Thursday, 12 January 2023

युवा शक्ति के प्रेरणा पुंज स्वामी विवेकानंद


विवेकानन्द जिन्हें उस दौर में नरेन्द्रनाथ नाम से पुकारा जाता था एक ऐसा नाम है जिन्होंने  करिश्माई व्यक्तित्व के किरदार को एक दौर में जिया। आज भी लोग गर्व से उनका नाम लेते हैं और युवा दिलों में वह एक आयकन की भांति बसते हैं। इतिहास के पन्नों में विवेकानंद का दर्शन उन्हें एक ऐसे महाज्ञानी व्यक्तित्व के रूप में जगह देता है जिसने अपने ओजस्वी विचारों के द्वारा दुनिया के पटल पर भारत का नाम बुलंदियों के शिखर पर पहुँचाया। उनके द्वारा दिया गया वेदान्त दर्शन भारतीय दर्शन की एक अनमोल धरोहर है। अपने गुरु के नाम पर विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन तथा रामकृष्ण मठ की स्थापना की। विश्व में भारतीय दर्शन विशेषकर वेदांत और योग को प्रसारित करने में विवेकानंद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है, साथ ही ब्रिटिश भारत के दौरान राष्ट्रवाद को अध्यात्म से जोड़ने में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।


 विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में विश्वनाथ और भुवनेश्वरी देवी के घर हुआ था। बचपन में नरेन्द्रनाथ नाम से जाने जाने वले विवेकानंद काफी चंचल प्रवृति के थे । उनकी माता भगवान की अनन्य उपासक थी लिहाजा माँ के सानिध्य में वह भी ईश्वर प्रेमी हो गए। बचपन में विवेकानंद की माँ इन्हें रामायण की कहानी सुनाती  थी तो इसको यह बड़ी तन्मयता से सुनते थे। रामायण में हनुमान के चरित्र ने उस दौर में इनके जीवन को खासा प्रभावित किया साथ ही अपनी माँ की तरह वह भी शिवशंकर के अनन्य भक्त हो गए । कई बार वह शिव से सीधा साक्षात्कार करते मालूम पड़ते थे और अपनी माँ से कहा करते कि उनमे शंकर का वास है। यह सब सुनकर इनकी माँ चिंतित हो उठती कि उनका यह बेटा कहीं बाबा सन्यासी ना बन जाए। बचपन से ही नरेन्द्रनाथ पढ़ाई लिखाई में रूचि लेने लगे। पढ़ाई में यह अव्वल दर्जे के छात्र थे इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है जो चीज एक बार यह पढ़ लेते उसे कभी भूलते नहीं थे। युवावस्था में उन्हें पाश्चात्य दार्शनिकों के निरीश्वर भौतिकवाद तथा ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ भारतीय विश्वास के कारण गहरे द्वद से गुज़रना पड़ा। परमहंस जी जैसे जौहरी ने रत्न को परखा। उन दिव्य महापुरुष के स्पर्श ने नरेन्द्र को बदल दिया। इसी समय उनकी भेंट अपने गुरु रामकृष्ण से हुई, जिन्होंने पहले उन्हें विश्वास दिलाया कि ईश्वर वास्तव में है और मनुष्य ईश्वर को पा सकता है। रामकृष्ण ने सर्वव्यापी परमसत्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अनुभूति पाने में नरेंद्र का मार्गदर्शन किया और उन्हें शिक्षा दी कि सेवा कभी दान नहीं, बल्कि सारी मानवता में निहित ईश्वर की सचेतन आराधना होनी चाहिए। यह उपदेश विवेकानंद के जीवन का प्रमुख दर्शन बन गया। उस शक्तिपात के कारण कुछ दिनों तक नरेन्द्र उन्मत्त-से रहे। उन्हें गुरु ने आत्मदर्शन करा दिया था। 25  वर्ष की अवस्था में नरेन्द्रदत्त ने भगवा वस्त्र को   धारण किया । अपने गुरु से प्रेरित होकर नरेंद्रनाथ ने सन्यासी जीवन बिताने की दीक्षा ली और स्वामी विवेकानंद के रूप में  दुनिया में जाने गए। जीवन के आलोक को जगत के अन्धकार में भटकते प्राणियों के समक्ष उन्हें उपस्थित करना था। स्वामी विवेकानंद ने पैदल ही पूरे भारत की यात्रा की।गुरुजनों के प्रति इनका सम्मान उस दौर में भी देखते ही बनता था। बड़े होने पर भी गुरु से इनका लगाव बना रहा। विवेकानंद का मानना था कि जीवन में सफल होने के लिए अच्छा  गुरु मिलना जरुरी है क्युकि गुरु ही अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की तरफ ले जाता है। बचपन से ही गुरु के अलावे आध्यात्मिक चीजों की तरफ इनका झुकाव हो गया और इसी दौरान मुलाकात रामकृष्ण परमहंस से हुई जिन्होंने इन्हें अपना मानस पुत्र घोषित कर दिया । परमहंस की दी हुई हर शिक्षा को विवेकानंद ने अपने जीवन में ना केवल उतारा बल्कि लोगो को भी इसके जरिये कई सन्देश दिए जिसने आगे बदने की राह खोली । 

