Monday 17 September 2012

नेताजी चले पीऍम बनने ...................



दिल्ली का रास्ता यूपी  से होकर गुजरता है ।  भारतीय राजनीती के  सन्दर्भ  में यह कथन परोक्ष रूप से फिट बैठता है।  लखनऊ से दूर कोलकाता  में ममता के आँगन में मुलायम सिंह जब अपनी राष्ट्रीय कार्यकारणी के अधिवेशन के दौरान अपना भाषण पढ़ रहे थे तो उनकी नजरें  भारतीय राजनीती की इस ऐतिहासिक इबारत की ओर भी जा रही थी । शायद इसलिए मुलायम सिंह ने लोक सभा चुनावो की डुगडुगी  समय से पहले बजने  और कार्यकर्ताओ को तैयार  रहने की सलाह इशारो इशारो में दे डाली। इस राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक  में नेताजी की पीऍम बनने की हसरतें भी हिलारें मार रही थी शायद तभी आत्मविश्वास से लबरेज मुलायम ने दावा कर डाला केंद्र में अगली सरकार बिना सपा के समर्थन मिले बिना नहीं बन पाएगी। मुलायम सिंह का साफ़ मानना है  अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों में से किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा और केंद्र में सरकार बनाने में छेत्रीय दलों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होगी । इसकी तासीर भाजपा  नेता लाल कृष्ण आडवानी के 5 अगस्त को लिखे ब्लॉग से भी देखी  जा सकती है जिसमे उन्होंने कांग्रेस और भाजपा दोनों में से किसी को स्पष्ट बहुमत न मिलने का अंदेशा जताया था। लेकिन अब नेताजी  के कार्यकर्ता आडवानी के इसी ब्लॉग में तीसरे मोर्चे की सम्भावनाये तलाश रहे हैं और नेताजी को पीऍम इन वेटिंग की राह पर  लाने  की दिशा में मनोयोग से जुट गए हैं।
     
                    दरअसल कोलकाता की राष्ट्रीय कार्यकारणी के समापन के बाद मुलायम सिंह ने जिस तरीके के तल्ख़ तेवर दिखाए हैं उसने पहली बार कांग्रेस को "बैक फुट " पर आने को मजबूर कर दिया है। नहीं तो यूपीए 1 की न्यूक्लिअर डील से लेकर यूपीए 2  के हर संकट में मुलायम सिंह कांग्रेस के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर  खड़े रहे।  फिर चाहे वह राष्ट्रपति चुनावो के दौरान ममता बनर्जी को गच्चा देकर  कांग्रेस प्रत्याशी प्रणव मुखर्जी को समर्थन देने का मामला हो या हर संकट के समय सरकार को बाहर  से समर्थन देकर यूपीए में अपनी ठसक  दिखाने  का मामला मुलायम 2004 से अब तक हर बार कांग्रेस के साथ खड़े रहे हैं। शायद इसी वजह से नेताजी कांग्रेस के हर जश्न में सोनिया और मनमोहन के साथ खड़े दिखे हैं ।

