कलम बोलती है..
सच की स्याही कभी न सूखेगी, इस कलम में, एक कोशिश
Sunday, 16 February 2025
जीआईएस बनेगी एमपी के लिए वरदान, रोजगार सृजन के साथ अर्थव्यवस्था को मिलेगी 'बूस्टर डोज'
Tuesday, 11 February 2025
दिल्ली में आपदा की विदाई और भाजपा आई
दिल्ली की राजनीति में भाजपा की हालिया जीत और आम आदमी पार्टी (आप) की हार ने मौजूदा दौर में कई सवाल खड़े किए हैं। दिल्ली में जब चुनावी डुगडुगी बजी तो भाजपा और आप दोनों ही दलों के बीच कड़ा संघर्ष देखने को मिला। पहले केजरीवाल दिल्ली के चुनावों में हमेशा नरेटिव बनाया करते थे और विपक्ष उसकी काट नहीं ढूंढ पाता था लेकिन इस बार भाजपा ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपनी जीत के लिए एक सशक्त प्रचार रणनीति अपनाई।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी रैलियों में आप-दा ने दिल्ली का पैसा लूट लिया का बेहतर नरेटिव बनाकर भाजपा को प्रचार में आगे किया और केजरीवाल की रेवडी के नहले पर बड़ी रेवड़ी का दहला मारकर आप-दा पार्टी के कामकाज पर सवाल उठाए और दिल्ली की जनता से यह वादा किया कि भाजपा सरकार बनने पर विकास के नए आयाम स्थापित किए जाएंगे। मोदी और अमित शाह का प्रचार अभियान बड़े पैमाने पर था, जो स्थानीय मुद्दों को लेकर जनता से जुड़ा हुआ था।
आप पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह रही कि उसने पिछले कुछ वर्षों में जिन विकास कार्यों को सबसे बड़ी सफलता के रूप में प्रस्तुत किया था, वे अब जनता के लिए उतने प्रभावी नहीं रहे। शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली-पानी के मुद्दों पर भले ही आप ने दिल्ली के लोगों को आकर्षित किया हो लेकिन यह महसूस किया गया कि अब कुछ नया नहीं है। लोगों ने यह देखा कि आप की सरकार दिल्ली में कुछ बड़े मुद्दों को सुलझाने में विफल रही जैसे रोजगार, महिला सुरक्षा और प्रदूषण नियंत्रण। इसके साथ ही यमुना की साफ़ सफाई नहीं हो सकी। आप पार्टी में आंतरिक कलह और नेतृत्व की कमी भी हार का एक बड़ा कारण बनकर सामने आई। पार्टी के भीतर लगातार आपसी विवाद और संगठन के भीतर असंतोष ने आम आदमी पार्टी की छवि को प्रभावित किया। रही सही कसर शराब घोटाले और उसकी टॉप लीडरशिप के जेल जाने ने पूरी कर दी।
बेशक ‘आप’ चुनाव हारी है, लेकिन उसे 43.57 फीसदी वोट हासिल हुए हैं। सत्तारूढ़ होने वाली भाजपा को 45.56 फीसदी वोट मिले हैं। मात्र 2 फीसदी वोट का फासला रहा लेकिन भाजपा ने 48 सीटों का ऐतिहासिक जनादेश हासिल किया, जबकि ‘आप’ 62 सीटों से लुढक़ कर 22 सीटों पर आ गई। दिल्ली हार के बाद केजरीवाल का अहंकार भी समाप्त हुआ है । इसके लिए केजरीवाल ही जिम्मेदार हैं। आम मतदाता ने इस बार उनकी कट्टर ईमानदार की छवि को स्वीकार नहीं कर पाया।
चुनावी नतीजों में यह निष्कर्ष भी सामने आया है कि दलित, महिला, मध्य वर्ग ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया नतीजतन भाजपा सत्ता तक पहुंच पाई। पिछले चुनाव तक ये समुदाय ‘आप’ के समर्थक और जनाधार माने जाते थे क्योंकि केजरीवाल की नई छवि के साथ इन वर्गों ने उन्हें वैकल्पिक राजनीति का प्रतीक माना था। दिल्ली में आम आदमी पार्टी का चुनावी अभियान उम्मीदों के मुताबिक नहीं चल सका। जिस तरह से उन्होंने दिल्ली में अपने विकास कार्यों और शिक्षा-संस्था सुधार के मुद्दे को प्रचारित किया था, वह आम लोगों को आकर्षित नहीं कर सका। इसके साथ ही पार्टी को केंद्र सरकार के खिलाफ लगातार विरोध की रणनीति से भी अधिक सफलता नहीं मिली। चुनावी वादे और कार्यों में बुनियादी बदलावों की उम्मीदें पूरी नहीं हो पाईं, जिसके परिणामस्वरूप मतदाताओं का विश्वास कमजोर हुआ। अब सब कुछ बेनकाब हो गया। इस चुनाव ने विपक्ष के ‘इंडिया’ वाले नेरेटिव को ध्वस्त कर दिया है। लोकसभा चुनाव के जनादेश की व्याख्या यह की गई थी कि मजबूत हुआ है। उसके बाद हरियाणा, महाराष्ट्र और अब दिल्ली के चुनाव जीत कर भाजपा-एनडीए ने ‘इंडिया’ को लगभग बिखेर दिया है। इस चुनाव में ‘इंडिया’ के ही घटक दलों ने ‘आप’ का समर्थन किया और कांग्रेस का खुलेआम विरोध किया। नतीजा यह रहा कि कांग्रेस लगातार तीसरे चुनाव में ‘शून्य’ रही। दिल्ली में 70 में से 68 सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपनी मजबूत प्रचार रणनीति, स्थानीय मुद्दों को उठाने के जरिए जनता को आकर्षित किया। वहीं आप पार्टी अपने विकास कार्यों के बावजूद आंतरिक संघर्ष, नेतृत्व संकट और स्थानीय मुद्दों पर ध्यान न देने के कारण हार गई। दिल्ली की राजनीति में यह बदलाव एक संकेत है कि अब सिर्फ फ्री चुनावी रेवड़ी ही निर्णायक नहीं हो सकती बल्कि जनता की व्यापक उम्मीदों और अपेक्षाओं को भी समझना बेहद ज़रूरी है।
Tuesday, 4 February 2025
मोहन के जापान दौरे से मध्यप्रदेश के औद्योगिक विकास को मिलेगी नई दिशा
Thursday, 23 January 2025
आज़ादी के महानायक सुभाष चंद्र बोस
सुभाष चंद्र बोस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता थे। उनका नाम भारतीय आज़ादी के संघर्ष सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है। वे न केवल भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख नेता थे, बल्कि अपनी संघर्षशीलता के चलते दुनिया भर में प्रेरणा के स्रोत बने। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। उन्होंने न केवल भारतीय स्वतंत्रता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए बल्कि एक ऐसे नेता के रूप में उभरे जिन्होंने अपनी नीतियों, साहस और समर्पण से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी।
