Tuesday, 30 October 2012

हिमाचल के अखाड़े में चुनावी संग्राम .............








हिमाचल  प्रदेश में पश्चिमी विक्षोभ के कारण छाई  सर्द हवाओ ने भले ही मौसम ठंडा कर दिया हो लेकिन  राजनेताओ के  ताबडतोड़ चुनावी प्रचार पर इसका कोई असर नहीं है | राजधानी शिमला से लेकर कुल्लू मनाली और चंबा सरीखे इलाकों  तक विपरीत परिस्थितियों और प्रतिकूल मौसम के बावजूद  ठण्ड में भी प्रत्याशियों का चुनावी पारा सातवे आसमान पर है | टिकटों का घमासान थमने और नाम वापसी की तारीखों के ख़त्म होने के बाद अब सभी विधान सभाओ में चुनाव प्रचार तेज हो गया है और सभी पार्टियों ने अपनी पूरी ताकत चुनाव प्रचार  पर केन्द्रित कर दी है | जैसे जैसे मतदान की तिथि चार नवम्बर पास आती जा रही है वैसे वैसे हिमाचल की शांत वादियों में चुनावी सरगर्मियां  तेज होती जा रही हैं |

 राज्य में दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों भाजपा और कांग्रेस के बीच इस बार भी मुख्य जंग  है लेकिन बड़े पैमाने पर इन दोनों दलों के बागी प्रत्याशियों के मैदान में होने से हिमाचल लोक हित पार्टी जैसे छोटे दलों की पौ बारह होती दिखाई दे रही है जिसमे कई अन्य दल शामिल होकर तीसरे मोर्चे का विकल्प राज्य में पेश करने का एक प्रयास करते देखे जा सकते है | राज्य में मुकाबले में यूँ  तो भाजपा और कांग्रेस मुकाबले में बराबरी पर बने हैं लेकिन जिस  तरीके से इस दौर में दोनों दलों  में टिकट के लिए नूराकुश्ती देखने को मिली उसने राज्य के आम वोटर को भी पहली बार परेशान किया हुआ है और पहली बार इस ख़ामोशी के मायने किसी को समझ नहीं आ रहे है जिससे आलाकमान के सामने बड़ी मुश्किलें आ रही है | सभी दलों के नेता अब चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में स्टार प्रचारकों के आसरे हिमाचल को फतह करने के मंसूबे पालने लगे हैं | जहाँ यू पी ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने २२ अक्टूबर को कांगड़ा और मंडी में बड़ी रैली कर भाजपा  की धूमल सरकार को ललकारा  तो वहीँ राज्य के मुख्यमंत्री धूमल  तो तीन महीने पहले से ही अपने "मिशन रिपीट " में पूरी शिद्दत के साथ जुटे  हुए हैं |  "कहो दिल से धूमल फिर से " यही वह नारा है जिसके बूते भाजपा अपने ताबड़तोड़ चुनावी प्रचार को स्टार प्रचारकों के बूते कैश कराना चाहती है | अन्य दल भी अपने चुनाव प्रचार में पीछे नहीं हैं लिहाजा माया से लेकर ममता अगर हिमाचल के अखाड़े में अपने लिए सम्भावनाये तलाश रहे हैं तो इस चुनाव के मायने समझे जा सकते हैं | आने वाले कुछ दिनों में यहाँ पर इनकी कई बड़ी सभाए भी होनी हैं |