11 सितंबर सन् 1893 के उस दिन उनके अलौकिक तत्वज्ञान ने पाश्चात्य जगत को चौंका दिया। अमेरिका ने स्वीकार कर लिया कि वस्तुत: भारत ही जगद्गुरु था और रहेगा। स्वामी विवेकानन्द ने वहाँ भारत और हिन्दू धर्म की भव्यता स्थापित करके ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा।11 सितम्बर 1893 का दिन इतिहास में  अमर है। इस दिन अमेरिका में विश्व धर्म सम्मलेन का आयोजन किया जिसमे दुनिया के कोने कोने से लोगो ने शिरकत की। उस दौर में भारत के प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी इन्ही के कंधो पर थी। गेरुए कपडे पहने विवेकानन्द ने  अपनी वाणी से वहां पर मौजूद जनसमुदाय को मंत्र मुग्ध कर दिया। जहाँ सभी अपना भाषण लिखकर लाये थे वहीँ विवेकानंद ने अपना मौखिक भाषण दिया। दिल से जो निकला वही बोला और जनसमुदाय के अंतर्मन को मानो झंकृत ही कर डाला। उनके शालीन अंदाज ने लोगों को  उन्हें सुनने को मजबूर कर दिया। धर्म की व्याख्या करते हुए वह बोले जैसे सभी नदियां अंत में समुद्र में जाकर मिलती है वैसे ही दुनिया में अलग अलग धर्म अपनाने वाले मनुष्य को एक न एक दिन ईश्वर  की शरण में जाकर ही लौटना पड़ता है। 'सिस्टर्स ऐंड ब्रदर्स ऑफ़ अमेरिका' के संबोधन के साथ अपने भाषण की शुरुआत करते ही 7000 प्रतिनिधियों ने तालियों के साथ उनका स्वागत किया। 17 सितम्बर 1893 को शिकागो में धर्म सभा में उन्होंने भारत को "हिन्दू राष्ट्र " के नाम से सम्बोधित किया और स्वयं के "हिन्दू होने पर गर्व " महसूस किया। उन्होंने सभा को बताया  हिन्दू धर्म पर प्रबंध  ही हिन्दुत्व की राष्ट्रीय परिभाषा है। इसे समझने पर हमें हमारे विशाल देश की बाहरी विविधता में  एकता के दर्शन होते हैं। शिकागो से वापसी पर उन्होंने कहा केवल अंध देख नहीं पाते और विक्षिप्त बुद्धि समझ नहीं पाते कि यह सोया देश अब जाग उठा है।अपने पूर्व गौरव को प्राप्त करने के लिए इसे अब कोई नहीं रोक सकता। उन्होंने सभी हिन्दुओं को सब भेदों से ऊपर उठकर अपनी राष्ट्रीय पहचान पर गर्व करने का ककहरा  ना  केवल सुनाया  बल्कि दुनिया  में  भारत  के नाम के झंडे  गाड़  दिए । विवेकानंद ने वहाँ एकत्र लोगों को सभी मानवों की अनिवार्य दिव्यता के प्राचीन वेदांतिक संदेश और सभी धर्मों में निहित एकता से परिचित कराया। शिकागो में दिये गए उनके व्याख्यानों  से एक  नए अभियान की शुरुआत हुई जो सुधार के उद्देश्य से  आज भी  हर किसी के  दिल में बसा है।  उन्होंने न्यूयॉर्क में लगभग दो वर्ष व्यतीत किये जहाँ वर्ष 1894 में पहली ‘वेदांत सोसाइटी’ की स्थापना की। उन्होंने पूरे यूरोप का व्यापक भ्रमण किया तथा मैक्स मूलर और पॉल डूसन जैसे मनीषियों  से संवाद किया साथ ही   भारत में अपने सुधारवादी अभियान के आरंभ से पहले निकोला टेस्ला जैसे प्रख्यात वैज्ञानिकों के साथ तर्क-वितर्क भी किये।