छात्र जीवन में ही सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य का अध्ययन कर लिया था जिसने उन्हें राष्ट्रीय चेतना से समृद्ध किया और चिंतन-मनन करने की सुदृढ़ जमीन दी। पुत्र को आईसीएस बनाने की पिता की इच्छा का मान रखते हुए सुभाष 1919 में ब्रिटेन के लिए रवाना हुए और आईसीएस परीक्षा न केवल उत्तीर्ण की बल्कि अंग्रेजों की चाकरी को स्वीकार न कर भारत माता की सेवा-साधना का पथ अंगीकार किया। सेवा से त्यागपत्र देकर जून 1921 में भारत वापस आकर राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लिया। वे चित्तरंजन दास की स्वराज पार्टी से जुड़े और फारवर्ड समाचार पत्र का संपादन भी किया। 1923 में उन्हें अखिल भारतीय युवा कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। उनके क्रांतिकारी आन्दोलनों के चलते उन्हें 1925 में मांडले जेल भी भेजा गया जहाँ उन्हें तपेदिक की बीमारी हो गई थी। 1938 में बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। उस दौर को याद करें तो सुभाष की लोकप्रियता जबरदस्त रही। कांग्रेस के 51वें अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में दिया गया उनका भाषण दुनिया के सर्वश्रेष्ठ भाषणों में शुमार किया जाता है। कांग्रेस में सुभाष के बढ़ते प्रभाव से कुछ वषों में ही कांग्रेस के अन्दर के नेताओं का प्रभामंडल कमजोर होने लगा। इस दौर में गांधी जी से उनका मतभेद भी हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि 1939 के त्रिपुरा अधिवेशन में अध्यक्ष के मनोनयन की परम्परा के उलट कांग्रेस को चुनाव करवाना पड़ा। देश और कार्यकर्ताओं की पहली पसंद सुभाष थे लेकिन गांधी जी ने अपने प्रत्याशी के रूप में पट्टाभि सीतारमैया को सुभाष के विरुद्ध खड़ा कर जिताने की अपील की किन्तु सुभाष ने सीतारमैया को पराजित कर दिया जिस पर गांधी जी इस टिप्पणी कि सीतारमैया की हार मेरी हार है। सक्रिय सुभाष बहुत दुखी हुए और उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया। उन्होंने 1928 में नेशनल कांग्रेस के महासचिव के रूप में कार्य किया लेकिन उनकी नीतियों से असहमति होने पर वे कांग्रेस से अलग हो गए। विदेश प्रवास के दौरान सुभाष ने कांग्रेस के भीतर फारवर्ड ब्लॉक बनाकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया तब उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया गया।
जनवरी 1941 में नजरबंदी के दौरान ही ब्रिटिश पुलिस और जासूसों को चकमा देकर वे जर्मनी पहुंचे। हिटलर एवं जर्मनी के अन्य नेताओं से भेंट कर आजाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। वहां से जापान पहुंच कर जनरल तोजो से भेंट की और जापानी संसद को सम्बोधित किया। जापान के सहयोग से रासबिहारी बोस के मार्गदर्शन में आजाद हिन्द फौज का गठन कर सिपाहियों और नागरिकों का आह्वान किया कि तुम मूझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर में टाउन हॉल के सामने आजाद हिन्द फौज के सम्मुख ओजस्वी भाषण देते हुए पहली बार 'दिल्ली चलो' का नारा दिया था। उनकी फौज ने बर्मा, कोहिमा, इम्फाल के मोर्चे पर अंग्रेजी सेना से मुकाबला कर दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए। नेताजी ने स्वतंत्रता आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए जर्मनी के बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना के साथ ही आज़ाद हिन्द रेडियो की भी शुरुआत की। इस रेडियो के माध्यम से आज़ादी के आंदोलन से जुड़े समाचार और कार्यक्रम प्रसारित किये जाते थे। अंग्रेजी सरकार सुभाष चन्द्र बोस से इतनी भयभीत थी कि सुभाष और आजाद हिन्द फौज के विरुद्ध दुष्प्रचार करने हेतु एक एंटी इंडिया रेडियो की स्थापना की थी।
21 अक्टूबर 1943 को सुभाष ने आजाद हिन्दुस्तान की अंतरिम सरकार बनाई जिसमें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री का दायित्व स्वयं निर्वहन किया। इस आजाद हिन्द सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, आयरलैण्ड आदि देशों ने मान्यता प्रदान की थी। दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद सुभाष आजादी की लड़ाई हेतु आवश्यक संसाधन जुटाने हेतु रूस जाने का निश्चय कर 18 अगस्त 1945 को हवाई जहाज से निकले किन्तु रास्ते में ही वे लापता हो गये। कहा गया कि उनका हवाई जहाज रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें बोस की मृत्यु हो गई। हालांकि ताईवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बताया था कि उस दिन ताईवान के आकाश में कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं।
सुभाष जीवित रहे या विमान दुर्घटना का शिकार हुए यह सत्य तो काल के गर्भ में है लेकिन माँ भारती की सेवा में उनके योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। उनका विचार था कि भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद, धर्मनिरपेक्षता, और असमानता को समाप्त कर एक मजबूत और समृद्ध राष्ट्र की नींव रखी जा सकती है। उनका उद्देश्य था कि भारत को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ उसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्त कराया जाए।
Monday, 23 December 2024
राजनीति के अजातशत्रु ' अटल '
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति के एक अद्वितीय और प्रभावशाली नेता रहे। उन्होनें न केवल भारतीय राजनीति में अपनी अलहदा पहचान बनाई बल्कि वैश्विक स्तर पर भी सम्मान अर्जित किया। अटल को राजनीति का अजातशत्रु कहा जाता है क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में कभी किसी से द्वेष नहीं रखा और हर विचारधारा का सम्मान किया। उनका जीवन सिद्धांतों, नैतिकता और समर्पण का प्रतीक था।
अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसम्बर 1924 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ था। उनके पिता श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी एक स्कूल शिक्षक थे, जिन्होंने उन्हें शिक्षा और जीवन के मूल्यों की अहमियत सिखाई। अटल जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्वालियर से प्राप्त की और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। उन्होंने राजनीति विज्ञान में भी गहरी रुचि ली और एक अच्छे वक्ता के रूप में अपनी पहचान बनाई।अटल बिहारी वाजपेयी का राजनीतिक जीवन भारतीय जनसंघ से जुड़कर शुरू हुआ। वे भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी से प्रेरित थे और उनकी विचारधारा को अपनाया। 1957 में, वे पहली बार लोकसभा के सदस्य चुने गए। इसके बाद, उनका राजनीतिक करियर लगातार उन्नति की ओर बढ़ता गया। वे भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) के संस्थापक सदस्य रहे और पार्टी को एक नई दिशा देने में उनकी भूमिका अहम रही।
अटल बिहारी वाजपेयी का प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल भारतीय राजनीति के एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में याद किया जाता है। वे 1996, 1998 और 1999 में तीन बार प्रधानमंत्री बने। उनके कार्यकाल में 1998 में पोखरण में परमाणु परीक्षण हुआ । विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देने वाले देश के वो पहले नेता थे जिसने अपनी भाषण कला से दुनिया का दिल जीत लिया। 1996 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और अटल जी 13 दिन तक देश के प्रधानमंत्री रहे। 1998 में वाजपेयी दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने। 13 महीने के इस कार्यकाल में अटल बिहारी वाजपेयी ने पोखरण में पाँच भूमिगत परमाणु परीक्षण विस्फोट कर सम्पूर्ण विश्व को भारत की ताकत का अहसास कराया। अमेरिका और यूरोपीय संघ समेत कई देशों ने भारत पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए लेकिन उसके बाद भी भारत अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारत किसी के आगे नहीं झुका।
अटल ने ही 1999 में दिल्ली से लाहौर तक बस सेवा शुरू कराई और पड़ोसी पाक के साथ एक नए युग की शुरुआत की लेकिन ये मित्रता अधिक दिनों तक नहीं चल सकी। पाकिस्तानी सेना ने कारगिल क्षेत्र में बड़ी घुसपैठ की जहाँ पाक को हार का सामना करना पड़ा। इस विजय का श्रेय अटल बिहारी वाजपेयी को गया और 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा फिर सबसे बड़ी पार्टी बनी और सरकार बनायी। अटल जी ने भारत-पाकिस्तान संबंधों में भी सकारात्मक बदलाव की कोशिश की। 1999 में उन्होंने अपनी बस से भारत और पाकिस्तान के बीच संवाद का नया रास्ता खोला ।
अटल जी की विदेश नीति जबरदस्त रही। उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने कई वैश्विक मंचों पर अपनी ताकत दिखाई। उनके नेतृत्व में भारत वैश्विक राजनीति के केंद्र में स्थापित हुआ जहाँ राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता मिली। अटलबिहारी वाजपेयी गठबंधन की राजनीती के सबसे बड़े जनक रहे। दो दर्जन से अधिक दलों को साथ लेकर सरकार चलाना बहुत कठिन काम उस दौर में समझा गया लेकिन अटल जी ने अपनी दूरदृष्टि से यह संभव कर दिखाया। उनकी सरकार ने गठबंधन की राजनीति को एक नई राह दिखाई। अटल में सबको साथ लेकर चलने की जबरदस्त कला थी जो उन्होनें अपनी गठबंधन सरकार के कुशल नेतृत्व के माध्यम से देश को दिखाया। अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व एक उदार चरित्र का प्रतीक था। उनके भाषणों में गहरी सोच दिखाई देती थी साथ ही उनका कवि दिल बड़ा था और वे समाज के वंचित और शोषित तबके की आवाज को मुखरता के साथ उठाया करते थे। अटल ने अपने पूरे जीवन में राजनीति को एक साधन के रूप में देखा। उनकी राजनीती में सुशासन, ईमानदारी के गुण दिखाई देते थे। वे अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद प्रति भी सम्मान का भाव रखते थे शायद यही वजह रही कि उन्हें राजनीति के अजातशत्रु कहा गया। अटल ने भारत के चारों कोनों को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए तत्कालीन केन्द्रीय भूतल परिवहन मंत्री बी. सी. खंड़ूडी के नेतृत्व में स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना की शुरुआत की। उनकी सरकार ने सुशासन को सही मायनों में साबित करके दिखाया और गाँव के अंतिम छोर तक विकास की किरण पहुंचाने का काम किया।
अटल की सरकार ने के रहते देश में हर क्षेत्र में विकास की नई गौरवगाथा लिखी गई। 2004 में जब लोकसभा चुनाव हुआ और भाजपा के नेतृत्व वाले राजग ने उनके नेतृत्व में शाइनिंग इंडिया का नारा देकर चुनाव लड़ा लेकिन इन चुनावों में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी और भाजपा को विपक्ष में बैठना पड़ा। इसके बाद लगातार अस्वस्थ्य रहने के कारण अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीति से सन्यास ले लिया।अटल जी की कविता, भाषण करने की कला, नेतृत्व क्षमता ने राजनीति को एक नई ऊँचाई पर पहुंचाया। वे भारतीय राजनीति के ऐसे सितारे कहे जा सकते हैं जिनकी चमक हमेशा बनी रहेगी। तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 2015 में भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को उनके घर जाकर सम्मानित किया। भारतीय राजनीति के युगपुरुष, अजातशत्रु अटल जी का 16 अगस्त 2018 को 93 साल की उम्र में दिल्ली के एम्स में इलाज के दौरान निधन हो गया। उनका व्यक्तित्व हिमालय के समान विराट था। सही मायनों में अगर कहा जाए तो अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष थे। देश अटल जी के योगदान को कभी भुला नहीं पायेगा।
