियों का आंतरिकतंत्र
सुरक्षा बलों पर पूरी तरह से भारी है। इसी सुकमा के इलाके में पहले भी कई सुरक्षा
बलों को निशाना बनाया जा चुका है लेकिन उसके बाद भी सरकारों का जवानो से कोई लेना
देना नहीं है | मौजूदा दौर में सरकारें कितनी असंवेदनशील है इसका अंदाजा आप इसी
बात से लगा सकते हैं कि अब तक हुए नक्सली हमलो में मारे गए जवानो को शहीद का दर्जा
मिलना तो दूर उनके परिवार की सुध लेने में हमारी सरकारें विफल रही है | यह सवाल
बताता है आजाद भारत में जवानो की जानें कितनी सस्ती हो चली हैं |
छत्तीसगढ़ में हालात कितने खराब हैं इसका अंदाजा
इसी बात से लगाया जा सकता है दिल्ली से गृह मंत्री सुकमा जाने के लिए उड़ान भरते
हैं लेकिन उनकी बैठकें इस दौर में रायपुर तक ही सिमटकर रह जाती हैं और यू टर्न
लेने वाली उनकी सरकार मारे गए जवानो को शहीद का दर्जा देने में भी महज 24 घंटे में
ही पलट जाती है | सुकमा में मारे गए जवानो के मसले पर सरकार की असंवेदनहीनता
का एक और नमूना कल नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ में तब देखने को मिला जब मारे गए जवानो
की वर्दी और जूते तक पोस्टमार्टम हॉउस के बाहर पड़े मिले | कुछ लोगों को जब इसकी
जानकारी मिली तब काफी हो हल्ले के बीच मीडिया कर्मियों ने इस खबर को अंजाम तक
पहुचाया |
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित सुकमा जिले में नक्सलियों ने
केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के
गश्ती दल पर हमला कर एक बार फिर यह जता दिया नक्सलियों के प्रभाव को कम आंकना
छत्तीसगढ़ सरकार की एक बड़ी भूल है | इस
हमले में सीआरपीएफ के दो अधिकारियों समेत 14 पुलिसकर्मी शहीद हो
गए साथ ही कई पुलिसकर्मी घायल भी हुए हैं लेकिन
सरकारों को उनकी सुध लेने की फुर्सत कहाँ ?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस
हमले की निंदा करते हुए कहा कि 'राष्ट्र विरोधी तत्वों' द्वारा किए गए 'नृशंस' और 'अमानवीय' हमले की निंदा करने के लिए शब्द ही नहीं
हैं लेकिन इतना सब कहना पर्याप्त नहीं है | मोदी जब सत्ता में नहीं थे तो अपनी चुनावी सभाओ में 56 इंच की छाती दिखाकर
नक्सली हिंसा पर लगाम लगाने की बड़ी बातें मंचो से किया करते थे लेकिन आज हालत यह है
कि उनकी खुद की सरकार के गृह मंत्री के
पास नक्सली हमले की निंदा कायरतापूर्ण कृत्य कहने के सिवाय कोई पुख्ता रणनीति नहीं
है | राजनाथ सिंह तो यह कहते फिरते हैं कि
इस हमले के बाद उन्हें शाम को ही निकल जाना था लेकिन हवाई यात्रा की तकनीकी
दिक्कतों के कारण वह मंगलवार सुबह घटनास्थल के लिए रवाना हुए | रायपुर से वापसी एक
दिन के भीतर कर आप अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड सकते | क्या राजनाथ इस बात
को समझते हैं किन परिस्थितियों के बीच सीआरपीऍफ़ के जवान छत्तीसगढ़ में अपनी जानें
जोखिम में डालकर काम कर रहे हैं |