                    लेकिन राजनीती संभावनाओ का खेल है और यहाँ  महत्वाकांशाए हिलारे मारती रहती है। मुलायम के साथ भी यही हो रहा है । यह पहला मौका है जब कांग्रेस के साथ दूरी बनाने की मुलायम सिंह ने ठानी है  क्युकि  जिस तरीके से यूपीए सरकार के कार्यकाल में एक के बाद एक घोटाले सामने आ रहे है उसके छींटे सपा पर पड़ने लाजमी हैं इसलिए सपा का कांग्रेस से दूरी बनाकर चलना ही मौजूदा दौर में सबसे बेहतर विकल्प दिख रहा है ।  इसी विकल्प के आसरे वह गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई दलों को अपने पाले में लामबंद कर 2014 की चुनावी बिसात बिछाने में लग गई है। असल में मुलायम के कांग्रेस के प्रति कुछ ज्यादा ही तल्ख़ तेवर हो गए हैं क्युकि  कांग्रेस लगातार भ्रष्टाचार के कीचड में धसती  जा रही है और आम आदमी से उसका वैसा सरोकार भी नहीं रहा जो पुराने दौर में हुआ करता था। यही नहीं महंगाई से लेकर  भ्रष्टाचार पर नकेल कसने में वह पूरी तरह विफल साबित हो रही है और कॉरपरेट पर ज्यादा मेहरबानी  इस दौर में दिखा  रही है। आम आदमी और अपने देश के व्यापारियों की कमर तोड़ने  के बाद अब कांग्रेस ने खुदरा व्यापार में  एफडीआई के दरवाजे  खोल दिए हैं जिसकी सीधी  मार अपने देश के 22 करोड़ से भी ज्यादा व्यापारियों पर पड़ेगी जो उनके पेट  पर लात मारने जैसा है । फिर वालमार्ट सरीखी कम्पनियों का विश्व के अन्य देशो में अनुभव भी सबके सामने है । रही सही कसर  सरकार  ने घरेलू गैस पर सब्सिडी खत्म  कर पूरी कर दी है। इससे जनता में कांग्रेस सरकार के प्रति गुस्सा बढ़ने  लगा है  क्युकि  आम   आदमी का सेंसेक्स से कुछ भी लेना देना नही है। उसके लिए रोटी,कपड़ा ,मकान सबसे अहम है।

 मुलायम ही नहीं उनकी पार्टी से जुडा  हर छोटा और बड़ा नेता, कार्यकर्ता  अब यह मान रहा है जल्द से जल्द कांग्रेस को निपटाना जरुरी होगा अन्यथा नेताजी के पीऍम बनने  के सपनो को पंख नहीं लग पाएँगे। इसी कवायद के तहत सपा ने बीते दिनों संसद के मानसून सत्र के अंतिम दिनों में "कोलगेट" पर वामपंथी और टीडीपी को साथ लेकर धरना दिया। सपा प्रमुख  मुलायम के भाई रामगोपाल यादव ने तो तत्कालीन कोयला मंत्री प्रकाश  जायसवाल की भूमिका पर पहली बार सवाल उठाकर कांग्रेस पार्टी को "बैक गेयर" पर चलने को मजबूर कर दिया है । मजबूरन प्रकाश जायसवाल को मनोज जायसवाल से अपने रिश्ते स्वीकारने पड़े हैं। हालाँकि कोलगेट  पर सफाई देते हुए प्रकाश जायसवाल का  कहना है अगर उनके खिलाफ लगे आरोप सही साबित होते हैं तो वह राजनीती  से सन्यास ले लेंगे । यही नहीं मुश्किलों में घिरी कांग्रेस के खिलाफ आक्रमकता दिखाते हुए सपा महासचिव मोहन सिंह ने तो पहली बार राहुल गाँधी की कार्यछमता पर सवाल उठाकर उन्हें पीऍम  पद के लिए अयोग्य करार दे दिया है ।  कांग्रेस से दूरी बनाने की दिशा में इसे एक बड़ा कदम माना जा रहा है क्युकि  बिना गाँधी परिवार के  "औरे" का गुणगान किये बिना कोई भी दल कांग्रेस से इस दौर में निकटता नहीं बड़ा सकता और यही वह दुखती रग  है जो कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल इस दौर में है क्युकि  सभी जानते हैं  पार्टी के चाटुकार भले ही राहुल गाँधी को पीऍम पद के लिए प्रोजेक्ट करें लेकिन उनका "औरा " केवल रायबरेली, अमेठी तक ही सिमटकर रह जाता है। वहीँ पंजाब ,यूपी, बिहार  और  अन्य  राज्यों में कांग्रेस लगातार सिकुड़ती जा रही है । आने वाले हिमांचल, गुजरात के विधान सभा चुनावो में भी शायद ही राहुल का जादू चलेगा इसलिए सपा कांग्रेस के सामने आक्रामक रूप से उतरने का मन बना चुकी  है और इसी कोशिशो के तहत कार्यकर्ताओ से यू पी से 60 सीटें जीतने का लक्ष्य  तय करने को कहा गया है ताकि केंद्र में मजबूत ताकत बनकर पी ऍम पद के लिए सौदेबाजी की जा सके । 