                  हिमाचल में सत्तारूढ़ भाजपा किसी भी कीमत पर अपने हाथ से सत्ता को फिसलते हुए नहीं  देखना चाहती है | इसके लिए वह पिछले कुछ समय से एड़ी चोटी का जोर लगाये हुए है | मुख्यमंत्री धूमल देर रात तक प्रदेश में अपनी सभाए कर कांग्रेस को निशाने पर ले रहे हैं | हाल ही में सोलन की एक सभा में धूमल ने केन्द्र सरकार को निशाने पर लेते हुए कहा कि अब केन्द्र सरकार ने कबाड़ खाना भी शुरू कर दिया है |उनका इशारा साफ तौर पर इस्पात मंत्रालय  की तरफ था  जिसकी कमान अभी कुछ समय पहले तक वीरभद्र सिंह के हाथो में  थी | भले ही इस सभा में उन्होंने वीरभद्र का नाम सीधे तौर पर नहीं लिया लेकिन इशारो इशारो में उन्होंने वीरभद्र पर अपने तीर छोड़ ही दिए | वहीँ वीरभद्र कहा चुप बैठते उन्होंने खुद के पाक साफ़ होने का सर्टिफिकेट तक जारी कर दिया | बिझनी की एक  चुनावी सभा में उन्होंने भाजपा पर गंभीर आरोप लगाते हुए पैसे लेकर उनके खिलाफ साजिश रचने के आरोप मढ़ दिया तो कुल्लू में मीडिया कर्मियों के साथ अपने किये पर शर्मिंदगी व्यक्त की और माफ़ी मांगी | गौरतलब है कि अभी कुछ दिनों पहले भ्रष्टाचार के मसले पर पत्रकारों के साथ उनकी सीधी झड़प हुई थी जिसके बाद एक चैनल के पत्रकार के सवाल पर वह झल्ला  उठे थे और आपा खोकर यह कहते हुए पाए गए थे कि वह उसका कैमरा फोड़ देंगे | ऊपर का यह वाकया  ये बताने के लिए काफी है कि इस बार हिमाचल के चुनाव में आम आदमी के  सामने सत्तारूढ़ भाजपा की एंटी इनकम्बेंसी से ज्यादा चिंता केन्द्र सरकार के द्वारा बढाई गई परेशानियाँ ज्यादा हैं | 

मसलन राज्य का वोटर केन्द्र सरकार की महंगाई ,भ्रष्टाचार ,घरेलू  गैस की सब्सिडी खत्म करने , ऍफ़  डी आई जैसे मुद्दों से ज्यादा परेशान दिख रहा है जिसने एक तरीके से आम आदमी की कमर तोड़ने का काम किया है  | वहीँ राज्य की कांग्रेस सरकार में जारी भारी  गुटबाजी और भ्रष्टाचार पर वीरभद्र के  विरोध के चलते भाजपा जरुर बमबम है | लेकिन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के बारे में हाल में हुए भ्रष्टाचार के खुलासो से उसकी लड़ाई भी कही न कही कमजोर नजर आ रही है | फिर भी बीते समय में धूमल सरकार ने हिमाचल में विकास की जो नई बयार बहाई है वह  आम जनता में एक सकारात्मक सन्देश देने में कामयाब भी  हुई है |किसानो के लिए शुरू की गई  दीनदयाल किसान योजना , अटल स्वास्थ्य योजना , अटल बचत योजना , अटल स्कूल यूनिफार्म योजना और  कर्मचारियों के एक बड़े वोट बैंक को ध्यान में रखकर शुरू की गई करोडो की दर्जन भर से ज्यादा योजनाये  धूमल के पिटारे में है जिसे वह जनता के बीच विकास की एक नई बयार के रूप में पेश करते नजर आ रहे हैं और यही लकीर है जिसके आसरे वह कांग्रेस के सामने एक नई नजीर पेश करते नजर आ सकते हैं |

 भाजपा ने राज्य में ६८ में से तकरीबन ४५ सीटो पर अपने प्रत्याशियों का ऐलान सबसे पहले कर कांग्रेस से मनोवैज्ञानिक तौर पर बढ़त  तो ले ही ली है  लेकिन हिमाचल में बगावत के फच्चर ने ऐसा पेंच भाजपा के सामने फसाया है जिससे पार पाने की बड़ी चुनौती  अब धूमल के सामने खड़ी हो गई है | ऊपर से शांता कुमार के साथ उनके छत्तीस  के आंकड़े ने भाजपा की रातो की नीद उड़ाई हुई है |