सुकमा जिले के चिंतागुफा थाना क्षेत्र में दोरनापाल और चिंतलनार गांव के बीच नक्सलियों ने सीआरपीएफ के गस्ती दल पर घात लगाकर हमला किया । यह बहुत कायराना करतूत है | इस हमले में सीआरपीएफ के एक असिस्टेंट कमांडेंट और एक डिप्टी कमांडेंट समेत 14 पुलिसकर्मी शहीद हो गए। चिंतागुफा थाना क्षेत्र से 29 नवंबर को सीआरपीएफ की 223वीं बटालियन के अधिकारियों और जवानों को नक्सल विरोधी अभियान में रवाना किया था लेकिन उनकी वापसी के दौरान नक्सलियों ने पुलिस दल पर घात लगाकर हमला कर दिया। नक्सली एक कारगर रणनीति के तहत कुछ अंतराल के बाद हमारे जवानो को निशाना बना रहे हैं इसके बावजूद हमारे नीति नियंताओ की रणनीति में कुछ बदलाव नहीं दिखाई देता | ऐसे हर हमले के बाद सीआरपीएफ और स्थानीय पुलिस के बीच समन्वय के अभाव की बात भी सामने आती है। ज्यादा दिन नहीं बीते जब सीआरपीएफ के महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए दिलीप त्रिवेदी आरोप लगाते हुए नहीं चूके कि कुछ राज्य सरकारों में ऐसे तत्व हैं जो अपने निहित स्वार्थों के चलते माओवाद को खत्म नहीं होने देना चाहते, क्योंकि इसके नाम पर उन्हें केंद्र से फंड मिलता है! हालांकि यह दिलीप थियोरी अब तक किसी के गले नहीं उतर रही क्युकि नक्सली ओपरेशन के लिए प्रतिवर्ष राज्य सरकारों को करोड़ों की मोटी रकम प्रतिमाह दी जा रही है लेकिन इसके बावजूद भी नक्सलियों से माओवादियों से निपटा नहीं जा सका है| अभी कुछ समय पहले राजनाथ सिंह ने छत्तीसगढ़ की सरकार को नक्सली अभियानों के लिए मोटी रकम दिए जाने की बात स्वीकारी थी और मुख्यमंत्री रमन सिंह की नक्सली ओपरेशन के लिए और रकम देने की मांग को खारिज कर दिया था | फिर अगर नक्सलवाद सरीखी पेट की लड़ाई को सरकार अलग चश्मे से देखती है तो समझना यह भी जरुरी होगा उदारीकरण के आने के बाद किस तरह नक्सल प्रभावित इलाको में सरकार ने अपनी उदासीनता दिखाई है जिसके चलते लोग उस बन्दूक के जरिये "सत्ता " को चुनौती दे रहे है जिसके सरोकार इस दौर में आम आदमी के बजाय " कारपोरेट " का हित साधने में लगे हुए हैं । पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी एक बार नक्सलवादी लड़ाई को अगर देश की आतंरिक सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा बताया था | हमारे नए प्रधानमंत्री मोदी भी नक्सलियों को खतरा बताकर अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं भाग सकते | हमें तो इस दौर में यह समझना जरुरी है आखिर कौन से ऐसे कारण है जिसके चलते बन्दूक सत्ता की नली के जरिये "चेक एंड बेलेंस" का खेल खेलना चाहती है
सुकमा जिले के चिंतागुफा थाना क्षेत्र में दोरनापाल और चिंतलनार गांव के बीच नक्सलियों ने सीआरपीएफ के गस्ती दल पर घात लगाकर हमला किया । यह बहुत कायराना करतूत है | इस हमले में सीआरपीएफ के एक असिस्टेंट कमांडेंट और एक डिप्टी कमांडेंट समेत 14 पुलिसकर्मी शहीद हो गए। चिंतागुफा थाना क्षेत्र से 29 नवंबर को सीआरपीएफ की 223वीं बटालियन के अधिकारियों और जवानों को नक्सल विरोधी अभियान में रवाना किया था लेकिन उनकी वापसी के दौरान नक्सलियों ने पुलिस दल पर घात लगाकर हमला कर दिया। नक्सली एक कारगर रणनीति के तहत कुछ अंतराल के बाद हमारे जवानो को निशाना बना रहे हैं इसके बावजूद हमारे नीति नियंताओ की रणनीति में कुछ बदलाव नहीं दिखाई देता | ऐसे हर हमले के बाद सीआरपीएफ और स्थानीय पुलिस के बीच समन्वय के