Wednesday, 1 March 2017

चुनावी शोर तले मणिपुर पर ख़ामोशी





इस समय देश की सियासत परवान चढ़ रही है । जिधर देखो उधर चुनावी चर्चा चल रही है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस दौर में तमाम न्यूज चैनलों में भी न्यूज़रूम चुनावी दंगल का शो  बनकर रह  गया है । कुछ समय से सभी चैनल पंजाब और यू पी पर जहाँ  पैनी नजर रखे हुए थे वहीँ अभी हाल यह है चुनावी चर्चा केवल और केवल उत्तर प्रदेश के चुनावों तक जाकर सिमट गयी है । राष्ट्रीय मीडिया की बात करें तो तकरीबन 90 फीसदी चर्चा पंजाब और उत्तर प्रदेश  तक है जबकि गोवा , उत्तराखंड सरीखे राज्यों को बमुश्किल 10  फ़ीसदी  प्रतिनिधित्व मिल पाया । शायद इसकी वजह इन राज्यों  का आबादी के लिहाज से छोटा  होना हो सकता है । साथ की केन्द्र  में भी इन राज्यो का वजन कम है क्योंकि यहाँ लोक सभा की बहुत कम सीटें हैं । यही हाल मणिपुर को लेकर भी है । आगामी  4  मार्च और 8  मार्च को वहां पर दो चरण में मतदान होना है लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में मणिपुर की चर्चा नहीं के बराबर है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी मणिपुर से जुड़े सरोकारों की सुध इस दौर में नहीं ले पा रहा है शायद इसलिए क्युकि पूर्वोत्त्तर की समस्याओं पर चर्चा करने की फुरसत मीडिया के पास नहीं है और वहां पर टी आर पी के मीटर भी नहीं लगे हैं जो न्यूज चैनलों को प्रतिस्पर्धा में टॉप  5 तक पहुंच सकें । 

 छोटे से पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर की  मीडिया द्वारा अनदेखी कई सवालों को खड़ा करती है । राजनेताओं का मणिपुर सरीखे पूर्वोत्तर के राज्यों से कोई सरोकार नहीं है शायद इसकी वजह यह है  यहाँ से लोकसभा के  2 सांसद हैं इसलिए कांग्रेस और  भाजपा सरीखे राष्ट्रीय दल  भी मणिपुर के मसलो पर चुप्पी साधने से बाज नहीं आते । मणिपुर के जमीनी  हालातों से मीडिया अनजान है । पिछले कुछ समय से वहां पर बड़े पैमाने पर आर्थिक नाकेबंदी चल रही है लेकिन मुख्यधारा के मीडिया में इसी लेकर कोई हलचल नहीं है । शायद ही कोई न्यूज़ चैनल ऐसा होगा जिसने  इस चुनाव में मणिपुर के सवालों और आम जनता के सरोकारों से जुडी खबरों को अपने चैनल में प्रमुखता के साथ जगह दी हो । आर्थिक नाकेबंदी की एक आध खबरें प्रिंट मीडिया के माध्यम से ही प्रकाश में आईं  ।

मणिपुर  के हालात बहुत अच्छे नहीं है । चुनावी माहौल  के बीच आज भी मणिपुर के विरुद्ध नाकेबंदी  चल रही है। इसकी शुरूआत नवम्बर में हुई थी जब राज्य  सरकार ने मणिपुर में  नए जिले बनाने की घोषणा की । मणिपुर में जाति और जमीन की खाई दिनों दिन गहराती जा रही है । राज्य में नगा और कूकी समुदाय के बीच पुराना संघर्ष है ।  दोनों समुदायों के बीच हुई हिंसा में कई लोग मारे जा चुके हैं ।  चुनाव के पास होते ही अब संघर्ष तेज हो रहा है और हर पार्टी इस जंग का इस्लेमाल अपने फायदे के लिए करना चाहती है ।  चुनावी बरस में राज्य सरकार द्वारा  मणिपुर के जिले का विभाजन  करने का कदम मणिपुर के लोगों और सरकार के गले की हड्डी बन चुका है।  मणिपुर की कुल जनसंख्या में 60  प्रतिशत लोग मैतई समुदाय से आते हैं ।  ऐसे में साफ है कि राज्य की राजनीति में मैतई समुदाय का वर्चस्व ही पहाड़ और घाटी के बीच बढ़ती दूरियों की एक बड़ी वजह इस चुनाव में  भी है।

 मणिपुर के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी मैतई समुदाय से आते हैं और वह इस चुनाव में मैतई समुदाय को अपने पक्ष में लामबंद कर कांग्रेस की जीत का सपना लगातार चौथी बार भी देख रहे हैं । मणिपुर में कांग्रेस  हैट्रिक लगा चुकी है ।  इबोबा सरकार  मैतई  समुदाय का खुलकर पक्ष लेते रहते हैं जिसे लेकर लोगों में भारी रोष देखा जा सकता है ।  इस चुनाव में पहाड़ और घाटी के बीच ही वोटों का विभाजन होने का अंदेशा है । ख़ास बात यह है मणिपुर में कुल 60 विधानसभा सीटों में से 40 सीटें घाटी में हैं जबकि पहाड़ पर विधानसभा की 20 सीटें हैं ।मैदानी इलाकों का प्रतिनिधित्व जायद होने के चलते पहाड़ के लोगों की सरकार के गठन में उतनी भूमिका नहीं रहती है । ऐसे में  कांग्रेस मैतई समुदाय से बड़ी उम्मीद लगाए बैठी है और चुनावो से पहले खुलकर उनके पक्ष में लामबंद होती दिखती है । इस बार भी  सरकार ने  नगा बहुल वाले पहाड़ी जिलों का बंटवारा कर दो नए जिले बनाए है जिसने चुनावों से पहले घाटी और पहाड़ के बीच दरार पैदा कर दी है । इसी  कार्ड के चलते इबोबी सरकार चुनाव जीतने का सपना देख रही है । कांग्रेस के खिलाफ  सत्ता विरोधी लहर तो है लेकिन  मैतई समुदाय के पक्ष में माहौल होने के चलते  सत्तारूढ़  कांग्रेस ने सब मैनेज कर लिया है । पूर्वोत्तर में आसाम की तरह भाजपा मणिपुर में अपना वोट बैंक बनाने की जुगत में है । इसके लिए इस बार पार्टी ने पूरी ताकत लगाई है । नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस  के साथ उसका गठबंधन  इसी  का  नतीजा  है । 

  मानवाधिकार कायकर्ता इरोम शर्मिला  भी  राजनीतिक अखाड़े में कूद पड़ी हैं और चुनाव लड़ रही हैं। वह विवादित सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को रद्द किए जाने की मांग करती आ रही हैं। मणिपुर विधानसभा के लिए इरोम शर्मिला की नई नवेली पार्टी, पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस अलायंस ने  सिर्फ तीन प्रत्याशी ही खड़े किये हैं । शर्मिला स्वयं थोबल विधानसभा क्षेत्र से मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के विरुद्ध लड़ रही हैं।  इरोम शर्मिला ने पार्टी तो बना ली है पर उनके पास धनबल , बाहुबल नहीं है ना ही कार्यकर्ताओं की भारी भरकम फ़ौज जो  राष्ट्रीय दलों का मुकाबला कर सके । मणिपुर की लगभग साठ फीसदी आबादी इम्फाल के इर्द-गिर्द घाटी में रहती है। शेष कुकी, नगा, ज़ोमी कबीले के लोग पहाड़ों में निवास करते हैं। घाटी में मैतेई, मणिपुरी ब्राह्मण, विष्णुप्रिय मणिपुरी के अलावा आबादी का 8.3 प्रतिशत पांगल है जिनका  राजनीति और व्यापार में दखल रहता है। मैतेई आबादी को प्रभावित करने के मकसद से इबोई सिंह ने नये सिरे से जिले बनाने की घोषणा की थी जिसके विरुद्ध नगा बहुल इलाकों में लंबे समय तक नाकेबंदी का मंजऱ था।  इबोबी सिंह  बिना चिंता के मैदान में इस बार भी  डटे  हुए हैं । भाजपा के लिए राह मुश्किल भरी इसलिए भी है  भाजपा को नागा जाति की समर्थक पार्टी के तौर पर पूर्वोत्तर में देखा जाता है । एक मुश्त वोट अगर मैतयी के पड़ते हैं  तो बाजी कांग्रेस के नाम होने में देर नहीं लगेगी इसलिए भाजपा भी यहाँ फूंक फूंक कर कदम रख रही है । 

मैतेयी और नागा जातियों की मौजूद दौर में  खाई  ने नागालैंड और मणिपुर के दोनों राज्यों के बीच भी तनाव पैदा कर दिया है।   यूनाइटेड नागा कौंसिल जैसे गुट मणिपुर से आने वाले ट्रकों और अन्य वाहनों को अपने यहां से गुजरने नहीं देते इसलिए कई  बार मणिपुर की आर्थिक  नाकाबंदी हो चुकी है।राष्ट्रीय मीडिया और  ने मणिपुर की इतनी अधिक अनदेखी की है कि अपने  चैनल में मणिपुर को नहीं के बराबर स्पेस दिया ।  केंद्र सरकार  मणिपुर में एक नवंबर से अनिश्चितकालीन आर्थिक नाकाबंदी को लेकर मूकदर्शक  बनी हुई है । इस नाकेबंदी  की वजह से मणिपुर में लोगों को खाने-पीने समेत जरूरी सामानों की किल्लत पैदा हो गई । पेट्रोल के दाम 350  रुपये लीटर बढ़ गए । रसोई गैस का सिलेंडर 2000 रुपये  तक पहुँच गया । यही नहीं नेशनल हाइवे 2  भी बंद होने से मणिपुर में गुजर बसर कर पाना मुश्किल हो गया लेकिन मीडिया मणिपुर पर खामोश रहा ।   आर्थिक नाकेबंदी का प्रभाव  इंफाल के  कई हिस्सों में देखा जा सकता था जहाँ लोग  कर्फ्यू के साये में जीवन बिता रहे थे । इन इलाकों में नागा समूहों द्वारा  ब्लास्ट भी किये गए । साथ ही  विरोध प्रदर्शन में  वाहनों में आग भी लगी । पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान हिंसा वाले इलाकों में  तमाशा देखते रहे और आंसू गैस से आगे मामला बढ़ नहीं पाया । सीएम ओकराम ईबोबी सिंह के नए जिले बनाने की घोषणा से  नागा समूह ने 1 नवंबर से वहां नाकाबंदी शुरु कर दी जिससे जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ और दिल्ली केंद्रित इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने मणिपुर के  बदतर हालातों की खबरों को स्पेस देना मुनासिब नहीं समझा । 

मणिपुर में जारी आर्थिक नाकेबंदी और क्षेत्रीय अखंडता को कांग्रेस  ने बड़ा मुद्दा बनाया है और दो तिहाई बहुमत इस बार भी पाने की उम्मीद लगायी है वहीं कांग्रेस ने इस नाकेबंदी के लिए भाजपा को जिम्मेदार बताया है  । ईरोम  बेशक  अखाड़े में हैं लेकिन 3  प्रत्याशियों की ताकत मणिपुर का भाग्य बदलने का माद्दा नहीं रखती है । वह भी तब जब चुनाव हाइटेक हो गया है जहाँ राष्ट्रीय दलों  के वार रूम से सब चीजें  मैनेज हो रही हैं ।   राज्य में भाजपा बीते बरस  से ही सत्ता में आने के सपने देख रही है लेकिन कांग्रेसी नेताओं  के पिटे चेहरों के बूते वह मणिपुर फतह कर जाएगी ऐसा मुश्किल दिखता  है । मणिपुर में  जिलों को विभाजित  करने का कार्ड चलकर मणिपुर में  कांग्रेस ने सत्ता विरोधी लहर को खत्म सा  कर दिया है । कांग्रेस ने जहाँ मैतयी को अपने पक्ष में कर लिया है वहीँ मैदानी इलाकों में भी उसका प्रतिनिधित्व ज्यादा होने से हाथ मजबूत दिख रहा है । पहाड़ी इलाकों में सीटें कम होने से बाजी कांग्रेस के नाम होने के आसार दिख रहे हैं क्योंकि वही सिकंदर बनेगा जिसका सिक्का 40 सीट पर मजबूत होगा । फिलहाल समीकरण कांग्रेस के पक्ष में मजबूत दिखाई दे रहे हैं लेकिन राजनीति की बिसात पर कौन प्यादा बनता है और कौन वजीर इसका फैसला 11 मार्च को चलेगा । 