                                     कोलकाता में सपा की राष्ट्रीय कार्यकारणी के बाद का रास्ता मुलायम के सामने गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी गठजोड़ बनाने की दिशा में तेजी के साथ आगे बढ़  रहा है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए क्युकि  कार्यकारणी  के पहले दिन से अंतिम दिन तक कांग्रेसी घोटालो की गूंज सुनने को मिली जिसमे कांग्रेस  की  आर्थिक नीतियों के विरोध से लेकर महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी से जुड़े मुद्दे केंद्र में छाये रहे। वैसे डीजल और गैस पर सब्सिडी खत्म किये जाने और आर्थिक सुधारों की दिशा में कांग्रेस के बढ़ते  कदमो के मद्देनजर आम चुनाव 2014 से पहले हो जाने की संभावनाओ से भी इनकार नहीं किया  जा सकता  क्युकि लागातार  भ्रष्टाचारके मसले पर घिर रही यूपीए सरकार  के मुखिया मनमोहन सिंह ने जिस तरह बीते दिनों जाएंगे तो लड़ते हुए जाएँगे का ऐलान कर विपक्षियो को अपनी रणनीति बदलने के लिए मजबूर कर दिया वहीँ यूपीए के सहयोगियों को भी इशारो इशारो में समझा दिया कि आर्थिक मोर्चे पर गिर रही सरकार  और देश की सेहत सुधाने का यही सही वक्त है। साथ ही प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने कीमतो  पर रोल बैक न किये जाने की बात दोहराकर  कह दिया कि  अब वह अपनी मनमोहनी इकोनोमिक्स के माडल की छाव तले  कांग्रेस की वैतरणी आने वाले लोकसभा  चुनावो में पार लगाएंगे ।  फिर चाहे इसकी कीमत उन्हें किसी भी रूप में क्यों ना चुकानी पड़े वह किसी की घुड़की के आगे नहीं झुकेंगे। 

                           इस साल यूपी के विधान सभा चुनाव में सपा ने 33 फीसदी मत प्राप्त कर ऐतिहासिक जीत दर्ज की और सी ऍम की कुर्सी युवा तुर्क अखिलेश यादव के कंधो पर सौप दी ।   उम्मीदों और देश की मौजूदा स्थिति के मद्देनजर मुलायम द्वारा कार्यकर्ताओ को 60 सीटें जीतने का लक्ष्य बहुत ज्यादा भी नहीं लगता क्युकि  उत्तर प्रदेश फतह किये बिना दिल्ली में अगली सरकार के गठन में अहम भूमिका निभाने के सपने देखना मुंगेरी लाल के हसीन सपने देखने जैसा है । यू पी में सपा के मजबूत  होने की सूरत में ही केंद्र में मुलायम प्रधानमंत्री पद की ना केवल  दावेदारी कर सकते हैं बल्कि अगली सरकार में अपने पैंतरों द्वारा वह मोल भाव की स्थिति में होंगे।    देश की मौजूदा स्थिति के मद्देनजर राजनीतिक विश्लेषक अब इस बात को महसूस  रहे हैं अगर मायावती, ममता, मुलायम इन तीनो  से से कोई दो एक हो जाए तो केंद्र की यूपीए सरकार  अल्पमत में आ जाएगी। ऐसी सूरत में कई सहयोगी यूपीए से पल्ला झाड सकते हैं । ऐसे में कांग्रेस के सामने आगामी चुनावो में मुश्किलें आ सकती हैं क्युकि  कांग्रेस को सहयोग कर रहे ये सहयोगी अभी ही उससे दूरी बनाकर भ्रष्टाचार, आर्थिक सुधार , महंगाई जैसे मुद्दों का ठीकरा कांग्रेस के ही सर फोड़ेंगे। जहाँ तक भ्रष्टाचार का सवाल है तो इस मुद्दे पर सपा ने कांग्रेस को हाल के दिनों में जमकर कोसा है और आम जनमानस में यह सन्देश देने की कोशिश की है वह कांग्रेस के हर फैसले पर साथ नहीं है।  कमोवेश यही लकीर अखिलेश यादव ने एफडीआई पर खींची है और समझ बूझ के साथ यूपी में एफडीआई को लागू न करने का बयान  दिया है। यही नहीं प्रमोशन में रिजर्वेशन के विरोध में हाई कोर्ट के फैसले के साथ जाकर मायावती के स्वर्ण वोट बैंक पर सेंध लगाने का काम किया है । 