                                     

 हर बार के  चुनाव की तरह इस बार भी अब राज्य में कांगड़ा का इलाका सबके लिए महत्वपूर्ण हो चला है क्युकि यहाँ की तकरीबन २० सीटें प्रत्याशियों के जीत हार के गणित को सीधे प्रभावित करने का माद्दा रखती हैं | यह पूरा इलाका भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का गृह जनपद रहा है लेकिन इस बार टिकट आवंटन में धूमल कैम्प और शांता कैम्प में टशन देखने को मिली |यह कोई पहला मौका नहीं है जब दोनों कद्दावर नेता आमने सामने आ गए | अतीत के पन्ने टटोलें तो दोनों के बीच यह तकरार नब्बे के दशक से उनका पीछा नहीं छोड़ रही है | मुख्यमंत्री  बनाये जाने को लेकर दोनों में  उसी दौर से एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ देखी जा सकती है लेकिन  ज्वालामुखी से निकला लावा आज भी इनका पीछा नहीं छोड़ रहा है | मौजूदा दौर में भी धूमल और शांता के बीच विवाद की बड़ी  जड़ कांगड़ा ही बना हुआ है | 

दरअसल ज्वालामुखी के इलाके में शांता के समर्थक रमेश धवाला के चुनावी  इलाके में परिसीमन का फच्चर ऐसा फसा कि उनकी विधान सभा के कई इलाके देहरा सीट का हिस्सा हो गए जबकि धूमल के बेहद करीबी रविन्द्र  रवि के  इलाके का अस्तित्व पूरी तरह लगभग समाप्त हो गया |थुरल का बड़ा हिस्सा देहरा में चले जाने के कारण इस दौर में टिकट आवंटन से पूर्व रवि टिकटों के जोड़ तोड़  में ही उलझे रह गए तो धवाला ज्वालामुखी से ही टिकट की मांग करने लगे | बाद में गडकरी की अदालत में फैसला आने के बाद रवि को देहरा से और धवाला को ज्वालामुखी से ही टिकट मिला | लेकिन इस मसले ने दिखा दिया कि धूमल कैम्प और शांता कैम्प किस तरह इस चुनाव में एक दुसरे को नीचा दिखाने की कोशिशे की  | भाजपा ने इस चुनाव में जहाँ रूप सिंह ठाकुर का पत्ता पूरी तरह काट दिया वहीँ डाक्टर राजन सुशांत की पत्नी सुधा को भी भाव नहीं दिया |इस बार के चुनावो में सत्ता के गलियारों में यह चर्चा आम है कि कांगड़ा में टिकट आवंटन में भाजपा आलाकमान ने  शांता कुमार को पूरी तरह से फ्री हैण्ड दिया जिसके चलते वह धूमल कैम्प को पटखनी देने में पूरी तरह कामयाब नजर आये हैं |

 शांता के भारी  दबाव का असर धूमल के चेहरे पर इस बार साफ़ झलक  रहा था जब वह अपने खासमखास राकेश पठानिया को टिकट नहीं दिलवा सके जो निर्दलीय ही अब मैदान में ताल ठोकते नजर आ रहे हैं |ज्वालामुखी के इलाके से प्रदेश भाजपा के औद्योगिक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष संजय गुलेरिया का टिकट शांता  कुमार ने इसलिए काट दिया क्युकि उनकी गिनती धूमल के सिपहसालारो में की जाने लगी थी |हालाँकि शांता पहले उनके लिए टिकट सर के बल लाने का दावा कर रहे थे |नूरपुर से कद्दावर नेता और राज्य के पर्यटन मंत्री रहे राकेश  पठानिया का भी इस चुनाव में पत्ता साफ़ शांता ने कर दिया | उन्हें भी टिकट न मिलने से उनके समर्थको के हाथ निराशा लगी है | गंगथ में भी शांता ने मनोहर धीमान को टिकट  देने का वादा पहले किया था लेकिन ऐन मौके पर रीता धीमान को प्रत्याशी बनाकर शांता ने दिखा दिया है कि धूमल पार्टी से बड़े नहीं हैं | दोनों के बीच यह तकरार कही भाजपा का पूरा खेल ही इस चुनाव में ना बिगाड़ दे |

