Saturday 17 November 2012

पहाड़ो में रचे बसे थे केसी ...............





श्रद्धांजलि

“ सन २००० में जब उत्तराखंड बना तब शायद अटल जी और आडवानी जी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद का प्रस्ताव दिया था लेकिन वे इतने वरिष्ठ और ऊँचे कद के थे कि उन्होंने इसमें रूचि नहीं ली | अच्छा होता अगर वह उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने होते ”

देहरादून में उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बी सी खंडूरी के द्वारा केसी पन्त को इन शब्दों के साथ दी गई भावभीनी श्रद्धांजलि के सी के असल कद का एहसास कराने के लिए काफी है | झीलों की नगरी सरोवर नगरी मानी जाने वाले नैनीताल में पले बड़े के सी के निधन से पहाड़ ने एक कर्मठ और सौम्य नेता खो दिया और इसी के साथ भारत रत्न पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त की राजनीतिक विरासत का भी  अंत हो गया क्युकि के सी के दोनों बेटे चाहकर भी राजनीती में आने से परहेज करते रहे हैं | के सी पन्त के निधन से पूरा उत्तराखंड शोकाकुल है खासतौर से नैनीताल जिला जो उनकी कर्मस्थली एक दौर में रहा और जहाँ पर रहकर उन्होंने अपना बचपन ना केवल गुजारा बल्कि प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा भी ग्रहण की  |  


के सी पन्त का जन्म १९३१ में नैनीताल में हुआ था | प्रारम्भिक शिक्षा नैनीताल के सेंट जोसेफ कालेज से ग्रहण की जिसके बाद एम एस सी करने लखनऊ विश्वविद्यालय चले गए | देश के गृह मंत्री रहे गोविन्द बल्लभ पन्त के पुत्र होने के नाते उन्हें राजनीती की रपटीली राहो में जगह बनाने के लिए कड़ी मशक्कत नहीं करनी पड़ी | यह केसी की महानता ही थी जिन्होंने  अपनी राजनीती की बिसात खुद ही बिछाई थी और शायद यही चीज उन्हें अन्य राजनेताओ से अलग और विशिष्ट बनाती थी | भारत रत्न पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त के विराट कद के आगे के सी का कद कुछ कम जरुर दिखाई देता था लेकिन कुशल राजनेता की लीक पर चलने का साहस उन्होंने खुद ही उठाया और खुद ही राजनीती की बिसात का रास्ता तैयार किया |
                

 १९६२ में ३१ साल की उम्र में वह नैनीताल से कांग्रेस के टिकट पर सांसद का चुनाव लड़े और सांसद निर्वाचित हुए | १९६७,१९७१ में भी उन्होंने यहाँ से धमाकेदार जीत दर्ज कर सबकी नजरें नैनीताल पर उस दौर में केन्द्रित कर दी थी |१९७७ में पूरे देश में चली जनता पार्टी की लहर ने उनका सिंहासन भी खतरे में डाल दिया जिस कारण उनको चुनाव हारना पड़ा लेकिन १९७८ में राज्य सभा के रास्ते संसद के गलियारों तक पहुचने में वह कामयाब रहे | इसके बाद  १९८९ में वह लोक सभा चुनाव जीते | इसी दरमियान उन्होंने राज्य सभा के सभापति की कुर्सी संभाली | अस्सी का यही दशक था जब राजीव गाँधी के विश्वस्त सलाहकारों में उनकी गिनती की जाने लगी थी और शायद इसी निकटता के चलते वह रक्षा मंत्री भी उस दौर में बने |