Sunday, 22 December 2024
मोहम्मद रफ़ी का जन्म शताब्दी वर्ष
मोहम्मद रफ़ी भारतीय संगीत और सिनेमा के अद्वितीय गीतकार, गायक और संगीतकार एक ऐसी शख्सियत हैं जिनका योगदान अविस्मरणीय है। आज भी ऐसा लगता है मानो उनका संगीत और आवाज़ भारतीय सिनेमा की आत्मा में समाहित हो गए हैं। रफ़ी साहब के व्यक्तित्व का प्रभाव सिर्फ उनके गीतों के माध्यम से ही नहीं बल्कि उनकी सरलता, विनम्रता और पेशेवर अंदाज में भी महसूस किया जा सकता था।
रफ़ी का जन्म 24 दिसम्बर 1924 को पंजाब (अब पाकिस्तान) के अमृतसर जिले के कोटला सुलतान सिंह गांव में हुआ था। उनका परिवार संगीत के प्रति स्नेह रखने वाला था। इनके बड़े भाई की नाई दुकान थी। रफ़ी जब सात साल के थे तो वे अपने बड़े भाई की दुकान से होकर गुजरने वाले एक फकीर का पीछा किया करते थे जो उधर से गाते हुए जाया करता था। उसकी आवाज रफ़ी को पसन्द आई और रफ़ी उसकी नकल किया करते थे। उनकी नकल में अव्वलता को देखकर लोगों को उनकी आवाज भी पसन्द आने लगी। लोग नाई दुकान में उनके गाने की प्रशंसा करने लगे। उनके मन में संगीत का बीज एक भीख मांगने वाले फ़कीर को देखकर अंकुरित हुआ। तब उनके मन में भी उस फ़कीर जैसे गाने की इच्छा जगी। जब उन्होनें गाना शुरू किया तो पिता ने ही सबसे पहले विरोध किया जिसके लिए उनकी पिटाई भी हुई लेकिन संगीत को मन में बसाने की तमन्ना लिए रफ़ी कभी भी अपने लक्ष्य से नहीं डिगे। लाहौर में कुन्दनलाल सहगल जब अपना स्टेज शो करने निकले तब रफ़ी महज 13 बरस की उम्र में उनको सुनने गए। वहां मंच पर लाइट चली गई तो भीड़ शांत करने के लिए एक नौजवान को गाने का मौका मिला। रफ़ी ने ऐसा गाना उस स्टेज में गाया सब देखते रहे और सबको झूमने पर मजबूर कर दिया। तब संगीतकार श्यामसुन्दर ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और मायानगरी में आकर प्लेबैक गायक बनने का मौका दिया और पंजाबी फिल्म गुल बलोच में गाना गाया।यह गाना रफी का ज़ीनत बेगम के साथ एक युगल गीत था जिसके बोल थे : नी सोहनिये नी हीरिये तेरी याद ने। इनके बड़े भाई मोहम्मद हमीद ने इनके संगीत के प्रति इनकी रुचि को देखा और उन्हें उस्ताद अब्दुल वाहिद खान के पास संगीत शिक्षा लेने को कहा। उनका रुझान शास्त्रीय संगीत की ओर तेजी से बढ़ा और उनका गायक बनने का सपना साकार होने की दिशा में कदम बढ़ने लगे। रफी साहिब की गायन-प्रतिभा को पहचानते हुए संगीतकार फिरोज़ निज़ामी ने रफी को आल इंडिया रेडियो लाहौर में नौकरी दिलवा दी।
रफ़ी की हिन्दी गायकी की असल शुरुआत 1941 में हुई जब उन्होंने पहली बार रेडियो पाकिस्तान के लिए गाना गाया लेकिन उनका बॉलीवुड में प्रवेश 1944 में हुआ जब उन्होंने "सोनिये नी हीरिये", "तू हिंदू बनेगा मुसलमान बनेगा" और अन्य छोटे-छोटे गीतों के माध्यम से हिंदी सिनेमा में अपनी अलहदा पहचान बनाने की दिशा में तेजी से अपने कदम बढ़ाये। हालांकि उन्हें असली पहचान 1946 में फिल्म "गांव की गोरी" से मिली जिसमें उनका गीत "सोनिये नी हीरिये" काफी हिट हुआ। भारत का वो दौर याद करें जब देश विभाजन के सदमे की त्रासदी से उबर ही रहा था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। उस दौर में राजेंद्र कृष्ण के लिखे गीत 'सुनो सुनो ए दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी' को हुस्नराम भगत राम ने अपना संगीत से कालजयी बना डाला। इस नग्मे को 'रफ़ी साहब' ने अपनी दिलकश आवाज़ से झंकृत करने का काम बखूबी किया। उस दौर में रफ़ी होने के मायने आप इस बात से समझ सकते हैं कि इस गीत को सुनने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ख़ासतौर से 'रफ़ी साहब' को अपने दिल्ली निवास स्थान पर आमंत्रित किया और इस गीत सुनकर नेहरू की आँखें भी नम हो गई। भारत की आज़ादी की पहली वर्षगाँठ पर नेहरू ने उस दौर में रफ़ी को चाँदी का एक छोटा सा मेडल भेंट किया तब मोहम्मद रफ़ी की उम्र महज 24 बरस की रही जो उनके लिए किसी बड़े सम्मान से कम नहीं था।
रफ़ी साहब ने अपनी गायकी में विविधता और प्रयोग की कोई कमी नहीं छोड़ी। चाहे वह रोमांटिक गीत हों या फिर देशभक्ति गीत हों या फिर दर्द भरे नग्मे, रफ़ी की दिलकश आवाज़ में वह ताकत थी कि हर गीत उस दौर में अपनी पूरी कहानी खुद बयां कर देता था। उन्होंने अपने करियर के दौरान लगभग 28,000 से अधिक गीत गाए जो आज भी हर संगीत प्रेमी के दिल में गूंजते हैं। उनके गायन में जो मिठास थी वह अनमोल मानी जाती है।
रफ़ी साहब के गाने सिर्फ सुरों और शब्दों का मिलाज नहीं होते थे बल्कि उन गीतों में जो भावनात्मक गहराई थी जो उस दौर के रेडियो सुनंने वालों को दिल में उतार देती थी। "तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई" (नौशाद द्वारा संगीतबद्ध), "कुछ तो लोग कहेंगे"(शंकर जयकिशन), "आजकल पाँव ज़मीन पर नहीं" (आर.डी. बर्मन) जैसे गीतों में रफ़ी की आवाज़ ने न केवल गीतों को संजीवनी दी बल्कि ये सभी गीत हिंदी सिनेमा की अनमोल धरोहर बन गए। रफ़ी ने हिन्दी सिनेमा के लिए बिना फीस लिये या बेहद कम पैसोँ लेकर भी नायाब गीत गाए। उनका कहना था, "मेरा काम घास - घोड़ा चिल्लाना नहीं है। मेरा काम इंसानों के काम आना है। इंसानो से दोस्ती करने का है। मेरा शौक, मेरी इबादत संगीत है। वह करना मुझे अच्छा लगता है इसलिए मैं कभी भी पैसे के लिए नहीं गाता। न मैंने कभी भी किसी से पहले से कोई समझौता किया जिसने जो दे दिया मैंने अपनी रोजी-रोटी समझकर रख लिया क्योंकि गायिकी मेरी अपनी जागीर नहीं थी। खुदा की दी हुई नायाब नेमत है"।