 आज भाजपा को बागियों से कई सीटो पर तगड़ी चुनौती  मिल रही है | शान्ता कुमार के मन में अभी भी मुख्यमंत्री बनने के सपने हैं शायद इसलिए वह टिकट देने में अपने चहेतों का ध्यान रख रहे थे और समय समय पर धूमल सरकार को डेमेज करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ रहे थे | बताया जाता है उन्होंने पहले पार्टी आलाकमान  के सामने हिमाचल  में चुनाव प्रचार में  नहीं भेजे जाने को लेकर गुहार लगाई बाद में वह कांगड़ा में अपने प्रत्याशियों के लिए जोर लगाने में लग गए |

 इस बार मौका ऐसा भी आया जब उन्होंने पार्टी छोड़े जाने तक की धमकी दे डाली लेकिन आलाकमान के दखल के चलते वह ऐसा कुछ भी नहीं कर सके जिससे भाजपा के लिए राज्य में मुश्किलें खड़ी हो जाए | शांता कुमार और धूमल की टशन देखकर उत्तराखंड की याद आती है | उत्तराखंड में शांता की भूमिका में जहाँ भगत  सिंह कोशियारी  एक दौर में खड़े थे वहीँ धूमल की भूमिका में खड़े थे  बी सी खंडूरी  | दोनों के बीच टशन से राज्य में भाजपा सरकार  अस्थिर हो गई थी | बाद में दोनों की लड़ाई का फायदा निशंक को मिला था जिसके बाद भ्रष्टाचार के मामलो ने निशंक  की  बलि ले ली थी  और इसका नतीजा यह हुआ  उत्तराखंड में  7 माह  पूर्व  हुए चुनावो में भाजपा खंडूरी के नेतृत्व में अच्छा परफार्म  कर गई लेकिन सत्ता में नहीं आ पायी |

 तो क्या माना जाए  हिमाचल भी शान्ता और धूमल की बगावत के चलते उसी लीक पर जाता दिख रहा है | राजनीती में कुछ भी सम्भव है और हिमाचल  और उत्तराखंड की परिस्थितियां  भी कमोवेश एक जैसी ही है लिहाजा इस सम्भावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता अगर यही कलह जारी रहती है तो भाजपा को नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना होगा | 

                   
      
 वहीँ कांग्रेस के सामने भी भाजपा जैसी मुश्किलें इस दौर में राज्य के भीतर हैं | मंडी में डी डी ठाकुर को उम्मीदवार  बनाये जाने से कांग्रेस के कई नेता नाराज बताये जा रहे है |ऊपर से वीरभद्र  पर  भ्रष्टाचार के नए नए मामले कार्यकर्ताओ का जोश ठंडा कर रहे है | वैसे भी  केन्द्र की  यू पी ए सरकार के मंत्री इस मसले पर सरकार की हर रोज छिछालेदारी करने में लगे हुए हैं | वीरभद्र सिंह के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोपों की फुलझड़ी जलाए जाने से कार्यकर्ता हताश और निराश हो गए है | इसका असर यह है कि तकरीबन  आधी  विधान सभा की सीटो पर कांग्रेस को बागियों से कड़ी चुनौती  मिलने का अंदेशा बना है |