विवेकानंद का विचार है कि सभी धर्म एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं, जो उनके आध्यात्मिक गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के आध्यात्मिक प्रयोगों पर आधारित है। परमहंस रहस्यवाद के इतिहास में अद्वितीय स्थान रखते हैं, जिनके आध्यात्मिक अभ्यासों में यह विश्वास निहित है कि सगुण और निर्गुण की अवधारणा के साथ ही ईसाईयत और इस्लाम के आध्यात्मिक अभ्यास आदि सभी एक ही बोध या जागृति की ओर ले जाते हैं।शिकागो के अपने प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानंद ने तीन चीजों पर जोर  दिया। पहला, उन्होंने कहा कि भारतीय परंपरा न केवल सहिष्णुता बल्कि सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करने में विश्वास रखती है। दूसरा, उन्होंने स्पष्ट और मुखर शब्दों में इस बात पर बल दिया कि बौद्ध धर्म के बिना हिंदू धर्म और हिंदू धर्म के बिना बौद्ध धर्मं अपूर्ण है। तीसरा, यदि कोई व्यक्ति केवल अपने धर्म के अनन्य अस्तित्व और दूसरों के धर्म के विनाश का स्वप्न रखता है तो मैं ह्रदय की गहराइयों से उसे दया भाव से देखता हूँ और उसे इंगित करता हूँ कि विरोध के बावजूद प्रत्येक धर्म के झंडे पर जल्द ही संघर्ष के बदले सहयोग, विनाश के बदले सम्मिलन और मतभेद के बजाय सद्भाव व शांति का संदेश लिखा होगा।

जिस समय शिकागो में 1893 में धर्म सम्मेलन हुआ ,उस समय पाश्चात्य जगत भारत को हीन दृष्टि  से देखता था । वहां के लोगों ने बहुत प्रयास किया कि विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही ना मिले, मगर एक अमेरिकी प्रोफ़ेसर के प्रयास से उन्हें थोडा समय मिला।  भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा कहकर स्वामी जी ने पुन: भारत को विश्व गुरु पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। गुरुदेव रविंदर नाथ टैगोर  ने  विवेकानन्द  के बारे में कहा  है यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। मद्रास की एक सभा को संबोधित करते हुए स्वामीजी ने कहा भारत की समस्या अन्य देशों की समस्याओं की तुलना से ज्यादा  पेचीदा है। जात, धर्म, भाषा, सरकार ये सब मिलकर राष्ट्र बनता है। फिर भारत जैसे राष्ट्र का एक अनोखा इतिहास है जहां आर्य, द्रविड़, मुसलमान मुगल एवं यूरोपीय साथ-साथ बसते हैं बावजूद हमारे में एक पवित्र बंधन, पवित्र परम्परा रह 1894 में न्यूयार्क में उन्होंने वेदांत सोसाईटी बनाई। सन् 1896 तक वे अमेरिका रहे। उन्हीं का व्यक्तित्व था, जिसने भारत एवं हिन्दू-धर्म के गौरव को प्रथम बार विदेशों में जागृत किया।  स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे- 'मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ। न तो संत या दार्शनिक ही हूँ। मैं तो ग़रीब हूँ और ग़रीबों का अनन्य भक्त हूँ। मैं तो सच्चा महात्मा उसे ही कहूँगा, जिसका हृदय ग़रीबों के लिये तड़पता हो।'