अभाव की बात भी सामने आती है। ज्यादा दिन नहीं बीते जब सीआरपीएफ के महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए दिलीप त्रिवेदी आरोप लगाते हुए नहीं चूके कि कुछ राज्य सरकारों में ऐसे तत्व हैं जो अपने निहित स्वार्थों के चलते माओवाद को खत्म नहीं होने देना चाहते, क्योंकि इसके नाम पर उन्हें केंद्र से फंड मिलता है! हालांकि यह दिलीप थियोरी अब तक किसी के गले नहीं उतर रही क्युकि नक्सली ओपरेशन के लिए प्रतिवर्ष राज्य सरकारों को करोड़ों की मोटी रकम प्रतिमाह दी जा रही है लेकिन इसके बावजूद भी नक्सलियों से माओवादियों से निपटा नहीं जा सका है| अभी कुछ समय पहले राजनाथ सिंह ने छत्तीसगढ़ की सरकार को नक्सली अभियानों के लिए मोटी रकम दिए जाने की बात स्वीकारी थी और मुख्यमंत्री रमन सिंह की नक्सली ओपरेशन के लिए और रकम देने की मांग को खारिज कर दिया था | फिर अगर नक्सलवाद सरीखी पेट की लड़ाई को सरकार अलग चश्मे से देखती है तो समझना यह भी जरुरी होगा उदारीकरण के आने के बाद किस तरह नक्सल प्रभावित इलाको में सरकार ने अपनी उदासीनता दिखाई है जिसके चलते लोग उस बन्दूक के जरिये "सत्ता " को चुनौती दे रहे है जिसके सरोकार इस दौर में आम आदमी के बजाय " कारपोरेट " का हित साधने में लगे हुए हैं । पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी एक बार नक्सलवादी लड़ाई को अगर देश की आतंरिक सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा बताया था | हमारे नए प्रधानमंत्री मोदी भी नक्सलियों को खतरा बताकर अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं भाग सकते | हमें तो इस दौर में यह समझना जरुरी है आखिर कौन से ऐसे कारण है जिसके चलते बन्दूक सत्ता की नली के जरिये "चेक एंड बेलेंस" का खेल खेलना चाहती है
कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के रूप में नक्सलवाद की व्यवस्था पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से 1967 में कानू सान्याल, चारू मजूमदार, जंगल संथाल की अगुवाई में शुरू हुई । सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक समानता स्थापित करने के उद्देश्य से इस तिकड़ी ने उस दौर में बेरोजगार युवको , किसानो को साथ लेकर गाव के भू स्वामियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था । उस दौर में " आमारबाडी, तुम्हारबाडी, नक्सलबाडी" के नारों ने भू स्वामियों की चूले हिला दी । इसके बाद चीन में कम्युनिस्ट राजनीती के प्रभाव से इस आन्दोलन को व्यापक बल भी मिला । केन्द्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इस समय आन्ध्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार , महाराष्ट्र समेत १४ राज्य नक्सली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित हैं ।