Monday, 27 February 2017

जेलियांग के बाद लीजीत्सु




पूर्वोत्तर राज्य नागालैंड  एक  भीषण  गंभीर राजनीतिक संकट से  बाहर निकल आया है । बीते दिनों  मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग के  नाटकीय  इस्तीफे ने इस छोटे से राज्य के राजनीतिक संकट को जहाँ बढाने का काम किया  वहीँ सत्तारूढ़ नागा पीपुल्स फ्रंट  ,एनपीए  ने शुर्होजेली लीजीत्सु को विधायक दल का नेता चुन लिया जिसके बाद सभी ने 22  फरवरी को ग्यारह मंत्रियों के साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके साथ नागालैंड में मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर चल रही रस्साकसी थम गई ।

असल में निवर्तमान मुख्यमंत्री जेलियांग ने जनवरी के आखिर में नगर निकाय चुनाव  कराने का ऐलान किया था जिसमें  शहरी निकाय चुनावों के लिए महिलाओं का आरक्षण तैंतीस प्रतिशत कर दिया था। इसके बाद से वहां पर  विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया था। इस विरोध प्रदर्शन ने तब हिंसक रूप ले लिया जब पुलिस से झड़प में दीमापुर में दो युवकों की मौत हो गई। इसके बाद प्रदर्शन बहुत उग्र हो गया । गुस्साई भीड़ ने कोहिमा स्थित मुख्यमंत्री आवास को  अपने कब्जे में लेने की कोशिशे तेज़  कर दी । प्रदर्शन  काफी उग्र हुए ।  कई सरकारी भवनों में जहाँ आग लगी वहीँ  राष्ट्रीय सम्पत्ति  को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचाया गया ।  प्रदर्शनकारियों ने दीमापुर और कोहिमा के बीच राजमार्ग  को घंटो बाधित कर दिया ।  राज्य के कई इलाकों में कर्फ्यू  लगा रहा जिससे जनजीवन  बुरी तरह प्रभावित हुआ ।  इसी दौरान नागालैंड ट्राइब एक्शन काउंसिल नाम से गठित संगठन ने मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग और उनके कैबिनेट को इस्तीफा देने की मांग की। साथ ही कई संगठनों ने मांग की थी कि राज्य सरकार स्थानीय निकाय चुनावों को निरस्त करे, प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने वाले पुलिस और सुरक्षाकर्मियों को निलंबित करें और जेलियांग मुख्यमंत्री पद से हट जाएं। । नगालैंड की सरकार ने नगालैंड ट्राइब्स एक्शन कमिटी  कोहिमा और ज्वाइंट कोऑर्डिनेशन कमिटी की मांग को स्वीकार करते हुए शहरी स्थानीय निकाय चुनावों की पूरी प्रक्रिया के साथ ही तैंतीस फीसदी महिला आरक्षण को निरस्त कर दिया। 

राज्य में जब हालात खराब होने लगे  तब मुख्यमंत्री जेलियांग के खिलाफ बगावती सुर उठने लगे । एनपीएफ पार्टी के कई विधायक मुख्यमंत्री के खिलाफ हो गए। ऐसे में राज्य के मौजूदा हालात पर चर्चा के लिए सत्ताधारी एनपीएफ के विधायकों ने बैठक की। इस बैठक में शामिल अधिकांश विधायक नगा गुटों के विरोध प्रदर्शनों को ठीक ढंग से संभाल पाने में असमर्थता के चलते जेलियांग को सीएम पद से हटाने की मांग पर सहमत दिखे। इसके बाद जेलियांग ने इस्तीफा दिया। जेलियांग ने एनपीएफ के विधायकों को लिखे एक पत्र में कहा कि उन्होंने आंदोलनकारी समूहों और सरकार के बीच गतिरोध तोड़ने के लिए इस्तीफा देने का फैसला किया । मुख्यमंत्री पद से टीआर जेलियांग के इस्तीफे के बाद नए मुख्यमंत्री के तौर पर पूर्व मुख्यमंत्री और राज्य के एकमात्र लोकसभा सदस्य नीफियू रियो का नाम चल रहा था। उनके पक्ष में आमराय बन जाने के बावजूद वे विधायक दल का नेता नहीं चुने जा सके। एक तो इसलिए कि उनके बजाय जेलियांग मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एनपीएफ के अध्यक्ष शुर्होजेली लीजीत्सु को देखना चाहते थे। रियो ही थे जिन्होंने 2015 में जेलियांग को मुख्यमंत्री पद से बेदखल करने की कोशिश की थी।एनपीएफ ने पार्टी-विरोधी गतिविधियों के आरोप में पिछले साल रियो की सदस्यता अनिश्चित काल के लिए निलंबित कर दी थी। लिहाजा, राज्य के ग्यारहवें मुख्यमंत्री के रूप में लीजीत्सु के चुने जाने का रास्ता साफ हो गया। 

 साठ सदस्यीय नगालैंड विधानसभा में एनपीएफ 49 विधायक हैं, जिनमें से करीब 40  विधायक इस बैठक में शामिल हुए थे और वह अधिकांश विधायकों ने नगालैंड के एक मात्र सांसद नेफियू रियो को विधायक दल का नेता चुना था। लेकिन एनपीएफ ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में पिछले साल रेयो की सदस्यता अनिश्चितकालीन के लिए निलंबित कर दी थी। दिलचस्प यह है  नागालैंड के 60   विधायकों वाली विधानसभा में कोई भी नेता विपक्ष में नहीं है। इसके अलावा किसी भी पार्टी ने शहरी निकाय चुनावों में महिलाओं के आरक्षण के विरोध में चल रहे आंदोलन के खिलाफ खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं की। यही नहीं, राज्य की सारी विधायिका ने ‘नगालैंड ट्राइब्स एक्शन कमेटी’ और ‘जाइंट कोआर्डिनेशन कमेटी’ के आगे घुटने टेक दिए।साथ राज्य सरकार ने दोनों नागा गुटों के उग्र प्रदर्शन के आगे अपने घुटने  टेक दिए। नागालैंड में  विपक्ष नाममात्र का  है।  साठ सदस्यीय विधानसभा में सभी  एनपीएफ के ही विधायक हैं। एनपीएफ के 49  विधायकों के अलावा चार भाजपा के और सात निर्दलीय हैं। लेकिन विपक्ष में बैठनाकिसी को पसंद नहीं था लिहाजा सभी  विधायक सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक अलायंस आॅफ नगालैंड (डीएएन) में शामिल हैं। 

अब लीजीत्सु के सामने यह चुनौती होगी वह महिला सशक्तीकरण के लिए निकाय चुनावों में महिलाओं का आरक्षण लागू कर पाएंगे। क्या वह नागा गुटों के विरोध प्रदर्शनों से निपट पाएंगे ? क्या वह भी अपने  पूर्ववर्ती सी एम की तरह बेबस नजर आएंगे ?  ऐसे मुश्किल दौर में  लीजीत्सु के सामने सबसे बड़ी चुनौती जनजातीय संगठनों के विरोध से निपटने और शांति कायम करने की होगी ? बड़ा सवाल यह है क्या वह नई  लकीर नागालैंड में खींच पाएंगे ?  क्या वे स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए तैंतीस फीसद आरक्षण के प्रावधान को लागू करा पाएंगे? लीजीत्सु  ऐसे वक्त मुख्यमंत्री पद का दायित्व लेने जा रहे हैं जब राज्य एक उथल-पुथल से गुजरा है और उसका तनाव अब भी जारी  है। लीजीत्सु के सामने सबसे बड़ी चुनौती जनजातीय संगठनों के विरोध से निपटने और शांति कायम करने की है। देखना होगा इसमें वो कितना सफल हो पाते हैं ? 

Thursday, 23 February 2017

उत्तराखंड : जंग के बाद अब कुर्सी का जोड़ तोड़





उत्तराखंड का विधानसभा चुनाव शांतिपूर्ण ढंग से निपट गया है । इस बार का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा । वह भी इस मायने में क्युकि राष्ट्रपति शासन के बाद कांग्रेस से निकाले गए कई नेता भाजपा में जहाँ शामिल हुए वहीँ वोट के इस मौसम में कांग्रेस में भी कमोवेश भाजपा सरीखे हालात रहे । कांग्रेस को भी कई सीटों पर बगावत का सामना करना पड़ा वहीँ भाजपा में भी बरसो से काम करने वाले कार्यकर्ताओं को दरकिनार करते हुए बागियों को गले लगाया गया । उत्तराखंड के चुनावी मिजाज की टोह लेने पर इस बार मतदाता के भीतर एक अलग तरह की ख़ामोशी नजर आयी । जल , जमीन , जंगल के मुद्दे  हाशिये पर जहाँ नजर आये वहीँ पलायन को लेकर दोनों राष्ट्रीय दलों की चुप्पी ने कई सवालों को खड़ा किया ।  बढ़ती बेरोजगारी पर किसी ने चिंता नहीं जताई । वहीँ  फ्री डेटा और मोबाइल लैपटॉप तक चुनावी मेनीफेस्टो सिमट कर रह गया ।

उत्तराखंड में परिणाम चाहे जैसे भी आएं लेकिन एक बात तो साफ़ है यहाँ पर मुख्य मुकाबला  भाजपा और कांग्रेस में ही है । राज्य गठन के बाद से कमोवेश हर चुनाव में दोनों  राजनीतिक दल बारी बारी से राज करते आये हैं । कांग्रेस ने इस बार जहाँ मुख्यमंत्री हरीश रावत के चेहरे को आगे किया वहीँ गुटबाजी से उलझ रही भाजपा पी एम मोदी के भरोसे मैदान में उतरी । पहाड़ों में सर्द  मौसम के बावजूद इस बार रिकॉर्ड 70 फीसदी मतदान हुआ जो अपने में एक रिकॉर्ड है । मतदाता पहली बार बूथों पर उत्साह के साथ नजर आये ।  बंपर वोटिंग को भाजपा और कांग्रेस  अपने अपने पक्ष में बता रही हैं। भाजपा सत्ता में  बदलाव की आस लगाए बैठी है  तो कांग्रेस को उम्मीद है हरदा अगले  पांच बरस  अपने नाम कर जायेंगे । इस चुनाव की सबसे बड़ी चिंता दोनों पार्टियों के बागी प्रत्याशियों ने बढ़ाई  हुई है । पिछले चुनावों में भाजपा की तरफ से खंडूरी चुनाव हार गए थे । वह मुख्यमंत्री का बड़ा चेहरा रहे थे  । वहीँ कांग्रेस की बात करें तो उसने भी मैदान नहीं छोड़ा । भाजपा 19  तो कांग्रेस 20  रही थी । यही कारण  था उन चुनावों में सत्ता की चाबी भी बागियों के पास रही । इस चुनावो में भी  पहाड़ी इलाकों  के साथ मैदानी इलाकों में बसपा का हाथी अगर चढ़ाई करता है और कुछ सीटों पर निर्दलीय प्रत्याशी अच्छा वोट पा लेते हैं तो इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के होश फाख्ता हो सकते हैं ।