रफ़ी की गायकी का एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि वे हर प्रकार के गीत गाने में माहिर थे। उन्होंने शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत, भक्ति गीत, भजन, ग़ज़ल, रोमांटिक गीत, हास्य गीत और यहां तक कि फ़िल्मी गानों के साथ भी प्रयोग किया। "मन तड़पत हरि दर्शन को" (बैजू बावरा), "सारे जहाँ से अच्छा" (पाकिस्तान दिवस पर गाया गया गीत) जैसी विविधताएं दर्शाती हैं कि रफ़ी का गायन सिर्फ एक शैली तक सीमित नहीं था। रफ़ी की आवाज़ में वह सहजता और सरलता थी जो उन्हें एक आम आदमी से जोड़ देती थी। उनकी आवाज़ में गंभीर सादगी नजर आती थी जो श्रोताओं के दिलों के भीतर उतर जाती थी। रफ़ी के संगीतकारों के साथ सम्बन्ध भी बड़े सौहार्दपूर्ण रहे। उन्होंने नौशाद, शंकर जयकिशन, ओ.पी. नैय्यर, एस.डी. बर्मन, आर.डी. बर्मन, और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसे महान संगीतकारों के साथ काम किया। रफ़ी और नौशाद की जोड़ी ने हिंदी सिनेमा को कई कालजयी गीत दिए हैं। नौशाद की फ़िल्म "बैजू बावरा" में रफ़ी की गायकी ने सिनेमा जगत को एक नया मोड़ दिया। रफ़ी साहब की पहचान एक संगीतकार से अधिक एक कलाकार के रूप में थी। वे न केवल अपने गीतों के लिए प्रसिद्ध थे बल्कि उनके व्यक्तित्व की विनम्रता भी लोगों के दिलों में बसी थी। उनकी आवाज़ ने सैकड़ों अभिनेता-अभिनेत्रियों की फिल्मों में जान डाली।
1945 से जब से गोल्डन एरा शुरू हुआ तब से ही हर अभिनेता की इच्छा होती थी कि रूपहले पर्दे पर मुझे महान रफ़ी साहब की रूहानी मिलें। ख़ासकर देव, दिलीप, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, धर्मेंद्र, शशि कपूर, धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना सरीखे कई अदाकारों आदि की कामयाबी में सबसे बड़ा रोल रफ़ी का रहा। हिन्दी सिनेमा में रफ़ी ने सबसे ज्यादा शम्मी के लिए गाया। क्लासिकल ग़ज़ल के उस्ताद रफ़ी साहब शम्मी कपूर की इमेज का पूरा ख्याल रखते थे। ‘शंकर-जयकिशन’ का संगीत और मोहम्मद रफी की आवाज में लिखे जो खत तुझे’- कन्यादान का गाना आज भी उतना चर्चित है जितना यह 1968 में था। आशा पारेख और शशि कपूर पर शूट किया गया यह गाना मोहम्मद रफ़ी की बेहतरीन पेशकश में से एक है। मुगल-ए-आजम फिल्म को भला कौन भूल सकता है। सलीम और अनारकली की प्रेम कहानी की लोकप्रियता को देखते हुए ही आगे चलकर इस फिल्म को कलर रूप दिया गया। इसके गाने आज भी बहुत पॉपुलर हैं । मोहम्मद रफ़ी ने सबसे ज्यादा गाने शम्मी कपूर के लिए गाए थे। मोहम्मद रफ़ी और शम्मी कपूर के नाम कई हिट ‘बदन पे सितारे’, ‘तुमसे अच्छा कौन है’,‘चाहे कोई मुझे जंगली कहे’ हैं। शम्मी कपूर अपने आप को मोहम्मद रफ़ी के बिना अधूरा मानते थे। मोहम्मद रफ़ी और शम्मी कपूर की जोड़ी ने कई हिट गाने दिए हैं। इन्हीं में एक गाना था ‘जंगली’ फिल्म का ‘सुकु-सुकु’।ये गाना आज भी उतना ही खुशमिजाज लगता है जितना उस दौर में लगता था।
रफ़ी को उनके योगदान के लिए कई सम्मान प्राप्त हुए। उन्हें 1967 में "पद्मश्री" और 1977 में "पद्मभूषण" जैसे उच्चतम सम्मान प्राप्त हुए। साथ ही उन्हें 6 फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिले। मोहम्मद रफ़ी का आखिरी गीत फिल्म 'आस पास' के लिए था जो उन्होंने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए अपने निधन से ठीक दो दिन पहले रिकॉर्ड किया था। गीत के बोल थे 'शाम फिर क्यों उदास है दोस्त'...। संगीत जगत में रफ़ी जिस मुकाम पर थे शायद यदि कोई और होता तो उसे सफल होने का घमंड होता लेकिन रफ़ी का व्यक्तित्व सहज और सरल था। वो किसी का हक मारने में विश्वास नहीं रखते थे। वे बहुत ही नेकदिल इंसान थे।
आज भी रफ़ी का संगीत सिनेमा प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनके गाए गीत आज की नई पीढ़ी की जुबां पर उतरते हैं। रफ़ी की दिलकश आवाज़ ने भारतीय सिनेमा को वह रूप दिया है जिसे सिनेमा प्रेमी सदियों तक याद करेंगे। रफ़ी के जन्म शताब्दी वर्ष पर यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि रफ़ी सरीखे गायक हजार बरस में एक बार पैदा होते हैं। रफ़ी साहब जब दुनिया रुखसत कर गए तो संगीत के सिरमौर नौशाद ने रफी पर कसीदे पढ़ते हुए सच ही कहा था
कहता है कोई दिल गया दिलबर चला गया
साहिल पुकारता है समुन्दर चला गया
लेकिन जो बात सच है, वो कहता नहीं कोई
दुनिया से मौसकी का, पयम्बर चला गया
Saturday, 12 October 2024
'शक्ति 'और 'विजय' का उत्सव विजयादशमी
आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से शारदीय नवरात्र शुरू होते हैं जो नौ दिनों तक चलते हैं। शुक्लपक्ष की दशमी का बड़ा विशेष महत्व है। विजयादशमी, जिसे दशहरा भी कहा जाता है भारतीय संस्कृति में एक महत्वपूर्ण पर्व है जो हर वर्ष आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है। विजयादशमी का अर्थ है 'विजय का दसवां दिन' और यह दिन रावण के खिलाफ भगवान राम की विजय का प्रतीक है। यह त्योहार न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। विजयादशमी का त्यौहार भगवान राम की कथा से जुड़ा हुआ है। रावण एक महापराक्रमी लेकिन अधर्मी राजा था जिसने माता सीता का हरण किया था। राम के द्वारा रावण का वध न केवल धर्म की विजय का प्रतीक है, बल्कि यह यह भी दर्शाता है कि अंततः सत्य और न्याय की विजय होती है। इस दिन को मनाने के लिए रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले जलाए जाते हैं, जो बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक होते हैं।विजयादशमी केवल राम की विजय का पर्व नहीं है, बल्कि यह नवरात्रि के पर्व का अंतिम दिन भी है। नवरात्रि में देवी दुर्गा की पूजा की जाती है और विजयादशमी के दिन देवी की शक्ति और संहारक रूप की विजय का जश्न मनाया जाता है। यह पर्व हमें सिखाता है कि बुराई चाहे कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, अंततः सत्य और धर्म की विजय होती है। इस दिन दशहरा पूरे देश भर में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