नक्सलवाद के उदय का कारण सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक असमानता और शोषण है । बेरोजगारी, असंतुलित विकास ये कारण ऐसे है जो नक्सली हिंसा को लगातार बढ़ा रहे है । नक्सलवादी राज्य का अंग होने के बाद भी राज्य से संघर्ष कर रहे है । चूँकि इस समूचे दौर में उसके सरोकार एक तरह से हाशिये पर चले गए है और सत्ता ओर कॉर्पोरेट का कॉकटेल जल , जमीन, जंगल के लिये खतरा बन गया है अतः इनका दूरगामी लक्ष्य सत्ता में आमूल चूल परिवर्तन लाना बन गया है । इसी कारण सत्ता की कुर्सी सँभालने वाले नेताओ और नौकरशाहों को ये सत्ता के दलाल के रूप में चिन्हित कर रहे हैं और समय आने अब उन पर हमले कर उनकी सत्ता को ना केवल चुनौती दे रहे हैं बल्कि यह भी बतला रहे हैं समय आने पर वह सत्ता तंत्र को आइना दिखाने का माददा रखते हैं ।
नक्सलवाद
के बड़े पैमाने के रूप में फैलने का एक कारण भूमि सुधार कानूनों का सही ढंग से
लागू ना हो पाना भी है जिस कारण अपने प्रभाव के इस्तेमाल के माध्यम से कई ऊँची
रसूख वाले जमीदारो ने गरीबो की जमीन पर कब्ज़ा कर दिया जिसके एवज में उनमे काम करने
वाले मजदूरों का न्यूनतम मजदूरी देकर शोषण शुरू हुआ ।
इसी का फायदा नक्सलियों ने उठाया और मासूमो को रोजगार और न्याय
दिलाने का झांसा देकर अपने संगठन में शामिल कर दिया । यही
से नक्सलवाद की असल में शुरुवात हो गई ओर आज कमोवेश हर अशांत इलाके में नक्सलियों
के बड़े संगठन बन गए हैं ।
आज आलम ये है हमारा पुलिसिया तंत्र इनके आगे बेबस हो गया है इसी के चलते कई राज्यों में नक्सली समानांतर सरकारे चला रहे है । देश की सबसे बड़ी नक्सली कार्यवाही १३ नवम्बर २००५ को घटी जहाँ जहानाबाद जिले में माओवादियो ने किले की तर्ज पर घेराबंदी कर स्थानीय प्रशासन को अपने कब्जे में ले लिया जिसमे तकरीबन ३०० से ज्यादा कैदी शामिल थे। "ओपरेशन जेल ब्रेक" नाम की इस घटना ने केंद्र और राज्य सरकारों के सामने मुश्किलें बढ़ा दी । तब से लगातार नक्सली एक के बाद एक घटनाये कर राज्य सरकारों की नाक में दम किये है । चाहे मामला बस्तर का हो या दंतेवाडा का हर जगह एक जैसे हालात हैं । बीते बरस छत्तीसगढ़ में एक हजार से ज्यादा नक्सलियों ने कांग्रेस के उनतीस से ज्यादा कांग्रेसी नेताओ को जिस तरह गोदम घाटी में मौत के घाट उतारा उसे राजनेताओ पर की गई पहली सबसे भीषण कार्यवाही माना जा सकता है । महेंद्र कर्मा तो नक्सलियों के निशाने पर पहले से ही थे लेकिन कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में नक्सलियों ने गोलाबारी में नन्द कुमार पटेल , उदय मुदलियार जैसे वरिष्ठ नेताओ को मारकर अपने नापाक इरादे जता दिए । 2009 में लालगढ़ में नक्सलियों ने अपना खौफ पूरे बंगाल में दिखाया था इसके बाद 2007 में पचास से ज्यादा पुलिस कर्मी नक्सली हिंसा में मारे गए तो वहीँ 2010 में छत्तीसगढ़ में सी आर पी एफ के 76 जवानो की हत्या से नक्सलियों ने तांडव ही मचा दिया । उसके बाद नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेताओ को निशाने पर लिया जिसमे छत्तीसगढ़ कांग्रेस की पूरी लीडरशिप ही साफ़ हो गई |
केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जुलाई 2011 में पेश रिपोर्ट में तकरीबन तिरासी जिले ऐसे पाए गए जहाँ माओवादी समानांतर सरकार चला रहे हैं । हालाँकि 2009 तक आठ राज्यों के तकरीबन देश के एक चौथाई जिले नक्सलियों के कब्जे में थे । वर्तमान में नक्सलवादी विचारधारा हिंसक रूप धारण कर चुकी है । सर्वहारा शासन प्रणाली की स्थापना हेतु ये हिंसक साधनों के जरिये सत्ता परिवर्तन के जरिये अपने लक्ष्य प्राप्ति की चाह लिये है तो वहीँ सरकारों की "सेज" सरीखी नीतियों ने भी आग में घी डालने का काम किया है । सेज की आड़ में सभी कोर्पोरेट घराने अपने उद्योगों की स्थापना के लिये जहाँ जमीनों की मांग कर रहे है वही सरकारों का नजरिया निवेश को बढ़ाना है जिसके चलते औद्योगिक नीति को बढावा दिया जा रहा है ।
कृषि " योग्य भूमि जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीड है उसे ओद्योगिक कम्पनियों को विकास के नाम पर उपहारस्वरूप दिया जा रहा है जिससे किसानो की माली हालत इस दौर में सबसे ख़राब हो चली है । यहाँ बड़ा सवाल ये भी है "सेज" को देश के बंजर इलाको में भी स्थापित किया जा सकता है लेकिन कंपनियों पर हर सरकारें ज्यादा दरियादिली दिखाता नजर आती है । जहाँ तक किसानो के विस्थापन का सवाल है तो उसे बेदखल की हुई जमीन का विकल्प नहीं मिल पा रहा है । मुआवजे का आलम यह है सत्ता में बैठे हमारे नेताओ का कोई करीबी रिश्तेदार अथवा उसी बिरादरी का कोई कृषक यदि मुआवजे की मांग करता है तो उसको अधिक धन प्रदान किया जा रहा है । मंत्री महोदय का यही फरमान ओर फ़ॉर्मूला किसानो के बीच की खाई को और चौड़ा कर रहा है ।
आज आलम ये है हमारा पुलिसिया तंत्र इनके आगे बेबस हो गया है इसी के चलते कई राज्यों में नक्सली समानांतर सरकारे चला रहे है । देश की सबसे बड़ी नक्सली कार्यवाही १३ नवम्बर २००५ को घटी जहाँ जहानाबाद जिले में माओवादियो ने किले की तर्ज पर घेराबंदी कर स्थानीय प्रशासन को अपने कब्जे में ले लिया जिसमे तकरीबन ३०० से ज्यादा कैदी शामिल थे। "ओपरेशन जेल ब्रेक" नाम की इस घटना ने केंद्र और राज्य सरकारों के सामने मुश्किलें बढ़ा दी । तब से लगातार नक्सली एक के बाद एक घटनाये कर राज्य सरकारों की नाक में दम किये है । चाहे मामला बस्तर का हो या दंतेवाडा का हर जगह एक जैसे हालात हैं । बीते बरस छत्तीसगढ़ में एक हजार से ज्यादा नक्सलियों ने कांग्रेस के उनतीस से ज्यादा कांग्रेसी नेताओ को जिस तरह गोदम घाटी में मौत के घाट उतारा उसे राजनेताओ पर की गई पहली सबसे भीषण कार्यवाही माना जा सकता है । महेंद्र कर्मा तो नक्सलियों के निशाने पर पहले से ही थे लेकिन कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में नक्सलियों ने गोलाबारी में नन्द कुमार पटेल , उदय मुदलियार जैसे वरिष्ठ नेताओ को मारकर अपने नापाक इरादे जता दिए । 2009 में लालगढ़ में नक्सलियों ने अपना खौफ पूरे बंगाल में दिखाया था इसके बाद 2007 में पचास से ज्यादा पुलिस कर्मी नक्सली हिंसा में मारे गए तो वहीँ 2010 में छत्तीसगढ़ में सी आर पी एफ के 76 जवानो की हत्या से नक्सलियों ने तांडव ही मचा दिया । उसके बाद नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेताओ को निशाने पर लिया जिसमे छत्तीसगढ़ कांग्रेस की पूरी लीडरशिप ही साफ़ हो गई |
केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जुलाई 2011 में पेश रिपोर्ट में तकरीबन तिरासी जिले ऐसे पाए गए जहाँ माओवादी समानांतर सरकार चला रहे हैं । हालाँकि 2009 तक आठ राज्यों के तकरीबन देश के एक चौथाई जिले नक्सलियों के कब्जे में थे । वर्तमान में नक्सलवादी विचारधारा हिंसक रूप धारण कर चुकी है । सर्वहारा शासन प्रणाली की स्थापना हेतु ये हिंसक साधनों के जरिये सत्ता परिवर्तन के जरिये अपने लक्ष्य प्राप्ति की चाह लिये है तो वहीँ सरकारों की "सेज" सरीखी नीतियों ने भी आग में घी डालने का काम किया है । सेज की आड़ में सभी कोर्पोरेट घराने अपने उद्योगों की स्थापना के लिये जहाँ जमीनों की मांग कर रहे है वही सरकारों का नजरिया निवेश को बढ़ाना है जिसके चलते औद्योगिक नीति को बढावा दिया जा रहा है ।
कृषि " योग्य भूमि जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीड है उसे ओद्योगिक कम्पनियों को विकास के नाम पर उपहारस्वरूप दिया जा रहा है जिससे किसानो की माली हालत इस दौर में सबसे ख़राब हो चली है । यहाँ बड़ा सवाल ये भी है "सेज" को देश के बंजर इलाको में भी स्थापित किया जा सकता है लेकिन कंपनियों पर हर सरकारें ज्यादा दरियादिली दिखाता नजर आती है । जहाँ तक किसानो के विस्थापन का सवाल है तो उसे बेदखल की हुई जमीन का विकल्प नहीं मिल पा रहा है । मुआवजे का आलम यह है सत्ता में बैठे हमारे नेताओ का कोई करीबी रिश्तेदार अथवा उसी बिरादरी का कोई कृषक यदि मुआवजे की मांग करता है तो उसको अधिक धन प्रदान किया जा रहा है । मंत्री महोदय का यही फरमान ओर फ़ॉर्मूला किसानो के बीच की खाई को और चौड़ा कर रहा है ।
सरकार
से हारे हुए मासूमो की जमीनों की बेदखली के बाद एक फूटी कौड़ी भी नहीं बचती जिस के
चलते समाज में बढती असमानता उन्हें नक्सलवाद के गर्त में धकेल रही है । आदिवासी
इलाको में तस्वीर भयावह है । प्राकृतिक संसाधनों से देश के यह सभी जिले भरपूर हैं
लेकिन राज्य और केंद्र सरकार की गलत नीतियों ने
यहाँ के आदिवासियों का पिछले कुछ दशक से शोषण किया है और इसी शोषण के प्रतिकार का रूप नक्सलवाद के रूप में हमारे सामने आज
खड़ा है । "सलवा जुडूम" में आदिवासियों को हथियार
देकर अपनी बिरादरी के "नक्सलियों" के खिलाफ लड़ाया जा रहा है जिस पर
सुप्रीम कोर्ट तक सवाल उठा चुका है । हाल के वर्षो में नक्सलियों ने जगह जगह अपनी
पैठ बना ली है और आज हालात ये है बारूदी सुरंग बिछाने से लेकर ट्रेन की पटरियों को
निशाना बनाने में ये नक्सली पीछे नहीं है । अब तो ऐसी
भी खबरे है हिंसा और अराजकता का माहौल बनाने में जहाँ चीन इनको हथियारों की सप्लाई
कर रहा है वही हमारे देश के कुछ सफेदपोश नेता और कई विदेशी संगठन धन देकर इनको हिंसक गतिविधियों के लिये उकसा रहे है । अगर ये
बात सच है तो यकीन जान लीजिये यह सब हमारी आतंरिक सुरक्षा के लिये खतरे की घंटी है
। केंद्र सरकार के पास इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति
का अभाव है वही राज्य सरकारे केंद्र सरकार के जिम्मे इसे डालकर अपना उल्लू सीधा
करती है और बड़ा सवाल इस दौर में यह भी है नक्सल प्रभावित राज्यों में बड़े बड़े
पैकेज देने के बाद भी यह पैसा कहाँ खर्च
हो रहा है इसकी जवाबदेही तय करने वाला कोई नहीं है । इलाको में बिजली नहीं है तो