उत्तराखण्ड में हुए रिकॉर्ड मतदान के बारे में अलग अलग तरह के कयास लगने शुरू हो गए हैं ।   भाजपा की मानें तो उत्तराखंड में प्रधानमंत्री मोदी का जादू अभी भी कम नहीं हुआ  है । साथ ही हरीश रावत के खिलाफ  एंटी इंकेबेंसी  इस बार रंग लायी है  वहीँ  दूसरी तरफ कांग्रेस मान रही है नोटबंदी और बढ़ती महंगाई और मोदी सरकार के प्रति निराशा  के चलते बड़ी संख्या में लोग  मतदान केंद्रों तक पहुंचे हैं । पिछले कुछ समय से देश के मिजाज को अगर हम परखें तो एक ख़ास बात यह पायी गयी है रिकॉर्ड मतदान  अब सत्ता विरोधी  साबित नहीं हुआ है । बिहार , बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी रिकॉर्ड मतदान को बदलाव का संकेत माना गया था। इसके बावजूद नतीजे एकदम उलट आए और इन सभी राज्यो में पार्टी की वापसी हुई । उत्तराखंड में भाजपा ने इस चुनाव में अपने स्टार प्रचारकों की भारी भीड़ उतारी वहीँ प्रधानमंत्री मोदी को पिथौरागढ़ जैसे सीमान्त जनपद की रैली में उतारा ।  वहीँ  टिकटों के चयन से लेकर चुनाव प्रचार में  कांग्रेस  भाजपा की तुलना में पिछड़ती रही। यहाँ कांग्रेस केवल हरीश रावत के मैजिक के आगे निर्भर रही ।प्रधान मंत्री मोदी ने  राज्य में हुई ताबड़तोड़ रैलियों में पहाड़ के पानी से लेकर पहाड़  की जवानी तक के मुद्दों  को हवा दी । पलायन पर चिंता जताने के साथ ही उन्होंने  टूरिज्म को बढ़ावा देने की बात कही । साथ ही अपनी रैलियों में सेना का जिक्र जरूर किया । उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर लोग सेना में हैं लिहाजा मोदी सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर वन रैंक वन  पेंशन  जैसे मुद्दे  उठाने से पीछे नहीं रहे । उन्होंने रावत सरकार के भ्रष्टाचार  को लेकर सवाल दागे और सत्ता परिवर्तन की तरफ इशारा किया ।  मोदी की रैलियों में जबरदस्त भीड़ नजर आयी । श्रीनगर और पिथौरागढ़ जैसे जिलों में दूर दूर से उनको सुनने  लोग आये । अब उनके भाषण का क्या असर हुआ यह तो 11 मार्च को आने वाले नतीजों के बाद ही पता चल पायेगा वहीँ कांग्रेस मुख्यमंत्री हरीश रावत पर पूरी तरह से निर्भर  रही। चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में  पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने हरिद्वार जनपद में रोड शो किया। रावत पर उनके विरोधी गढ़वाल और कुमाऊं में भेद करने का आरोप लगाते रहे हैं  लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान  कुमाऊं और गढ़वाल के सुदूर क्षेत्रों में वह अकेले चुनाव प्रचार करने पहुंचे  साथ ही इस बार उन्होंने कुमाऊ और गढ़वाल दो सीटों से चुनाव लड़ा । इसके पीछे रणनीति दोनों इलाकों में कांग्रेस की ताकत को मजबूत करने की रही । बड़े पैमाने पर लोग कांग्रेस छोड़  गए जिससे पार्टी में रावत की कार्यशैली  को लेकर सवाल भी उठते  रहे । विपरीत और विषम हालातों में  रावत अगर उत्तराखंड में वापसी कर जाते हैं  तो पार्टी में उनका कद बहुत बढ़ जाएगा साथ ही  कांग्रेस आलाकमान के सामने वह और अधिक मजबूत होंगे। पार्टी के अंदर उनके विरोधियों को मजबूरन शांत होना पड़ेगा।

उत्तराखंड में  रिकॉर्ड मतदान होने के बावजूद यह साफ नहीं है कि सरकार किसकी बनेगी।  दिल्ली और बिहार में तमाम राजनीतिक पंडितों के अनुमान ध्वस्त हो गए । बिहार में भी 2015  में   ज्यादा मतदान हुआ था ।  यहाँ राजनीतिक पंडित लालू के साथ नीतीश के महागठबंधन को नुकसान होने की बात कर रहे थे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। लालू , नीतीश और कांग्रेस महागठबंधन को पूर्ण बहुमत से कहीं ज्यादा सीटें मिलीं।  बंगाल और तमिलनाडु में भी राजनीतिक पंडितों से मतदाताओं का मिजाज  समझने में चूक हुई।  तमिलनाडु में रिकॉर्ड मतदान के बावजूद पुनः जयललिता की सरकार बनी। वहां रिकॉर्ड मतदान का कारण सत्ता विरोधी लहर नहीं थी। प्रदेश के मतदाताओं ने जिस तरह का उत्साह दिखाया है इससे राजनीतिक दलों की नींद उडी हुई है । फिर बिहार , बंगाल , तमिलनाडु , दिल्ली की तर्ज पर अगर इसे देखे तो हवा का रुख सत्ता के साथ भी हो सकता है । वैसे उत्तराखंड में बारी बरी से भाजपा और कांग्रेस की सरकार बनती रही है । तीसरी ताकत के रूप में उत्तराखंड क्रांति दल जरूर है लेकिन पिछले 16 बरस में आपसी टूट से उसे नुकसान  झेलने को मजबूर होना पड़ा है । राज्य के मैदानी इलाकों में बसपा का कई जगह प्रभाव अभी भी कायम है । ऐसे में अगर कोई बड़ा उलट फेर होता है और खुदा ना खास्ता बागी  जीत ना पाएं लेकिन भाजपा और कांग्रेस का खेल खराब तो कर ही सकते हैं ।

उत्तराखंड गठन  के बाद हुए पहले आम चुनाव में 54  फीसदी मतदान हुआ । तब कांग्रेस की सरकार बनी जिसके मुखिया  नारायण  दत्त  तिवारी थे  । 2007  में मतदान का आंकड़ा 59  फीसदी पर पहुंच गया तब भाजपा ने वापसी की जिसकी कमान बी सी खंडूरी के हाथ रही ।  2012  के बरस में  मतदान का प्रतिशत 65 फीसदी पर कर  गया  जो इस बार 70  पहुंच गया है। ध्यान देने वाली बात यह है उत्तराखण्ड में हर चुनाव के बाद निजाम भी बदले हैं ।   इस लिहाज से कुछ कुछ सत्ता परिवर्तन और एंटी इंकम्बेन्सी के आसार भी दिख रहे हैं  । फिलहाल नजरें 11 मार्च की तरफ हैं जहाँ यह निर्धारित होगा क्या मोदी का विजय रथ रावत रोकते हैं या 2014  के लोक सभा चुनावों की तर्ज पर  मोदी उत्तराखंड में अपने मैजिक के आसरे रावत की लुटिया डुबोकर कांग्रेस मुक्त उत्तराखंड कर पाते हैं  ?

Wednesday, 4 January 2017

यू पी भाजपा की मुख्यमंत्री पद की बिसात के केन्द्र में राजनाथ





2013 के बरस भाजपा में नए  राष्ट्रीय अध्यक्ष के नामांकन से ठीक पहले लाल कृष्णआडवानी संघ के एक कार्यक्रम में शिरकत करने मुंबई गए थे जहाँ उनके साथ नितिन गडकरी और सर कार्यवाह भैय्या  जी जोशी भी मौजूद थे । इसी दिन महाराष्ट्र में गडकरी की कंपनी पूर्ती के गडबडझाले को लेकर आयकर विभाग ने छापेमारी की कारवाही सुबह से शुरू कर दी ।  आडवानी की भैय्या जी जोशी से मुलाकात हुई तो ना चाहते हुए बातचीत में पूर्ती का गड़बड़झाला  आ गया । आडवानी ने भैय्या  जी  जोशी से गडकरी पर लग रहे आरोपों से भाजपा की छवि खराब होने का मसला छेडा  जिसके बाद भैय्या जी को नितिन गडकरी के साथ बंद कमरों में बातचीत के लिए मजबूर होना पड़ा । काफी  मान मनोव्वल के बाद गडकरी इस बात पर राजी हुए अगर संघ को उनसे परेशानी झेलनी पड़  रही है  तो वह खुद अपने पद से इस्तीफ़ा देने जा रहे हैं । आडवानी से भैय्या जी जोशी ने गडकरी का  नया विकल्प सुझाने को कहा तो उन्होंने यशवंत सिन्हा का नाम सुझाया । हालाँकि पहले आडवानी  सुषमा स्वराज के नाम का  दाव   चल चुके थे लेकिन सुषमा स्वराज खुद अध्यक्ष पद के लिए इंकार कर चुकी थी लिहाजा आडवानी ने यशवंत सिंहा  का  ही नाम बढाने की कोशिश की जो संघ को कतई मंजूर नहीं हुआ । बाद में गडकरी से भैय्या जी ने अपना विकल्प बताने को कहा तो उन्होंने राजनाथ सिंह का नाम सुझाया जिस पर संघ ने अपनी हामी भर दी और आडवानी को ना चाहते हुए राजनाथ सिंह  को पसंद करना पड़ा । इसके बाद  शाम को दिल्ली में अरुण  जेटली के घर भाजपा की बैठक हुई जिसमे रामलाल मौजूद थे जिन्होंने  भी राजनाथ  सिंह के नाम पर सहमति बनाने में सफलता हासिल कर ली  और देर रात राजनाथ सिंह को सुबह राजतिलक की तैयारी के लिए रेडी रहने का सन्देश भिजवा  दिया  गया । सुबह होते होते राजनाथ के घर का कोहरा भी  छटता गया और  इस तरह राजनाथ दूसरी बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने में सफल रहे । 

           ऊपर का यह वाकया पार्टी मे मौजूदा गृह मंत्री राजनाथ सिंह  के रुतबे और संघ मे उनकी मज़बूत पकड को बताने के लिये काफी है । वह ना केवल एक सुलझे हुए नेता है बल्कि  उत्तर प्रदेश की उस  नर्सरी से  आते हैं जहाँ भाजपा ने हिंदुत्व का परचम एक दौर में फहराकर केंद्र में सरकार बनाने में सफलता हासिल की थी । लेकिन  बड़ा सवाल यह है  क्या इस बार  राजनाथ उस करिश्मे को दोहरा पाने की स्थिति मे हैँ जो कभी वाजपेयी- आडवाणी और डॉ जोशी की तिकड़ी  ने यू पी की सियासी जमीन पर किया था ?   यह सवाल इस समय इसलिए भी पेचीदा हो चला  है  क्युकि यू पी सियासी बिसात में बसपा माया तो सपा अखिलेश और कांग्रेस शीला दीक्षित को लेकर पत्ते जहाँ फेंटने की स्थिति में आ चुकी हैं और पूरी तरह  एक्शन माड में है वहीँ भाजपा की सियासी बिसात चेहरों की लडाई में उलझती ही जा रही है | यू पी में भाजपा एक अनार और सौ बीमार वाली स्थिति में है |  पार्टी के पास मुख्यमंत्री पद के कई उम्मीदवार हैं लेकिन वह अभी तक यू पी में किसी को चेहरा नहीं बना पायी है | यू पी में  भाजपा के हर नेता  में इस दौर में आगे निकलने की जहाँ होड़ मची हुई है  तो वही चेहरों की लड़ाई मे भाजपा की यू पी की बिसात उलझती ही जा रही है |   यूपी विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अभी तक मुख्‍यमंत्री पद का उम्‍मीदवार घोषित नहीं किया है जिसके लिए वरुण गाँधी से लेकर गृह मंत्री राजनाथ सिंह ,  केंद्रीय  मंत्री स्‍मृति ईरानी से लेकर महेश शर्मा ,  योगी आदित्‍यनाथ से लेकर विनय कटियार ,  रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा से लेकर केशव प्रसाद मौर्य , लखनऊ के मेयर डॉ दिनेश शर्मा से लेकर  केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्रा  के नाम हवा में तैर  रहे हैं लेकिन कई कोशिशों के बाद अब लग ऐसा रहा है संघ राजनाथ सिंह को प्रोजेक्ट करके यू पी में चुनाव लड़ने की रणनीति पर काम कर रहा है | राजनाथ सिंह इस समय गृह मंत्री हैं और केंद्र की राजनीति में रम गए हैं लेकिन दो बार ना कहने के बावजूद अब उनको संघ के आमंत्रण पर शायद यू पी वापसी करनी ही पड़े | संघ से जुड़े करीबियों की मानें तो राजनाथ ने  यू पी के चुनाव में खुद को चेहरा बनाए जाने से इनकार कर दिया है लेकिन मोदी और शाह की जोड़ी उनके बूते यू पी का सियासी गणित फिट करने में लगी हुई है |  ऐसे में बड़ा सवाल है  क्या राजनाथ आने वाले समय मे मुख्य मंत्री पद के डार्क हॉर्स  साबित होंगे और सारे दावेदारों को पीछे करते हुए एक झटके में अब  आगे आ जायेंगे ? ये ऐसे सवाल हैं जो लुटियंस की दिल्ली की ठंडी फिजा में इस समय तैर रहे हैं | संघ के हवाले से आ रहीं खबरों के आधार पर यू पी में भाजपा अब गृह मंत्री  राजनाथ सिंह  को सीएम पद का चेहरा बना सकती है |   भाजपा को अब लग रहा है दिल्ली  का रास्ता  यू पी से गुजरता है और 2017 में अगर मोदी की झोली में उत्तर प्रदेश आ जाता है तो यह  केन्द्र की आगे की राजनीती के लिए भाजपा का बड़ा  मास्‍टर स्‍ट्रोक साबित हो सकता है |  यही नहीं राजनाथ  को आगे कर भाजपा समाज के हर तबके को अपने पक्ष में कर सकती  है | राजनाथ सिंह  भाजपा के वरिष्‍ठ नेताओं में शामिल हैं  संघ उन पर मेहरबान रहा है शायद इसी के चलते उन्‍हें मोदी सरकार में गृह मंत्री का पद मिला |  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उनके काम से काफी खुश हैं |  भाजपा के विपक्ष में रहने के दौर में वह पार्टी के अध्यक्ष भी रहे हैं लिहाजा उनके अनुभव का पूरा लाभ भाजपा यू पी में  लेने की तैयारी में है । राजनाथ के पक्ष में एक बात यह भी है कि उनकी छवि बेदाग है  और वह समाज के हर तबके में सर्व स्वीकार्य हैं | कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा घर के दरवाजें खुले रखने और लगातार संपर्क व संवाद रखने के कारण प्रदेश के कार्यकर्ताओं में राजनाथ सिंह की स्वीकार्यता बहुत ज्यादा  है। उनमे  सरकार सुचारु चलाने का  अनुभव भी है।  पार्टी के रणनीतिकारों की मानें तो उनके चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ने से भाजपा को लाभ भी हो सकता हैं। राजनाथ के सहारे भाजपा सवर्णों  , अति पिछड़ों व अति दलितो को भी अपने पक्ष में मोड़ सकती है साथ ही अल्पसंख्यकों के बीच भी उनकी अ़च्छी छवि है। 