जीवन के अंतिम पडाव पर परमहंस सरीखे गुरु ने जब विवेकानंद को अपने पास बुलाया और कहा अब मेरे जाने की घड़ी आ गई है तो विवेकानंद बड़े भावुक हो गए लेकिन परमहंस  गुरु ने जनसेवा का जो गुरुमंत्र इन्हें दिया उसका प्रचार , प्रसार विवेकानंद ने देश , दुनिया में किया। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद उन्होंने स्वयं को हिमालय में चिंतनरूपी आनंद सागर में डुबाने की चेष्टा की, लेकिन जल्दी ही वह इसे त्यागकर भारत की कारुणिक निर्धनता से साक्षात्कार करने और देश के पुनर्निर्माण के लिए समूचे भारत में भ्रमण पर निकल पड़े। इस दौरान उन्हें कई दिनों तक भूखे भी रहना पड़ा। इन छ्ह वर्षों के भ्रमण काल में वह राजाओं और दलितों, दोनों के अतिथि रहे। उनकी यह महान यात्रा कन्याकुमारी में समाप्त हुई, जहाँ ध्यानमग्न विवेकानंद को यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की ओर रुझान वाले नए भारतीय वैरागियों और सभी आत्माओं, विशेषकर जनसाधारण की सुप्त दिव्यता के जागरण से ही इस मृतप्राय देश में प्राणों का संचार किया जा सकता है।विवेकानंद युवा तरुणाई पर भरोसा करते थे और ऐसा मानते थे अगर कुछ नौजवान उनको मिल जाएँ तो वह पूरी मानव जाति  की सोच को बदल सकते हैं । उनका जन्मदिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रमु्ख कारण उनका दर्शन, सिद्धांत,  विचार और उनके आदर्श हैं, जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया और भारत के साथ अन्य देशों में भी उन्हें स्थापित किया। उनके ये विचार और आदर्श युवाओं में नई शक्ति और ऊर्जा का संचार कर सकते हैं।किसी भी देश के युवा उसका भविष्य होते हैं। उन्हीं के हाथों में देश की उन्नति की बागडोर होती है।स्वामी विवेकानंद का मानना है कि किसी भी राष्ट्र का युवा जागरूक और अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित हो, तो वह देश किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। युवाओं को सफलता के लिये समर्पण भाव को बढ़ाना होगा तथा भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिये तैयार रहना होगा, विवेकानंद युवाओं को आध्यात्मिक बल के साथ-साथ शारीरिक बल में वृद्धि करने के लिये भी प्रेरित करते हैं।  देश की युवा शक्ति को जागृत करना और उन्हें देश के प्रति कर्तव्यों का बोध कराना अत्यंत आवश्यक है। ऐसे माहौल में  विवेकानंद का  जीवन  दर्शन   युवाओ को एक नई  राह दिखा सकता है। विवेकानंद जी के विचारों में वह  तेज है जो सारे युवाओं को नई  दिशा दे सकता है। वह  आध्यात्मिक संत थे। उन्होंने सनातन धर्म को गतिशील तथा व्यावहारिक बनाया और सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने  किया शायद   यही  वजह है भारत में स्वामी विवेकानंद के जन्म दिवस को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