  रही  बात ममता की तो राष्ट्रपति चुनाव में ममता के साथ बड़ी दूरियों के बाद पहली बार पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान अखिलेश का दीदी से मिलने" रायटर्स बिल्डिंग " जाना और मुलाकात करना कई  संभावनाओ की तरफ इशारा करता है।  हमारी समझ से  ममता के 72 घंटो के अल्टीमेटम को इस बार गंभीरता से लेने की जरुरत है क्युकि  ममता की राजनीती  का रास्ता उसी पश्चिम बंगाल से निकालता  है जहाँ उन्होंने वामपंथियों के एकछत्र राज का अपने दम से अंत किया।  उनकी एकमात्र इच्छा बंगाल का सी ऍम बनना  रही थी जो अब पूरी हो चुकी है।  अगले साल बंगाल में नगर निगम के चुनाव होने हैं ऐसे में वह कभी नहीं चाहेंगी कि "माँ", माटी और मानुष" के अपने मुद्दों से भटककर वह कांग्रेस के साथ मूल्य वृद्धि, एफ़डीआई का समर्थन कर कदमताल करेंगी।  इससे बेहतर यह होगा वह मुलायम को साथ लेकर एक नई  संभावनाओ का विकल्प लोगो को  देंगी जिसमे नवीन पटनायक , शरद पवार, जयललिता,  नीतीश  कुमार भी साथ आ सकते हैं। ऐसी सूरत में मुलायम का  मैजिक  चलने की पूरी  सम्भावना  रहेगी  बशर्ते उत्तर प्रदेश में वह 60 सीटें जीत जाए।  रही बात माया की  तो इन हालातों  में मायावती उनको समर्थन देने से पहले दस बार सोचेंगी 

                             भारतीय राजनीती में यह मौका पहली बार आया  है जब कांग्रेस भ्रष्टाचार के दलदल में फंसती नजर आ रही है । जहाँ उसके राज में भू सम्पदा की लूट मची जिसे उसने मंत्रियो के नाते रिश्तेदारों को औने पौने दामो पर बेच डाला और पहली बार " कैग" सरीखी संवेधानिक संस्थाओ पर उसके प्रवक्ता और नेता ऊँगली उठाते नजार आये।  हर रोज सरकार  के खिलाफ आन्दोलनों का बिगुल बज रहा है । जहाँ रामदेव काले धन, लोकपाल पर सरकार की मुश्किलें बढा  रहे है वहीँ टीम अन्ना  भी जनलो पाल  के साथ कोयले की कालिख , कामनवेल्थ , आदर्श सोसाईटी को बड़ा मुद्दा बनाने की तैयारियों में दिख रही  है उससे यूपीए के सहयोगी भी "वेट एंड वाच " नीति के तहत काम कर रहे हैं क्युकि यूपीए 2 का  अब  कोई इकबाल नहीं बचा है ।  एक ईमानदार  प्रधानमंत्री सीधे कठघरे में खड़ा है जिसकी कमान दस जनपथ के हाथो में है । हालात  1989 में वी  पी सिंह के दौर जैसे हो चले  हैं जहाँ राजीव गाँधी को "बोफोर्स" के जिन्न ने अर्श से फर्श पर ला दिया था । वी पी ने उस दौर में देश भर में घूम घूम कर कांग्रेस की खूब भद्द  पिटाई थी और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल होना पड़ा था ।  तो क्या माना जाए मनमोहन भी उसी राह की तरफ अपने कदम बढ़ा  रहे हैं  ? अभी तक के हालत तो यही कहानी कह रहे हैं । आम चुनाव समय से पूर्व कभी भी हो सकते  हैं ।  ऐसे में समय रहते यूपीए के सहयोगियों के लिए कांग्रेस से पिंड छुड़ाना ही फायदे का सौदा रहेगा ।
  