भाजपा का एक तबका वरुण  गांधी के लिए लाबिंग कर रहा है लेकिन वरूण को लेकर पार्टी के भीतर एक  राय नहीं  बन पा रही है ।  भाजपा अगर ध्रवीकरण का कार्ड यू पी में खेलती है तो इस बात को लेकर असमंजस है कि उन्हें सीएम का चेहरा घोषित करने से मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण न हो जाए। यही समस्या आदित्यनाथ के साथ भी आ रही है जिनकी कट्टर हिन्दुत्ववादी छवि यू पी के सामाजिक समीकरणों की न केवल मुश्किल बड़ा सकती है बल्कि पी एम मोदी की सबका साथ सबका विकास की छवि को नुकसान  पहुंच सकता है । यू पी चुनाव की उलटी  गिनती शुरू है । अब ऐसी सूरत मे राजनाथ सिंह ही  उत्तर प्रदेश में भाजपा का बड़ा ट्रम्प कार्ड साबित  हो सकते  हैं ।  ऐसे हालातो में राजनाथ के सामने सबसे बड़ी चुनौती  यू पी में भाजपा की सरकार बनाना रहेगी  ।  अटल बिहारी को  प्रधानमंत्री बनाने में आडवानी उनके सारथी थे वहीँ राजनाथ मोदी  के सारथी 2014 के लोक सभा चुनाव मे रह चुके हैँ  । यू पी में भाजपा के पास  इस दौर में राजनाथ को आगे करने की  पहल अब ज्यादा कारगर साबित हो सकती है । कल्याण सिंह के राजस्थान के राज्यपाल बनने के बाद  यू पी भाजपा में किसी सर्व मान्य नेता के नाम पर सहमति  नहीं बन पा रही है  तो राजनाथ को  भी यू पी में अब  कल्याण सिंह , केसरीनाथ त्रिपाठी , लाल जी टंडन और कलराज मिश्र  जैसे नेताओं से कोई खतरा नहीं रह गया है । बेशक पी  एम  मोदी बेशक बनारस से सांसद हैं लेकिन वह भी यू पी की बिसात के केंद्र में हैं लेकिन यू पी का मिजाज अन्य  राज्यों से अलग है वहां किसी को प्रोजेक्ट करना ही होगा । ऐसे में  संघ के दवाब मे अब राजनाथ सिंह  के  चेहरे को  आगे करने पर जोर दिया जा रहा है ।  

 2012 के विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को 29.13, बीएसपी को 25.91,बीजेपी को 15 और कांग्रेस को 11.65 प्रतिशत वोट मिले थे। इन वोटों के सहारे समाजवादी पार्टी 224, बसपा 80, भाजपा 47 और कांग्रेस 28 सीटों पर जीतने में सफल रही थी । फिर  2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में सपा-बसपा और कांग्रेस के तोते उड़ गये। विधान सभा चुनाव के मुकाबले बीजेपी के वोट प्रतिशत में 27 प्रतिशत से अधिक का इजाफा हुआ और 42.63 प्रतिशत वोट मिले। वहीं सपा के वोटों में करीब 7 प्रतिशत और बीएसपी के वोटों में 6 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई। कांग्रेस की स्थिति तो और भी बदत्तर रही। उसे 2012 के विधान सभा में मिले 11.65 प्रतिशत वोटों के मुकाबले मात्र 7.58 प्रतिशत वोटों पर ही संतोष करना पड़ा। वोट प्रतिशत में आये बदलाव  के कारण बसपा का खाता नहीं खुला वहीं समाजवादी पार्टी 5 और कांग्रेस 2 सीटों पर सिमट गई थी। बीजेपी गठबंबधन के खाते में 73 सींटे आईं जिसमें 71 बीजेपी की थीं और 2 सीटें उसकी सहयोगी अपना दल की थीं। राजनाथ को यह समझना जरुरी है अगर 2014 के लोक सभा चुनाव का करिश्मा पाटी को यू पी में दोहराना है तो  सभी को एकजुट रखने  की बड़ी चुनौती भी  अब उनके सामने है । वहीँ संघ  भी  अगर राजनाथ को आगे करने का मन बना चुका है तो  भाजपा के लिए बिसात बिछाने की  जिम्मेदारी राजनाथ के कंधो पर देनी होगी क्युकि यू पी बड़ा प्रदेश है और दिल्ली का रास्ता यू पी से ही गुजरता है । ऐसे में  राजनाथ की राह में गंभीर  चुनौती  है । राजनाथ राजनीती की राहों पर अक्सर लड़खड़ाते  भी रहे हैं। उनका ग्राफ उठता गिरता रहा है । राजनाथ के राजनीतिक सफर का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी जाता है। राजनाथ एक समय पर अटल के प्रिय नेता भी हुआ करते थे। 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की तरफ से लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी का चेहरा बनाया गया था लेकिन मतदाताओं को आडवाणी के नेतृत्व पर पर्याप्त भरोसा नहीं था। हार का सारा ठीकरा राजनाथ पर फोड़ा गया । यू पी में  कल्याण सिंह के साथ पार्टी के रिश्ते कड़वे होने में राजनाथ ने बड़ी भूमिका निभाई । उसी समय उत्तर प्रदेश में भाजपा के तीन अन्य बड़े नेताओं कलराज मिश्र, लालजी टंडन और ओम प्रकाश सिंह को भी राजनाथ ने ही किनारे कर दिया। इसके अलावा वरुण गांधी का समर्थन करने में उन्होंने जरूरत से ज्यादा सक्रियता दिखाई और शहरी क्षेत्रों में वोटरों को पार्टी से दूर भगा दिया था। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश में पार्टी के संगठनात्मक स्तर पर पूरी तरह निष्क्रिय हो जाने का श्रेय भी उन्हें ही दिया जाता है लेकिन पार्टी में उनके आलोचक इस बात को  भूल जाते हैं कि राजनाथ खुद संघ  के चहेतों में आज भी हैं। संघ के भारी दबाब के बाद  राजनाथ को  200 5 में आडवाणी का उत्तराधिकारी बनाया था। उस समय ही  राजनाथ खुद को संघ का वफादार साबित कर चुके थे । अपने पहले कार्यकाल में राजनाथ सिंह ने भाजपा पर पकड़ मजबूत करने में संघ  की काफी मदद की थी। इस दौरान उन्होंने खुद को भी पार्टी के अंदर मजबूत किया।   2005 -2009 और  2013 -02014  में राजनाथ  संघ के अनुनय के बाद ही पार्टी के अध्यक्ष बने। संघ के चहेते राजनाथ सिंह  में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार में शिक्षा मंत्री भी रह चुके हैं। उन्होंने बतौर शिक्षा मंत्री नकल-विरोधी कानून लागू करवाया था। राजनाथ ने ही वैदिक गणित को यूपी बोर्ड के पाठ्यक्रम में शामिल करवाया था।  राजनाथ सिंह के विरोधी यह प्रचार करते हैं कि वह जननेता नहीं हैं और 1977  की जनता लहर के बाद उन्होंने सीधे जनता से कोई चुनाव नहीं जीता सिवाय जब वह यू पी के मुख्यमंत्री थे लेकिन  उनके विरोधी यह भूल जाते हैं कि आज भाजपा में मोदी के बाद वह सबसे प्रभावी हैं ।  उन्होंने गाजियाबाद से पिछला लोकसभा चुनाव जीत कर अपने विरोधियों को करारा जवाब भी दे दिया है । मौजूदा दौर में  अगर भाजपा को यू पी  में वापसी करनी  है, तो राजनाथ को  फूंक फूंक कर कदम रखने होंगे । 2005 से 2016 के दौरान भाजपा में  राजनाथ ने काफी उतार चढ़ाव देखे हैं और दिखा दिया कि चाहे मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी हो या केंद्रीय मंत्री या फिर पार्टी अध्यक्ष की  कमान,   वह कुशलता से हर जिम्मेदारी निभा सकते हैं।  राजनाथ सिंह पहले भी विभिन्न संकटों के बीच पार्टी में सरताज बनकर उभरे हैं जिसमे संघ ने रजामंदी करने में महत्वपूर्ण भुमिक निभायी  । अब अगर  राजनाथ सिंह  यू पी में कार्यकर्ताओं  को एकजुट करने में कामयाब होते हैं और सरकार बना लेते हैं  तो यह उनके साथ- साथ भाजपा का भी भविष्य  का रास्ता तय करेगा क्युकि 2017 का यू पी  चुनाव भाजपा के लिए एक बड़ा टर्निंग पॉइंट साबित हो सकता है ।   देखना दिलचस्प होगा क्या  राजनाथ सिंह इस बार भाजपा की  यू पी के  मुख्यमंत्री  पद  की बिसात मे  तुरूप का इक्का बन  पाते हैं  ?

Thursday, 29 December 2016

चाचा भतीजे का सियासी दंगल






समाजवादी पार्टी के कुनबे में लड़ाई की खबरे लंबे अर्से से चल रही थीं लेकिन कुछ महीनों  पहले इन खबरों पर विराम लग गया था  ।  अब एक बार फिर चाचा-भतीजे में पार्टी में  चुनाव पास आते ही  वर्चस्व को लेकर नया  दंगल  शुरू हो गया  है। शिवपाल यादव और अखिलेश दोनों के बीच की नूराकुश्ती अब इस  लड़ाई को  जहाँ सतह  पर ला  रही है वहीँ ऐसे  हालातों  में नजरें फिर से एक बार नेताजी पर लग गई हैं  । चुनावी बरस से ठीक पहले नेताजी के टिकट बंटवारे के बाद सपा में चाचा भतीजे की लड़ाई एक बार फिर सबके सामने आ गयी है । असल में अखिलेश  और शिवपाल में टिकटों को लेकर बात  बन नहीं रही है । समर्थकों में भी ठन गई  है । सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने  भारी भरकम  उम्मीदवारों की सूची जारी करके यह जाहिर कर दिया कि पार्टी संगठन में अखिलेश की नहीं अध्यक्ष शिवपाल यादव की ही चलेगी  । ऐसा करके नेताजी ने अखिलेश की उन  उम्मीदों  को ध्वस्त कर दिया है जिसके मुताबिक अखिलेश  अपने विकास कार्यो के मुल्लमे के आसरे  यू पी की सियासत में नयी लकीर खींचना चाहते थे  । यही नहीं नेताजी  ने  उम्मीदवारों  की जारी ताजा  लिस्ट में अखिलेश के समर्थकों के पर क़तर  दिए हैं जिससे  अखिलेश  के सामने असहज स्थिति फिर से उत्पन्न  हो गयी  और कल लखनऊ में  अखिलेश ने जिस तर्ज पर अपने  समर्थकों  की नई  लिस्ट जारी की उसने पहली बार  सपा  में वर्चस्व की जंग की मुनादी कर दी  है जिसके बाद तलवारें अब म्यान से बाहर आ गई  हैं । 