स्वामी विवेकानंद का मानना है कि भारत की खोई हुई प्रतिष्ठा तथा सम्मान को शिक्षा द्वारा ही वापस लाया जा सकता है। किसी देश की योग्यता तथा क्षमता में वृद्धि उस देश के नागरिकों के मध्य व्याप्त शिक्षा के स्तर से ही हो सकती है। स्वामी विवेकानंद ने ऐसी शिक्षा पर बल दिया जिसके माध्यम से विद्यार्थी की आत्मोन्नति हो और जो उसके चरित्र निर्माण में सहायक हो सके। साथ ही शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जिसमें विद्यार्थी ज्ञान प्राप्ति में आत्मनिर्भर तथा चुनौतियों से निपटने में स्वयं सक्षम हों। विवेकानंद ऐसी शिक्षा पद्धति के घोर विरोधी थे जिसमें गरीबों एवं वंचित वर्गों के लिये स्थान नहीं था।स्वामी विवेकानंद की ओजस्वी वाणी भारत में तब उम्मीद की किरण लेकर आई जब हम अंग्रेजों के जुल्म सह रहे थे। हर तरफ निराशा का माहौल देखा जा सकता था । उन्होंने भारत के सोए हुए जनमानस  को जगाया और उनमें नई उमंग का संचार किया।विवेकानंद वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बहुत महत्व देते थे। वह शिक्षा और ज्ञान को आस्था की कुंजी मानते हैं। 1897 में मद्रास में युवाओं को संबोधित करते हुए कहा था 'जगत में बड़ी-बड़ी विजयी जातियां हो चुकी हैं। हम भी महान विजेता रह चुके हैं। हमारी विजय की गाथा को महान सम्राट अशोक ने धर्म और आध्यात्मिकता की ही विजयगाथा बताया है और अब समय आ गया है भारत फिर से विश्व पर विजय प्राप्त करे। यही मेरे जीवन का स्वप्न है और मैं चाहता हूं कि तुम में से प्रत्येक, जो कि मेरी बातें सुन रहा है, अपने-अपने मन में उसका पोषण करे और कार्यरूप में परिणत किए बिना न छोड़ें। विवेकानंद के अनुसार मनुष्य का जीवन ही एक धर्म है। धर्म न तो पुस्तकों में है, न ही धार्मिक सिद्धांतों में, प्रत्येक व्यक्ति अपने ईश्वर का अनुभव स्वयं कर सकता है। विवेकानंद ने धार्मिक आडंबर पर चोट की तथा ईश्वर की एकता पर बल दिया। संसार में कोई  धर्म  न बड़ा है और ना ही छोटा । इस तरह उन्होंने यह कहा संसार के सभी धर्म समान है उनमे किसी भी तरह का भेद नहीं है । इस प्रकार उन्होंने अपने ओजस्वी विचारों के जरिये हिंदुत्व की नई परिभाषा उस दौर में गढ़ने  का काम किया ।प्रसिद्ध भारतीय साहित्य के प्रथम नोबलिस्ट गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर भी विवेकानंद से प्रभावित थे। उन्होंने कहा था यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएँगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं। भारत को विदेशों में प्रतिष्ठा दिलाने में विवेकानंद प्रथम थे। आधुनिक काल में पश्चिमी विश्व में राष्ट्रवाद की अवधारणा का विकास हुआ लेकिन स्वामी विवेकानंद का राष्ट्रवाद प्रमुख रूप से भारतीय अध्यात्म एवं नैतिकता से संबद्ध है। भारतीय संस्कृति के प्रमुख घटक मानववाद एवं सार्वभौमिकतावाद विवेकानंद के राष्ट्रवाद की आधारशिला माने जा सकते हैं। पश्चिमी राष्ट्रवाद के विपरीत विवेकानंद का राष्ट्रवाद भारतीय धर्म पर आधारित है जो भारतीय लोगों का जीवन रस है। उनके लेखों और उद्धरणों से यह इंगित होता है कि भारत माता एकमात्र देवी हैं जिनकी प्रार्थना देश के सभी लोगों को सहृदय से करनी चाहिये।

विवेकानंद के शब्दों में “मेरा ईश्वर दुखी, पीड़ित हर जाति का निर्धन मनुष्य है।” इस प्रकार विवेकानंद ने गरीबी को ईश्वर से जोडकर दरिद्रनारायण की अवधारणा दी ताकि इससे लोगों को वंचित वर्गों की सेवा के प्रति जागरूक किया जा सके और उनकी स्थिति में सुधार करने हेतु प्रेरित किया जा सके। उन्होंने गरीबी और अज्ञान की समाप्ति पर बल दिया तथा गरीबों के कल्याण हेतु कार्य करना राष्ट्र सेवा बताया। किंतु विवेकानंद ने वेद की प्रमाणिकता को स्वीकार करने के लिये वर्ण व्यवस्था को भी स्वीकृति दी। हालाँकि वे अस्पृश्यता के घोर विरोधी थे। महात्मा गांधी द्वारा सामाजिक रूप से शोषित लोगों को 'हरिजन' शब्द से संबोधित किये जाने के वर्षों पहले ही स्वामी विवेकानंद ने 'दरिद्र नारायण' शब्द का प्रयोग किया था जिसका आशय था कि 'गरीबों की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।‘ वस्तुतः महात्मा गांधी ने यह स्वीकार भी किया था कि भारत के प्रति उनका प्रेम विवेकानंद को पढ़ने के बाद हज़ार गुना बढ़ गया। स्वामी विवेकानंद के इन्हीं नवीन विचारों और प्रेरक आह्वानों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए उनके जन्मदिवस को ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ घोषित किया गया।