                      देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को भी  मौजूदा माहौल में ज्यादा उत्साहित होने की जरुरत नही है क्युकि कोयले की कालिख के  दाग  उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के करीबी अजय संचेती  से लेकर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियो तक जा रहे है । कारपोरेट को साथ लिए बिना उसकी दाल भी इस दौर में नहीं गलती क्युकि  चुनावी चंदे के लिए उसकी मजबूरी  भी  इसी कोर्पोरेट के साथ खड़े होना बन जाती है। भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने से लेकर महंगाई को कम करने के लिए उसके पास कोई जादू की छड़ी और कारगर नीति नहीं है । साथ ही वह पी ऍम पद के लिए अपने झगड़ो में उलझी है । ऐसे में अब रास्ता भाजपा और कांग्रेस से इतर एक नए गठबंधन तीसरे मोर्चे की दिशा में बढ़ता दिख रहा है जिसमे मुलायम सिंह सबसे बड़ा " ट्रंप  कार्ड" साबित हो सकते हैं।

                           1996 में मुलायम ने अपने पैतरे से केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनाने की मंशा पर जहाँ पानी फेरा था वही बाद में रक्षा मत्री सौदेबाजी के आसरे बन गए। 1999  में अटल बिहारी की सरकार गिरने के बाद कांग्रेस को गच्चा देकर उसे सरकार  बनाने से रोक दिया था । वही मुलायम 2004 में न्यूक्लिअर डील पर यू पीए 1 को संसद में विश्वासमत प्राप्त करने में मदद करते हैं फिर यू पीए 2 के तीन साल के जश्न में जहाँ  शरीक  होते हैं तो वहीँ मौका आने पर कांग्रेस के साथ रहकर उसी के खिलाफ तीखे तेवर दिखने से बाज नहीं आते हैं। उसकी नीतियों को कोसते हैं और तीसरे मोर्चे का राग अपनी राष्ट्रीय  कार्यकारणी में अलापते है जिसमे वह भाजपा -कांग्रेस दोनों को किनारे कर लोहियावादी, समाजवादी , वामपंथियों को साथ लेकर राजनीति की नई लकीर उसी तर्ज पर खींचते हैं जो उन्होंने 1996 में नरसिंह राव के मोहभंग के बाद खींची थी तो इससे जाहिर होता है मुलायम अभी भी तीसरे मोर्चे की दिशा में आशान्वित हैं। अब आप इसे मुलायम की पैतरेबाजी कहें या अवसरवादिता  ।   राजनीती के अखाड़े का यह चतुर  सुजान अब इस बात को बखूबी समझ रहा है अगर भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ अभी एक नहीं हुए तो समय हाथ से निकल जायेगा। वैसे भी मुलायम के पास उम्र के इस  अंतिम पड़ाव पर पी ऍम बनने का सुनहरा मौका शायद ही होगा जिसमे वह 1996 की गलतियों से सीख लेकर एक नई  दिशा में देश को ले जाने का साहस दिखा सकते है । वैसे भी इस समय कांग्रेस ढलान  पर है तो भाजपा  पर भी  सादे साती चल रही है । तीसरे मोर्चे की सियासत को आगे बढाने  का यही बेहतर समय है । मुलायम इसके मर्म को शायद समझ भी रहे हैं । ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि राजनीती के अखाड़े में मुलायम  का यह दाव  कितना कारगर होता है ?

        
     

1 comment:

Shalini kaushik said...

mungeri lal ke haseen sapne.sarthak prastuti.badhai