  पिछले कुछ महीनों पहले नेताजी ने जहाँ शिवपाल और अखिलेश में सुलह करवाई उसके बाद लगा ऐसा था सपा  में आल इज वेल  हो गया है लेकिन  शिवपाल यादव  ने अपनी सांगठनिक धमक से नए दंगल में अखिलेश यादव को हर दांव  में चित कर दिया है ।  अखिलेश ने शिवपाल के विरोधी को राज्यमंत्री का दर्जा दिया तो शिवपाल ने अखिलेश के करीबियों के टिकट छीन लिए।अखिलेश यादव ने जावेद आब्दी को सिचाईं विभाग में सलाहकार का पद दिया तो ये शिवपाल यादव के खिलाफ गया ।  जावेद आब्दी  को शिवपाल यादव ने रजत जयंती कार्यक्रम में अखिलेश यादव के पक्ष में नारेबाजी करते वक्त धक्का दिया था उसी जावेद आब्दी को अखिलेश यादव ने दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री बना दिया। समाजवादी पार्टी द्वारा डॉन आतिक अहमद  अमरमणि को विधानसभा चुनाव का टिकट दिए जाने साथ ही  मुख्तार अंसारी के भाई को भी चुनाव का टिकट दे दिया । इस फैसले से मुलायम के परिवार में ही कलह शुरू होने की संभावना दिख रही थीजो अब फिट बैठ रही है ।  अतीक अहमद की छवि एक बाहुबली की है  वहीं बाहुबली मुख्तार अंसारी के भाई सिगबतुल्ला अंसारी को शिवपाल ने टिकट थमा दिया है । यही नहीं कौमी एकता दल से सिगबतुल्ला पहले से ही विधायक है  लेकिन अखिलेश के तमाम विरोध के बावजूद  उन्हें पार्टी का टिकट न केवल थमाया गया बल्कि अखिलेश के ना चाहते हुए भी  पार्टी का विलय सपा में कर दिया गया । इधर बहिन जी 200 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट जिस तर्ज पर देनी की सोच रही हैं उसी की काट के तौर पर कौमी एकता दल  का विलय सपा  में किया गया ताकि मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण ना हो सके ।  यही बात अखिलेश को नागवार गुजरी है क्युकि वह विकास की राजनीती के आसरे यू पी  के महासमर में अपने को ठोकने का ऐलान कर रहे हैं लेकिन  अब नेताजी ने  भी हाल में टिकट बंटवारे में जिस तर्ज पर यह घोषणा  की है उनके दिए गए टिकट को किसी सूरत में वापस नहीं लिया  जायेंगे तो  इसके बाद लगता ऐसा है सपा की अंदरूनी जंग अब  फिर से सतह पर आ चुकी है ।  वैसे  नेताजी ने टिकटों की घोषणा करने से पहले अखिलेश यादव से भी कोई मशविरा भी  नहीं लिया जिससे अखिलेश के समर्थको में नाराजगी साफ़ देखी  जा सकती है ।  अखिलेश  बेदाग़  छवि के लोगों को मैदान में उतारने के पक्षधर थे जिसमे उनकी एक नहीं सुनी गयी जिसके बाद सन्देश यही गया भतीजे पर चाचा भारी पड़  रहे हैं ।  

 मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर भरोसा कर  पिछले विधानसभा चुनाव में प्रदेश की जनता ने उन्हें  प्रदेश की वागडोर सौंपी थी। पांच साल के अपने शासनकाल में  कुछ मुद्दों पर बेबस होते दिखाई देने वाले युवा मुख्यमंत्री ने हाल के दिनों में अपने विकास कार्यों से जैसी  छवि जनता में बनायी उससे एक बार लग ऐसा रहा था अखिलेश  सपा के लिए तुरुप का पत्ता  बन सकते हैं ।  कुछ महीनों पहले चाचा-भतीजा प्रकरण के बाद अखिलेश के प्रति जनता की सहानुभूति जिस तर्ज पर दिखी उसके बाद लग ऐसा रहा था अगर यही सहानुभूति वोट में तब्दील हुई तो सपा यू पी में फिर से सत्ता तक पहुँच सकती है । इस लड़ाई से  जनता में यह मैसेज गया है कि  अखिलेश यादव  साफगोई से काम कर रहे हैं लेकिन नेताजी के परिवार वाले उन्हें सही से काम नहीं करने दे रहे ।  शिवपाल यादव के लाख दबाव के बावजूद अखिलेश ने अपनी सच्चाई सादगी और ईमानदारी से सरकार चलायी लेकिन चुनावो से ठीक पहले जिस तरह अखिलेश के समर्थको को ठिकाने लगाने की  नई मुहिम  सपा मे शुरू हुई है उससे एक बार फिर पार्टी बंटवारे की राह पर खड़ी हुई नजर आ रही है । फिलहाल प्रदेश में समाजवादी पार्टी को लेकर ही दो गुट दिखाई दे रहे हैं। इनमें एक जुट चाचा शिवपाल यादव का है  तो दूसरा गुट मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का  जिसमें महीने पहले नेताजी की सुलह के बाद पहले पलड़ा दोनों का बराबरी का दिख रहा था और लग ऐसा रहा था सपा सभी को साथ लेकर चुनाव में अपनी चौसर बिछाएगी  लेकिन आज के हालातों में  पलड़ा चाचा का ही भारी दिख रहा है जिस पर नेताजी की भी पूरी रजामंदी है । हाल के बरस में  अखिलेश की छवि प्रदेश में न केवल साफ- सुथरी बनकर न केवल  उभरी है बल्कि एक विकासपरक सोच रखने वाले युवा तुर्क की भी बनी है। वही दूसरी तरफ  शिवपाल यादव की छवि एक ऐसे नेता के रूप में सामने आई है जो प्रदेश में बाहुबल को बढ़ावा देने में यकीन रखते हैं जिसकी तासीर हाल में जारी टिकटों में साफ़ झलकी है । अखिलेश के ना चाहते हुए भी उन्होंने अपनी पसंद को टिकटों के आवंटन में तरजीह दी है ।  विकास के मामले में प्रदेश की राजधानी लखनऊ की ही बात करें तो  आज यहां  अखिलेश विकास की गंगा बहा चुके  है। प्रदेश को पहली बार  एक ऐसा युवा सोच वाला मुख्यमंत्री मिला है जिसने यू पी को  विकास के मामले में  नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है।  मेट्रो ट्रायल से लेकर  रिवर फ्रंट , क्राइम फ्री जोन से लेकर  फ्लाईओवर , जाम में फंसे रहने की किल्लत से लेकर ताजा एक्सप्रेस वे आगरा से लखनऊ तक पहुंचाने में पत्थर की लकीर बनाने में उनकी अहम भूमिका रही जिसमे सुखोई विमान उतारकर अखिलेश ने दुनिया का ध्यान उत्तर प्रदेश की ओर खींच  दिया ।  लैपटॉप से लेकर  बड़े-बड़े पार्क ,  फिल्म सिटी से लेकर  आई टी सिटी, हॉस्पिटल्स से लेकर पेंशन स्कीम के जरिये अखिलेश आम युवा तक काफी लोकप्रिय हो गए जिससे शिवपाल के समर्थक असहज हो गए । इस चुनाव में दोनों गुट  अपने अपने समर्थकों को टिकट ज्यादा बांटकर अपना शक्ति प्रदर्शन चुनाव के बाद  करना चाहते थे जिससे मुख्यमंत्री पद का दावा मजबूत हो सके लेकिन नेताजी के टिकट बंटवारे के बाद अब दोनों के बीच खाई और चौड़ी हो गयी है । 

यह पहला मौका नहीं है जब सपा में विवाद हुआ। इस वर्ष कई बार सपा में कई बार विवाद हो चुका है। जून में मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल के समाजवादी पार्टी में विलय को लेकर अखिलेश राजी नहीं थे। इसके बावजूद शिवपाल ने विलय कराया। सितम्बर में मुख्यमंत्री ने राज्य के प्रमुख शासन सचिव और शिवपाल के करीबी दीपक सिंद्घल को हटाकर राहुल भटनागर को नियुक्त किया। कुछ महीनो पहले ही अखिलेश यादव ने शिवपाल से पार्टी के अहम विभाग छीन लिए थे। इस पर मुलायम ने अखिलेश को सपा के यूपी प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया। बाद में शिवपाल के विभाग लौटाने पड़े। इसके अलावा मुख्यमंत्री ने गायत्री के प्रजापति को मंत्री पद से हटा दिया जो शिवपाल के ख़ास थे । मगर मुलायम सिंह के कहने पर अखिलेश यादव को गायत्री प्रजापति को फिर से बहाल करना पड़ा। अखिलेश गायत्री को नहीं चाहते थे क्योंकि एक बी पी एल कार्ड धारक से लेकर करोड़ों का साम्राज्य बनाने की उनकी कहानी भी काम दिलचस्प नहीं थी और अखिलेश दागियों को किसी कीमत पर नहीं छोड़ना चाहते थे । उन्होंने अपने आखरी मंत्री मण्डल विस्तार में करप्शन करने वालों पर डंडा चलाया लेकिन नेताजी से गलबहियों से अखिलेश का हर दांव उल्टा पड़  गया ।  यही नहीं सीएम अखिलेश यादव ने अमर सिंह पर निशाना साधते हुए उनके करीबी और शिवपाल यादव सहित चार मंत्रियों को अपने मंत्रीमंडल से बर्खास्त कर दिया जिसके बाद शिवपाल यादव ने अखिलेश यादव के पक्ष में उतरने वाले उदयवीर सिंह को पार्टी से बाहर निकाला दिया। जब रामगोपाल यादव ने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए चिट्ठी लिखी और मुलायम सिंह के करीबी लोगों पर खुला निशाना साधा तो उन्हें भी छह साल के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया जिसके बाद  मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश और शिवपाल यादव को गले मिलवाने की कोशिश की लेकिन गले मिलने के फौरन बाद चाचा भतीजे के बीच मंच पर ही झड़प हो गई। फिर जैसे तैसे नेताजी सामने आये और दोनों कोसाधकार उन्होंने शीत  युद्ध पर विराम लगाया । 

नेताजी के  टिकटों के बंटवारे के बाद अब लग रहा है कि प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के बीच समझौते की कोशिशें महज दिखावा हैं। तलवारें अंदरखाने तनी हुई हैं। चाचा शिवपाल नेताजी को साधकर अखिलेश को मात देने की हर चाल चल रहे हैं ।   सियासी बिसात पर शह और मात का खेल खेला जा रहा है और अखिलेश भी संघर्ष का रास्ता अपनाने को तैयार खड़े बैठे हैं ।  सपा की इस नयी लड़ाई में अब कार्यकर्ता फँस रहे हैं । अबकी बार लग ऐसा रहा है  कि उत्तर प्रदेश में सपा दो पार्टियों में विभाजित हो जाएगी। सूत्रों की मानें तो अखिलेश यादव ने  एक लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के गठन का पूरा मन बना लिया है  और कार्यकर्ताओं को कल  से इसके लिए तैयार रहने के  संकेत भी  दे दिए हैं ।  पहली बार अखिलेश अकेला चलो रे का राग अपनाते दिख रहे हैं  और प्रदेश के अधिकतर लोगों की दृष्टि में अखिलेश ही मौजूद हालातों में सहानुभूति की लहर में सवार होकर यू  पी की बिसात में ढाई चाल चलकर सबका खेल खराब कर सकते हैं और मजबूत युवा राजनेता के रूप में  पहले से ज्यादा निखरकर सामने आ सकते हैं ।  मौजूदा  स्थिति में सबसे असहज स्थिति नेताजी की है। वह  परिवारवाद के जाल में खुद उलझते जा रहे हैं। वह पुत्रमोह में जाएँ या भ्राता  मोह में उलझन  इस बार गहरी हो चुकी है । उन्हें एक रास्ता तो पकड़ना ही होगा ।  जो भी हो इस  प्रकरण से जनता में सपा के प्रति सन्देश  ठीक नहीं जा रहा है । वह भी तब जब यू पी में सियासी बिसात बिछनी  शुरू हो गयी है और आने वाले नए बरस में चुनाव आयोग चुनावी तिथियों की घोषणा करने वाला है । अब सबकी नजरें फिर से नेताजी की तरफ है । 


Saturday, 10 December 2016



शीत युद्ध वह परिस्थिति है जब दो देशों के बीच प्रत्यक्ष युद्ध ना होते हुए भी युद्ध की परिस्थिति बनी रहती है । विश्व इतिहास के पन्नो में झाँकने पर यही परिभाषा हर इतिहास के छात्र को ना केवल पढाई जाती रही है बल्कि विश्व इतिहास की असल धुरी की लकीर इन्ही दो राष्ट्रों अमरीका और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच खिंची जाती रही है लेकिन अभी जिस तर्ज परअमरीका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रम्प और रूस के राष्ट्रपति पुतिन की निकटता बढ़ रही है उसने विश्व राजनीती में पहली बार कई सवालों को लाकर खड़ा कर दिया है ?