उनसे प्रभावित पश्चिमी लेखक रोमां रोलां का यह कथन रोमांचित करता है‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है। वे जहाँ भी गए, सर्वप्रथम हुए। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। स्वामी विवेकानंद के उपदेशात्मक वचनों में  कहते थे “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।”इसके माध्यम से उन्होंने देशवासियों को अंधकार से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन की प्रेरणा दी थी ।भारत वर्ष के सन्दर्भ में उन्होंने कहा  भारत  पवित्र भूमि है,भारत मेरा तीर्थ है,भारत मेरा सर्वस्व है,भारत की पुण्य भूमि का अतीत गौरवमय है यही वह भारत वर्ष है जहाँ मानव,प्रकृति एवं अंतर्जगत की रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे। उन्होंने कहा था चिंतन मनन कर राष्ट्र चेतना जाग्रत करो लेकिन आध्यात्मिकता का आधार न छोडो | उनका  मत था कि पाश्चात्य जगत का अमृत हमारे लिए विष हो सकता है। युवाओं का आह्वान करते हुए स्वामी जी कहा करते थे भारत के राष्ट्रीय आदर्श सेवा व त्याग हैं। नैतिकता ,तेजस्विता,कर्मण्यता का अभाव न हो। उपनिषद ज्ञान के भंडार हैं ,उनमे अद्भुत ज्ञान शक्ति है ,उसका अनुसरण कर अपनी निज पहचान व राष्ट्र का अभिमान स्थापित करो। स्वामी विवेकानंद ने बार-बार कहा कि भारत के पतन का कारण धर्म नहीं है अपितु धर्म के मार्ग से दूर जाने के कारण ही भारत का पतन हुआ है जब जब हम धर्म को भूल गए तभी हमारा पतन हुआ है और धर्म के जागरण से ही हम पुनह नवोत्थान की और बढे हैं | वहीँ 1900 की शुरुवात में सेन फ्रांसिस्को में भी इसकी एक शाखा खोली ।

वर्ष 1897 में विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के पश्चात् रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इस मिशन ने भारत में शिक्षा और लोकोपकारी कार्यों जैसे- आपदाओं में सहायता, चिकित्सा सुविधा, प्राथमिक और उच्च शिक्षा तथा जनजातियों के कल्याण पर बल दिया। इस दरमियान धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए कई दौरे भी  किये  जहाँ अपने वेदांत दर्शन के जरिये उन्होंने लोगो की सोच बदलने का काम सच्चे अर्थो में किया । विवेकानन्द  के द्वारा दिया गया वेदान्त दर्शन एक अनमोल धरोहर है । वेदांत दर्शन उपनिषद् पर आधारित है तथा इसमें उपनिषद् की व्याख्या की गई है। वेदांत दर्शन में ब्रह्म की अवधारणा पर बल दिया गया है, जो उपनिषद् का केंद्रीय तत्त्व है। इसमें वेद को ज्ञान का परम स्रोत माना गया है, जिस पर प्रश्न खड़ा नहीं किया जा सकता। वेदांत में संसार से मुक्ति के लिये त्याग के स्थान पर ज्ञान के पथ को आवश्यक माना गया है और ज्ञान का अंतिम उद्देश्य संसार से मुक्ति के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति है।

