उत्तराखंड के सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ की बेरीनाग तहसील के निकट राईआगर निवासी कमला परेशान है । वह अपनी देली (आँगन ) में बिछौना बिछाये हुए त्योहारों के मौसम में अपने बेटे का इन्तजार कर रही है । इन्तजार इतना लम्बा हो गया है कि राहगीरों का रास्ता देखते देखते अब पूरा दिन बीत जाता है । मगर बेटे को देखिये उसे अब पहाड़ो के बजाए महानगरो का चकाचौंध इस दौर में ज्यादा रास आता है । शादी के बाद बेटा अपने गाँव का नाम तक भूल जाता है ।महानगरीय चकाचौंध की छाव तले अपनी लाइफलाइन खोजने वाली पहाड़ की इस नई नवेली युवा पीड़ी के पास अब इतनी फुर्सत भी नहीं कि वह अपने बूढ़े माँ -बाप से मिलने एक दिन का भी समय निकाल सके । वह आज अपनी जड़ो से कट से गए हैं और उन गलियों का दीदार भी नहीं कर पाते जिन गलियों में माँ बाप ने अंगुली पकड़कर उन्हें चलना फिरना सिखाया और पढ़ा लिखाकर इस काबिल बनाया कि उसे दो जून की रोजी रोटी मयस्सर हो सके । लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध तले उसे अब पहाड़ का कष्टप्रद जीवन रास नहीं आता । यह कहानी उत्तराखंड के एक गाव की नहीं बल्कि आज के दौर में हजारों गावो की सच्ची कहानी बन चुकी है जो पलायन के चलते आज धीरे धीरे खाली होने के कगार में खड़े हैं ।
पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती । बचपन में अपने मामा जी के मुह से सुना यह जुमला आज पहाड़ो में सोलह आने सच साबित हो रहा है । माटी से मेरा लगाव आज भी बना हुआ है । भले ही महानगरीय चकाचौंध तले हमारे देश का एक बड़ा तबका बड़े शहरों में अपना जीवन ज्यादा सुखी देखता है लेकिन दिल्ली,नोएडा ,गुडगाव सरीखे नगरो से इतर अपनी जन्मस्थली उत्तराखंड मुझे ज्यादा रास आती है ।पिछले कुछ महीनों से उत्तराखंड के गाँवों को देखने का अवसर मुझे मिला । इस दौरान वहां पर रहने वाले लोगो से मेरा सीधा संवाद भी हुआ लेकिन यह जानकार मन को बहुत पीड़ा हुई उत्तराखंड की हमारी आज की नौजवान पीड़ी अपने गावो से लगातार कटती जा रही है ।रोजी रोटी की तलाश में घर से निकला यहाँ का नौजवान अपने बुजुर्गो की सुध इस दौर में नहीं ले पा रहा है ।यहाँ के गावो में आज बुजुर्गो की अंतिम पीड़ी रह रही है और कई मकान बुजुर्गो के निधन के बाद सूने हो गए हैं ।आज आलम यह है दशहरा , दीपावली ,होली सरीखे त्यौहार भी इन इलाको में उस उत्साह के साथ नहीं मनाये जाते जो उत्साह बरसो पहले संयुक्त परिवार के साथ देखने को मिलता था । हालात कितने खराब हो चुके हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है आज पहाड़ो में लोगो ने खेतीबाड़ी जहाँ छोड़ दी है वहीँ पशुपालन भी इस दौर में घाटे का सौदा बन गया है क्युकि वन सम्पदा लगातार सिकुड़ती जा रही है और माफियाओ,कारपोरेट और सरकार का काकटेल पहाड़ो की सुन्दरता पर ग्रहण लगा रहा है ।पहाड़ो में बढ़ रहे इस पलायन पर आज तक राज्य की किसी भी सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया शायद इसलिए अब लोग दबी जुबान से इस पहाड़ी राज्य के निर्माण और अस्तित्व को लेकर सवाल उठाने लगे हैं ।
आज उत्तराखंड बने 12 वर्ष हो गए हैं लेकिन यहाँ जल , जमीन और जंगल का सवाल जस का तस बना हुआ है । स्थाई राजधानी तक इन बारह वर्षो में तय नहीं हो पाई है । विकास की किरण देहरादून, हरिद्वार,हल्द्वानी के इलाको तक सीमित हो गई है । नौकरशाही बेलगाम है तो चारो तरफ भय का वातावरण है । अपराधो का ग्राफ तेजी से जहाँ बढ़ रहा है वहीँ बेरोजगारी का सवाल सबसे बड़ा प्रश्न पहाड़ के युवक के सामने हो गया है । बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी समस्याओ से पहाड़ के लोग अभी भी जूझ रहे हैं ।अस्पतालों में दवाई तो दूर डॉक्टर तक आने को तैयार नहीं है । वहीँ जनप्रतिनिधि इन समस्याओ को दुरुस्त करने के बजाए अपने विधान सभा छेत्रो से लगातार दूर होते जा रहे हैं । उन्हें भी अब पहाड़ी इलाको के बजाए मैदानी इलाको की आबोहवा रास आने लगी है और शायद इसी के चलते राज्य के कई नेता अब मैदानी इलाको में अपनी सियासी जमीन तलाशने लगे हैं ।राज्य में उर्जा प्रदेश, हर्बल स्टेट के सरकारी दावे हवा हवाई साबित हो रहे हैं ।जिस अवधारणा को लेकर उत्तराखंड राज्य की लड़ाई लड़ी गई थी वह अवधारणा खोखली साबित हो रही है और शहीदों के सपनो का उत्तराखंड अभी कोसो दूर है क्युकि इस दौर की सारी कवायद तो इस दौर में अपनी कुर्सी बचाने और दूसरे को नीचा दिखाने और कारपोरेट के आसरे विकास के चकाचौध की लकीर खींचने पर ही जा टिकी है जहाँ आम आदमी के सरोकारों से इतर मुनाफा कमाना ही पहली और आखरी प्राथमिकता बन चुका है । ऐसे में हमारे देश के गाँव विकास की दौड़ में कही पीछे छूटते जा रहे हैं और अपने उत्तराखंड की लकीर भी भला इससे अछूती कैसे रह सकती है जहाँ सरकारे पलायन के दर्द को समझने से भी परहेज इस दौर में करने लगी हैं ।
1 comment:
अभी बहुत चलना है..
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