दरअसल पिछले दिनों  जिस तरीके से  इन दोनों विश्व के ताकतवर मुल्कों के बीच निकटता देखने को मिली है  उसके संकेतो को अगर डिकोड किया जाए तो लग ऐसा रहा है मानो शीत युद्ध की दशकों की बर्फ अब पिघलने के कगार पर आ खड़ी  हुई है ।  इन दोनों देशों के रिश्ते कई दशकों  से खराब चल रहे थे लेकिन बीते दिनों रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने अमेरिका के साथ दरार पाटने और आतंकवाद से निपटने की कोशिश में सहयोग की आशा जिस तर्ज पर जताई है उससे लग रहा है कि अमेरिका और रूस की नई दोस्ती जनवरी 2017 में  अब परवान चढ़ सकती है । रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने भी सार्वजनिक रूप में इस इच्छा को जाहिर करते हुए कहा है  कि अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दोनों देशों के बीच दूरी पाटने में  मदद करेंगे।

 वैसे दोनों देशों के रिश्ते बेहतर होने के आसार पहली बार अमरीका के इस नए ट्रम्प काल के दौरान नजर आ रहे हैं   जब ट्रंप और पुतिन ने पहली बार फोन पर बात की  । फोन पर दोनों नेताओं ने साझे खतरों , रणनीतिक, आर्थिक मामलों पर लंबी  बातचीत  की । ओबामा के  अब तक के दौर के पन्नों को टटोलें तो हालिया बरसों में दोनों देशों के रिश्तों में  गंभीर तल्खी दिखाई दी । हाल के बरसों में यह भी साफ तौर पर दिखा रूस और अमेरिका उत्तर कोरिया और ईरान जैसे मामलों पर मिलकर काम कर रहे थे लेकिन असल विवाद की जड़ सीरिया ,दक्षिण चीन सागर और यूक्रेन रहा जहाँ  पर दोनों में खुले तौर पर मतभेद पूरी दुनिया के सामने नजर आये । इस बरस भी  दोनों देशों में सीरिया के मामले पर समझौता होने के करीब था लेकिन नहीं हो सका। मौजूदा दौर में रूस अपना ध्यान पूर्वी एशिया की ओर पश्चिम से ठंडे रिश्तों की वजह से नहीं  बल्कि राष्ट्रीय हितों की वजह से कर रहा है ।  राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी इस बात को मान रहे हैं ।  समाचार एजेंसी शिन्हुआ के अनुसार संघीय सदन को अपने वार्षिक संबोधन में रूस के नेता ने इस बदलाव के पीछे किसी अवसरवादी कारणों से इनकार किया है और दोहराया है कि देश की मौजूदा नीति देश के दीर्घकालिक हितों और वैश्विक झुकाव को लेकर है वहीँ अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने घोषणा की है कि मॉस्को के साथ संबंधों को सामान्य बनाना अमेरिका और रूस दोनों के हित में है। उन्होंने स्पष्ट किया कि वह रूस के साथ संबंधों को सामान्य बनाये जाने के विरोधी नहीं हैं। डोनल्ड ट्रंप ने  रूस के साथ संबंधों को सामान्य बनाने में ओबामा सरकार पूरी तरह विफल करार दिया वहीँ  रूस के राष्ट्रपति  पुतीन ने भी वाशिंग्टन और मॉस्को के संबंधों को सामान्य बनाये जाने का स्वागत किया जिसके बाद अमरीका और रूस नई इबारत गढ़ने की दिशा में मजबूती के साथ बढ़ते दिख रहे हैं ।

 बात अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप  की करें तो राष्ट्रपति के चुनाव में सफल होने से पहले चुनाव रैलियों में  हमेशा  रूस के साथ तनाव को कम करने और क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में द्विपक्षीय सहकारिता की अपील लोगो से करते दिखाई दिए । वह शुरुवात से ही अमेरिका और रूस के संबंधों में तनाव नहीं चाहते थे । यही नहीं  चुनावी प्रचार के दौरान  ट्रंप ओबामा को कमजोर प्रशासक कहकर पुतिन की तारीफों के कसीदे पढ़ते दिखाई देते थे ।  वहीँ रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी अब अमेरिका के साथ दरार पाटने और आतंकवाद से निपटने की साझा  कोशिश में सहयोग की अपील कर रहे हैं । मास्को में उन्होंने  इस आशा को जाहिर करते हुए कह दिया है अमेरिका के नए राष्ट्रपति चुने गए डोनाल्ड ट्रंप वाशिंगटन के साथ संबंधों को दुरूस्त करने में मदद कर सकते हैं ।

 दरअसल दोनों देशों के बीच संबंध यूक्रेन सीरिया युद्ध और कई अन्य विवादों को लेकर शीत युद्ध के बाद और ज्यादा खराब हुए थे जो दशकों तक खराब दौर में रहे । ट्रंप  के आने से  पहले रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने अमेरिका और रूस के बीच खराब होते सम्बन्ध को दुनिया के सामने माना था । इसके बाद उन्होंने जोर देकर  ओबामा की नीतियों की दुनिया के सामने मुखालफत की थी । 2013  में दोनों देशों के बीच सीरिया के रासायनिक हथियारों को नष्ट किए जाने की योजना का एक बड़ा समझौता हुआ था लेकिन सीरिया में विद्रोही सेना फ्री सीरियन आर्मी के कमांडर जनरल सलीम इदरीस ने यह समझौता ठुकरा दिया था। उनका कहना था कि उन्हें मॉस्को या दमिश्क में काम कर रहे लोगों पर भरोसा नहीं है। रूस के साथ अमेरिका के संबंध गलत दिशा में उस वक्त चले गए जब पश्चिम के देशों ने सोवियत संघ  के विद्घटन के बाद रूस को एक राष्ट्र के तौर पर सम्मान नहीं दिया। उसे सोवियत संघ  के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा गया  जो कि पश्चिमी देशों के अविश्वास की मुख्य वजह रही है। रूस  मानता है कि शीत युद्ध के बाद से उसके साथ पश्चिमी मुल्कों ने ज्यादती की ।

हालांकि पुतिन अमेरिका के साथ रिश्तों को लेकर संजीदा थे। 2013 में जब अमेरिका के पूर्व सीआईए एजेंट ने रूस में छिपने के लिए आवेदन किया था तब रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने कहा था कि रूस और अमेरिका के  संबंध किसी जासूसी कांड से अधिक महत्वपूर्ण हैं। पुतिन स्नोडेन को चेतावनी दी थी कि उनका कोई भी कार्य जो रूस और अमेरिका संबंधों को क्षति पहुंचाएगा अस्वीकार्य है। अमेरिकी की गोपनीय जानकारी लीक करने के बाद से स्नोडेन वहां अपराध के मामले में वांछित हैं  लेकिन रूस ने उन्हें शरण करने से इनकार कर दिया। स्नोडेन को आखिरकार रूस ने अस्थाई रूप से एक वर्ष के लिए शरण दे दी थी। स्नोडेन को शरण देकर रूस ने अमेरिका के साथ कूटनीतिक मतभेद का खतरा मोल लिया था ज्सिके बाद अमेरिका ने स्नोडेन को शरण दिए जाने की संभावनाओं को बेहद निराशाजनक  बताया था जिसके एक बरस बाद  अमरीका ने रूस के खिलाफ अपना रुख कड़ा करते हुए यह धमकी दी थी कि अगर वह यूक्रेन के तनाव को कम करने के लिए नए अंतरराष्ट्रीय समझौते का पालन करने में विफल रहता है तो उस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाएंगे जिस पर रूस ने तीखी प्रतिक्रिया दी  जिससे दोनों के रिश्ते  काफी तल्ख हुए थे।

2014 में  ऑस्ट्रेलिया में  सम्पन्न  जी 20 देशो की बैठक में भाग लेने गए रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन बीच बैठक को छोड़कर अपने देश लौट गए जिसने अमरीका से लेकर यूरोप तक हलचल मचाने का काम किया ।  इसी दौर में  रूस ने क्रीमिया में कब्ज़ा कर लिया और इसके बाद पुतिन के निशाने पर यूक्रेन आ गया  जहाँ पर कब्ज़ा जमाने और पाँव पसारने की बड़ी रणनीति पर रूस ने काम शुरू भी कर दिया था  और  पश्चिमी देशो की एक बड़ी जमात ने रूस को सीधे अपने निशाने पर लेते हुए युक्रेन में अनावश्यक दखल ना देने की मांग के साथ ही उस पर कठोर प्रतिबन्ध लगाने की घुड़की देने से भी परहेज नहीं किया जिसका असर यह हुआ पुतिन को बीच में ही यह सम्मेलन छोड़ने को मजबूर होना पड़ा ।

क्रीमिया को लेकर भी 2014 के बरस में रूस की मोर्चेबंदी शुरुवात  से ही जारी रही वहीँ जुलाई 2014  में मलेशिया के एम एच  17 विमान गिराने को लेकर भी पूरी दुनिया की निगाहें रूस पर लगी रही जिसमे उसके शामिल होने और संलिप्तता के खूब चर्चे पश्चिम के देशों में हुए ।  क्रीमिया पर टकटकी लगाये जाने से रूस पूरी दुनिया की निगाहों में भी खटका  और  पश्चिम के कई देशों ने पुतिन पर एक के बाद एक तीखा हमला करना शुरू कर दिया ।  शुरुवात  से सुपर पावर अमेरिका ने  कहा  यूक्रेन में रूस का हस्तक्षेप पूरी दुनिया के लिए खतरा है वहीँ  ब्रिटेन की यह धमकी दी कि अगर रूस ने अपने पड़ोस को अस्थिर करना नहीं छोड़ा तो उस पर नए प्रतिबंध लगाए जाएंगे।  रही-सही कसर कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर ने पूरी कर दी। हार्पर ने कहा कि वह उनसे हाथ नहीं  मिलाएंगे । इसके ठीक बाद अमरीका ने अपनी सधी चाल से ऑस्ट्रेलिया के प्रधान मंत्री को साधकर एक प्रस्ताव पास किया जिसमे रूस से मलेशियाई विमान के हादसे में मारे गए लोगो को न्याय देने से लेकर क्रीमिया को मुक्त करने से लेकर यूक्रेन के पचड़े में ना फंसने का अनुरोध किया । इसी प्रस्ताव के आने के बाद पुतिन पश्चिमी देशों के खिलाफ एकजुट हो गए । देखते ही देखते रूस के बैंकों रक्षा और ऊर्जा कंपनियों पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया गया।  यह कार्रवाई रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध कठोर करने के यूरोपीय संघ के फैसले के बाद की गई। यूक्रेन के बहाने अमेरिका ने जो निशाना साधा  उससे रूस को कई तरह के आर्थिक नुकसान होने के आसार बन गये  क्युकि अमरीकी दवाब में अब पश्चिमी देश  और यूरोपियन यूनियन रूस पर आक्रामक रुख अपनाना  शुरू कर दिया जिसमे अमरीका भी रूस के खिलाफ हो गया ।  वैसे यूक्रेन मसले को सुलगाने  में अमेरिका का भी बड़ा हाथ रहा  | 2009 में  नाटो विस्तार के बाद से ही एशियाई देशों में भी कई तरह की गतिविधियां बढ़ी । फिर भी कई एशियाई देशों का अमेरिका की तरफ झुकाव जारी रहा जिसके कारण रूस अब  पहले से अलग-थलग पड़ गया  जिससे उसकी  अर्थव्यवस्था को  नुकसान  भी पहुंचा ।

रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के सहयोगी व्लादीमिर ज़िरीनोवोस्की ने इस बार अमरीकी चुनावों के दौरान दावा करते हुए कहा है कि रिपब्लिकन उम्मीदवार ही एक ऐसे व्यक्ति है जो मास्को और वाशिंगटन के बीच बढ़ रहे तनाव को रोक सकते है। ज़िरीनोवोस्की का यह बयान ऐसे समय में आया  जब सीरिया और यूक्रेन को लेकर रूस और अमेरिका के बीच स्थितियां बेहद तनावपूर्ण हो गई । साथ ही उन्होंने अमेरिका के लोगों के सामने  विकल्प रखते हुए कहा या तो वे आगामी राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप को वोट देकर जिताएं या फिर परमाणु युद्ध का जोखिम उठाएं। इतना ही नहीं रॉयटर्स से बात करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि अगर वे ट्रंप को वोट देते हैं, तो वे इस दुनिया में शांति कायम रखने का विकल्प चुनेंगे  लेकिन अगर वे हिलरी को वोट देते हैं, तो यह युद्ध का चुनाव होगा। दुनिया में हर जगह हिरोशिमा और नागासाकी दिखाई देंगे जिसके बाद ओबामा की पार्टी ने रूस को अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में दखल ना देने की अपील भी की और उसके खिलाफ आँखें भी तरेरी ।