विवेकानन्द एक कर्मशील व्यक्ति थे और अपने विचारों के जरिये उन्होंने समाज के सोये जनमानस को जगाने का काम किया । वह मानते थे प्रत्येक व्यक्ति में अच्छे आदर्शो  और भाव का समन्वय होना जरुरी है साथ ही शिक्षा को परिभाषित करते हुए यह कहा अपने पैरो पर खड़ा होने जो चीज सिखाये वह शिक्षा है । स्वामी विवेकानन्द का लक्ष्य समाज सेवा, जनशिक्षा, धार्मिक पुनरूत्थान और शिक्षा के द्वारा जागरुकता लाना, मानव की सेवा आदि था। उन्होंने ऐसे भारत की कल्पना की जो अंध विश्वास, पाखंड, अकर्मण्यता, जड़ता और आधुनिक सनक और कमजोरियों से स्वतंत्र होकर आगे बढ़ सके। विवेकानन्द ने वेदांत को नया रूप देकर उसे मोक्ष में बदलने का काम सही मायनों में करके दिखाया ।शिक्षा मनुष्य को मानव बनाने की प्रक्रिया है या यह कहा जाये कि मनुष्य को मानव बनाने का दायित्व शिक्षा पर है। शिक्षा की व्यवस्थागत प्रक्रिया से निकलकर ही बालक एक वयस्क के रूप में समाज में अपना स्थान और स्तर निर्धारित करता है। व्यक्तित्व और समाज की आवश्यकता के अनुसार बालक को शिक्षित और सभ्य बनाने का अहम कार्य शिक्षा व्यवस्था से ही अपेक्षित होता है।स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ‘जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सके, मनुष्य बन सके, चरित्र गठन कर सके और विचारो का सामंजस्य कर सके वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है’। मानव निर्माण को शिक्षा का मूल उद्देश्य मानने वाले स्वामी विवेकानंद का शैक्षिक दर्शन परम्परागत और आधुनिक शिक्षा प्रणाली का अद्भुत समन्वय है। स्वामी विवेकानंद का शैक्षिक दर्शन आज भी अत्यंत प्रासंगिक है।सार्वभौमिक शिक्षा प्रदान करने के समर्थक स्वामी विवेकान्द शिक्षा में किसी भी प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध थे। वे इस सत्य को भली-भांति जानते थे कि यदि शिक्षा ग्रहण करने का अवसर अगर कुछ लोगों तक ही सीमित हो या किसी भी कारण से समाज का बड़ा हिस्सा शिक्षा की प्राप्ति से वंचित रह गया तो देश का सम्पूर्ण विकास नहीं हो पायेगा। उनके विचार में शिक्षा का प्रसार देश के कारखानों, खेल के मैदानों और खेतों, यहाँ तक कि देश में हर घर में होना चाहिए। यदि बच्चे स्कूल तक नहीं आ पा रहे हैं तो शिक्षकों को उन तक पहुँचना चाहिए।विवेकानंद जी के अनुसार शिक्षा समाज के  निर्धनतम व्यक्ति को भी प्राप्त होनी चाहिए। स्वामी विवेकानंद ने आम जनता के जीवन की परिस्थितियाँ सुधारने के लिए शिक्षा का समर्थन किया। उनके अनुसार आम जनता को प्राप्त होनेवाली इस सार्वभौमिक शिक्षाका उद्देश्य व्यक्तिगत प्रगति के साथ सामाजिक विकास को सुनिश्चित करना है।स्वामी विवेकानंद ने महिला शिक्षा पर विशेष बल दिया। समाज में कई अवसरों पर स्वामी विवेकानंद ने विचार प्रकट करते हुए कहा कि  जब  तक  महिलाओं  को  अपने  देश  में  यथोचित     सम्मान  प्राप्त  नहीं  हो  जाता  भारत  प्रगति  नहीं  कर  सकता।  उनके  अनुसार महिलाओं को सुशील, चरित्रवान, निडर और शक्तिशाली व्यक्तित्व के रूप में विकसित करना शिक्षा का उद्देश्य है। उनके विचार में महिला न केवल पुरुष के समान योग्य है बल्कि वह घर-परिवार में भी बराबर की भागीदारी रखती है उसे किसी दृष्टि से पुरुष से हीन नहीं कहा जा सकता। उन्होंने महिला शिक्षा और महिला-पुरुष समानता पर भी बल दिया।