विजयादशमी के दिन श्रीराम, मां दुर्गा, श्री गणेश, विद्या की देवी सरस्वती और हनुमान जी की आराधना करके परिवार के मंगल की कामना की जाती है। दशहरा या विजयादशमी सर्वसिद्धिदायक तिथि मानी जाती है इसलिए इस दिन सभी शुभ कार्य फलकारी माने जाते हैं। विजयादशमी या शस्त्र पूजा हिंदुओं का एक प्रमुख त्यौहार है। अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने इसी दिन लंकेश रावण का वध किया था। इस पर्व को असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है इसलिए इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। दशहरा पर्व वर्ष की तीन अत्यंत शुभ तिथियां में से एक है। अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा और कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा। इस दिन का भारतीय सनातन संस्कृति में बड़ा महत्व है जब सभी लोग अपना नया कार्य प्रारंभ करते हैं और शस्त्र पूजा भी करते हैं। इस दिन को विशेष रूप से शस्त्र पूजा के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है, खासकर उन लोगों के लिए जो सैन्य, सुरक्षा, या विभिन्न प्रकार के व्यवसायों से जुड़े होते हैं।शस्त्र पूजा का उद्देश्य अपने अस्त्र-शस्त्रों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना और उन्हें पवित्र मानना है। यह पूजा विशेष रूप से सैनिकों, पुलिसकर्मियों, और उन लोगों के लिए की जाती है जो विभिन्न प्रकार के उपकरणों का उपयोग करते हैं। शस्त्र पूजा से यह संदेश मिलता है कि युद्ध और हिंसा का उपयोग केवल जब आवश्यक हो तब किया जाए, और उससे पहले अपने अस्त्रों का सम्मान किया जाए।विजयादशमी पर शस्त्र पूजा का आयोजन न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर को भी दर्शाता है। यह हमें याद दिलाता है कि हम अपने शस्त्रों का उपयोग केवल आवश्यकता के समय करें और सदैव शांति और सद्भाव की भावना को प्राथमिकता दें।
विजयादशमी के त्योहार मनाने के पीछे एक दूसरी भी पौराणिक मान्यता प्रचलित है। महिषासुर नाम के एक दैत्य ने सभी देवताओं को पराजित करते हुए उनके राजपाठ छीन लिए थे। महिषासुर को मिले वरदान और पराक्रम के काण उसके सामने कोई भी देवता टिक नहीं पा रहा था। तब महिषासुर के संहार के लिए ब्रह्रा, विष्णु और भोलेनाथ ने अपनी शक्ति से देवी दुर्गा का सृजन किया। मां दुर्गा और महिषासुर दैत्य के बीच लगातार 9 दिनों तक युद्ध हुआ और युद्ध के 10वें दिन मां दुर्गा ने असुर महिषासुर का वध करके उसकी पूरी सेना को परास्त किया था। इस कारण से शारदीय नवरात्रि के समापन के अगले दिन दशहरा का पर्व मनाया जाता है और पांडालों में स्थापित देवी दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है।
प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर अपनी विजय यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन को उत्साव का रूप दिया गया है जब पूरे देश में विशेष आकर्षण देखा जा सकता है। जगह-जगह मेले लगते हैं और रामलीलाओं का आयोजन होता है। दशहरे के अवसर पर रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया भी जाता है। दशहरा अथवा विजयदशमी भगवान रघुनाथ जी की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में दोनों ही रूपों में यह शक्ति पूजा की उपासना का पर्व है और शस्त्र पूजन की तिथि है जो एक तरह से हर्ष , उल्लास और विजय का पर्व है। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक और शक्ति की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव पर्व के रूप में रखा गया है। दशहरा का पर्व 10 प्रकार के पापों काम. क्रोध, लोभ , मोह ,मद , मत्सर, अहंकार , हिंसा और चोरी के परित्याग की सदप्रेरणा प्रदान करता है।
दशहरे का एक सांस्कृतिक पहलू भी है। भारत कृषि प्रधान देश है और जब किसान अपने खेत में फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति को अपने घर लाता है तो इससे उसके उल्लास और उमंग का कोई ठिकाना नहीं रहता। इस ख़ुशी के अवसर को वह भगवान की कृपा मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है। समस्त भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में भी से मनाया जाता है। सायं काल के समय पर सभी ग्रामीण जन सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित होकर गांव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के पत्ते के रूप में स्वर्ण मानकर उसे अपने ग्राम में वापस आते हैं और फिर उस पत्ते का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है।