कांग्रेस की मुश्किल इसलिए भी असहज हो चली है क्युकि यहाँ इस चुनाव में कांग्रेस में गुटबाजी ज्यादा बढ़ गई है | वीरभद्र सिंह का यहाँ पर एक अलग गुट सक्रिय है तो वहीँ नेता प्रतिपक्ष  विद्या  स्टोक्स  , पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कौल सिंह ठाकुर और केन्द्रीय मंत्री आनंद शर्मा की राहें भी जुदा जुदा लगती हैं | मेजर विजय सिंह मनकोटिया  को वीरभद्र सिंह  ने शाहपुर से टिकट तो थमा दिया है लेकिन वह आज भी वीरभद्र सिंह के कैम्प से बाहर ही  बताये जा रहे है | दोनों के बीच रिश्ते पुराने दौर जैसे ही बने हैं | हालाँकि इस बार टिकट आवंटन में वीरभद्र ने अपना सिक्का चलाया है लेकिन भ्रष्टाचार  के आरोप और सी डी  कांड ने पार्टी के कद्दावर  नेताओ की सियासत पर ग्रहण सा लगा दिया है | कौल सिंह ठाकुर खुद अपने नेतृत्व में चुनाव लड़ने के इच्छुक थे लेकिन वीरभद्र ने उनके रास्ते में  खुद रोड़ा अटका दिया है |

 आनंद शर्मा से कभी उनके मधुर सम्बन्ध थे लेकिन उनको  भी अब केन्द्र की राजनीती ज्यादा पसंद आने लगी है लिहाजा राज्य में कांग्रेस की डूबती नैया की  तरफ उनका ध्यान नहीं जा पा रहा है | भाजपा और कांग्रेस से इतर अब सबकी नजरें इस चुनाव में महेश्वर सिंह और उनकी पार्टी हिमाचल लोक हित पार्टी पर जा टिकी है | हाल ही में उन्होंने बीजेपी के कई कार्यकर्ताओ को तोड़कर अपनी पार्टी में जोड़ा है साथ में श्याम शर्मा और महेंद्र सोफत के साथ आने से उनकी पार्टी को एक तरह से मजबूती मिली है |

महेश्वर की असली ताकत इस चुनाव में कांगड़ा में दिख सकती है जहाँ कांग्रेस और भाजपा को तगड़ी चुनौती  मिलने का अंदेशा है क्युकि यह पूरा इलाका महेंद्र का गढ़ रहा है |साथ ही कुल्लू के इलाकों में भी उनका जादू चल सकता है |इन इलाकों में एंटी इनकम्बेंसी भी एक बड़ा फैक्टर  है और महेश की शांता कुमार के साथ नजदीकिया भी सबका ध्यान इस चुनाव में खीच  रही  है | अगर महेश का जादू इन इलाकों में चल गया तो धूमल की मुश्किलें बदनी तय है | 
                              

कांग्रेस के लिए भी यह खतरे की घंटी है | हिमाचल का यह ट्रेंड पिछले समय से देखने तो मिला है कि यहाँ बारी बारी से भाजपा और कांग्रेस सत्ता में आते रहे हैं | १९७७ के बाद सिर्फ एक बार १९८५ में यहाँ पर कांग्रेस की वापसी हुई | कांग्रेस में यहाँ  यशवंत सिंह परमार १९५२ से १९७७ तक सी ऍम रहे तो ठाकुर रामलाल ने १९७७ से १९८२ तक सी ऍम की कमान संभाली| परमार के शासन का सबसे सुनहरा दौर हिमाचल में कांग्रेस के नाम रहा है शायद इसी के चलते आज जब सबसे अच्छे मुख्यमंत्रियों की बात की जाती है तो सबकी जुबान पर परमार का ही नाम आता है और लोग यह कहने लगते है उन्हें यशवंत परमार जैसा मुख्यमंत्री चाहिए |

 वीरभद्र १९८३ में सी ऍम बने  | १९९० में शांता कुमार की सरकार आई तो १९९३ में फिर वीरभद्र | इसके बाद १९९८ में धूमल मुख्यमंत्री हुए तो २००३ में वीरभद्र फिर से मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे | पिछले विधान सभा चुनावो में भाजपा ने जहाँ ४1  सीटें जीती वही कांग्रेस २३ पर सिमट कर रह गई थी |  उस चुनाव में ३ निर्दलीय प्रत्याशी भी चुनाव जीते थे |  लेकिन इस बार के हालत भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए मुश्किलों भरे हैं क्युकि दोनों दल बागियों को मनाने के लिए मान मनोवल करते देखे जा सकते हैं | 