पानी का संकट भी अहम हो चला है । वहीँ अस्पताल के लिए आज भी आजादी के बाद लोगो को मीलो दूर का सफ़र तय करना पड़ रहा है । परन्तु दुःख है हमारी सरकारों ने नक्सली हिंसा को सामाजिक , आर्थिक समस्या से ना जोड़कर उसे कानून व्यवस्था
से जोड़ लिया है । इन्ही दमनकारी नीतियों के चलते इस
समस्या को गंभीर बताने पर सरकारे ना केवल तुली हैं बल्कि उसे लोकतंत्र के लिए बाद
खतरा बता भी रही है और वोट बैंक के स्वार्थ के चलते एक की कमीज दूसरे से मैली
बताने पर भी तुली हुई हैं । जबकि असलियत ये है कानून व्यवस्था शुरू से राज्यों का
विषय रही है लेकिन हमारा पुलिसिया तंत्र भी नक्सलियों के आगे बेबस नजर आता है ।
राज्य सरकारों में तालमेल में कमी का सीधा फायदा ये नक्सली उठा रहे है ।
पुलिस थानों में हमला बोलकर हथियार लूट कर वह जंगलो के माध्यम से एक
राज्य की सीमा लांघ कर दूसरे राज्य में चले जा रहे है बल्कि आये दिन अपनी बिछाई
बिसात से सत्ता को अपने अंदाज में चुनौती दे रहे हैं । ऐसे में
राज्य सरकारे एक दूसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेती है ।
इसी आरोप प्रत्यारोप की उधेड़बुन में हम आज तक नक्सली हिंसा समाधान
नहीं कर पाए हैं |
गृह
मंत्रालय की " स्पेशल टास्क फ़ोर्स " रामभरोसे
है । केंद्र के द्वारा दी जाने वाली मदद का सही इस्तेमाल कर
पाने में भी अभी तक पुलिसिया तंत्र असफल साबित हुआ है । भ्रष्टाचार रुपी भस्मासुर
का घुन ऊपर से लेकर नीचे तक लगे रहने के चलते आज तक कोई सकारात्मक परिणाम सामने
नहीं आ पाए हैं साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों में
आबादी के अनुरूप पुलिस कर्मियों की तैनाती नहीं हो पा रही है । कॉन्स्टेबल से लेकर
अफसरों के कई पद जहाँ खली पड़े है वही ऐसे नक्सल प्रभावित संवेदनशील इलाको में कोई
चाहकर भी काम नहीं करना चाहता । इसके बाद भी सरकारों
का गाँव गाँव थाना खोलने का फैसला समझ से परे लगता है।
नक्सल
प्रभावित राज्यों पर केंद्र को सही ढंग से समाधान करने की दिशा में गंभीरता से
विचार करने की जरुरत है। चूँकि इन इलाको में रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी समस्याओ का अभाव है जिसके
चलते बेरोजगारी के अभाव में इन इलाको में भुखमरी की एक बड़ी समस्या बनी हुई है।
सरकारों की असंतुलित विकास की नीतियों ने इन इलाके के लोगो को हिंसक
साधन पकड़ने के लिये मजबूर कर दिया है । हमें यह समझना पड़ेगा कि लुटियंस की दिल्ली के एसी कमरों में बैठकर
नक्सली हिंसा का समाधान नहीं हो सकता । इस दिशा में सरकारों को अभी से गंभीरता के
साथ विचार करना होगा तभी बात बनेगी अन्यथा आने वाले वर्षो में ये नक्सलवाद
"सुरसा के मुख" की तरह अन्य राज्यों को निगल सकता है ।
कुल
मिलकर आज की बदलती परिस्थितियों में नक्सलवाद भयावह रूप लेता नजर आ रहा है ।
बुद्ध, गाँधी की धरती के लोग आज अहिंसा का मार्ग
छोड़कर हिंसा पर उतारू हो गए है। विदेशी वस्तुओ का
बहिष्कार करने वाले आज पूर्णतः विदेशी विचारधारा को अपना आदर्श बनाने लगे है ।
नक्सल प्रभावित राज्यों में पुलिस कर्मियों की हत्या , हथियार लूटने की घटना और अब सीधे छत्तीसगढ़ में
राजनेताओ की हत्या बताती है नक्सली अब "लक्ष्मण रेखा" लांघ चुके