दशहरे के भारत के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग रूप दिखाई देते हैं। दशहरा अथवा विजयदशमी राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा की पूजा के रूप में दोनों में यह शक्ति और विजय का उत्सव है। हिमाचल प्रदेश के कल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है। अन्य स्थानों की भांति यहां पर 10 दिन अथवा एक सप्ताह पूर्व इसकी तैयारी आरंभ हो जाती हैं। स्त्रियां और पुरुष सभी सुंदर कपड़ों से सुसज्जित होकर तुरही ,बिगुल , ढोल , नगाड़े , बांसुरी आदि जिसके पास जो भी वाद्य यंत्र होता है उसे लेकर अपने घरों से बाहर निकलते हैं। हिमाचल के पहाड़ी लोग इस मौके पर अपने कुलदेवता का धूमधाम से समरण कर जुलूस निकालकर उसकी आराधना करते हैं। देवताओं की मूर्तियों को बहुत आकर्षक और सुंदर ढंग में सजाया जाता है और पालकी में बिठाया जाता है, साथ ही वे अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं। इस विशाल जुलूस में प्रशिक्षित नर्तक नटी नृत्य करते हुए लोगों को झूमने पर मजबूर कर देते हैं। इस प्रकार जुलूस बनाकर के मुख्य मार्गों से होते हुए नगर परिक्रमा करते हैं और कल्लू नगर में देवता रघुनाथ जी की वंदना से दशहरे के उत्सव को शुरू करते हैं। दशमी के दिन इस उत्सव की शोभा बड़ी निराली होती है।
पंजाब में दशहरा नवरात्रि की 9 दिन का उपवास रखकर मनाते हैं। इस दौरान यहां आगुंतकों का स्वागत पारंपरिक मिठाई और उपहार से किया जाता है। यहां भी रावण दहन के अनेक आयोजन होते हैं और मैदान पर मेले भी लगते हैं। छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचल बस्तर में भी दशहरे पर विशेष आकर्षण देखने को मिलता है। बस्तर में दशहरे के मुख्य कारण को राम की रावण पर विजय न मानकर लोग इसे मां दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित एक उत्सव के रूप में मनाते हैं। दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी है जो दुर्गा का ही एक रूप है। ये आयोजन यहाँ पर पूरे 75 दिन चलता है। यहां दशहरा श्रावण मास की अमावस से आश्विन शुक्ल की त्रयोदशी तक चलता है। प्रथम दिन जिसे 'काछिन गादि' कहते हैं, देवी से समारोह आरंभ करने की अनुमति ली जाती है। देवी एक कांटो की सेज पर विराजमान रहती है। यह कन्या एक अनुसूचित जाति की कन्या है जिससे बस्तर के राज परिवार के व्यक्ति अनुमति देते हैं। यह समारोह लगभग 15 वीं शताब्दी से शुरू हुआ था। इसके बाद जोगी -बिठाई होती है और इसके बाद भीतर 'रैनी विजयदशमी 'और बाहर ' रैनी रथ यात्रा' और अंत में ' मुरिया' दरबार लगता है। इसका समापन आश्विन शुक्ल त्रयोदशी को 'ओहाड़ी' पर्व से होता है। बंगाल, उड़ीसा और असम में यहां पर दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व बंगाल, उड़ीसा और असम के लोगों का सबसे प्रमुख त्यौहार है। पूरे बंगाल में सप्ताह भर से अधिक दिन तक इस पर आयोजन किये जाते हैं। उड़ीसा और असम में 4 दिन तक त्यौहार चलता है। यहां देवी को भव्य रूप में सुसज्जित पांडालों में विराजमान करते हैं। देश के नामी कलाकारों को दुर्गा की मूर्ति तैयार करने के लिए बुलाया जाता है। इसके साथ ही अन्य देवी, देवताओं की भी कई मूर्तियां भी बनाई जाती है। त्योहार के दौरान शहर में छोटे-स्टॉल भी लगाए जाते हैं जो मिठाइयों की मिठास से भरे रहते हैं।यहां षष्टी के दिन दुर्गा देवी का भजन, आमंत्रण और प्राण प्रतिष्ठा आदि का आयोजन भी किया जाता है। उसके उपरांत अष्टमी और नवमी के दिन प्रातः और सायंकाल दुर्गा की पूजा में व्यतीत होते हैं। अष्टमी के दिन महापूजन और बलि भी दी जाती है। दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है और प्रसाद चढ़ाने के साथ ही प्रसाद का वितरण और भंडारे का आयोजन भी किया जाता है। पुरुष आपस में आलिंगन करते हैं जिसे 'कोलाकुली' कहते हैं। स्त्रियां देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं और देवी को अश्रुपूरित विदाई देती हैं। इसके साथ ही वे आपस में सिंदूर भी लगाती हैं है और सिंदूर से खेलती भी हैं। इस दिन यहां नीलकंठ पक्षी को देखना बहुत ही शुभ माना जाता है। इसके पश्चात देवी देवताओं को बड़े-बड़े ट्रकों में भरकर विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। विसर्जन की ये यात्रा बड़ी सुहानी और दर्शनीय होती है। तमिलनाडु ,आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में दशहरा पूरे 10 दिनों तक चलता है जिसमें तीन देवियां लक्ष्मी ,सरस्वती और दुर्गा देवी की पूजा की जाती है। पहले तीन दिन लक्ष्मी, धन और समृद्धि की देवी का पूजन होता है। अगले तीन दिन सरस्वती, कला और विद्या की देवी की पूजा अर्चना की जाती है और अंतिम दिन देवी दुर्गा की शक्ति की देवी स्तुति की जाती है। पूजन स्थल को अच्छी तरह फूलों और दीपकों से सजाया जाता है लोग एक दूसरे को मिठाई और कपड़े देते हैं। यहां दशहरा बच्चों के लिए शिक्षा या कला संबंधी नया कार्य सीखने के लिए बहुत ही शुभ समय होता है।
कर्नाटक में मैसूर का दशहरा विशेष उल्लेखनीय है। मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सजाया जाता है और हाथियों का श्रृंगार करके पूरे शहर में एक विशाल जुलूस निकाला जाता है। इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालाओं से दुल्हन की तरह सजाया जाता है और इसके साथ ही शहर में लोग टॉर्च लाइट के साथ नृत्य और संगीत की शोभा यात्रा का आनंद लेते हैं।इन द्रविड़ प्रदेशों में भी रावण दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।
गुजरात में मिट्टी सुरभि रंगीन घड़ा देवी का प्रतीक मानी जाती है और इसको कुंवारी लड़कियां सिर पर रखकर एक लोकप्रिय नृत्य करती हैं जिसे गरबा कहा जाता है। गरबा नृत्य इस पर्व की शान होती है। पुरुष और स्त्रियां दो छोटे रंगीन डंडों को संगीत की लय पर आपस में बजाते हुए घूम-घूम कर नृत्य करते हैं। इस अवसर पर भक्ति, फिल्म और पारंपरिक लोक संगीत सभी का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है। पूरा गुजरात गरबे के रंग से सरोबार होता है और इन दिनों प्रदेश की रौनक देखते ही बनती है। पूजा और आरती के बाद डांडिया रास का आयोजन पूरी रात तक चलता है जिसमें सभी थिरकने से अपने को नहीं रोक पाते हैं। नवरात्रि में सोने और गहनों की खरीद को बहुत ही शुभ माना जाता है।