स्वामी विवेकानंद ने मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाने वाली प्रणाली के महत्व को स्वीकार किया। भौतिकता और पश्चिमी अंधानुकरण के कारण मातृभाषा की अवहेलना कर अंग्रेजी को बालमन पर थोपा जाता है। मातृभाषा का घर-परिवार और समाज में अधिकतम प्रयोग किया जाता है ऐसे में स्वाभाविक है कि किसी विदेशी भाषा को रटने की बजाय मातृभाषा के माध्यम से ही बालक दीर्घकालीन और अधिकतम ज्ञान प्राप्त कर सकता है। बालक मातृभाषा के माध्यम से ही रचनात्मक और कलात्मक विचारों का प्रसार समाज में कर सकता है।रचनात्मकता विरोधी, संस्कार विरोधी तथा अव्यवहारिक मैकालेवादी शिक्षा व्यवस्था से स्वामी विवेकानंद बेहद असंतुष्ट थे क्योंकि उनकी दृष्टि में यह शिक्षा भारत के नागरिकों के लिए व्यावहारिक और उपयोगी नहीं थी। अंग्रेजी शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य भारत अथवा भारतीयों का हित करना नहीं बल्कि भारत पर अंग्रेजों के शासन को स्थायी रखने के लिए भारतीयों में से ही क्लर्क खोजना था। उनके विचार में मैकालेवादी शिक्षा व्यवस्था व्यक्ति को आत्म-निर्भर न बनाकर दूसरे पर निर्भर बनाती है और उसके आत्मविश्वास को समाप्त कर देती है। इससे भी बढ़कर अंग्रेजी शिक्षा का मूल्य-विरोधी स्वरूप, व्यक्ति के धार्मिक और आध्यात्मिक विश्वासों को समाप्त कर उसे एक नकारात्मक व्यक्तित्व के रूप में परिणत कर देता है। इसलिए विवेकानंद जी अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली में भारतीय दृष्टिकोण और सामाजिक आदर्शों के अनुसार आमूल-चूल परिवर्तन के इच्छुक थे। नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों से  विहीन शिक्षा प्रणाली किसी भी समाज को अवनतिकी ओर ले जा सकती है।   

स्वामी विवेकानंद ने इसलिए अनिवार्य रूप से शिक्षा  में गीता, उपनिषद और वेद में निहित नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के समावेश की आवश्यकता पर बल दिया। उनके लिए धर्म, कर्मकांड अथवा धार्मिक रीति -रिवाज नहीं बल्कि समस्त मानव जाति के लिए आत्मज्ञान तथा आत्मबोध का कारक है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार वास्तविक धर्म किसी समाज, जाति, नस्ल, वंश, स्थान और समय तक सीमित नहीं है बल्कि उसका लक्ष्य सामाजिक कल्याण है। स्वामी विवेकानंद के अनुसार नैतिकता और धर्म एक ही हैं और इन मूल्यों से ओतप्रोत शिक्षा विद्यार्थियों का सर्वांगींण विकास करने में सहायक है। मन और शरीर दोनों को विकसित करने के लिए स्वस्थ रहना आवश्यक है। स्वामी विवेकानंद का विचार था कि बिना स्वस्थ शरीर के आत्म बोध या चरित्र निर्माण संभव नहीं है। इसलिए स्वामी  विवेकानंद ने  पाठ्यक्रम में शारीरिक शिक्षा को विशेष रूप से शामिल करने  पर  बल  दिया। उन्होंने  युवा  वर्ग से  आह्वान  किया  कि वे गीता पाठ   करने की  अपेक्षा  फुटबॉल  खेलने से स्वर्ग  के  अधिक नजदीक पहुंचेंगे। उन्होंने कहा कि बलवान शरीर और मजबूत    पुट्ठोँ से युवा वर्ग गीता को भी बेहतर ढंग से समझ सकेगा। मनुष्य का  वास्तविक  और  सर्वांगीण  विकास  तभी  माना  जाएगा  जब मन  और  तन  दोनों  से  न  केवल  स्वस्थ  हो,  बल्कि  समाज  में सकारात्मक योगदान भी करे। स्वामी विवेकानंद के शिक्षा सम्बन्धी विचारों में प्राचीन भारतीय मूल्यों, आदर्शों और आधुनिक पश्चिमी मान्यताओं का समावेश है। स्वामी विवेकानंद के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति और व्यक्तित्व निर्माण है। व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए स्वामी विवेकानंद ने शारीरिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक और व्यावसायिक विकास के साथ भेदभाव रहित शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुँच का समर्थन किया। उन्होंने व्यावहारिक और आधुनिक दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्होंने प्रौद्योगिकी, वाणिज्य, उद्योग और विज्ञान से जुड़ी पश्चिमी शिक्षा को भी महत्व दिया।4 जुलाई 1902 को उनका देहावसान हो गया । विवेकानन्द को  आज हम इस रूप में याद करे कि  उनके द्वारा दिया गया दर्शन हम अपने में आत्मसात करें, साथ ही अपने जीवन में कर्म को प्रधानता दें तो कुछ बात बनेगीं । बेहतर होगा युवा पीढ़ी उनके विचारों से कुछ सीखे  और उनको आयकन बनाने के बजाए उनकी शिक्षा को अपने में उतारे और प्रगति पथ पर चले ।
 

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