अब अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की जीत से अमेरिका रूस के संबंध सुधारने में मदद मिल सकती है । व्लादिमिर पुतिन और डोनाल्ड ट्रंप दोनों नेता  एक दूसरे की तारीफों में कसीदे भी पढ़ चुके हैं लेकिन अब असल विवाद की जड़ चीन  और पाकिस्तान बन सकता है जिन पर दोनों  का रुख विपरीत है । दक्षिण चीन सागर में रूस इस बरस चीन के साथ  संयुक्त नौसैनिक अभ्यास कर चुका  है। हालांकि यह इलाका दक्षिण चीन सागर के उस विवादित क्षेत्र से दूर है लेकिन रूस का चीन के साथ कदमताल करने का फैसला ट्रम्प की दोस्ती में रोड़ा बन सकता है । अमरीका की तरह  वियतनाम, मलेशिया, ब्रुनेई, ताइवान और फिलीपींस पूरे दक्षिण चीन सागर पर चीन के दावे का विरोध कर रहे  हैं। फिलीपींस  चीन को दक्षिण चीन सागर के मसले पर  अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल हेग  में घेर चुका है जिसका फैसला भी चीन  के खिलाफ आया फिर भी रूस चीन के साथ खड़ा रहा । चीन के महत्वाकांक्षी प्रॉजेक्ट 'वन बेल्ट वन रोड' से भी रूस गदगद है, क्योंकि इसका रास्ता रूस के साइबेरिया से भी गुजरेगा और उसे आर्थिक लाभ होंगे। अब ट्रम्प इस चाल की कौन सी काट निकालते हैं यह देखना होगा ? इसी तरह चीन पाक के करीब है तो रूस भी भारत अमरीका के साथ आने से पाकिस्तान में अपने लिए संभावना देख रहा है । वह  पाकिस्तान के साथ भी सैनिक अभ्यास कर चुका है और बीते दिनों अमृतसर में सम्पन्न हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन में साफ़ कह चुका है अफगानिस्तान को भारत पाकिस्तान के खिलाफ आतंकवाद की लडाई में यूज कर रहा है । यानि रूस चीन और पाक को साधकर एशिया में इस दौर में  नया त्रिकोण बनाना चाहता है । उधर  पाकिस्तान ने निर्यात के लिए सामरिक महत्व के ग्वादर बंदरगाह का इस्तेमाल करने के लिए रूस के अनुरोध को मंजूरी दे दी है जबकि अमरीका के  नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रम्प चीन और पाक के खिलाफ चुनाव पूर्व तीखे बयान दे चुके हैं । वह भारत के पी एम मोदी की तारीफों के पुल बाँध चुके हैं तो पाकिस्तान को आतंकवाद के मसले पर कठघरे में खड़ा करते नजर आये हैं । अब ऐसे में ट्रम्प और पुतिन की दोस्ती किस करवट बैठती है यह देखने लायक बात होगी ।  यह बहुत हद तक ट्रम्प की भावी विदेश नीति के रुख पर निर्भर करेगा वह अब क्या रुख अपनाते हैं । अगर दाव सही पड़ा तो अमरीका और रूस  के बीच दशकों पुरानी शीत  युद्ध की परत पिघल सकती है ।

Monday, 5 December 2016

बहुत याद आएंगी 'अम्मा '





दक्षिण भारत की राजनीति में अम्मा के नाम से मशहूर  तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का सोमवार रात  निधन हो गया। वो बीते 22 सितंबर से अस्पताल में भर्ती थी । वे पूरे 73 दिनों से बीमार थीं लेकिन 13 नवंबर को उनकी सेहत में सुधार और उन्हें अस्पताल  से छुट्टी देने की खबरों के बीच  रविवार शाम अचानक उन्हें  दिल का दौरा पड़ा जिसके बाद उन्हें  सीसीयू में रखा गया था। चेन्नंई के अपोलो हॉस्पि‍टल के बाहर उनके समर्थकों की भारी  भीड़ जमा थी जो रोते-बिलखते नजर आये ।  ये पहला मौका नहीं था , जब जयललिता को लेकर दक्षिण  के लोग  इतने भावुक हुए । बीते बरस  उनकी भ्रष्टाचार मामले में  गिरफ्तारी ने भी एक तरह से तमिलनाडु की गति को थाम दिया था और उनके समर्थकों ने आत्महत्या तक  के प्रयास तक किए थे। देखा जाए तो दक्षिण भारत  उसके राजनेताओं के प्रति भावुक और बेहद संवदेनशील रहा  है। बात फिर चाहे द्रविड़ अांदोलन के ईवीरामास्वा मी पेरियार की हो, या एआईएडीएमके के एम.जी. रामचंद्रन की हो या विमान हादसे में दिवंगत हुए वाई  एस  राजशेखर रेड्डी की या  फिर तमिलनाडु के इतिहास की एक और सर्वाधिक लोकप्रिय राजनेता जयललिता जयराम की। जया की मौत से पूरा तमिलनाडु सडकों पर सैलाब बनकर उमड़ आया  जो यह बताता है तमिल राजनीती में जया का प्रभाव कितना व्यापक था और क्यों लोग उन्हें चाहते थे । 

कभी फिल्मों से राजनीति में दाखिल होने वाली जयललिता ने सोचा भी नहीं होगा  तमिल राजनीति में वह बड़ा मुकाम हासिल करेंगी। लेकिन तमिलनाडु की जनता ने उन्हें सिरमाथे बिठाया। जी रामचंद्रन ने जयललिता को राजनीति के गुर सिखाए। मुख्यमंत्री जयललिता के निधन से तमिलनाडू की राजनीती में जो रिक्तता आई है वह अब आसानी से भरी नहीं जा सकती क्युकि तमिलनाडु की राजनीती लम्बे समय से अम्मा और करूणानिधि के इर्द गिर्द ही घूमती रही है | जया से पहले उनके राजनीतिक गुरू एमजी  एमजीआर का दौर याद करें तो 32 बरस पहले भी उनके चर्चे गली गली में होते थे । संयोग देखिये जी रामचंद्रन भी अस्सी के दसहक में जब बीमार हुए  तो अपोलो  में ही भर्ती हुए । अन्तर सिर्फ इतना रहा जिस अपोलो ने जी रामचंद्रन को नया जीवन दिया कल  उसी अपोलो ने जया के सांसों की धड़कन रोक दी । 1969 में डीएमके पार्टी के करुणानिधि के मुख्यमंत्री बने तो भी तमिल की पूरी राजनीति अन्नाद्रमुक और द्रमुक के इर्द गिर्द ही घूमी | 90 के दशक में में करुणानिधि को पराजित करने के बाद जयललिता पहली बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनी थीं। तब से अब तक वे चाहे सत्तासीन रही हों या विपक्ष में बैठी हों तमिलनाडु के राजनीतिक पटल पर अम्मा की चमक कभी फीकी नहीं पड़ी | उन्होंने एम जी आर की विरासत को ना केवल बखूबी  थामा बल्कि सिल्वर स्क्रीन  की तर्ज पर राजनीती की स्क्रीन पर धूमकेतु की तरह चमककर गरीबों को लाभ देने वाली कई योजनायें लाकर उनके दिलों में राज किया | 22 सितंबर को जया के अस्पताल जाने के दिन से ही उनकी सेहत के बारे में तमाम कयास लगते  रहे लेकिन 5 दिसम्बर की रात साढ़े 11 बजते बजते अम्मा इस दुनिया से विदा हो गई और अपने करोड़ों समर्थकों की आँखें नम कर गई | 


तमिल फिल्मों की लोकप्रिय स्टारजया का जन्म समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था|  उनकी माँ संध्या कैरियर संवारने शाही मैसूर से चेन्नई आ गईं थीं |  जया उन्हीं के रास्ते पर चली और किशोरावस्था में ही उनका रुझान फिल्मों की ओर हो गया | एक्टिंग की शुरुआत के बाद देखते ही देखते वह दक्षिण भारतीय और खासकर तमिल फिल्मों की लोकप्रिय स्टार बन गईं |  नायिका के तौर पर जयललिता का सफर ‘वेन्निरा अदाई’ (द व्हाइट ड्रेस) से शुरू हुआ । जया  ने तमिल फिल्म 'वेन्नीरादई' से डेब्यू किया था, जो श्रीधर के निर्देशन में बनी थी ।  इस फिल्म ने अच्छी कमाई की थी और इस फिल्म के जरिए ही जयललिता ने लोगों के दिलों में अपनी अदाकारी की छाप छोड़ी थी । यही छवि उन्होंने 1972 में डीएमके से अलग होने के बाद तमिलनाडु की राजनीति में भी कायम रखी । जया ने साठ के दशक में पहले तो एमजीआर की हीरोईन के रूप में और फिर उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में कभी भी एमजीआर को, अपने निर्देशकों को, अपने प्रशंसकोंको निराश नहीं किया शायद यही वजह रही पहले फिल्म स्टार के तौर पर वह लोगों के दिलों में बसी और बाद में एक सशक्त राजनेता के तौर पर तमिल राजनीती में अपनी अलहदा पहचान बनाई जहाँ उनकी मर्जी के पत्ता भी नहीं हिलता था |  ऐसा रोजमर्रा के कामकाज में भी दिखता था । जब वह बीमार थी तो उनकी अनुपस्थिति में पूरी कैबिनेट उनकी फोटो सामने रखकर मीटिंग करती थी तो वहीँ  पेनिसेल्लिन भी उनकी फोटो साथ रखकर कामकाज निपटाते थे । 

जयललिता के पास लगातार दो विधानसभा चुनाव जीतने का शानदार रिकॉर्ड रहा । जया ने राजनीतिक गठबंधन का इस्तेमाल अपनी ताकत बढ़ाने के लिए नहीं किया । वह अकेले ही राजनीती की राहों पर निष्कंटक होकर चली शायद यही वजह रही उनकी काम करने की शैली भी अलहदा  रही । 1952 में कुमारस्वामी राजा के बाद वह पहली सीएम बनीं जो 1996 में न सिर्फ विधानसभा चुनाव हार गईं बल्कि धरमपुरी जिले की अपनी बरगुर सीट भी नहीं बचा पाईं इसके बावजूद वह राजनीती के रण में डटी रही । 80 के दशक में राजनीती  में आने के बाद औपचारिक तौर पर उनकी शुरुआत तब हुई जब वह अन्नाद्रमुक में शामिल हुईं | 1987 में एम जी रामचंद्रन के निधन के बाद पार्टी को चलाने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई और उन्होंने व्यापक राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया | रामचंद्रन ने करिश्माई छवि की अदाकारा-राजनेता को 1984 में राज्यसभा सदस्य बनाया जिनके साथ उन्होंने 28 फिल्में की । 1984 के विधानसभा तथा लोकसभा चुनाव में पार्टी प्रभार का तब नेतृत्व किया जब अस्वस्थता के कारण प्रचार नहीं कर सके थे। वर्ष 1987 में रामचंद्रन के निधन के बाद राजनीति में वह खुलकर सामने आईं लेकिन अन्नाद्रमुक में फूट पड़ गई. ऐतिहासिक राजाजी हॉल में एमजीआर का शव पड़ा हुआ था और द्रमुक के एक नेता ने उन्हें मंच से हटाने की कोशिश की लेकिन 21 घंटे वह एम जी आर के पार्थिव शरीर के साथ खडी रही |  बाद में अन्नाद्रमुक दल दो धड़े में बंट गया जिसे जयललिता और रामचंद्रन की पत्नी जानकी के नाम पर अन्नाद्रमुक (जे)और अन्नाद्रमुक (जा) कहा गया । एमजीआर कैबिनेट में वरिष्ठ मंत्री आरएम वीरप्पन जैसे नेताओं के खेमे की वजह से अन्नाद्रमुक की निर्विवाद प्रमुख बनने की राह में अड़चन आई और उन्हें भीषण संघर्ष का सामना करना पड़ा ।  जयललिता ने बोदिनायाकन्नूर से 1989 में तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की और सदन में पहली महिला प्रतिपक्ष नेता बनीं। इस दौरान राजनीतिक और निजी जीवन में कुछ बदलाव आया जब जयललिता ने आरोप लगाया कि सत्तारुढ़ द्रमुक ने उनपर हमला किया और उनको परेशान किया गया। रामचंद्रन की मौत के बाद बंट चुकी अन्नाद्रमुक को उन्होंने 1990 में एकजुट कर 1991 में जबरदस्त बहुमत दिलाई ।  पांच साल के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के आरोपों, अपने दत्तक पुत्र की शादी में जमकर दिखावा और उम्मीदों के अनुरूप प्रदर्शन नहीं करने के चलते उन्हें 1996 में अपने चिर प्रतिद्वंद्वी द्रमुक के हाथों सत्ता गंवानी पड़ी । इसके बाद उनके खिलाफ आय के ज्ञात स्रोत से अधिक संपत्ति सहित कई मामले दायर किये गए  । अदालती मामलों के बाद उन्हें दो बार पद छोड़ना पड़ा ।  