महाराष्ट्र में नवरात्रि के 9 दिन मां दुर्गा को समर्पित रहते हैं जबकि दसवें दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की जाती है। इस दिन विद्यालय में जाने वाले बच्चे अपनी पढ़ाई में आशीर्वाद पाने के लिए मां सरस्वती की पूजा करते हैं। किसी भी चीज को प्रारंभ करने के लिए खासकर विद्या की आराध्य देवी के लिए यह दिन काफी शुभ माना जाता है। महाराष्ट्र के लोग इस दिन विवाह, गृह प्रवेश और नए घर खरीदने को शुभ मुहूर्त समझते हैं। कश्मीर के अल्पसंख्यक भी हिंदू नवरात्र के पर्व को बहुत श्रद्धा से मनाते हैं। परिवार के सभी सदस्य वयस्क 9 दिन तक सिर्फ पानी पीकर उपवास करते हैं। अत्यंत पुरानी परंपरा के अनुसार 9 दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं और एक मंदिर एक झील के बीचों- बीच बना हुआ है। ऐसा माना जाता है की देवी ने अपने भक्तों से कहा हुआ कि यह यदि कोई अनहोनी होने वाली होगी तो सरोवर का पानी काला हो जाएगा। कहा जाता है कि इंदिरा गाँधी की हत्या के ठीक एक दिन पहले और भारत पाक युद्ध के पहले यहाँ का पानी सचमुच काला हो गया था।
दशहरे का उत्सव शक्ति और विजय का उत्सव है। नवरात्रि के 9 दिन आदिशक्ति जगदंबा की उपासना करके शक्तिशाली बना हुआ मनुष्य भी विजय प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है और इस दृष्टि से दशहरे का बहुत महत्व है जिसे विजय के प्रस्थान उत्सव के रूप में मान्यता मिली हुई है। भारतीय संस्कृति सदा से ही वीरता और शक्ति की समर्थक रही है। प्रत्येक व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता का प्रादुर्भाव होने के कारण से ही दशहरे का उत्सव मनाया जाता है। यदि कभी युद्ध अनिवार्य ही हो तब शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा न कर उसका पराभव करना ही कुशल राजनीति की निशानी है। भगवान राम के समय से यह दिन विजय प्रस्थान का प्रतीक है। भगवान राम ने रावण से युद्ध हेतु भी इसी दिन प्रस्थान किया था। मराठा रत्न शिवाजी ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके सनातन हिंदू धर्म की रक्षा की थी। ऐसे अनेकों उदाहरण हमारे इतिहास में हैं जब हमारे हिंदू राजाओं ने इस दिन विजय के रूप में प्रस्थान किया करते थे।इस पर्व को भगवती के विजया नाम पर विजयदशमी भी कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि अश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय विजय नामक मुहूर्त होता है। यह कार्य सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है इसलिए भी इसे विजयदशमी कहते हैं। ऐसा माना गया है कि शत्रु पर विजय पाने के लिए इसी समय प्रस्थान करना चाहिए। इस दिन श्रवण नक्षत्र का योग उसे और भी शुभ बनता है।
युद्ध करने का प्रसंग ना होने पर भी इस काल में राजाओं ने महत्वपूर्ण पदों पर पदासीन लोगों की सीमा का उल्लंघन किया । दुर्योधन ने पांडवों को जुए में पराजित कर 12 वर्ष के वनवास के साथ 13 वर्ष में अज्ञातवास की शर्त दी थी। 13वें वर्ष का पता उन्हें अगर लग जाता तो उन्हें फिर से 12 वर्ष का वनवास भोगना पड़ता। इसी अज्ञातवास में अर्जुन ने अपना टुनीर धनुष एक शमी वृक्ष पर रखा था और स्वयं वृहन्नला के वेश में राजा विराट के यहां नौकरी शुरू कर ली थी। जब गौ रक्षा के लिए विराट के पुत्र और द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने अर्जुन को अपने साथ रख लिया तब अर्जुन ने शमी वृक्ष से अपने हथियार उठाकर शत्रुओं पर प्रचंड विजय प्राप्त की थी। विजयादशमी के दिन भगवान श्रीराम चंद्र जी लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करते समय शमी वृक्ष ने भगवान की विजय का उद्घोष किया था इसीलिए इस विजय काल के उत्सव में में शमी का पूजन बहुत ही महत्वपूर्ण साबित हुआ जो आज भी बड़ा फलदायी है। भगवान राम को मिले 14 वर्ष के वनवास के दौरान लंका के राजा रावण ने माता सीता का अपहरण कर लिया था। तब भगवान राम, लक्ष्मण, हनुमानजी और वानरों की सेना ने माता सीता को रावण से मुक्त कराने के लिए भीषण युद्ध किया था। कई दिनों तक भगवान राम और रावण के बीच भयंकर युद्ध हुआ था। भगवान राम ने 9 दिनों तक देवी दुर्गा की उपासना करते हुए 10वें दिन रावण का वध किया था। आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि पर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने लंकापति रावण का वध किया था और रावण के बढ़ते अत्याचार और अंहकार के कारण भगवान विष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया और रावण का वध कर पृथ्वी को रावण के अत्याचारों से मुक्त कराया।
विजयादशमी केवल राम की विजय का पर्व नहीं है, बल्कि यह नवरात्रि के पर्व का अंतिम दिन भी है। नवरात्रि में देवी दुर्गा की पूजा की जाती है और विजयादशमी के दिन देवी की शक्ति और संहारक रूप की विजय का जश्न मनाया जाता है। विजयादशमी पर शस्त्र पूजा का आयोजन बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक के रूप में किया जाता है। यह हमें सिखाता है कि हमें अपने अस्त्रों और औजारों के प्रति सम्मान और जिम्मेदारी रखनी चाहिए। विजयादशमी पर्व हमें आत्मविश्वास, साहस और नैतिकता का पाठ पढ़ाता है, जिससे हम अपने समाज की भलाई के लिए कार्यरत रह सकें। यह पर्व हमें सिखाता है कि बुराई चाहे कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, अंततः सत्य और धर्म की ही विजय होती है।