हैं । नक्सल प्रभावित राज्यों में जनसँख्या के अनुपात में पुलिस
कर्मियों की संख्या कम है। इस दौर में पुलिस
जहाँ संसाधनों का रोना रोती है वही हमारे नेताओ में इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति
नहीं है । ख़ुफ़िया विभाग की नाकामी भी इसके पाँव पसारने का एक बड़ा कारण
है ।
एक
हालिया प्रकाशित रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इन नक्सलियों को जंगलो में
"माईन्स" से करोडो की आमदनी होती है जिसका प्रयोग वह अपनी ताकत में
इजाफा करने में करते हैं
। कई परियोजनाए इनके दखल के चलते अभी विभिन्न राज्यों में लंबित पड़ी हुई है । नक्सलियों के वर्चस्व को जानने समझने करता सबसे बेहतर उदाहरण झारखण्ड का "छतरा " और छत्तीसगढ़ का "बस्तर" , कांकेर और "दंतेवाडा " और सुकमा जिला है जहाँ बिना केंद्रीय पुलिस कर्मियों की मदद के बिना किसी का पत्ता तक नहीं हिलता और इन इलाको के जंगल में जाने से हर कोई कतराता है । यह हालत काफी चिंताजनक तस्वीर को सामने पेश करते हैं ।
। कई परियोजनाए इनके दखल के चलते अभी विभिन्न राज्यों में लंबित पड़ी हुई है । नक्सलियों के वर्चस्व को जानने समझने करता सबसे बेहतर उदाहरण झारखण्ड का "छतरा " और छत्तीसगढ़ का "बस्तर" , कांकेर और "दंतेवाडा " और सुकमा जिला है जहाँ बिना केंद्रीय पुलिस कर्मियों की मदद के बिना किसी का पत्ता तक नहीं हिलता और इन इलाको के जंगल में जाने से हर कोई कतराता है । यह हालत काफी चिंताजनक तस्वीर को सामने पेश करते हैं ।
नक्सल प्रभावित
राज्यों में आम आदमी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाना चाहता । वहां पुलिसिया तंत्र में भ्रष्टाचार पसर
गया है साथ ही पुलिस का एक आम आदमी के साथ कैसा
व्यवहार है यह बताने की जरुरत नहीं है। अतः सरकारों को चाहिए वह नक्सली इलाको में
जाकर वहां बुनियादी समस्याए दुरुस्त करे आर्थिक विषमता के चले ही वह लोग आज बन्दूक
उठाने को मजबूर हुए हैं । सरकारों को गहनता से साथ यह सोचने की जरुरत है इन इलाको
में विकास का पंछी यहाँ के दरख्तों से गायब है और
समझना होगा अब राजनीतिक रंग से इतर तालमेल,
बातचीत के साथ इन इलाको में विकास की बयार बहाने का समय आ गया है ।
मनमोहन के दौर में भी
नक्सली केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार को चुनौती देने से पीछे नहीं थे लेकिन यह
पहला ऐसा मौका है जब मोदी की अगुआई में एन डी ए
के सत्तासीन हुए महज 6 महीनो में चिंतागुफा थाना
क्षेत्र में दोरनापाल और चिंतलनार गांव के बीच नक्सलियों ने यह पहला बड़ा
हमला किया है | यह हमला बताता है कि मोदी सरकार के लिए भी माओवादी नक्सली हिंसा से
काबू पाना पहली सबसे बड़ी चुनौती है। वह भी अमानवीय कृत्य बताकर अपनी जिम्मेदारी
से पल्ला नहीं झाड सकती | नक्सलियों ने इस हमले को ऐसे समय अंजाम दिया है, जब
छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ महीनों से पुलिस ने नक्सलियों के समर्पण के लिए अभियान
चला हुआ था इसलिए सुकमा से जुड़े कई सवाल अभी भी अनसुलझे हैं और शायद यह अनसुलझे ही
रहे क्युकि जवानो की जानें इस देश में सस्ती हैं
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