 राजनीती के मैदान में कांग्रेस के भीतर तत्कालीन उत्तर प्रदेश में उनकी किसी से प्रतिद्वंदिता थी तो वह बेशक एन डी तिवारी और हेमवती नंदन बहुगुणा थे जिनके चलते वह यू पी के सी ऍम उस दौर में नहीं बन पाए | बाद में इसी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के चलते उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया | तिवारी के साथ सम्बन्ध मधुर नहीं रहे जिसके चलते अपनी पत्नी इला पन्त को भाजपा की सदस्यता  एक दौर में उन्होंने दिला दी | यही नहीं ९० के उस दशक के दौरान वह खुलकर भाजपा  के चुनाव प्रचार में शामिल भी उस दौर में हुए थे | १९९8 का आम चुनाव पूरा देश नहीं भूल सकता | उस समय के सी की पत्नी इला पन्त ने नारायण दत्त तिवारी को सीधे  टक्कर दी जिसके चलते तिवारी को नैनीताल सीट से हाथ धोना पड़ा था | यही नहीं1991 में अगर तिवारी नैनीताल सीट बलराज पासी से जीत जाते तो शायद देश के प्रधान मंत्री होते | कई  बार तिवारी ने इस हार के बारे में लोगो से चर्चा की है जिसकी टीस आज भी बरकरार है | उस दौरान के सी ने बलराज के चुनावी प्रचार में अपना जलवा दिखाया था ।  

१९९८ में पन्त भाजपा में शामिल हो गए | वाजपेयी सरकार में दसवे वित्त आयोग के उपाध्यक्ष २०००-२००४ के दौरान रहे | वित्त आयोग के उपाध्यक्ष रहते हुए उन्होंने अपने गृह राज्य उत्तराखंड के बजट पर खास ध्यान दिया | पंचवर्षीय योजना में उनके राज्यों के विकास मॉडल की आज उनके विरोधी भी सराहना करते हैं |  विकास को लेकर उनकी सोच बेहद सकारात्मक थी | नैनीताल के लिए उन्होंने झील संरक्षण के लिए करोडो का बजट उस दौर में मंजूर करवाया था | पहाड़ से उनका लगाव था शायद तभी कृषि कार्यो को बदावा देने के लिए पंतनगर में कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना उनके प्रयासों से हुई | उन्होंने राजनीती को साधन नहीं साध्य माना और उनकी कुशलता और सौम्यता उन्हें महान प्रशासक बनाती थी |
             

 
           पन्त ने बोफोर्स के मसले पर लोक सभा में राजीव गाँधी का जबरदस्त बचाव किया था | अगर आज के दौर में मनमोहन के सबसे बड़े ट्रबलशूटर प्रणव मुखर्जी हुआ करते  तो उस वी पी वाले दौर में राजीव गाँधी के सबसे विश्वासपात्रो में के सी पन्त हुआ करते थे | रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने श्रीलंका में शांति सेना की तैनाती, मालदीव में भारतीय सेना की तैनाती ,दमन दीव में भारत का पहला कोस्ट गार्ड स्टेशन स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया | पृथक तेलंगाना आन्दोलन उस दौर में उनकी सूझ बूझ और मध्यस्थता के चलते समाप्त हुआ था | प्रथम फ़्लेगशिपएयरक्राफ्ट आई एन एस विराट समेत मिग २९ को सेना में शामिल करने से लेकर पोखरण में देश के पहले परमाणु विस्फोट में उनका योगदान कभी नहीं भुलाया जा सकता |  उन्होंने रक्षा के अलावा केंद्र में गृह, वित्त, परमाणु उर्जा, विज्ञान , शिक्षा ,भारी इंजीनियरिंग मंत्रालय की जिम्मेदारी भी  कुशलता से निभायी |

पन्त साफगोई में यकीन करते थे | चाटुकारिता के चलन पर उन्हें यकीन नहीं था | वह अपने सिद्धान्तों पर अडिग रहने वाले लोगो में से एक थे | यह बहुत कम नेताओ में आज के दौर में देखने को मिलता है | राजनीतिक प्रतिद्वंदिताओ के चलते ही  उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया और भाजपा मे जरुर आये लेकिन पहाड़ और देश की प्रगति के लिये सदा तत्पर रहे | उन्होंने कभी अपने जीवन में समझोता नहीं किया भाजपा में आकर भी अपने स्वाभिमान के खातिर खुद को राजनीती से अलग कर लिया | इतिहास उन्हें ऐसे  नेता और प्रशासक के तौर पर याद रखेगा  जिसने  अपने बूते राजनीतिक जमीन तैयार की और अपनी अलग पहचान बनाई | इतना सब होने के बाद भी इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने उनके निधन की खबरों से बेरुखी दिखाई | यही नहीं केंद्र सरकार द्वारा उनको राजकीय सम्मान के साथ विदा न किया जाना इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है |    

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

विनम्र श्रद्धांजलि..