                प्रदेश की दोनों बड़ी पार्टियों ने आखिरी दम तक बागी प्रत्याशियों को मनाने की कोशिश की लेकिन कई सीटों पर बागी उम्मीदवारों ने पार्टी प्रत्याशियों की मुसीबत बढ़ा दी है। भाजपा सरकार के वरिष्ठ नेता रूप सिंह ठाकुर सुंदरनगर से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में हैं वहीं कांग्रेस के विधायक योगराज देहरा से आजाद प्रत्याशी के रूप में डटे हैं। रूप सिंह भाजपा के कद्दावर नेता हैं और कई बार विधायक एवं मंत्री भी रहे हैं। सांसद राजन सुशांत की पत्नी सुधा सुशांत फतेहपुर से, जयसिंहपुर से रवि धीमान, सुजानपुर से राजेंद्र राणा, कांगड़ा से पवन कुमार काजल, धर्मशाला से कमला पटियाल, सोलन से एचएन कश्यप, अर्की से आशा परिहार, बल्ह से महंत राम चौधरी, दून से दर्शन सैनी, कुसुम्पटी से दिनेश्वर दत्त, भटियात से भूपिंद्र सिंह चौहान, जवाली से संजय गुलेरिया, शिमला से तरसेम भारती व इंदौरा से मनोहर लाल धीमान भी डटे हैं।

 कांग्रेस के ऊना से ओपी रत्न, कांगड़ा से डॉ. राजेश शर्मा, कोटकहलूर से होशियार सिंह, कसौली से राम स्वरूप, बिलासपुर से जितेन्द्र चंदेल व केडी लखनपाल, बैजनाथ से ऊधो राम, करसोग से मस्त राम, सिराज से चेतराम, घुमारवीं से कश्मीर सिंह व राकेश चोपड़ा, पांवटा से किरनेश जंग, मनाली से धर्मवीर धामी, आनी से ईश्वर दास, इंदौरा से मलेंद्र राजन, कुल्लू से पूर्व मंत्री सत्य प्रकाश ठाकुर की पत्नी प्रेमलता ठाकुर व भरमौर से महेंद्र ठाकुर भी मैदान में हैं।अब नाम वापसी के बाद यह आलम है कि विधान सभा इलाको में बागियों के असर को कम करने में हिमाचल के अखाड़े में दोनों दल अपना मनेजमेंट करने में सिरे से जुट गए हैं |
                                                              
 वैसे हिमाचल के इस बार के विधान सभा चुनावो में बागियों से पार पाना  भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए आसान नहीं दिख रहा | अगर बागी सफल हो जाते हैं तो यह भाजपा और कांग्रेस सरीखे दलों के हाथ सत्ता फिसलने में देरी नहीं लगेगी और ऐसे हालातो में स्थितिया उत्तराखंड जैसे बनने का अंदेशा बना है जहाँ खंडूरी खुद तो चुनाव हार गए लेकिन भाजपा को उन्होंने करारी हार से बचा लिया लेकिन  पार्टी कांग्रेस से एक सीट कम ही ला सकी जिसके बाद निर्दलियो को साथ लेकर कांग्रेस सत्ता की दहलीज पर विजय बहुगुणा के नेतृत्व में पहुची थी | अगर हिमाचल में भी ऐसा ही होता है तो यहाँ भी सत्ता की चाबी इन्ही बागियों के हाथ रहेगी | अब देखना है हिमाचल के इस चुनाव में कहो धूमल का नारा चलता है या यह औंधे मुह गिरता है |  फिलहाल इसके लिए  २० दिसम्बर  का इन्तजार करना होगा  |   


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