भ्रष्टाचार के मामलों में 68 वर्षीय जयललिता को दो बार पद छोड़ना पड़ा लेकिन दोनों मौके पर वह नाटकीय तौर पर वापसी करने में सफल रहीं | पहली बार 2001 में दूसरी बार 2014 में . उच्चतम न्यायालय द्वारा तांसी मामले में चुनावी अयोग्यता ठहराने से सितंबर 2001 के बाद करीब छह महीने वह पद से दूर रहीं । बेंगलुरू में एक निचली अदालत द्वारा भ्रष्टाचार के एक मामले में दोषसिद्धि के बाद एक बार फिर विधायक से अयोग्य ठहराए जाने पर 29 सितंबर 2014 और 22 मई 2015 के बीच उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा । बाद में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने फैसले को खारिज कर दिया ।  दो बार उन्हें जेल जाना पड़ा। पहली बार तब जब द्रमुक सरकार ने 1996 में भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया और दूसरी बार 2014 में लेकिन जयललिता दोनों मौके पर वापसी करने में सफल रहीं। 

वह पांच बार तमिलनाडु  में मुख्यमंत्री रहीं ।  तीन दशकों बाद इतिहास रचते हुए पार्टी को लगातार जीत दिलाकर वर्ष 2016 में भी उन्होंने सत्ता कायम रखी। जयललिता की लोकप्रियता का आलम यह था कि लोग उन्हें अम्मा के नाम से बुलाते थे ।  2014  के लोकसभा चुनावों में जब पूरा देश मोदी लहर के खुमार में था तो अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु की 39 सीटों में से 37  सीटों पर जीत दर्ज की। इसकी वजह जयललिता की जन कल्याणकारी योजनाएं रहीं। इसने उन्हें आम लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय बनाया। यह जयललिता की राजनीतिक पकड़ मजबूत करने का जरिया कहे या वोट बैंक की पॉलिशी की राज्य के कुल खर्च का 37  फीसदी सब्सिडी पर खर्च होता था । अम्मा ब्रांड के जरिए जयललिता ने लोगों की रसोई तक में अपनी पहुंच बनाई। इस ब्रांड ने बहुत हद तक गरीबों को महंगाई से छुटकारा भी दिलाने की कोशिश की। जयललिता तमिलनाडु की ऐसे नेताओं में शुमार रहीं जिसने अपने करिश्माई व्यक्तित्व से सत्ता पाई। कई बार उठापटक के बाद भी उन्होंने सत्ता हासिल की। उनकी छवि अन्नाद्रमुक के वन मैन लीडर के रूप में बरकरार रही । लेकिन अपने पहले कार्यकाल में धन और शक्ति का बेजा प्रदर्शन और विरोधियों के प्रति आक्रामक रुख ने उन्हें कद्दावर राजनीतिज्ञ भी बनाया। हालांकि तीसरे कार्यकाल जयललिता ने अपनी छवि कल्याणकारी योजनाएं चलाने वाली नेता की गढ़ी।

जयललिता की मौत के बाद अब अन्नाद्रमुक के भीतर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं | बेशक पनीरसेल्वम ने सी एम की  कमान अपने हाथ में ले ली है लेकिन अब पार्टी के भविष्य को लेकर असमंजस है | अरसे से पार्टी का बड़ा चेहरा अम्मा  ही रही है और दूसरे किसी नेता को कभी पार्टी ने आगे नहीं किया | ऐसे में सवाल पूरी पार्टी को एकजुट रखने का है | दशकों से तमिल राजनीति में जया का सिक्का मजबूती के साथ चलता रहा और अन्ना द्रमुक का मतलब अम्मा और अम्मा का मतलब अन्नाद्रमुक रहा तो इसका साफ़ कारण जया ही रही । जया ने  शिक्षा और रोजगार में आरक्षण, लुभावने तोहफे बांटने और अम्मा कैंटीन सरीखी सहित कई  योजनाओं के आसरे तमिल राजनीती में नई लकीर खींच  दी । यही नहीं  गरीबों को सस्ती दरों पर लोकलुभावन उपहार भी उन्होंने अपने  कार्यकाल में दिए जिससे गरीब गोरबा जनता के सामने वह देवी मानी जाने लगी ।  जब वह अपोलो गई तो उनके लाखो समर्थक सडकों पर अपने लोकप्रिय नेता के स्वस्थ होने की कामना करने लगे ।  उत्तर से लेकर दस्क्षण , पूरब से लेकर पश्चिम उनकी सलामती की दुवाएं हर तरफ की जाने लगी जो उनके मॉस लीडर होने की उपयोगिता को साबित कर रहा था । 


जयललिता की मौत के बाद पनीरसेल्वम   मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले चुके हैं लेकिन सबको एकजुट रखने की बड़ी चुनौती अब उनके सामने है । शुरुवात से पनीरसेल्वम को उनका  विश्वासपात्र माना जाता रहा है । पूर्व में भ्रष्टाचार के मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद जयललिता के पद से हटने पर पनीरसेल्वम मुख्यमंत्री बनाए गए थे। उन्हें शासन प्रशासन  चलाने का अच्छा अनुभव भी है । आज भी उन्हें ही मंत्रिमंडल के सदस्यों  ने सी एम बनने का मौका दिया है । इस  दुखद घडी में सबको साथ लेकर चलना जरूरी है । अब तक पार्टी में जया की सहमति  के कोई काम नहीं होता था । ऐसे में अब उनके जाने के बाद पार्टी के सभी निर्णयों में एक राय कायम  करनी मुश्किल हो जायेगी । अन्ना द्रमुक में अब किसी एक चेहरे को संगठनकर्ता की भूमिका में सामने आना होगा । मौजूदा  हालातों में पार्टी में महासचिव की कमान जया  की खास सलाहकार शशिकला संभाल सकती हैं। 

जयललिता के दौर में सरकार और पार्टी में अगर किसी की ठसक थी तो वह शशिकला  ही रही जिन्हें जया का दाहिना हाथ माना जाता था ।  पनीरसेल्वम को भी  सी एम  की कुर्सी  दो  बार मिली तो उसमे शशिकला की रजामंदी  थी।  अब पनीरसेल्वम के सी एम बनने के बाद शायद पूरी  पार्टी को वह अपने नियंत्रण में लें । चुनाव की फंडिंग से लेकर तमिल की हर चुनावी बिसात वह अपने हिसाब से बिछाएं । हालांकि अभी पनीरसेल्वम सी  एम बनाये  गए हैं लेकिन अभी तमिलनाडु में कोई चुनाव भी नहीं है लिहाजा  पनीरसेल्वम को जया के बेहतर विकल्प के रूप में खुद को पेश करने की जरूरत है । उनका आने वाला ट्रेक रिकॉर्ड भी अन्ना द्रमुक के भावी भविष्य को तय करेगा । इस बार तमिल चुनावों के दौरान  जया ने जो चुनावी वादे जनता से करे अब उनको जमीनी हकीकत में उतारने की कठिन चुनौती पनीरसेल्वम  के सामने खड़ी है  जहाँ  से उनको एक नई लकीर तमिल राजनीति में खींचने की जरूरत होगी । उनको खुद को अब साबित करना होगा । 


तमिलनाडु की राजनीती भी जातीय दलदल में उलझी है । सभी लोगों का विश्वास  जीतने की बड़ी चुनौती अब पनीरसेल्वम  के सामने है । पनीरसेल्वम भी तेवर जाति से हैं और शशिकला भी लिहाजा आने वाले समय के मद्देनजर उनको फूंक फूंक  कर कदम रखने की जरूरत है । अगर पार्टी के भीतर कोई नेता असंतुष्ट  हो गया तो पार्टी में बिखराव का खतरा उत्पन्न हो सकता है इसलिए सभी को साधना जरूरी हो चला है ।  उधर जया  की मौत के बाद विपक्षी  द्रमुक की भी सियासी उठापठक में दिलचस्पी  बढ़ सकती है । राजनीती में कुछ भी हो सकता है । आने वाले दिनों में अगर पनीरसेल्वम सही शासन दे पाने में विफल होते हैं तो द्रमुक पनीरसेल्वम के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर अन्ना द्रमुक की ताकत के कमजोर भी कर सकती है । 

पनीरसेल्वम अगर तमिलनाडु में अच्छी सरकार दे पाते हैं तो बहुत संभव हो सकता है पनीरसेल्वम पार्टी में खुद को बड़े नेता के तौर पर स्थापित करने  में सफल हो सकते हैं । उनको अब जया के यस मैन की छवि से बाहर आना पड़ेगा तभी कुछ बात बन पायेगी ।  द्रमुक के मुखिया  करूणानिधि  का स्वास्थ्य भी अभी सही नहीं है । स्टालिन को बेशक उन्होंने कमान दी है लेकिन उनकी पार्टी में भी  यह जगजाहिर ही रहा करूणानिधि के करिश्मे को दोहरा पाना मुश्किल है । पार्टी को उन्होंने फर्श से अर्श तक पहुचाया । यह अलग बात है  टू  जी के भ्रष्टाचार ने उनकी पार्टी की साख मतदाताओं के बीच गिराने का काम किया है । 2014  के लोकसभा चुनाव और इस बरस के विधान सभा चुनावों में द्रमुक की हालात पतली हो गयी । वहां से पार्टी को फिर से उठाना स्टॅलिन के सामने मुश्किल है जब उनके विरोधी भी पार्टी के भीतर बढ़ रहे हैं और हवा द्रमुक के बिलकुल विपरीत दिशा में बह रही है । ऐसे में अन्ना द्रमुक को अगर जनता का विश्वास जीतना है तो जया के अधूरे  काम पूरे करने होंगे । पनीरसेल्वम के पास अभी बहुत समय बचा है । तमिलनाडु  की राजनीती द्रमुक और अन्नाद्रमुक के आगे पीछे ही घूमती रहती है । आने वाले दिनों में भी फिलहाल यही ट्रेंड हमें देखने को मिलेगा । जहाँ तक राष्ट्रीय दलों की बात है तो कांग्रेस की तमिलनाडु में वापसी दूऱ  की गोटी है  । भाजपा दक्षिण में बिना चेहरे के जीत नहीं सकती । हालाँकि संघ का प्रभाव तमिलनाडु के कई हिस्सों में जरूर है लेकिन बिना चेहरों के राजनीती में कोई जंग नहीं जीती जाती । तमिलनाडु में बिना कप्तान के भाजपा  पसार नहीं सकती । भाजपा रजनीकांत पर डोरे डालकर अपनी जमीन मजबूर कर सकती है लेकिन वह उसकेपाले में आएंगे इसकी गारंटी नहीं है । एक दौर में रजनीकांत की जया से निकटता की खबरें आयी थी लेकिन इसे रस बीत गया है । फिर भी राजनीती में कुछ भी संभव है । बड़ा सवाल है क्या रजनीकांत का भाजपा में एक चैनल अगर नहीं खुलता है  क्या  वो जया की पार्टी में अपने लिए संभावना तलाश सकते हैं ? यह फिलहाल भविष्य के गर्भ में है । 

 मौजूदा  दौर ऐसा है जहाँ राष्ट्रीय राजनीती का लोकलाइजेशन हो गया है । अब हर राज्य में छत्रप अपना असर दिखा रहे हैं । विधान सभा में किसी दल की अगर सरकार बन रही है तो यह जरूरी नहीं  महानगर पालिका के चुनावों और केन्द्र के चुनाव में भी वही दल  सत्तासीन हो जाए । ऐसे में अन्नाद्रमुक को जया के अधूरे कामों को आगे बढ़ाने की जरूरत है । जयललिता  की असामयिक मौत के बाद उनके वोटरों में सहानुभूति की लहर भी अन्नाद्रमुक की भावी राह को न केवल आसान कर सकती है बल्कि उसके वोट बैंक को भी नहीं छिटकने  देगी । देखना होगा पनीरसेल्वम जयललिता के जाने के बाद पार्टी को किस तरह संभालते हैं ? फिलहाल इस बारे में कुछ कह पाना बहुत जल्दबाजी होगी ।